पर्यावरण बचाने के लिए घटाना होगा उपभोग

30 Aug 2019
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पर्यावरण बचाने के लिए घटाना होगा उपभोग।
पर्यावरण बचाने के लिए घटाना होगा उपभोग।

अंग्रेजी का ‘एन्वायरमेंट’ शब्द फ्रांसीसी शब्द एनवायरनेट से विकसित हुआ पारिस्थितिकी इस संदर्भ में ‘एन्वायरन्स’ शब्द का प्रयोग पहली बार 1956 में हुआ। 20वीं सदी के छठे दशक से पूर्व के किसी संस्कृत हिंदी ग्रंथ अथवा शब्दकोष में पर्यावरण शब्द का उल्लेख नहीं मिलता। संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी विश्व पर्यावरण दिवस हेतु 1972 में पहली बार निर्देशित किया। प्रथम विश्व पर्यावरण दिवस वर्ष 1974 में मनाया गया। भारत की बात करें तो वर्ष 1985 से पहले भारत में पर्यावरण के नाम पर अलग से कानून नहीं थे। पर्यावरण को एक विषय के रूप में पढ़ने की बाध्यता भी सत्र वर्ष 2005 से पहले नहीं थी। विरोधाभास देखिए कि पर्यावरण की पढ़ाई बढ़ी; बजट बढ़ा; कानून बढ़े; इंतजाम बढ़ें; किंतु पर्यावरण सुरक्षा की गारंटी लगातार घटती जा रही है। क्यों ? क्योंकि शायद हम ऐसा इलाज कर रहेंः ताकि मर्ज बना रहेः इलाज चलता रहे। हम लक्षणों का इलाज कर रहे हैं। पर्यावरण शरण के मूल कारणों की रोकथाम हमारी प्राथमिकता नहीं बन पा रही है। 

भारत ने वर्ष 2030 तक 280 मेट्रिक टन कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन की कटौती की घोषणा की है। कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा तब घटेगी, जब हम कार्बन उत्पादों की खपत घटाएंगे। कार्बन अवशोषण करने वाली प्रणालियां बनाएंगे। ऐसी प्रणालियां बढ़ाने के लिए कचरा होगाः हरियाली और नीलिमा बढ़ानी होगी। खपत घटाने के लिए उपभोग कम करना होगा। उत्पाद चाहे खेत में पैदा हो या फैक्ट्री में, बिना पानी के कुछ नहीं बनता। जैसे ही फिजूल खर्ची घटाएंगे; कागज, बिजली, कपड़ा, भोजन आदि की बर्बादी घटाएंगे; पानी-पर्यावरण दोनों ही बचने लगेंगे।

तापमान में बढ़ोतरी का 90 प्रतिशत जिम्मेदार तो अकेले ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को ही माना गया है। हमने वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा इतनी तेजी से बढ़ाई है कि अगले 11 वर्षों के बाद वायुमंडल में भी ‘नो रूम’ का बोर्ड लटक जाने का अंदेशा पैदा हो गया है। ये नुकसानदेह गैसें हमारे अतिवादी उपभोग की पूर्ति के लिए किए जा रहे उपायों की उपज है या कुछ और ? हमने धरती से इतना पानी खींच लिया है कि आज भारत के 70 फीसदी भूगर्भ क्षेत्र पानी की गुणवत्ता अथवा मात्रा के मानक पर संकटग्रस्त श्रेणी में हैं। हम मिट्टी का इतना दोहन कर चुके हैं कि पिछले कुछ सालों में भारत की 9 लाख 45 हजार हेक्टेयर खेती योग्य भूमि बंजर हो चुकी है। हम इतनी हरियाली हड़प कर चुके हैं कि हमारा राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र रेगिस्तान में तब्दील हो रहा है। हमने उत्पाद और उपयोग की ऐसी शैली अपना ली है जिससे भारत आज हर रोज करीब 1.7 लाख मित्र टन कचरा पैदा करने वाला देश बन गया है। हमने हवा में इतना कचरा फेंक दिया है कि भारत के 100 से अधिक शहर वायु गुणवत्ता परीक्षा में फेल हो गए और स्वश्न तंत्र की बीमारियों से मरने वालों के औसत में भारत दुनिया का नंबर एक देश हो गया है। इन परिस्थितियों के मूल कारण क्या है ? 

मूल कारण है अतिवादी उपभोग और कम पुर्नउपयोग। अधिक उपभोग यानी प्रकृति का अधिक दोहन, अधिक क्षरणः कम पुर्नउपयोग यानी प्रकृति का अधिकाधिक कचरा, अधिक प्रदूषण, अधिक रासायनिक असंतुलन। हमारी अतिवादिता ने प्रकृति से लेने और देने का संतुलन बिगाड़ कर रख दिया है। विषमता यह है कि प्राकृतिक संसाधनों की कुल सालाना खपत का 40 फीसदी वे देश कर रहे हैं, जो जनसंख्या में कुल का मात्र 15 प्रतिशत हैं। बेसमझी यह है कि हम भारतीय भी अधिक उपभोग करने वाले देशों की ही जीवनशैली को अपनाने को विकसित जिंदगी और बढ़ावा देने को असली विकास मान रहे हैं। हम भूल गए हैं कि यदि सारी दुनिया अमेरिकी लोगों जैसी जीवनशैली जीने लग जाए तो 3.9 अतिरिक्त पृथ्वी के बगैर हमारा गुजारा चलने वाला नहीं।

गौर कीजिए कि सरकारी योजनाएं लोगों की क्रय शक्ति बढ़ाने में लगी हैं। बाजार और तकनीक विशेषज्ञ लोगों को सुविधा भोगी बनाने में। ऑफ सीजन मेगा सेल ‘दो के साथ एक फ्री’ का आॅफर ले आ गए हैं। ऑनलाइन शॉपिंग बिना जरूरत की चीज का खुला आमंत्रण दे रही है। ऐसे में आप प्रश्न उठा सकते हैं तो हम क्या करें ? क्या हम आदिवासियों-सा जीवन जीने लग जाएं ? जवाब है कि सबसे पहले हम स्वयं से अपने से प्रश्न करें कि यह खोना है या पाना ?  हम सभी के शुभ के लिए लाभ कमाने की अपनी महाजनी परंपरा को याद करें। हर समस्या में समाधान स्वतः निहित होता है। भारत ने वर्ष 2030 तक 280 मेट्रिक टन कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन की कटौती की घोषणा की है। कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा तब घटेगी, जब हम कार्बन उत्पादों की खपत घटाएंगे। कार्बन अवशोषण करने वाली प्रणालियां बनाएंगे। ऐसी प्रणालियां बढ़ाने के लिए कचरा होगाः हरियाली और नीलिमा बढ़ानी होगी। खपत घटाने के लिए उपभोग कम करना होगा। उत्पाद चाहे खेत में पैदा हो या फैक्ट्री में, बिना पानी के कुछ नहीं बनता। जैसे ही फिजूल खर्ची घटाएंगे; कागज, बिजली, कपड़ा, भोजन आदि की बर्बादी घटाएंगे; पानी-पर्यावरण दोनों ही बचने लगेंगे।

एक किलो चावल पैदा करने में 2000 से 5000 लीटर तक पानी खर्च होता है। हरियाणा सरकार ने पानी की किल्लत से निपटने के लिए किसानों से धान की खेती छोड़ने का आह्वान किया। उन्हें प्रोत्साहित करने के लिए आर्थिक लाभ और अरहर तथा मक्का के मुफ्त बीच की प्रोत्साहन योजना लाई। पानी की सर्वाधिक जरूरत और खपत सिंचाई हेतु ही है। यदि पानी कम है तो वर्षा जल आधारित तथा कम पानी का उत्पादन करें। कम पानी अथवा प्रदूषित पानी होगा तो औद्योगिक उत्पादन करना भी मुश्किल तथा महंगा होता जाएगा। लाभ हमारा है तो हमें खुद पहल करनी चाहिए कि नहीं ? इसके लिए भी हम सरकार की ओर क्यों ताकें ? जाहिर है कि जितनी फिजूलखर्ची घटाएंगे, पुर्नउपयोग बढ़ाएंगे, प्राकृतिक संसाधन उतने अधिक बचेंगे। अतः जितनी जरूरत उतना परोसे, उतना खाए, उतना खरीदें, बर्बाद जरा-सा भी न करें, सादगी को सम्मानित करें। यह चलन अंततः पृथ्वी के आवरण के हर उस अंश को बचाएंगे जिसे हम पर्यावरण कहते हैं।

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