पर्यावरण एवं विकास


14 नवम्बर 1992 को बाल दिवस के अवसर पर नई दिल्ली के तीन मूर्ति भवन में ‘पर्यावरण एवं विकास’ प्रदर्शनी का उद्घाटन करते हुए प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हराव ने पर्यावरण के सम्बंध में कुछ मूलभूत बातों की ओर विचारकों का ध्यान आकर्षित किया है। प्रस्तुत है भाषण के कुछ अंश। प्राचीन भारत में लोग वनों, प्रकृति की गोद में और प्रकृति के साथ तालमेल से रहा करते थे। तब आबादी बहुत कम होती थी और वनों में बहुत कुछ उपलब्ध था, जिससे जीवन-यापन किया जा सकता था। तब जमीन को वापस कुछ देने की आवश्यकता नहीं थी। भूमि पर्याप्त थी और सुन्दर थी। सब कुछ बहुतायत में था। वे छोटे-छोटे समुदाय पर्यावरण के बारे में गलत सिद्धान्तों को पढ़े-समझे बिना ही शांति से रहते थे। वे पर्यावरण के साथ रहा करते थे और पर्यावरण को नुकसान नहीं पहुँचाते थे।

जब मनुष्य ने नदियों के किनारे बसना शुरू किया तो वह पानी का इस्तेमाल करने लगा। पानी का अर्थ है। फसलें और कुछ मामलों में फसलों का अर्थ है लाभ और इस प्रकार धन की अवधारणा अस्तित्व में आई। आप भोजन खाकर संतुष्ट हो सकते हैं किन्तु धन की लालसा को शांत करने का कोई तरीका नहीं है। इस प्रकार समाज के स्थायी मूल्यों तथा जीवन के बीच संघर्ष ने जन्म लिया। जिसके फलस्वरूप आज हम जड़ता में फंसे हुए हैं। हमें इस जड़ता से बाहर निकलने की चेष्टा करनी होगी। हमें कोई भी कीमत चुकाकर और किसी भी तरह का कष्ट झेलकर इससे बाहर निकलना होगा।

विकसशील देशों को भारी कीमत चुकानी होगी क्योंकि हमें या तो जमीन पर रहना है या वन में अथवा जो कुछ प्रकृति की उपज है, उस पर जीवित रहना है। यदि हम वनों का संरक्षण करते हैं तो आज आबादी का जीवित रहना मुश्किल है। इस प्रकार हम ऐसी स्थिति में हैं, जिससे मनुष्य का प्रकृति से टकराव है और यह स्थिति उससे एकदम विपरीत है, जो पहले हुआ करती थी। तब मनुष्य और प्रकृति में मैत्री थी। आज उसे लगता है कि प्रकृति को नष्ट किए बिना उसका जीना असम्भव है।

इस अंतर्विरोध को हल करना होगा इसका समाधान सम्भव है। यह कोई मूलभूत अंतर्विरोध नहीं है। यह कोई अंतनिहित अंतर्विरोध नहीं है। यह कोई अंतर्निहित है, जो हमारे पूर्वजों तथा हमारी वर्तमान पीढ़ी के दोषों का परिणाम है। इसलिए इसे ठीक किया जा सकता है। अतः हमें इस दौर से गुजरना ही है।

हमें बच्चों को समझना यह है कि एक समय था जब हम प्रकृति को नष्ट किए बिना उसके साथ रहा करते थे। हो सकता है कि हम प्रकृति पर भारी पड़ने लगें। हमने सीमा का उल्लंघन किया और आज भी उस सीमा को तोड़ते जा रहे हैं। कोई देश कितनी आबादी को सम्भाल सकता है और इसी के साथ स्थायी विकास का प्रश्न जुड़ा हुआ है। इसलिए यदि संख्या सीमा से अधिक हो जाती है तो विकास धराशायी हो जाता है तथा सतह को फोड़ने लगता है। इस प्रकार एक ओर हम छत को चीर रहे हैं तो दूसरी ओर सतह से नीचे जा रहे हैं। इन दोनों का मेल कहाँ होगा? इस मिलन बिन्दु की तलाश में हम जुटे हैं।

मुझे लगता है कि विकास के जिस रास्ते पर हम चल रहे हैं, उससे हालत सुधरने की बजाय बिगड़ रही है। इस प्रकार यह प्रक्रिया अपने उद्देश्य से विपरीत दिशा में चल रही है। इसे रोकना होगा। हमें विकास के इस पहिए को थामना होगा, हमें वे बहुत सी बातें छोड़नी होंगी, जो दुर्भाग्यवश हमने उन मॉडलों के आधार पर सीखा है, जो हमारे अपने मॉडलों से एकदम भिन्न और बेमेल हैं। सही मॉडल भारत में ही विकसित होगा। दूसरे लोग इसे स्वीकार करें या नहीं, कम से कम हमें उसे अवश्य अपनाना चाहिए। मैं समझता हूँ कि अगले 20 से 30 या 50 वर्षों के भीतर वह संतुलन फिर से कायम हो जाएगा, जो सौ, दो सौ या उससे कम साल पहले बिगड़ गया था।

केवल 200 वर्ष की इस अवधि में पूरा ढाँचा बिगड़ा है और उस स्थिति तक लौटने में इतना समय तो लगेगा ही जिसमें हम उस समय थे जब संतुलन बना हुआ था और उसे भंग करने के कोई बड़े प्रयास नहीं हुए थे। जनसंख्या वृद्धि तथा पेड़ों की कटाई की समस्याएँ नहीं थी।

मैंने आंध्रप्रदेश में एक संरक्षित वन के निर्वाचन क्षेत्र का 20 वर्ष तक प्रतिनिधित्व किया है। 1957 में पहले आम चुनाव में जब हम वहाँ गए तो वहाँ कोई सड़क नहीं थी और कुछ भी नहीं था। वोट मांगने के लिये लोगों के पास हम बैलगाड़ियों में वहाँ गए। हमने सड़कें बनाने का वायदा किया। उस चुनाव क्षेत्र में मैंने अपने जीवन की सबसे बड़ी गलती यही की कि वहाँ सड़कें बनाने का वायदा किया और सड़कें बनवाई। हमने उन्हें सड़कें दीं। वे जंगल इतने घने थे कि हमें मतदाताओं से ज्यादा शेरों के दर्शन होते थे। 20 वर्ष बाद हालत यह हो गई कि शेर तो दूर, वहाँ अच्छे तने वाला सागवान का पेड़ भी दिखाई नहीं देता था और यह सब उन सड़कों तथा हमारे लोभ का नतीजा है। यदि वे लोग उन जंगलों में ही रहते तो जो कुछ वहाँ से उन्हें मिलता, उसी से संतुष्ट रहते। जंगलों का इतना नुकसान न होता। सड़कें बनीं, उन पर ट्रक चले, काटने वाले पहुँचे, तस्कर पहुँचे और ठेकेदार पहुँचे।

आप ठेकेदारों की इस बिरादरी को जानते हैं। उनमें बहुत गहरी राष्ट्रीय-एकता होती है। किसी तरह की कोई बाधा-रुकावट नहीं होती। वह देश के एक कोने से दूसरे कोने तक जाएगा और रास्ते में सबसे दोस्ती करता जायेगा और इससे पहले कि किसी को खबर हो, वह जंगलों का सफाया कर डालेगा। जंगल के ये ठेकेदार सचमुच गजब के लोग हैं। यही हुआ है 20 वर्ष तक मैंने अपनी आँखों से वनों को, भारत के सर्वश्रेष्ठ वनों में से एक वन को उजड़ते देखा है। यदि हम इस तरह अपनी वन सम्पदा का दोहन करेंगे तो मेरे विचार में भगवान भी हमारी मदद नहीं करेंगे। हमें इसे रोकना ही होगा। हमें उस मामले में निर्भय होकर कारवाई करनी होगी, चाहे कुछ भी हो जाएँ।

तब हमें एक लड़ाई लड़नी होगी। कल की लड़ाई पर्यावरण के क्षेत्र में लड़ी जाएगी। यह लड़ाई टकराव वाली लड़ाई नहीं है। यही इस लड़ाई का बुरा पहलू है। आप अपने सामने वालों से टक्कर भी नहीं ले सकते और उससे सहमत भी नहीं हो सकते। आप करेंगे? आपको उसे समझाना पड़ेगा, माथा पच्ची करनी होगी तथा सही बात उसके दिमाग में बिठानी होगी। यह बहुत लम्बी और कष्टदायी प्रक्रिया है, किन्तु आपको यही करना पड़ेगा और कोई प्रक्रिया है ही नहीं क्योंकि यहाँ कोई शीत युद्ध नहीं है, दो गुट नहीं हैं, कोई टकराव नहीं है। आप सभी एक ही गुट के सदस्य हैं, किन्तु एक दूसरे को नष्ट कर रहे हैं। इस प्रकार एक गुट में, उसी गुट में भी विनाश सम्भव है। यह सिद्ध हो गया है।

हम एक ही बात कहते हैं कि हमें अपने वन बचाने हैं, हम उनका आवश्यकता से अधिक दोहन न करें। अनुसंधान और विकास के जरिए उन चीजों के लिये विकल्प तैयार करें, जिन्हें इस्तेमाल करने के लिये हम इस समय वनों को काट रहे हैं, इसके लिये सब तरह की टेक्नोलॉजी का सहारा लेना होगा।

सौभाग्यवश हम स्वच्छ टेक्नोलॉजी की दृष्टि से पश्चिमी देशों से पीछे नहीं है। प्रदूषण करने वाली तथा वनों का दोहन करने वाली टेक्नोलॉजी उन देशों के पास बहुत बड़े पैमाने पर थी और दुर्भाग्यवश हम उन्हीं की नकल करते रहे हैं तथा उन्हीं तकनीकों को अपनाते रहे हैं। हमें तुरन्त यह फैसला करना होगा कि जो टेक्नोलॉजी प्रकृति तथा पर्यावरण के लिये हानिकारक होगी, उससे हमारा कोई सरोकार नहीं होगा। उनके लिये टेक्नोलॉजी को त्यागना भले ही मुश्किल हो, किन्तु हमारे लिये टेक्नोलॉजी को न अपनाना मुश्किल नहीं होगा। इस प्रकार इस दृष्टि से हमारा काम आसान है और उन्हें कह सकते हैं कि माफ कीजिए, हमें यह टेक्नोलॉजी नहीं चाहिए, कोई और दीजिए। यदि आपने ऐसी टेक्नोलॉजी अभी विकसित नहीं की है तो हम और आप मिलकर उसका विकास कर सकते हैं क्योंकि हमारे यहाँ अनुसंधान और विकास का अत्यन्त उन्नत आधार है। बस हमें कुछ अधिक पूँजी और कुछ और संसाधन लगाने की आवश्यकता है और तब जो टेक्नोलॉजी विकसित होगी वो किसी भी दूसरे देश की टेक्नोलॉजी की तुलना में उन्नीस नहीं होगी। इस तरह हम फायदे की स्थिति में हैं। इमें अपने देश की पुरानी और लम्बी संस्कृति का लाभ प्राप्त है, जिसमें पर्यावरण से ताल-मेल की परम्परा विद्यमान है जो अन्य देशों को प्राप्त नहीं है। उन्हें सब बातें नये सिरे से सीखनी हैं। हमें तो वे बातें भूलनी हैं जो हमने पिछले डेढ़-दो सौ वर्षों में सीखी हैं और उस स्थिति की ओर लौटना है, जिसमें हम पहले थे। हम अधिक प्रसन्न व सुखी होंगे क्योंकि हम अपनी सांस्कृतिक परम्परा की ओर लौट रहे होंगे। यही भारत के लिये भावी सम्भावनाएँ हैं।

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