पर्यावरण के लिये भीषण खतरा हैं बाँध

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पनबिजली परियोजनाओं के निर्माण के लिये इलाके में बड़ी तादाद में लोगों के आने से जंगली जानवरों के शिकार में बढ़ोत्तरी होगी, जंगल खत्म होंगे, नई सड़कें बनेंगी, साथ ही कामगारों के रहने के लिये घर बनाने होंगे। इससे इस इलाके में पाई जाने वाली पुरानी और अभी हाल-फिलहाल में पाई गई नई प्रजातियों के संरक्षण पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। सच तो यह है कि आज भारत समेत दुनिया के बड़े बाँधों को ग्लोबल वार्मिंग के लिये जिम्मेदार माना जा रहा है। आज बाँधों से हो रहे पर्यावरण विनाश को लेकर सर्वत्र चर्चा जोरों पर है। इस बारे में बरसों से दुनिया के पर्यावरणविद चेता रहे हैं कि बाँध पर्यावरण के लिये भीषण खतरा बन चुके हैं लेकिन हमारी सरकार उनकी बातों को बराबर अनसुना कर बाँधों को विकास का प्रतीक बताने का ढिंढोरा पीट रही है जबकि असलियत इसके उलट है। कैग की रिपोर्ट ने यह साबित भी कर दिया है। उत्तराखण्ड और पूर्वोत्तर इसका ज्वलन्त प्रमाण है।

कैग की रिपोर्ट और पर्यावरणविदों के विरोध के बावजूद हमारी सरकार उत्तराखण्ड और पूर्वाेत्तर में बड़े बाँधों के जरिए विकास का नमूना दिखाना चाह रही है। उत्तराखण्ड में तो महीनों प्रो. जी. डी. अग्रवाल अब स्वामी सानंद इस बाबत आमरण अनशन कर चुके हैं और युवा सन्यासी स्वामी निगमानंद अपने प्राणों की आहुति भी दे चुके हैं। विडम्बना है कि इसके बावजूद सरकार देश में बाँध निर्माण पर अडिग है। पूर्वोत्तर में तो दिवांग नदी पर 288 मीटर ऊँचा बाँध बनाया जा रहा है।

वहाँ इसी नदी पर आठ और बाँध बन रहे हैं। सुवनसिरी व भूटान की आई नदी पर बनने वाले बाँध को मिलाकर पूर्वाेत्तर में कुल 250 से अधिक नए बाँध बनने हैं। इन बाँधों से समूची ब्रह्मपुत्र नदी पर आने वाले भीषण संकट को नकारा नहीं जा सकता। उस हालत में जबकि यह समूचा क्षेत्र भूकम्पीय क्षेत्र पाँच में आता है और यहाँ भू-स्खलन हमेशा होता रहता है।

असलियत में बाँधों ने पर्यावरणीय शोषण की प्रक्रिया को गति देने का काम किया है जबकि बाँध समर्थक इसके पक्ष में सिंचाई, जल, विद्युत आदि सुविधाओं, रोजगार और मत्स्यपालन आदि कार्यों में बढ़ोत्तरी का तर्क देते हैं। वे बाँधों को जल का प्रमुख स्रोत बताते नहीं थकते। जबकि विश्व बाँध आयोग के सर्वेक्षण से स्पष्ट होता है कि बाँध राजनेताओं, प्रमुख केन्द्रीयकृत सरकारी-अन्तरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं और बाँध निर्माता उद्योग के अपने निजी हितों की भेंट चढ़ जाते हैं। लेकिन हमारी सरकार है कि वह दूसरे देशों से सबक लेने को तैयार नहीं है जो अपने यहाँ बाँधों को खत्म कर रहे हैं।

विडम्बना यह है कि सरकार उस हालत में नए बाँधों के निर्माण को प्रमुखता दे रही है जबकि खतरनाक स्थिति में पहुँच चुके 50 साल से पुराने तकरीब 655 बाँधों के रखरखाव के लिये व भूकम्प, बाढ़, मौसमी प्रभाव और सामान्य टूट-फूट से होने वाले क्षरण से उपजी समस्याओं के निदान तथा बाँधों के खतरे के आकलन सम्बन्धी अध्ययन करने के लिये जल संसाधन मंत्रालय के पास न तो कोई योजना ही है और न ही उसके लिये कोई बजट ही निर्धारित किया गया है।

जहाँ तक बाँध सुरक्षा समिति का सवाल है, मात्र सलाह देने के अलावा उसके पास कोई अधिकार नहीं है। यह सरकारी लापरवाही की जीती-जागती मिसाल है।

गौरतलब है कि चीन के वैज्ञानिकों ने भी इस बात का खुलासा किया है कि बाँध पर्यावरण के लिये खतरा हैं। वहाँ की युन्नान प्रान्त की दाली यूनीवर्सिटी के पारिस्थितिकीय विशेषज्ञों ली छेंग तथा झाओ चाओ ने यह स्पष्ट कर दिया है कि अरुणाचल प्रदेश के पास तिब्बत में बन रहा दुनिया का सबसे बड़ा बाँध पर्यावरण के लिये भीषण खतरा है।

विशेषज्ञों ने इस समेत दुनिया के विभिन्न बाँधों का निर्माण रोके जाने का आह्वान करते हुए कहा है कि इन पनबिजली परियोजनाओं से क्षेत्र में हाल ही में खोजे गए मैकाक बन्दरों के आवास को गम्भीर खतरा है। उनका मानना है कि पनबिजली परियोजनाओं के निर्माण से नदियों में बाढ़ आ सकती है। इससे उन इलाकों में भारी विनाश होगा जहाँ मैकाक बन्दरों के सम्भावित ठिकानें हैं।

विशेषज्ञों के अनुसार पनबिजली परियोजनाओं के निर्माण के लिये इलाके में बड़ी तादाद में लोगों के आने से जंगली जानवरों के शिकार में बढ़ोत्तरी होगी, जंगल खत्म होंगे, नई सड़कें बनेंगी, साथ ही कामगारों के रहने के लिये घर बनाने होंगे। इससे इस इलाके में पाई जाने वाली पुरानी और अभी हाल-फिलहाल में पाई गई नई प्रजातियों के संरक्षण पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। सच तो यह है कि आज भारत समेत दुनिया के बड़े बाँधों को ग्लोबल वार्मिंग के लिये जिम्मेदार माना जा रहा है।

सबसे बड़ी बात यह है कि ब्राजील के वैज्ञानिकों के शोध ने तो इस तथ्य का खुलासा कि बाँध पर्यावरण के लिये भीषण खतरा हैं, कर इसकी पुष्टि कर दी है। उससे स्पष्ट हो गया है कि दुनिया के बड़े बाँध 11.5 करोड़ टन मीथेन वायुमण्डल में छोड़ रहे हैं। भारत के बाँध कुल ग्लोबल वार्मिंग के पाँचवें हिस्से के लिये जिम्मेदार हैं। वे सालाना तीन करोड़ 35 लाख टन मीथेन वायुमण्डल में छोड़ रहे हैं। इससे स्थिति की भयावहता का सहज अन्दाजा लगाया जा सकता है।

वैज्ञानिकों का दावा है कि दुनिया के कुल 52 हजार के लगभग बाँध और जलाशय मिलकर ग्लोबल वार्मिंग पर मानव की करतूतों के चलते पड़ने वाले प्रभाव में चार फीसदी का योगदान कर रहे हैं। इस तरह इंसानी करतूतों से पैदा होने वाली मीथेन में बड़े बाँधों की अहम् भूमिका हैै।

हमारे यहाँ मौजदा समय में कुल 5125 बड़े बाँध हैं जिनमें से 4728 तो तैयार हैं और 397 निर्माणाधीन हैं। भारत में बड़े बाँधों से कुल मीथेन का उत्सर्जन 3.35 करोड़ टन है जिसमें जलाशयों से 11 लाख टन, स्पिलवे से 1.32 करोड़ टन और पनबिजली परियोजनाओं के टरबाइनों से 1.92 करोड़ टन मीथेन का उत्सर्जन होता है।

वैज्ञानिकों के अनुसार भारत के जलाशयों से कुल मीथेन का 4.58 करोड़ टन उत्सर्जन हो सकता है। ब्राजील के नेशनल इंस्टीटयूट फॉर स्पेस रिसर्च के वैज्ञानिकों द्वारा किया गया शोध यह मिथक तोड़ता है कि बड़ी पनबिजली परियोजनाओं से पैदा होने वाली बिजली साफ होती है और वह पर्यावरण पर दुष्प्रभाव नहीं डालती है।

अभी तक यह माना जाता रहा है कि बिजली बनाने में बाँध में पानी जमा करके उससे टरबाइनों को चलाना सभी दृष्टि से सबसे सुरक्षित होता है। असल में बाँधों के निर्माण से लोगों के विस्थापन और कुछ पर्यावरणीय अड़चनों के अलावा अभी तक बाँधों के सामने कोई बड़ी समस्या आड़े नहीं आई है। लेकिन बदली स्थिति में वैज्ञानिकों के अनुसार बाँधों में जमा होने वाली गाद के साथ-साथ अधिकाधिक मात्रा में आर्गेनिक मैटीरियल भी जमा होते हैं जिनका विघटन मीथेन पैदा करता हैै।

बाँधों की आयु के अनुसार मीथेन की मात्रा भी स्वाभाविकतः बढ़ती जाती है। जबकि हमारे देश में तो 10.11 फीसदी बाँध 50 साल और 2.66 फीसदी बाँध 100 साल से भी ज्यादा पुराने हैं। ऐसी स्थिति में मीथेन की मात्रा तो बढ़ेगी ही।

आँकड़ों के अनुसार चीन द्वारा सालाना 44 लाख टन बड़े बाँधों से मीथेन छोड़ी जाती है जबकि भारत के बाँध उससे 7.5 गुणा से ज्यादा मीथेन छोड़ रहे हैं। तात्पर्य यह है कि 42.5 करोड़ टन कार्बन डाइऑक्साइड के बराबर भारत के बाँध मीथेन का उत्सर्जन करते हैं। कारण यह है कि भारत उष्ण कटिबन्धीय क्षेत्र में आता है और तापमान की वृद्धि मीथेन उत्सर्जन बढ़ाने में अहम् भूमिका अदा करती है।

यह सही है कि ग्रीन हाउस गैसों में मीथेन दूसरी बड़ी प्रदूषक गैस (कार्बन डाइऑक्साइड का भाग 72 फीसदी व मीथेन का 23 फीसदी) है। भारत में बड़े बाँधों पर जो आँकड़े उपलब्ध हैं, उन पर दृष्टिपात करें तो यह लगता है कि भारत के बाँधों से उत्सर्जित मीथेन का यह अनुपात थोड़ा ज्यादा हो सकता है। अनुमानतः यह 1.7 करोड़ टन सालाना के आस-पास तो होना चाहिए।

इसकी भारत में सन् 2000 में अधिकारिक तौर पर उत्सर्जित 184.9 करोड़ टन कार्बन डाइऑक्साइड से तुलना करें जिसमें बड़े बाँधों से होने वाला उत्सर्जन शामिल नहीं है, तो स्पष्ट है कि भारत में कुल कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन का 18.7 फीसदी बड़े बाँधों से होने वाला मीथेेन है। हमारी परेशानी यह है कि हमारा देश सालाना 3.35 करोड़ टन मीथेन छोड़ता है जबकि ब्राजील 2.18 करोड़ टन। उसका नम्बर दुनिया में मीथेन छोड़ने वाले देशों में भारत के बाद दूसरा है।

आज समूचे विश्व में हाइड्रो पॉवर पर निर्भरता तेजी से बढ़ती जा रही है। भारत भी इस दिशा में तेजी से आगे बढ़ रहा है। उस हालत में ब्राजील की शोध रपट भारत ही नहीं अन्य विकसित राष्ट्रों के लिये भी खतरे की घंटी है। यह अध्ययन ग्लोबल वार्मिंग के बढ़ते खतरों की ओर आगाह जरूर करता है।

भले भारत ऊर्जा की नई टेक्नोलॉजी स्वैच्छिक तौर पर अपनाने में लगा है, फिर भी अब भारत सरकार के ऊपर निर्भर है कि वह बड़े बाँधों से ग्लोबल वार्मिंग के असर का पता लगाने की दिशा में क्या कदम उठाती है क्योंकि औद्योगिक दुनिया में तेजी से अपनी हैसियत बढ़ा रहा भारत ग्लोबल वार्मिंग के लिये कम जिम्मेवार नहीं है। इस पर विचार किया जाना चाहिए कि ऊर्जा के लिये बाँध कहाँ तक उचित हैं और ये पर्यावरण के लिये कितना बड़ा खतरा साबित हो रहे हैं? संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के एशिया प्रशान्त क्षेत्र के निदेशक के अनुसार ‘हम सब एक तरह के बिजली के कम्बल को ओढ़े हुए हैं। इसलिये कुछ करना होगा। क्योंकि कोई भी देश ग्लोबल वार्मिंग के दुष्प्रभावों से अपने आस-पास हो रहे पर्यावरण क्षरण से बचा नहीं रह पायेगा।’

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