पर्यावरण की अनदेखी कर रही है सरकार

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विकास रथ पर आरूढ़ सरकार जब दुनिया के देश अपने यहाँ से बाँधों को खत्म करने पर तुले हैं, देश में हजारों बाँधों का जाल बिछाने पर आमादा हैं। अकेले उत्तराखण्ड में ही 558 बाँध परियोजनाओं पर काम जारी है। जबकि बाँध पर्यावरण के लिये खतरा हैं, अब यह बात साबित हो चुकी है। सरकार गंगा की अविरलता की बात करती है जबकि गंगा के मायके उत्तराखण्ड में ही गंगा को सुरंगों में कैद कर दिया है। उस स्थिति में गंगा की अविरलता की बात बेमानी और जनता को धोखे में रखने के सिवाय कुछ नहीं है। पर्यावरण रक्षा का सवाल अकेले हमारे देश के लिये ही नहीं, वरन समूचे विश्व के लिये अहम है। असलियत यह है कि इस सम्बन्ध में बातें तो बहुत की जाती हैं, समय-समय पर दावे-दर-दावे किये जाते हैं, लेकिन इसके बावजूद होता कुछ नहीं। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि मौजूदा सरकारों के विकासवादी दृष्टिकोण में पर्यावरण रक्षा का सवाल कोई अहमियत नहीं रखता। वह बात दीगर है कि समूची दुनिया के कमोबेश अधिकांश देश वर्तमान में पर्यावरण संरक्षण के सवाल पर एकमत दिखाई देते हैं।

लेकिन विडम्बना यह कि जब पर्यावरण संरक्षण कार्यक्रम के अमल में लाने की बात आती है तो वे बगलें झाँकने लगते हैं या यूँ कहें कि इस मामले में तब वे असमर्थ दिखाई देते हैं। जबकि अब यह जगजाहिर है कि जलवायु परिवर्तन पर्यावरण के लिये गम्भीर खतरा है। यही नहीं मौसम में बदलाव की पर्यावरण असन्तुलन में बहुत बड़ी भूमिका है। तापमान में बदलाव इसका प्रमुख कारण है। जबकि अब इसमें किंचित मात्र भी सन्देह नहीं है कि तापमान में बदलाव की यदि यही रफ्तार रही तो आने वाले पचास से सौ सालों में धरती का तापमान इस कदर बढ़ जाएगा कि तब उसका मुकाबला कर पाना असम्भव हो जाएगा।

दुख इस बात का है कि इस सबके बावजूद पर्यावरण रक्षा के सवाल पर सरकारों की उदासीनता समझ से परे है। बिल्कुल यही स्थिति हमारे देश की है। भले ही हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर्यावरण रक्षा का देशवासियों से संकल्प लेने का आह्वान करें, लेकिन असल में सरकार के क्रियाकलाप इसके बिल्कुल उलट हैं। इस सच्चाई को झुठलाया नहीं जा सकता।

देखा जाये तो हमारे पर्यावरण नीति में स्पष्ट उल्लेख है कि प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर समाज की किसी भी कीमत पर अनदेखी नहीं की जा सकती। इसलिये पेड़-पौधों, जंगलों, नदियों, ग्लेशियरों और पर्यावरण संरक्षण में अहम भूमिका निभाने वालों की आजीविका की रक्षा करना बेहद जरूरी है। उसके अनुसार उचित मॉनीटरिंग व पुनरीक्षण के द्वारा आर्थिक, सामाजिक, पर्यावरणीय आवश्यकताओं के मध्य सन्तुलन की जरूरत है। सबसे बड़ी बात यह कि स्वस्थ पर्यावरण बनाए रखना केवल सरकार की ही जिम्मेवारी नहीं है, बल्कि हरेक नागरिक का यह परम कर्तव्य है, दायित्व है कि वह पर्यावरण की रक्षा के लिये आगे आये। इसके लिये जरूरी है कि सरकार समाज के साथ मिलकर उचित पर्यावरण प्रबन्धन का वातावरण बनाए। अब सरकार के क्रियाकलापों पर भी दृष्टिपात करें।

‘नमामि गंगे’ हमारे प्रधानमंत्री जी की महत्त्वाकांक्षी परियोजना है। इसे सफलीभूत बनाने के लिये केन्द्र सरकार के सात मंत्रालयों की प्रतिष्ठा दाँव पर लगी है। इस परियोजना के तहत तकरीब तीस हजार हेक्टेयर से अधिक जमीन पर वनीकरण कहें या वृक्षारोपण का लक्ष्य रखा गया है। इसके विपरीत देश के हिमालयी क्षेत्र के राज्य उत्तराखण्ड में गंगा के उद्गम गंगोत्री से हर्षिल के बीच हजारों की तादाद में देवदार के हरे-भरे पेड़ों को काटे जाने का प्रस्ताव है।

विडम्बना यह कि पेड़ों के कटान के लिये देवदार के उन पेड़ों को चिन्हित किया गया है जो न तो सूखे हैं और न उनकी उम्र छँटाई के योग्य ही है। इस बारे में दलील दी जा रही है कि यह सब ‘ऑल वेदर रोड’ यानी हर मौसम में ठीक रहने वाली सड़क की खातिर किया जा रहा है। समझ नहीं आता कि हिमालयी क्षेत्र में इतनी चौड़ी सड़क के निर्माण का क्या औचित्य है और यह कहाँ तक न्यायोचित है?

ग्लेशियरों के मलबों के ऊपर खड़े पहाड़ों को थामने वाली इस वन सम्पदा का विनाश कहाँ तक शुभ है?

गौरतलब है कि यह सब तब हो रहा है जबकि केन्द्र सरकार ने ही गंगोत्री क्षेत्र के चार हजार वर्ग किलोमीटर इलाके को ‘इको सेंसटिव जोन’ यानी ‘पर्यावरणाीय दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्र’ घोषित कर रखा है। ऐसा करने के पीछे सरकार की यह मंशा थी कि गंगा किनारे हरित एवं कृषि क्षेत्र का विस्तार हो। यह क्षेत्र गंगा का उद्गम क्षेत्र है। यहाँ पर राई, कैल, बुरांस, मुरेंडा, देवदार, खर्सू, मौरू, नैर, थुनैर, दालचीनी, बांज आदि शंकुधारी एवं चौड़ी पत्ती वाली दुर्लभ प्रजातियाँ बहुतायत में पाई जाती हैं।

एक तरह से इन बहुमूल्य प्रजातियों का यह इलाका उनका घर कहा जाये तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। इस इलाके में उगने वाली ये वनस्पतियाँ ‘रेन फेड फॉरेस्ट’ यानी वर्षा वाली प्रजातियों के रूप में विख्यात हैं। इनके चलते यहाँ हर समय बारिश की सम्भावना रहती है। इन्हीं वनस्पतियों, जड़ी-बूटियों, और इनके बीच बहकर आती जल धाराएँ गंगाजल की गुणवत्ता पूर्ण निर्मलता बनाएँ रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। ये वनस्पतियाँ, पेड़-पौधे, प्रजातियाँ ग्लेशियरों के टूटने के दुष्परिणाम से हमारी रक्षा करती हैं। सच कहें तो देवदार प्रधान ये वन ही हिमालय और गंगा के हरित प्रहरी हैं। ग्लेशियरों के तापमान को सन्तुलित रखने में इनकी भूमिका को नकारा नहीं जा सकता।

यहाँ यह जान लेना जरूरी है कि हमारे यहाँ जबसे जल, जंगल, जमीन की रक्षा से जुड़े संघर्ष सामने आये हैं, इनमें चिपको, अप्पिको, रक्षा सूत्र आदि अधिकांश आन्दोलनों की अहम भूमिका है। तब से ही पर्यावरणीय दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्रों की पहचान होना शुरू हुई। इस कटु सत्य को नकारा नहीं जा सकता। उसी समय कुछ ऐसे क्षेत्र भी उजागर हुए जहाँ प्रकृति यानी पर्यावरणीय दृष्टि से थोड़ी सी भी छेड़छाड़ के बहुत ही भयावह परिणाम सामने आये और उन इलाकों को भीषण आपदाओं का सामना भी करना पड़ा। उत्तराखण्ड इसका जीता-जागता प्रमाण है। ऐसे इलाकों में विकास हेतु बनी योजनाओं में स्थानीय लोगों की भागीदारी जहाँ नगण्य रही या इसे यूँ कहें कि उन योजनाओं में इनको सहभागी बनाने में सरकारें पूरी तरह नाकाम रहीं तो गलत नहीं होगा।

यही नहीं जैवविविधता के संरक्षण के नाम पर बने राष्ट्रीय उद्यान हों या अभयारण्य इसके जीते-जागते सबूत हैं कि उनसे स्थानीय निवासियों का जीवन संकट में पड़ गया है। वे दर-दर की ठोकरें खाने को विवश हैं। जबकि पर्यावरण नीति में स्पष्ट उल्लेख है कि ऐसी योजनाओं में स्थानीय संस्थाओं और वहाँ के समाज की पर्याप्त और समुचित भागीदारी होनी चाहिए।

बीते दिनों एक केन्द्रीय मंत्री तक ने बड़े गर्व से यह घोषणा की कि आने वाले दिनों में हिमालयी क्षेत्र में पर्यटन के विकास की दृष्टि से जगह-जगह पर्यटक स्थल और केन्द्र बनाए जाएँगे। जाहिर सी बात है कि इस हेतु सड़कों का जाल बिछाया जाएगा और जहाँ सड़कें छोटी हैं उन्हें चौड़ा किया जाएगा ताकि पर्यटकों की बड़ी-बड़ी गाड़ियों के आवागमन में सुविधा हो सके।

गौरतलब है कि जब एवरेस्ट पर पर्वतारोहियों द्वारा छोड़े गए कूड़े-कचरे के ढेर को हटा पाना टेड़ी खीर है, उससे बुरी और दयनीय स्थिति का सामना इस हिमालयी इलाके में अपने आर्थिक लाभ की खातिर पर्यटन को बढ़ावा देने वाली इस सरकारी नीति से देश को करना पड़ेगा। इससे इस क्षेत्र की शान्ति तो भंग होगी ही, पर्यावरण बुरी तरह प्रभावित होगा, प्रजातियों का विलोपन होगा, जैवविविधता और पारिस्थितिकी तंत्र पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा सो अलग। सबसे बड़ी बात यह कि पूरा हिमालयी क्षेत्र कूड़े घर में तब्दील हो जाएगा। उस स्थिति में दिल्ली सरकार की तरह एनजीटी को केन्द्र सरकार से कहना पड़ेगा कि यहाँ कूड़े के पहाड़ कब खत्म होंगे।

यही नहीं विकास रथ पर आरूढ़ सरकार जब दुनिया के देश अपने यहाँ से बाँधों को खत्म करने पर तुले हैं, देश में हजारों बाँधों का जाल बिछाने पर आमादा हैं। अकेले उत्तराखण्ड में ही 558 बाँध परियोजनाओं पर काम जारी है। जबकि बाँध पर्यावरण के लिये खतरा हैं, अब यह बात साबित हो चुकी है। सरकार गंगा की अविरलता की बात करती है जबकि गंगा के मायके उत्तराखण्ड में ही गंगा को सुरंगों में कैद कर दिया है। उस स्थिति में गंगा की अविरलता की बात बेमानी और जनता को धोखे में रखने के सिवाय कुछ नहीं है।

समय की माँग है कि अब पर्यावरण की रक्षा की लड़ाई लड़ रहे सभी संगठनों को एक मंच पर आकर अपने संघर्ष को तेज करना होगा। इसे जनान्दोलन का स्वरूप देना होगा। सबसे पहले सभी को मिलकर देश को पर्यावण प्रदूषण से मुक्ति दिलानी होगी। अपनी जीवनशैली बदले बिना इसकी उम्मीद बेमानी है। इसके अलावा कोई विकल्प नहीं है। अन्यथा मानव जीवन खतरे में पड़ जाएगा। सरकार के रवैए में कुछ बदलाव आएगा, इसकी उम्मीद न के बराबर है। पर्यावरण के प्रति उसका असंवेदनहीन दृष्टिकोण इसका जीता-जागता सबूत है।

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