पर्यावरण की कीमत पर विकास नहीं

7 Mar 2011
0 mins read

पिछले सप्ताह इक्वाडोर के एक न्यायालय ने तेल प्रदूषण के कारण वर्षा वन को हुए नुकासन की भरपाई के लिए अमेरिकी केवरोन कोर्प तेल कंपनी को 8.6 अरब डॉलर का जुर्माना भरने को कहा। बताया जाता है कि पर्यावरण के क्षेत्र में किसी न्यायालय द्वारा लगाया गया यह सबसे बड़ा जुर्माना है। आज दुनिया भर में पर्यावरण के बिगड़ते हालात के कारण यह मुद्दा जोर पकड़ने लगा है कि विकाल संतुलित हो। हमारे वन एवं पर्यावरण मंत्री का तो यहां तक कहना है कि सही मायने में देश की आर्थिक विकास दर नौ फीसदी नहीं, बल्कि 5.5 फीसदी से लेकर छह फीसदी के बीच है। उनका तर्क है कि आर्थिक विकास के कारण पर्यावरण को हुए नुकसान की गणना की जाए, तो आर्थिक विकास के आंकड़े इतने ही निकलेंगे।

इसलिए संतुलित विकास आज दुनिया के सामने एक अहम मुद्दा है। खासकर विकासशील और अविकसित देशों में पर्यावरण को नजर अंदाज करके लंबे समय तक आर्थिक विकास को टिकाऊ नहीं बनाया जा सकता। इसलिए विकासशील और कम विकसित देशों को एक साथ दो चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। चूंकि इन देशों में गरीबी अधिक है, करोड़ों लोग जिंदगी की बुनियादी जरूरतों से वंचित हैं, इसलिए यहां विकास निहायत जरूरी है। लेकिन आर्थिक विकास को अधिक महत्व दिए जाने के कारण पर्यावरण की स्थिति बिगड़ती जा रही है। इसलिए इन दोनों के बीच संतुलन स्थापित करना सबसे बड़ी चुनौती है।

इसे भी नजर अंदाज नहीं किया जा सकता कि उच्च आर्थिक विकास की राह में जलवायु परिवर्तन सबसे बड़ी चुनौती है। पिछले सौ वर्षों के दौरान दुनिया की अर्थव्यवस्था में सात गुना बढ़ोतरी हुई और आबादी भी 1.6 अरब से बढ़कर 6.5 अरब हो गई। इस दौरान आधा ऊष्णकटिबंधीय वन खत्म हो गए। आज दुनिया की 70 नदियां सागर तक का सफर करने की ताकत खो चुकी हैं। वे बीच रास्ते में ही कहीं दम तोड़ देती हैं। आर्थिक विकास का मुद्दा केंद्र में होने के कारण पर्यावरण को जो नुकसान हो रहा है, वह कम नहीं है। एक अनुमान के मुताबिक, चीन और भारत में बरबाद हो रहे पर्यावरण की कीमत सकल राष्ट्रीय उत्पाद का तीन फीसदी है।

खासकर विकास के नाम पर पेड़ों का काटा जाना बेहद चिंताजनक है। पर्यावरण कार्यकर्ताओं का कहना है कि अकेले बंगलूरु शहर में पिछले कुछ वर्षों के दौरान विकास के लिए 40,000 पेड़ों को काट डाला गया। पुणे के खेद और मावाल तालुका में संरक्षित वन को बरबाद कर दिया गया। आंध्रा लेक बिंड पावर प्रोजेक्ट ने, जिसे इंडो जर्मन इंटरप्राइजेज इनरकोन इंडिया द्वारा प्रमोट किया जा रहा है, 13 मीटर चौड़ी 20 किलोमीटर लंबी सड़क बनाने के लिए तीन लाख से अधिक पेड़ों को काट दिया, जबकि केवल 26,000 पेड़ों को काटने की ही अनुमति मिली थी। हालांकि पिछले वर्ष 16 दिसंबर को बंबई हाई कोर्ट ने एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए पेड़ों को काटने पर रोक लगा दी है। पर महत्वपूर्ण सवाल है कि विकास के नाम पर इतने पेड़ों को निर्ममता से काटे जाने की भरपाई आखिर कैसे होगी।

दरअसल, आज विकासशील और कम विकसित देशों में कहीं खाद्यान्न का संकट है, तो कहीं पानी की कमी। जिस गति से आबादी बढ़ती जा रही, उसी अनुपात में पानी की खपत भी बढ़ती जा रही है। एक ओर पानी की किल्लत महसूस की जा रही है, दूसरी ओर एक लीटर डीजल तैयार करने के लिए 9,200 लीटर और एक लीटर बायो फ्यूल बनाने के लिए 4,200 लीटर पानी खर्च किया जाता है। ऐसे में संतुलित विकास की जरूरत और भी महसूस होती है, नहीं तो वह दिन दूर नहीं जब लोग बूंद-बूंद पानी के लिए तरस जाएंगे। एक अध्ययन में बताया गया है कि कुदरत हमें जितना पानी दे सकता है, उससे दस फीसदी ज्यादा पानी का खर्च प्रत्येक वर्ष बढ़ता जा रहा है।

नहीं भूलना चाहिए कि हमें जो कुदरती संसाधन मिले हैं, उसे भावी पीढ़ी को सौंपना हमारा ही कर्तव्य है। जलवायु परिवर्तन के कारण पृथ्वी पर पहले से ही खतरा मंडरा रहा है। ऐसे में अगर हम पर्यावरण की अनदेखी कर सिर्फ अंधी विकास की दौड़ लगाएंगे, तो विकास की यह गाड़ी कब तक सरपट दौड़ पाएगी? आज तक हम प्रकृति से सिर्फ लेते रहे हैं, अब वक्त आ गया है कि हमें भी कुछ दें। जब तक पानी और जंगल का अस्तिव है, तभी तक हमारा अस्तिव है।
 

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading