पर्यावरण प्रदूषण एवं उद्योग

भारत सरकार ने जल प्रदूषण की समस्या को हल करने के लिए कुछ प्रयास किए हैं, जिनमें प्रमुख रूप से वातावरण नियोजन एवं समन्वय की राष्ट्रीय समिति का गठन है, जो वर्तमान जल-प्रदूषण की समस्या को गंभीरता तथा भविष्य में स्थापित होने वाली औद्योगिक इकाइयों की स्थिति का निर्धारण करेगी। प्रदूषण नियंत्रण की इन आवश्यकताओं के मद्देनजर भारत सरकार ने सन् 1974 में जल प्रदूषण नियंत्रण एवं निवारण अधिनियम के अंतर्गत केंद्रीय जल प्रदूषण मंडल का गठन किया।प्रदूषण एवं उद्योग दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। जहां उद्योग होगा, वहां प्रदूषण तो होगा ही। उद्योगों की स्थापना स्वयं में एक महत्वपूर्ण कार्य होता है। प्रत्येक देश में उद्योग अर्थव्यवस्था के मूल आधार होते हैं। यह जीवन की सुख-सुविधाओं, रहन-सहन, शिक्षा- चिकित्सा से सीधे जुड़ा हुआ है। इन सुविधाओं की खातिर मनुष्य नित नए वैज्ञानिक आविष्कारों एवं नए उद्योग-धंधों को बढ़ाने में जुटा हुआ है। औद्योगीकरण ऐसा ही एक चरण है, जिससे देश को आत्मनिर्भरता मिलती है और व्यक्तियों में समृद्धि की भावना को जागृत करती है। भारत इसका अपवाद नहीं है। सैकड़ों वर्षों की गुलामी ने हमें कुछ नहीं दिया। कुशल कारीगरों की मेहनत ने भी अपने देश को उन्नति के चरण पर नहीं पहुंचाया। सन् 1947 में आजाद देश ने इस दिशा में सोचा और अपने देश की क्रमबद्ध प्रगति के लिए चरणबद्ध पंचवर्षीय योजनाएं बनाई। द्वितीय पंचवर्षीय योजना (1956-61) में देश में औद्योगिक क्रांति का सूत्रपात हुआ, जो निरंतर बढ़ता ही रहा (आर्थिक मंदी के कारण इसमें शिथिलता भी आई)। एक सर्वेक्षण के अनुसार सत्रह समूहों में विभाजित हजारों बड़े उद्योग (सही संख्या उपलब्ध नहीं) और 31 लाख लघु एवं मध्यम उद्योग वर्तमान में देश में कार्यरत हैं।

संसार में उद्योगों की प्रगति के साथ ही प्रदूषण की भी प्रगति हुई, जो वास्तव में सामान्य प्रदूषण से भी भयावह एवं जानलेवा है।

उद्योगों द्वारा होने वाले प्रदूषण


यह औद्योगिक क्रांति ही थी, जिसने पर्यावरण प्रदूषण को जन्म दिया। बड़ी-बड़ी फैक्टिरियों के विकास और कोयला और अन्य जीवाश्म ईंधन के बहुत अधिक मात्रा में उपभोग के कारण अप्रत्याशित रूप से प्रदूषण बढ़ा है। किसी भी उद्योग के क्रियाशील होने पर प्रदूषण तो होगा ही। एक उद्योग से संबंधित कम-से-कम निम्न प्रक्रिया तो होती ही है-

1. विषैली गैसों का चिमनियों से उत्सर्जन,
2. चिमनियों में एकत्रित हो जाने वाले सूक्ष्म कण,
3. उद्योगों में कार्य आने के बाद शेष,
4. चिमनियों में प्रयुक्त ईंधन के अवशेष एवं
5. उद्योगों में काम में आए हुए जल का बहिर्स्राव।

ये सभी दृष्टिकोण औद्योगिक प्रदूषण के परिप्रेक्ष्य में महत्वपूर्ण हैं। उद्योगों से होने वाले प्रदूषण हैं- वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण, मृदा प्रदूषण, तापीय प्रदूषण, औद्योगिक उत्सर्ग, बहिर्स्राव से पेड़ और फसलों की बर्बादी, जन हानि। उद्योगों से प्रदूषण के अंतर्गत, प्रदूषण के दुष्प्रभाव एवं नियंत्रण पर क्रमवार चितन यहां प्रस्तुत है।

वायु-प्रदूषण


किसी भी उद्योग की मशीनों को चलाने के लिए ऊर्जा उत्पादन तथा कच्चे माल की निर्धारित क्रियाविधि के फलस्वरूप जो भी उत्सर्जन होता है, उसका गैसीय भाग चिमनियों से निकलता है। इन चिमनियों से हानिकारक पदार्थ जब वायुमंडल में विसर्जित होते हैं तो प्रदूषण फैलता है।

वैज्ञानिक युग में मनुष्य एक-दूसरे से आगे निकलने की प्रतिस्पर्धा में अनेक उद्योग स्थापित कर रहा है। विभिन्न प्रकार के इन उद्योगों की उत्पादन इकाइयों से प्रतिदिन उत्पन्न विषैली गैसें जैसे-कार्बन मोनोऑक्साइड, सल्फर डाइऑक्साइड हाइड्रोकार्बन, नाइट्रोजन के विभिन्न ऑक्साइड, पार्टिकुलेट पदार्थ, लेड, एस्वैस्टास, पारा, कीटनाशक तथा अन्य अपशिष्ट पदार्थों के कण वायुमंडल को प्रदूषित कर रहे हैं।

गैसीय वायु-प्रदूषण तत्व गैस के समान व्यवहार करते हैं व एक स्थान पर इकट्ठे न होकर वायुमंडल में फाल जाते हैं। गैसीय परदूषक औद्योगिक एवं घरेलू कार्यों में ईंधन जलाने पर बनते हैं। विभिन्न गैसीय प्रदूषकों के प्रभाव निम्न प्रकार हैं-

अ. सल्फर डाइऑक्साइड – शरीर में उपलब्ध द्रव घुलनशील होता है, इसके कारण ऊतकों में उत्तेजना पैदा होती है, ऊपरी श्वसन-पथ में जलन व उत्तेजना होती है।

ब. नाइट्रोजन के आठ ऑक्साइड –
ये वायु-प्रदूषण उत्पन्न करते हैं। ये हाइड्रोकार्बन से मिलकर घना धुआं तथा ओजोन पैदा करते हैं। इसके कारण आंखों में जलन व श्वसन क्रिया में अवरोध उत्पन्न होता है।

स. कार्बन मोनोऑक्साइड – मूलतः वाहनों में अपूर्ण ज्वलन से बनने वाली एक अदृश्य गैस है। यदि यह रक्त में मिल जाए तो चक्कर आने लगते हैं, विभिन्न शारीरिक अंगों की सक्रियता में कमी आती है व मृत्यु की भी संभावना बनी रहती है।

वायु-प्रदूषण नियंत्रण के उपाय


उद्योगों द्वारा समय-समय पर अनेक योजनाएं बनाई जाती हैं, जिससे वायु-प्रदूषण में कमी हो सके। भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र, मुंबई, ने वायु प्रदूषण रोकने में रुचि दिखाई। सन् 1989 में हिंदी दिवस के अवसर पर उस केंद्र में एक संगोष्ठी हुई, जिसका विषय था ‘पर्यावरण प्रदूषण और उद्योग’। इसमें विभिन्न स्रोतों से हुए वायु प्रदूषण को रोकने के अनेक तरीके सुझाए गए। जैसे-

1. उद्योगों द्वारा उत्पन्न वायु प्रदूषकों का निरंतर मॉनीटर तथा उसके निकटवर्ती क्षेत्रों की वायु का प्रेक्षण।
2. ऐसी प्रक्रियाओं और तकनीकों का विकास, जो कम विषैले पदार्थों का इस्तेमाल करें और जो स्रोत से निकलने वाले प्रदूषकों की मात्रा को कम कर सकें।
3. उद्योगों में प्रदूषक-नियंत्रक संयंत्रों का लगाना।
4. उद्योग को किसी विशेष स्थान पर स्थापित न करके देश के अलग-अलग क्षेत्रों में स्थापित करना।
5. उद्योगों के पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभाव का निर्धारण।
6. लोगों को पर्यावरण, पर्यावरण असंतुलन तथा पारिस्थितिकी संतुलन के प्रति जागरूक बनाना।


उद्योगों में उपयोग के बाद जो जल बाहर निकलता है, उसमें प्रकार के विषैले पदार्थ मिले रहते हैं। यदि यह सीधे नदियों या जलाशयों में डाल दिए जाते हैं तो उनका पानी पीने योग्य नहीं रह जाता। जल में रहने वाले जीव-जंतु अकाल मृत्यु पाते हैं। उस पानी का उपयोग करने वाले पशु और मानव अनेक असाध्य रोगों से ग्रसित हो जाते है। सन् 1981 में केंद्रीय तथा 14 राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों ने एक सर्वेक्षण किया था। उसके अनुसार देश में चल रहे 27,000 में मध्यम और भारी उद्योगों से 1700 उद्योगों जल प्रदूषण वाले शिनाख्त किए गए। निष्कासित जल को ठीक करने के लिए मात्र 460 उद्योगों में व्यवस्था थी। निश्चित ही शेष उद्योग अपने बहिर्स्राव को यूं ही सीधे कहीं निकाल देते थे। अगर भूमि-भाग इस जल का आधार बनता है तो वहां की मिट्टी विषैली हो जाती है अथवा जल-क्षेत्र में जहर घुलने लगता है। जिन उद्योगों में जल की खपत अधिक है, जैसे-कागज उद्योग, वहां से तो निष्कासन की मात्रा भी अपेक्षाकृत अधिक है।

सतही जल की कमी के कारण उद्योगों द्वारा अब भूमिगत जल का दोहन भी इतनी तीव्र गति से हो रहा है कि पानी का स्तर निरंतर गिरता जा रहा है। वहां भी जल अनेक प्रकार के विषैले रसायनों से मिश्रित है, जिसके कारण पानी पीने योग्य नहीं बचा है। भारी उद्योग द्वारा यूं ही जल-निस्तारण की प्रक्रिया इसके लिए दोषी है। गुजरात की स्वयंसेवी संस्था, पर्योवरण सुरक्षा समिति, बड़ोदरा ने एक अध्ययन में पता लगाया है कि राज्य में भूमिगत जल भारी तत्व कैडमियम, कॉपर, लेड, मरकरी को समेटे हुए है, जो उत्यंत विषैले भी हैं।

आधुनिकीकरण के युग में अधिकांश उद्योग जल की उपलब्धता के कारण नदियों, झीलों एवं सागरों के किनारे लगाए गए हैं। औद्योगिक क्षेत्र में जहां बड़े उद्योग स्थापित हैं, उनके कारखानों से निकलने वाले गंदे अपशिष्ट जल, ठोस एवं घुले रासायनिक प्रदूषक तथा अनेक प्रकार के धात्विक पदार्थ नदियों झीलों एवं तटीय सागर के जल को प्रदूषित करते हैं, प्रदूषण फैलाने वाले प्रमुख उद्योग वस्त्र उद्योग, चीनी, उद्योग, औषधि उद्योग आदि हैं। इन अशुद्धियों से जल के पी.एच. मान में परिवर्तन के साथ-साथ पौधों एवं जंतुओं में विषैला प्रभाव होता है।

औद्योगिक उत्सर्ग एवं सामान्य म्युनिसिपल क्रियाएं जल-प्रदूषण उत्पन्न करती हैं। जल प्रदूषण का प्रभाव वनस्पतियों, जीव-जंतुओं एवं मनुष्यों पर पड़ता है। जल प्रदूषण के कारण जल के तापमान में वृद्धि हो जाती है, जिससे पौधों में रसाकर्षण न होने के कारण वे सूख कर मर जाते हैं। उद्योग द्वारा निस्तारित प्रदूषित जल के नदियों में विसर्जन के कारण शैवाल की वृद्धि हो जाती है, जिससे श्वसन के लिए ऑक्ससीजन की माग बढ़ जाती है और जलीय जीव-जंतु विशेषकर मछलियों पर इसका सर्वाधिक कुप्रभाव पड़ता है।

जल-प्रदूषण नियंत्रण के उपाय


हम औद्योगीकरण की ओर बढ़ते हुए जल-प्रदूषण की समस्या को और गंभीर बना रहे हैं। भारत सरकार ने जल प्रदूषण की समस्या को हल करने के लिए कुछ प्रयास किए हैं, जिनमें प्रमुख रूप से वातावरण नियोजन एवं समन्वय की राष्ट्रीय समिति का गठन है, जो वर्तमान जल-प्रदूषण की समस्या को गंभीरता तथा भविष्य में स्थापित होने वाली औद्योगिक इकाइयों की स्थिति का निर्धारण करेगी। प्रदूषण नियंत्रण की इन आवश्यकताओं के मद्देनजर भारत सरकार ने सन् 1974 में जल प्रदूषण नियंत्रण एवं निवारण अधिनियम के अंतर्गत केंद्रीय जल प्रदूषण मंडल का गठन किया। इस मंडल के दायित्व हैं-

1. जलाशयों और नदियों से प्रदूषण के स्तर की निगरानी।
2. अपशिष्ट विसर्जन की निगरानी
3. अपशिष्ट उपचार की सस्ती विधियों पर अनुसंधान सहयोग।
4. उद्योगों और नगरपालिकाओं को प्रदूषण नियंत्रण पर तकनीकी राय उपलब्ध कराना।
5. पर्यावरण के प्रति सार्वजनिक सजगता लाना।

लेकिन नगरपालिकाओं की तरह केंद्रीय व राज्य जल प्रदूषण मंडल भी प्रदूषण द्वारा हो रहे स्थानीय पर्यावरण अवनयन को प्रभावशाली ढंग से नहीं रोक पाए। इसका एक कारण नागरिक सजगता का अभाव भी है। जिस गति से औद्योगिक और मानवीय कारक प्रदूषण को निरंतर गंभीर से गंभीरतम समस्या बना रहे हैं, यह आवश्यक हो जाता है कि प्रदूषण नियंत्रण मंडल एक निर्णायक हस्तक्षेप करे।

जल को प्रदूषित होने से बचाने के लिए हम सबको दृढ़संकल्प लेना होगा, क्योंकि जल अतिमहत्वपूर्ण है, जिसके बगैर मानव और वनस्पति जगत जीवित नही रह सकता। जहां उद्योगों द्वारा जल-प्रदूषण नियंत्रण की बात है, वहां उद्योगों के रासायन और गंदे अपशिष्ट युक्त जल को नदियों, सागरों, नहरों, झीलों आदि में उपचारित किए बिना न डाला जाए। औद्योगिक गैसों के उत्सर्जन पर भी नियंत्रण कठोर किए जाने चाहिए। ताकि वायुमंडल अनुकूल बना रह सके। जल प्रदूषण पर नियंत्रण उत्सर्ग जलोपचार से किया जाता है। इसके अंतर्गत उत्सर्ग का वर्गीकरण, उत्सर्ग का संरक्षण, उत्पादन-प्रक्रिया में परिवर्तन, पुनः प्रयोग आदि क्रियाएं शामिल है।

उत्सर्ग जल-उपचार की भौतिक विधियों में स्क्रीनिंग मिश्रण फ्लाई कलेक्शन, सेडिमेंटेशन, तैराना, निर्वात, फिल्ट्रेशन सुखाना आदि आते हैं। रासायनिक विधियां जमाना, अवक्षेपण, आयन, विनियम, अवकरण, ऑक्सीकण, क्लोरोनीकरण आदि है। जैविक विधियां, सामान्यतः दूसरे उपचार के रूप में म्यूनिसिर्पि उत्सर्ग पर संपादित की जाती है व ऑक्सीजन के उपयोग से संपन्न होती है।

ध्वनि प्रदूषण


औद्योगिक मशीनों की अधिक तीव्रता वाली ध्वनि तथा एमक्राफ्ट की मशीनों का शोर, मानव की साधारण या दैनिक दिनचर्या में बाधा तो डालता ही है, अधिक समय तक तीव्र ध्वनि में रहने से, सुनने की क्षमता का ह्रास होता है।

उद्योगों और वर्कशॉप में ध्वनि का अनुकूलतम स्तर 90 डेसिबल तय किया गया है, लेकिन वास्तविकता यह है कि यह स्तर कई जगह 120 डेसिबल पाया गया है। ऐसा शोर श्रमिकों की सिर्फ श्रवण-शक्ति को ही हानि नहीं पहुंचाता, बल्कि उनकी उत्पादकता भी कम करता है।

नियंत्रण के उपाय


उद्योगों से उत्पन्न होने वाले ध्वनि प्रदूषण को रोकने के लिए फैक्ट्रियों के जिस भाग में शोर वाली मशीनें चलती हैं, वे ध्वनिरोधी हों या उनमें ध्वनि-अवशोषक लगे हों। मशीनों के जिस भाग पर घर्षण होता है, वहां स्नेहक (Lubricants) जैसे-ग्रीस और तेल वगैरह अच्छी तरह लगा देना चाहिए, जिससे ध्वनि कम उत्पन्न होगी।

तेज ध्वनि उत्पन्न करने वाले कारखानों में काम करने वाले को कर्णावरण (EarMuffs) लगाकर कार्य करना चाहिए।

यातायात के साधनों के शोर से बचने के लिए हेलमेट का प्रयोग करना चाहिए तथा मोटरवाहनों में बहु ध्वनि वाले हॉर्न बजाने पर प्रतिबंध लगाना चाहिए।

हवाई अड्डों पर शोर के लिए अवशोषकों का प्रयोग करना चाहिए। ध्वनि प्रदूषण नियंत्रण कानून बनाना चाहिए। ध्वनि प्रदूषण रोकने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर प्रयास किया जाना चाहिए।

मृदा प्रदूषण


उद्योगों, मानव, प्रकृति, मृदा की गुणवत्ता में हुआ ह्रास, मृदा प्रदूषण के अंतर्गत आता है। फैक्ट्रियों से निकले जहरीले अपशिष्ट पदार्थ तरल अवस्था में बहकर जल में मिल जाते हैं और जब यही प्रदूषित जल मिट्टी में मिल जाता है तो मृदा प्रदूषण फैलता है। कुछ प्रदूषणकारी पदार्थ जैसे नाइट्रोजन और सल्फर के ऑक्साइड पहले वायुमंडल में जाते हैं, फिर वर्षा के समय नाइट्रिक अम्ल (HNO3) तथा सल्फ्यूरिक अम्ल (H2SO4) के रूप में जमीन पर गिरकर मृदा में अम्लीयता बढ़ाते हैं। मृदा में अम्लीयता की अधिक मात्रा फसलों के लिए बहुत हानिकारक होती है। तांबा गलाने की फैक्ट्रियों से निकला अपशिष्ट पदार्थ मृदा को इतना प्रदूषित कर देता है कि उसमें कोई वनस्पति पनप ही नहीं सकती। कोयला, चूना और अभ्रक आदि की खानों से निकले पदार्थ का परिवहन करते समय तमाम कणिकीय पदार्थ उड़कर जमीन में पहुंचते हैं और मृदा को प्रदूषित करते हैं।

मृदा प्रदूषण से जैव समुदाय पर दूरगामी प्रभाव पड़ता है। प्रदूषण के कारण मृदा की उर्वरता में कमी आ जाती है तथा वह कृषि कार्य के लिए अनुपयुक्त होने लगती है। मृदा प्रदूषण से मानव, पेड़-पौधे, सूक्ष्मजीव आदि प्रभावित होते हैं। इससे मिट्टी अनुपजाऊ हो जाती है, जिससे कृषि उत्पादन में कमी आती है।

मृदा प्रदूषण नियंत्रण के उपाय


औद्योगिक इकाइयों को पर्यावरण के प्रति उत्तरदायी बनाने के लिए औद्योगिक अपशिष्ट के निस्तारण के लिए राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर योजनाएं बनाई गई, लेकिन विकसित राष्ट्र अपने नाभिकीय अपशिष्ट को ठिकाने लगाने के लिए उन नियमों को तोड़ रहे हैं। भारतीय उद्योग भी प्रदूषण के नियमों का उल्लंघन अपने तात्कालिक लाभ के लिए कर रहे हैं, जो उचित नहीं है। मृदा-प्रदूषण का मुख्य कारण उद्योगों के अलावा मानव का दैनिक उपभोग और उसकी सामाजिक-आर्थिक गतिविधियां हैं। इसलिए इसके नियंत्रण के लिए मानव समुदाय को निम्न कार्य करने चाहिए-

1. शोधन के पश्चात् औद्योगिक बहिस्राव का उपयोग सिंचाई के लिए करना चाहिए।
2. रासायनिक उर्वरकों के स्थान पर कम्पोस्ट तथा हरी खाद का उपयोग करना चाहिए।
3. डी.डी.टी. के प्रयोग पर प्रतिबंध लगाना चाहिए।
4. औद्योगिक अपशिष्ट, द्रव, ठोस अथवा गैस के निस्तारण की योजना बनाते समय हर उद्योगपति को पर्यावरण के प्रति सजग एवं संवेदनशील उत्तरदायित्व दिखाना होगा। पर्यावरण मानदंडों के उल्लंघन पर कठोर जुरमाने या सजा के प्रावधान लागू किए जाने चाहिए।

5. कृषि में फसल-चक्र अपनाकर मिट्टी की गुणवत्ता में वृद्धि कर मिट्टी प्रदूषण को नियंत्रित किया जा सकता है।

तापीय प्रदूषण


उद्योगों में किसी-न-किसी प्रकार के हाइड्रोकार्बन ईंधन का दहन होता है। इस दहन से सिर्फ विषैली गैसें ही नहीं बनतीं, बल्कि ताप ऊर्जा के उत्सर्जन से तापमान में वृद्धि होती है। विद्युत उत्पादन में कोयले अथवा किसी अन्य ईंधन जैसे नाभिकीय ऊर्जा आदि का उपयोग करने पर अत्यधिक उष्मा उत्पन्न होती है। इसको ‘वेस्ट उष्मा’ कहा जाता है। इसे शीतलक जल द्वारा कम करने का प्रयास किया जाता है। इस क्रिया में शीतलक से बाहर आने वाले जल का ताप अधिक हो जाता है। यह ताप प्रदूषण है। इस जल से जलीय पारिस्थितिकी-तंत्र में उत्सर्ग होने पर जलीय जीव एवं वनस्पतियां मर जाती हैं। सामान्यतः अधिक हानि मछली-पालन में होती है। इसके अतिरिक्त यदि बिजली बनाने वाला पॉवर प्लांट एकाएक बंद हो जाए तो जल का ताप एक साथ कम हो जाता है। इसे तापशॉक कहते हैं। सामान्यतः मछलियां इसे सहन नहीं कर पातीं। इससे उस जल के जलीय जंतुओं पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। अनेक जीव समाप्त हो जाते हैं और मछलियां तथा अन्य जानवरों के लिए यह शून्य स्थल बन जाते हैं। उसकी चिमनी से निकलने वाली राख, जो अधिक ताप के कारण हानिकारक है और जहां बरसती है, वहां की वनस्पति पेड़-पौधों और फसलों को नष्ट कर देती है।

तापमान बढ़ने से जल में घुली हुई ऑक्सीजन की मात्रा कम होने लगती है, जिससे जीवन के लिए परिस्थितियां प्रतिकूल होने लगती हैं। तापमान वृद्धि के प्रमुख उद्योगों के अलावा हरितगृह-प्रभाव, ओजोन-क्षरण, वैश्विक उष्मता एवं जलवायु प्रभाव भी हैं।

अ. हरितगृह प्रभाव – जब हम तापमान वृद्धि में हरितगृह की बात कर रहे हैं तो यहां यह जानना आवश्यक है कि ‘हरितगृह’ आखिर है क्या? ‘ग्रीन हाउस’ एक पुराना शब्द है, जिसमें शीशे की दीवारें और छत होती है तथा जिसमें उन पौधों को उगाया जाता है, जिन्हें अधिक ताप की आवश्यकता होती है। इसमें शीशे इस तरह के होते हैं कि सौर्यिक विकिरण को अंदर तो आने देते हैं, परंतु अंदर से ऊष्मा बाहर नहीं जाने देते। इस कारण ‘हरितगृह’ में ऊष्मा का संचय होता रहता है। पृथ्वी के संदर्भ में कार्बन डाइऑक्साइड तथा जल वाष्प, हैलोजनित गैसें जिन्हें ‘हरितगृह’ कहते हैं, ‘हरितगृह’ की तरह व्यवहार करती हैं। ये गैसें सूर्य के विकिरण को पृथ्वी तक पहुंचने में बाधा उत्पन्न नहीं करतीं, बल्कि पृथ्वी से होने वाले बहिर्गामी दीर्घ तरंगों, खासकर अवरक्त किरणों (Infrared-rays) को अवशोषित कर उन्हें भूतल पर पुनः प्रत्यावर्तित कर देती हैं, जिस कारण धरातलीय सतह निरंतर गर्म होती रहती है उसके तापमान में वृद्धि होने की संभावना बढ़ जाती है।

ब. वैश्विक तापमान- ग्रीनहाउस प्रभाव और अन्य कई कारणों से संपूर्ण विश्व में देखी जा रही ताप-वृद्धि को वैश्विक तापमान (Global Warming) कहा जाता है। लगातार बढ़ती औद्योगिक गतिविधियां, शहरीकरण, आधुनिक रहन-सहन, धुआं उगलती चिमनियां, निरंतर बढ़ते वाहनों एवं ग्रीनहाउस गैसों के प्रभाव से पृथ्वी के औसत तापमान में जो निरंतर वृद्धि हो रही है, यह वैश्विक उष्णता एक ऐसी पर्यावरण समस्या है, जिससे संपूर्ण विश्व प्रभावित हो रहा है।

हरितगृह गैसों का उतसर्जन, धरती के तापमान में वृद्धि के कारण आने वाले संकट का अंदाजा पर्यावरणविदों व वैज्ञानिकों को तो है, परंतु आम आदमी इसे गंभीरता से नहीं ले रहा है। विश्व-पटल पर ग्लोबल वार्मिंग को लेकर गंभीर चिंतन के दौर चल रहे हैं। वैश्विक तापमान में लगातार वृद्धि हो रही है। बीसवीं सदी का अंतिम दशक अब तक सर्वाधिक गर्म दशक रहा। पृथ्वी के बढ़ते औसत ताप के चलते कल तक की कपोल-कल्पित संभावनाएं आज सच होने लगी हैं। वैश्विक तापमान के कारण ग्लेशियर पिघल रहे हैं। एक अध्ययन के अनुसार गंगा के जल का स्रोत गंगोत्री हिमनद सहित हिमालय के ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। तापमान बढ़ने के कारण दक्षिणी ध्रुव में महासागरों के आकार के हिमखंड टूटकर अलग हो रहे हैं। कुछ वर्ष पूर्व अंटार्कटिक के लार्सन हिमक्षेत्र का 500 अरब टन का एक हिमशैल टूटकर अलग हो गया। अनुमान लगाया जा रहा है यदि तापवृद्धि का वर्तमान दौर जारी रहा तो 21वीं सदी के अंत तक पृथ्वी के तापमान में 5.8 डिग्री सेंटीग्रेड तक वृद्धि हो सकती है। इससे ध्रुवों पर जमीं बर्फ तथा हिमनदों के पिघलने से समुद्र का जल-स्तर 5 मीटर तक बढ़ सकता है। परिणामस्वरूप मालदीव तथा जापान के अनेक द्वीपों सहित भारत व यूरोप के कई देशों के तटीय क्षेत्र पानी में डूब जाएंगे।

स. ओजोन क्षरण – पिछले दो दशकों से ओजोन की परत में क्षय करने की मुख्य भूमिका क्लोरो-फ्लोरो कार्बन (C.F.C.) एवं फ्रीऑन गैस (Fr.G.) की है। ये सभी मानव निर्मित रसायनों के समूह हैं, जो वातानुकूलनों तथा रेफ्रीरेजटरों में शीतलन एजेंट की भांति प्रयुक्त होते हैं। सबसे पहले सन् 1930 के दशक में सी.एफ.सी. का प्रयोग आरंभ हुआ। सन् 1980 के दशक में यह निश्चित हुआ कि ओजोन कवच को क्षति पहुंचाने में क्लोरीन गैस का एक अणु ओजोन के एक लाख परमाणुओं को नष्ट कर सकता है। सन् 1985 में वैज्ञानिकों को ओजोन की परत में छिद्र का पता चला। दक्षिण ध्रुव के ऊपर ओजोन गैस की सांद्रता में बहुत कमी आई है। सन् 1989 में देखा गया कि अंटार्कटिक के ऊपर ओजोन की परत में 40 कि.मी. व्यास का छिद्र हो गया है। ओजोन मंडल में ताप की वृद्धि तेजी से होती है, जो 50 डिग्री से बढ़कर 70 डिग्री सेंटीग्रेड तक हो जाती है। प्रकृति में ओजोन, ऑक्सीजन से बनता है। इन दोनों गैसों के बीच एक संतुलन बना रहता है। सी.एफ.सी. के क्लोरीन गैस द्वारा उत्पन्न प्रदूषण से अब यह संतुलन बिगड़ने लगा है, जिससे धरती पर कैंसर जैसा भयानक रोग, त्वचा के अनेक रोग, पेड़-पौधे तथा दूसरे जीवों के लिए प्राणघाती स्थिति उत्पन्न कर रहे हैं। आवश्यकता है, ऐसे उपाय की, जिससे क्लोरो-फ्लोरो कार्बन का वायुमंडल में जाना रुक जाएं।

तापीय प्रदूषण नियंत्रण के उपाय


वायुमंडल में तापीय प्रदूषण के तीन प्रमुख कारण हैं- 1. दहन क्रिया, 2. कार्बन डाइऑक्साइड की बढ़ती मात्रा, 3. ओजोन क्षरण के कारण प्रात सूर्यताप की अधिकता।

औद्योगिक विकास और जीवाश्म ईंधन के बढ़ते उपभोग के कारण वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा खतरनाक स्तर तक बढ़कर ग्रीनहाउस प्रभाव पैदा कर रही है। इसका समाधान बड़े-से-बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण द्वारा किया जा सकता है, जिससे कार्बन डाइऑक्साइड जनित ताप वृद्धि पर काफी हद तक नियंत्रण जा सके।

ओजोन क्षय केवल एक देश की समस्या नहीं, बल्कि विश्वव्यापी समस्या है। ओजोन का क्षय करने वाले क्लोरो-फ्लोरो कार्बन तथा हैलोजनिक गैसों के उत्पादन व उपभोग पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए।

संयंत्र से निकलने वाले उच्च ताप को जल के फव्वारे के रूप में अधिक क्षेत्र में फैलने दिया जाए। जब ताप सहन स्तर तक आ जाए, तभी उसे पुनः स्रोत में मिलने दें।

राख का प्रयोग अब ईंट बनाने के लिए किया जा रहा है, जो सफल रहा। इससे प्रदूषण समस्या भी कम होगी और प्रदूषणक का अच्छा उपयोग भी होगा। राख को अधिक क्षेत्रों में बिखरने से रोकने के लिए कुछ कृत्रिम साधन अपनाने होंगे।

औद्योगिक उत्सर्ग प्रदूषण


सभी उद्योग किसी-न-किसी प्रकार का उत्सर्ग पैदा करते हैं, जो प्रदूषण का कारण बनता है। साधारणतः उत्सर्ग निम्न में से एक या अधिक होते हैं-

अ. उत्सर्ग जल – विभिन्न उद्योग-धंधों से विभिन्न प्रकार के उत्सर्ग जल निकलते हैं। सामान्य गुणों के आधार पर उत्सर्ग जल तीन प्रकार के होते हैं।

1. वे उत्सर्ग जल, जिसमें ठोस निलंबित अवस्था में हो।
2. वे उत्सर्ग जल, जिसमें ठोस विलयन के रूप में हो।
3. अधिक सांद्रण के विलियन वाले उत्सर्ग जल।
उत्सर्ग जल की प्रकृति व संगठन, उद्योग पर आधारित रहता है। साधारणतः निम्न प्रकार के संगठन वाले उत्सर्ग जल विभिन्न उद्योगों से निर्गत होते हैं।

1. कार्बोहाइड्रेट की अधिकता वाला उत्सर्ग जल-पेपर बोर्ड, स्टार्च आदि।
2. सायनाइड, क्रोमियम, निकिल की अधिकता वाला उत्सर्ग जल-इलेक्ट्रोप्लेटिंग उद्योग।
3. विभिन्न रसायनों की अधिकता वाला उत्सर्ग जल-डिटरजेंट, कीटनाशक, उर्वरक, प्लास्टिक, पेट्रोलियम उद्योग।
4. नाइट्रोजन की अधिकता वाला उत्सर्ग जल-डेयरी उद्योग।

अधिकांश उद्योगों में उत्सर्ग-जल के उपचार की उपयुक्त सुविधाएं उपलब्ध नहीं है, जो प्रदूषण की दृष्टि से खतरनाक है।

विभिन्न उद्योगों के उत्सर्ग चाहे वह जल हो अथवा ठोस, को क्रमानुसार सूचीबद्ध किया जा रहा है। साथ ही प्रदूषण के प्रभाव व उपचार-विधि भी सूक्ष्म रूप में विवेच्य है-

1. आयल रिफाइनरी उद्योग – उत्सर्ग जल में तेल, क्षार, अमोनिया, फिनाइल, हाइड्रोजन, सल्फाइड एवं कार्बनिक रसायन होते हैं। यह जलीय जीवों के लिए हानिकारक हैं। इसके कारण गंध व स्वाद भी खराब हो जाता है।

2. टेनरी उद्योग – उत्सर्ग जल में हानिकारक रसायनों के अतिरिक्त क्रोमियम बाल, मांस आदि कोलायड अवस्था में रहते हैं।

3. स्टील मिल उद्योग – उत्सर्ग जल में अमोनिया, फिनाइल, कार्बनिक एसिड, सायनाइड आदि रहते हैं। ठोस भी इस उत्सर्ग में काफी बड़ी मात्रा में निलंबित अवस्था में रहते हैं।

4. डिस्टलरी उद्योग – उत्सर्ग जल में मुख्यतः कार्बनिक पदार्थ विलयन के रूप में रहते हैं। यह भारत का सबसे अधिक प्रदूषण कारक उद्योग है, क्योंकि इसमें उत्सर्ग जल प्रचुर मात्रा में होता है।

5. इलेक्ट्रोप्लेटिंग उद्योग – उत्सर्ग जल की प्रकृति अम्लीय होती है व रसायनों का विलयन भी होता है। इस उत्सर्ग जल में निलंबित ठोस बहुत कम होते हैं।

उद्योगों के बहिर्स्राव से पेड़ और फसलों की बर्बादी


कई प्रकार के उद्योग, जिनमें जल का अधिक मात्रा में उपयोग होता है, वह अपने कारखाने के बहिर्स्राव को बिना उपचार के ही नदियों में, खाली जमीन पर, खेतों में निकाल देते हैं। जब बिना उपचार किया जल खेतों में पहुंचता है, वह वहां की फसल को नष्ट कर देता है और किसान असहाय होकर रह जाता है। ‘मुरादनगर’ (गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश) में हजारों पेड़ तथा वहां की फसलों की बर्बादी का कारण पास में ही चल रही कागज मिल के कारण है। शीशम और जामुन के पेड़ों की मानों निशानदेही बची है। किसान कहते हैं, धान की फसल आठ दिन में सूख जाती है। पानी में अधिक देर तक खड़े हों तो पैरों में जलन होने लग जाती है।

उद्योगों से जन-हानि


आज सिर्फ भारत में ही नहीं वरन् पूरे विश्व में उद्योगों की संख्या लाखों में है और इसमें कार्यरत् लोगों की संख्या करोड़ों में होगी। अलग-अलग उद्योगों से निकलने वाले उत्सर्जन विभिन्न प्रकार के रोग फैलाते हैं और उसमें न जाने कितने लोगों के जीवन का अंत हो जाता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की 1992 द्वारा में प्रसारित (Health and Environment) संबंधी रिपोर्ट में बताया गया है कि पूरे विश्व में एक वर्ष में लगभग 3.27 करोड़ औद्योगिक क्षेत्र की दुर्घटनाएं होती हैं। इनमें 1,46,000 व्यक्ति मृत्यु के शिकार हो जाते हैं, यह भी अनुमान लगाया गया है कि जिन रोगों से औद्योगिक कारीगर ग्रस्त होते हैं, वह निम्न प्रकार हैं-

  1. सिलीकोसिस (Silicosis)

3.5 से 43.2 प्रतिशत

  1. न्यूमोकोनिओसिस (Pneumoconiosis)(कोयला खदान संबंधी

8.3 से 43.8 प्रतिशत

  1. बाइसिनोसिस (Byssinosis)

5.0 से 30 प्रतिशत

  1. लैड पाइजनिंग (Lead Posioning)

1.7 से 10000 प्रतिशत

  1. मरकरी पाइजनिंग (Mercury Posioning)

2.6 से 37 प्रतिशत

  1. श्रवण शक्ति का ह्रास (Hearing Loss)

1.7 से 70 प्रतिशत

  1. त्वचा रोग (Skin Diseases)

1.7 से 86 प्रतिशत

  1. पीठ दर्द (Low Bac Pain

2.5 प्रतिशत

 



यह सूची अपने आप में पूरी नहीं है, क्योंकि भारत जैसे देश में अनीमिया, आंखों के रोग, हड्डियों के रोग, वायुजनित रोग, श्वसन संबंधी रोग आदि बहुतायत से होते हैं। अतः उद्योगों में कार्य करने वाले लोग सदैव अस्वस्थ ही रहते हैं।

प्रदूषण वाले उद्योगों की पहचान


देश में अनेक उद्योग चलाए जाते हैं, पर उनमें से वे उद्योग जो अधिक प्रदूषण फैलाते हैं, उनकी पहचान कर भारत सरकार ने 19 नवंबर, 1986 के गजट में प्रकाशित की है, जो इस प्रकार है-

1. कास्टिक सोडा (Caustic Soda)
2. हस्तनिर्मित धागा (सिन्थेटिक) (Manmade Fibres [Synthetic])
3. तेल शोधक (Oil Refinery)
4. चीनी (Sugar)
5. तापीय ऊर्जा संयंत्र (Thermal Power Plants)
6. सूती उद्योग (Cotton Textile)
7. ऊनी कपड़ा (Woollen Cloth)
8. रंगाई व छपाई (Dying and Printing)
9. इलेक्ट्रोप्लेटिंग (Electroplating)
10. सीमेंट उद्योग (Cement Plants)
11. पत्थर तोड़ना (Stone Crushing)
12. कोयले की भट्ठियां (Coke Ovens)
13. सिंथेटिक रबड़ (Synthetic Rubber)
14. कागज एवं लुगदी (Pulp and paper)
15. शराब की भट्ठियां (Distilleries)
16. चमड़ा उद्योग (Leather Tanneries)
17. खाद (Fertilizers)
18. एल्युमीनियम (Aluminium)
19. कैल्शियम कार्बाइड (Calcium Carbide)
20. कार्बन ब्लैक (Carbon Black)

21. कॉपर, लैड और जिंक स्मैलिटिंग (Copper, Lead and Zinc Smelting)
22. नाइट्रीक एसिड (Nitric Acid)
23. सल्फ्यूरिक एसिड (Sulphuric Acid)
24. आयरन एंड स्टील (Iron and Steel)

इनके मानक केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण मंडल (Central Pollution Control Board) ने प्रसारित किए हैं।

विभिन्न उद्योगों से उत्सर्गजित तत्व


1

तेल शोषक

SO2, NOx, HC, CO, NH3, SPM कई गंधें

2

पत्थर खदान

सूक्ष्म कण रेत

3

शराब भट्ठियां

CO, HC, NOx तथा सूक्ष्म कण

4

खाद (नाइट्रेट)

अमोनिया, नाइट्रिक ऑक्साइड्स

5

खाद (फास्फेट)

CO, SOx, सिलिकॉन, टेट्राफ्लोराइड्स

6

कॉपर स्मैल्टिंग

SOx, सूक्ष्म कण, धूल

7

लैड स्मैल्टिंग

सूक्ष्म कण, लैड, ऑक्साइड्स, CO

8

जिंक स्मैल्टिंग

रेत, SO2, धुआं

9

सल्फ्यूरिक एसिड

तेजाबी धुंध

10

नाइट्रिक एसिड

नाइट्रिक ऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड

11

सिंथेटिक धागा

कार्बन डाइऑक्साइड, HC, धुंध

12

चीनी

CO, HC, NOx तथा सूक्ष्म कण

13

सूती उद्योग

कास्टिक सोडा, सोडियम सिलीकेट

14

चमड़ा उद्योग

NOx, Sox, एल्डीहाइड्स, धुआं और रेत हाइड्रोजन, सल्फाइड

15

एल्यूमीनियम

सूक्ष्म कण, फ्लोराइड्स, गैसीय क्लोराइड्स

16

कार्बन-ब्लैक

CO, HC, NOx

17

सीमेंट उद्गोय

सूक्ष्म कण

18

ऑयरन एंड स्टील

मैगनीज ऑक्साइड, NOx, SO2 क्लोरीन गैस सूक्ष्म कण।

 



उद्योगों से प्रदूषण कम करने के उपाय


उद्योगों से प्रदूषण कम हो सके, सके लिए कुछ उपाय इस प्रकार हैं-

1. उद्योगों के स्थान का चयन बहुत सोच-समझकर करना चाहिए। वहां न तो अधिकृत वन क्षेत्र हों, न ही कृषि एवं आवासीय भूमि। वह क्षेत्र इतना विस्तृत हो कि वहां वृक्षारोपण किया जा सके, ताकि वहां का वातावरण प्रदूषित न हो। अच्छे वातावरण के लिए वहां ऐसे वृक्षों को लगाया जाए, जो विशेष वषैली गैसों का अवशोषण कर सकें। वृक्षों की सघन पट्टियां ध्वनि-अवशोधक भी होती हैं।

2. फैक्ट्रियों की चिमनियों में ‘बैग फिल्टर’ लगा होना चाहिए। जब धुआं इस फिल्टर से होकर गुजरता है, तब उसे फिल्टर के सिलेंडर से होकर गुजरना होता है, जिससे धुएं के कणिकीय पदार्थ नीचे बैठ जाते हैं, जबकि गैस बेलनाकार बैग से होकर बाहर निकलती है। यह गैस कणिकीय पदार्थों से मुक्त होती है। अतः वातावरण कम प्रदूषित होता है।

3. उद्योगों में कार्य कर रहे ऊर्जा-संयंत्र तथा गैसों व सूक्ष्मकणों को उत्सर्जित करने वाली चिमनियों से प्रदूषकों की मात्रा कम हो, इस हेतु प्रचलन में आ रहे स्क्रमबर्स अवशोषक, साइक्लोंस, इलेक्ट्रोस्टेटिक प्रेसीपिटेटर्स, बैग फिल्सटर्स संयंत्रों का भरपूर उपयोग किया जाए।

4. ओजोन क्षयकारी रसायनों के स्थान पर वैकल्पिक रासायनिक यौगिकों का प्रयोग किया जाना चाहिए।

5. उद्योगों से संबंधित होने वाली घटनाओं विषय में सभी श्रमिकों को जानकारी देना चाहिए।

6. जलीय तथा ठोस अपशिष्टों की जितनी भी उपचारात्मक संक्रिया संभव हो, उसके बाद ही अपने क्षेत्र में विसर्जित करना चाहिए।

संदर्भ


1. पर्यावरण शिक्षा, डॉ. एम.के. गोयल, पृ.220
2. वही, पृ 221
3. पर्यावरण अध्ययन, आर.के.जैन व डॉ. सुरेंद्र कुमावत, पृ. 100
4. पर्यावरण शिक्षा, डॉ. एम.के.गोयल, पृ.222
5. Times of India (Ahmedabad) : 20 February, 2002, Quoted from Green File : Issue No. 173, CSE New Delhi
6. पर्यावरण अध्ययन की रूप-रेखा, मेधातिथि जोशी, राकेश पारीक, पृ.142
7. इंडस्ट्रियल इंजीनियरी सुरक्षा एवं प्रदूषण, डॉ. हेमेंद्र दत्त शर्मा, पृ. 236
8. वही, पृ.236
9. पर्यावरण शिक्षा एवं भारतीय संदर्भ, प्रो. के.पी. पांडेय व डॉ.. सरला पांडेय, पृ.31-32
10. पर्यावरण अध्ययन, आर.के.जैन व डॉ. सुरेंद्र कुमावत्, पृ. 153
11. पर्यावरण शिक्षा एवं भारतीय संदर्भ, प्रो. के.पी. पांडेय सरला पांडेय पृ. 30-31
12. इंडस्ट्रियल इंजीनियरी सुरक्षा एवं प्रदूषण, डॉ. हेमेद्र दत्त शर्मा पृ. 239-240
13. Times of India (New Delhi) : 15 January, 1999 Quoted from Green File: Issue No. 133, CSE, New Delhi
14. Our Planet, Our Health, WHO, Geneva, 1992
15. Published in Gazzettee of India, Ext. Ord, Part-II Vide mot. Section no. S.O. (844)(E),Dated 19 November,186 G.3 (ii) dated 18 November 1986. P. 15- 16. Quoted from the publication of Rajsthan Pollution Prevention & Prevention & Central Board, Environmenta Preservation and protection, An Integrated Secenero, 1990.
16. पर्यावरण शिक्षा, डॉ. एम.के.गोयल पृ.220

शोधछात्रा (हिंदी)
राजीव विहार, सीपत रोड, (गणेश स्वीट्स के सामने)
बिलासपुर (छ.ग.)

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