पर्यावरण प्रहरी बनकर करें पर्यावरण की रक्षा

Environment
Environment

हर क्षेत्र और वर्ग की परम्पराओं का गहन अध्ययन करने पर पता चलता है कि हमारे पूर्वजों ने पर्यावरण चेतना को किस प्रकार धर्म के माध्यम से जनजीवन से प्रगाढ़ बन्धन में बाँध दिया था। हमारी परम्पराएँ संस्कृति की क्रियान्वित पक्ष का सूक्ष्म बिन्दु हैं। हमारी संस्कृति वन प्रधान रही है। वन ही उपनिषदों की रचना के केन्द्र रहे, योगी मुनियों की तपस्थली रहे। बट, पीपल, खेजड़ी आदि वृक्षों को धर्म के माध्यम से संरक्षित कर पर्यावरण को अधिक-से-अधिक सुरक्षित रखने का प्रयास किया गया। पर्यावरण संरक्षण के बिना आज सब कुछ अधूरा है। क्योंकि आज नदी, जल, वायु, सभी कुछ तो प्रदूषित है। देश की राष्ट्रीय नदी गंगा, यमुना सहित तकरीब 70 फीसदी नदियाँ प्रदूषित हैं। कुछ तो अपने अस्तित्व के लिये ही जूझ रही हैं। जबकि नदियाँ हमारे यहाँ पूजनीय रही हैं। समूचे जलस्रोत प्रदूषित हैं। वायु प्रदूषित है। हालात यहाँ तक विषम हो गए हैं कि देश की राजधानी दिल्ली में जहरीली हवा के चलते लोग श्वांस, धमनी, नेत्र सहित जानलेवा बीमारियों की चपेट में हैं। अधिकांश जंगल समाप्त हो चुके हैं।

असलियत में वे विकास यज्ञ की समिधा बन चुके हैं। हरियाली के कहीं-कहीं दर्शन होते हैं। सही कहा जाये तो अब वह खत्म हो चुकी है। शहरों में बंगलों और घरों के अन्दर जो हरियाली देखने को मिल रही है, उसे प्रतीकात्मक ही कहा जाये तो कुछ गलत नहीं होगा। असल में वह कुछ ही लोगों के प्रकृति प्रेम का परिचायक है। कारण पेड़ों की हमने औद्योगिक प्रतिष्ठान, कारखानों और सड़कों के निर्माण की खातिर आहुति दे दी है।

जंगलों के अभाव में वन्यजीव जो हमारे पारिस्थितिकी तंत्र में अहम भूमिका निभाते थे, आज संकट में हैं। वे भोजन-पानी की तलाश में शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। सच तो यह है कि पर्यावरण के खतरों के प्रति हम आज भी अनभिज्ञ हैं। गौरतलब है कि पर्यावरण चेतना प्राचीनकाल से हमारी संस्कृति का अभिन्न अंग रही है।

यदि हम हर क्षेत्र और वर्ग की परम्पराओं का गहन अध्ययन करें तो पता चलता है कि हमारे पूर्वजों ने पर्यावरण चेतना को किस प्रकार धर्म के माध्यम से जनजीवन से प्रगाढ़ बन्धन में बाँध दिया था। हमारी परम्पराएँ संस्कृति की क्रियान्वित पक्ष का सूक्ष्म बिन्दु हैं। हमारी संस्कृति वन प्रधान रही है। वन ही उपनिषदों की रचना के केन्द्र रहे, योगी मुनियों की तपस्थली रहे। बट, पीपल, खेजड़ी आदि वृक्षों को धर्म के माध्यम से संरक्षित कर पर्यावरण को अधिक-से-अधिक सुरक्षित रखने का प्रयास किया गया।

विभिन्न जीवों को हमने विभिन्न देवी-देवताओं के वाहन के रूप में स्वीकार कर उन्हें पूजनीय ही नहीं, वरन संरक्षणीय श्रेणी में स्थान दिया। जल को देवता की संज्ञा दी गई और नदियों को देवी स्वरूपा मान उन्हें पूजा गया और इसी उद्देश्य से उन्हें शुद्ध रखने की परम्परा विकसित हुई। लेकिन विकास के पश्चिमी मॉडल का अनुसरण कर और भौतिक सुख-संसाधनों की चाहत की बढ़ती होड़ ने पर्यावरण के प्रति हमारे सदियों के उस प्रेम का अवसान कर दिया।

दरअसल उसी का दुष्परिणाम आज हम सबके सामने है। इसमें दो राय नहीं कि यदि अब भी हम नहीं चेते तो बहुत देर हो जाएगी और तब हम केवल यह सोचकर रह जाएँगे कि यदि पर्यावरण संरक्षण के प्रति हम सजग रहते तो आज यह दुर्दिन न देखने पड़ते।

सबसे बड़ी चिन्ता की बात यह है कि पर्यावरण और प्रदूषण की भयावहता को लेकर आये-दिन खबरें समाचार पत्रों की सुर्खियाँ बनती रहती हैं। लेकिन दुखदायी बात यह है कि हम तब भी सचेत होने का नाम नहीं लेते। उस स्थिति में भी जबकि हमारे देश की दुनिया के सर्वाधिक प्रदूषित देशों में गिनती होती है और देश की राजधानी दिल्ली देश में प्रदूषित शहरों की सूची में सबसे ऊँचे पायदान पर है। इसमें दो राय नहीं कि पर्यावरण के मामले में हमारे देश की हालत बद-से-बदतर है।

यह इसी से जाहिर हो जाता है कि ताजा ग्लोबल एनवायरनमेंट इंडेक्स में शामिल 180 देशों में भारत का स्थान 177वाँ है। जबकि केवल दो साल पहले इस सूची में हमारे देश का स्थान 141वाँ था। यह पर्यावरण के मामले में देश की बदहाली का प्रतीक है। देखा जाये तो देश की आबोहवा इतनी खराब है कि इसे दुनिया के खराब पाँच देशों यथा- बांग्लादेश, नेपाल, बुरंडी और कांगो में शामिल किया गया है।

रिपोर्ट के अनुसार भारत और चीन आबादी के विकास के भारी दबाव से जूझ रहे हैं। विकास की गति तेज करने का सीधा सा असर पर्यावरण पर पड़ रहा है। नतीजन वायु की गुणवत्ता गिर रही है। पर्यावरण की समस्या प्राणियों के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डाल रही है। हवा के साथ पानी, मिट्टी भी दूषित हो रही है। इसलिये पर्यावरण सुधार के लिये बड़े कदम उठाने की बेहद जरूरत है।

अन्तरराष्ट्रीय संगठन ग्रीनपीस इण्डिया की मानें तो उसकी सालाना रिपोर्ट में इस बात का खुलासा हुआ है कि देश की राजधानी दिल्ली वायु प्रदूषण के मामले में सबसे अधिक प्रदूषित शहरों की सूची में सर्वोच्च स्थान पर है। यहाँ का औसत पीएम स्तर राष्ट्रीय वायु गुणवत्ता मानकों से पाँच गुणा ज्यादा है।

विडम्बना यह है कि देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के शहर भी दिल्ली से कम प्रदूषित नहीं हैं। वायु प्रदूषण से सबसे ज्यादा प्रदूषित गंगा के मैदानी इलाके के शहर हैं। रिपोर्ट के अनुसार देश के शहरों के 55 करोड़ लोग राष्ट्रीय वायु गुणवत्ता सूचकांक मानक से कई गुणा ज्यादा वायु प्रदूषण में साँस लेने को विवश हैं जबकि इसमें पाँच साल से कम आयु के 4 करोड़ 70 लाख बच्चे भी शामिल हैं। इनमें से तकरीब 65 लाख बच्चे अकेले उत्तर प्रदेश से हैं। यह दर्शाती है कि देश में प्रदूषण के मामले में सर्वाधिक बुरी हालत उत्तर प्रदेश की है। यह कम चिन्तनीय नहीं है।

सबसे दुखदायी बात यह है कि यह आँकड़े केवल 22 जिलों के ही हैं जहाँ वायु गुणवत्ता निगरानी केन्द्र बने हैं। जबकि दावे कुछ भी किये जाएँ असल में प्रदेश के 53 जिलों में वायु गुणवत्ता नापने की कोई व्यवस्था तक नहीं है। यदि प्रदेश के बाकी जिलों की वायु गुणवत्ता के आँकड़े हासिल किये जाएँ तो प्रदेश में प्रदूषित शहरों की संख्या और ज्यादा होगी और वहाँ वायु गुणवत्ता के आँकड़े और भयावह होंगे। इस सच्चाई को झुठलाया नहीं जा सकता।

विडम्बना यह कि यह जानते-समझते हुए कि वायु प्रदूषण से फेफड़े ही नहीं किडनी, ब्लैडर और कोलेरेक्टल के कैंसर का भी खतरा है। प्रदूषित वायु में पाया जाने वाला पीएम 2.5, नाइट्रोजन डाइऑक्साइड और ओजोन पार्टिकल इस बीमारी के कारण बन रहे हैं। देश के राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में रहने वाले लोगों की जिन्दगी खतरनाक वायु प्रदूषण की वजह से लगभग छह साल कम हो चुकी है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन की मानें तो दिल्ली में प्रदूषण के कारण चार से सत्रह साल के बच्चे ब्लड प्रेशर, फेफड़े से सम्बन्धित व साँस की बीमारियों की चपेट में हैं। प्रदूषण के चलते देश में 10 लाख बच्चों का जन्म समय से पहले हो रहा है। भारत की महिलाएँ इंग्लैंड और फ्रांस की महिलाओं के मुकाबले 20 गुणा ज्यादा प्रदूषित हवा में साँस लेने को मजबूर हैं। वायु प्रदूषण से महिलाओं में बाँझपन का खतरा बढ़ रहा है। इससे महिलाओं में अनियमित मासिक धर्म, मेटाबोलिक सिंड्रोम और पॉलिस्टिक ओवरी जैसी समस्याएँ दिनोंदिन बढ़ रही हैं। उनकी प्रजनन क्षमता प्रभावित हो रही है सो अलग। जिस हवा में हम साँस ले रहे हैं, वह दिनोंदिन जहरीली हो रही है। हर दिन कम-से-कम दो मौतें वायु प्रदूषण से हो रही हैं।

भारतीय पर्यावरण का प्रदूषण बीते सौ साल में चीन से भी आगे चला गया है। वाहनों की बेतहाशा बढ़ती तादाद भी वायु प्रदूषण की अहम वजह है। वाहनों से निकलने वाला धुआँ इसमें प्रमुख भूमिका निभा रहा है। लेकिन बढ़ते वाहनों पर अंकुश सपना हो गया है। ईंधन की बचत स्वास्थ्य और समाज के विकास के लिये जरूरी है लेकिन इसके लिये जागरुकता का अभाव है। यह भी कि यदि हवा शुद्ध हो जाये और डब्ल्यूएचओ के मानकों को पूरा कर लिया जाये तो देश के लोगों की औसत आयु में नौ साल की बढ़ोत्तरी हो सकती है। इस तरह आदमी की लम्बा जीवन जीने की लालसा भी पूरी हो सकती है।

सबसे बड़ी चिन्ता की बात यह है कि आखिर बार-बार चेतावनियों, वैज्ञानिक अध्ययनों और शोध रिपोर्टों के बावजूद हम क्यों नहीं चेत रहे? इसका कारण क्या है? जबकि अब यह जगजाहिर है कि वायु प्रदूषण से जन्मे हालात किसी आपदा से कम नहीं हैं। रिपोर्टों, अध्ययनों, वैज्ञानिक चेतावनियों को नजरअन्दाज करना हमारी सबसे बड़ी भूल होगी। सरकारों का विकास का दावा तभी फलीभूत होगा जबकि देश का स्वास्थ्य सही हो।

सरकार को सबसे पहले अपने देशवासियों को रहने लायक वातावरण बनाना चाहिए। यदि ऐसा नहीं हुआ तो बोस्टन स्थित हेल्थ इफेक्ट इंस्टीट्यूट द्वारा दी गई चेतावनी कि यदि भारत अब भी नहीं चेता और प्रभावी कदम नहीं उठाए तो वायु प्रदूषण से होने वाली मौतों में तीन गुणा इजाफे को रोक पाना असम्भव होगा। इसलिये जरूरी है कि हम अपनी जीवनशैली बदलें।

कुआलालंपुर से पर्यावरण बचाने के उपाय सीखें। हर घर के आगे तीन-तीन पेड़ लगाएँ। वृक्षारोपण को लोगों की जीवनचर्या का हिस्सा बनाएँ। वाहनों की बढ़ती तादाद पर अंकुश हेतु कानून बनाया जाये। विचारणीय यह है कि जब चीन हमसे बहुत खराब हालात में होते हुए भी हमसे काफी अच्छी स्थिति में आ सकता है तो हम क्यों नहीं। यह व्यवस्था की नाकामी और चेतावनियों-रिपोर्टों पर गम्भीरता से तार्किक दृष्टिकोण न अपनाने का नतीजा है। इसलिये अब भी समय है, कुछ करना होगा अन्यथा गम्भीर परिणामों को भुगतने के लिये तैयार रहना होगा। तब मानव अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा।

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading