पर्यावरण-पर्यटन की योजनागत तैयारी

23 Nov 2015
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पिछले 50 वर्षों के अनुभवों से पता चलता है कि स्थायित्व, संरक्षण, पर्यावरण-पर्यटन आदि के विचार और आदर्श उस समय तक मूर्त रूप नहीं ले सकते जब तक कि पूरा अन्तरराष्ट्रीय समुदाय अपने आपको एक नई विचार दृष्टि और नई नैतिक दृष्टि से संवार नहीं लेता।

अनंत काल से हमारे संत और महात्मा पर्वतों, मैदानों और नदियों की यात्रा और बुद्धि के उस उत्थान का अनुभव करते रहे हैं जो प्रकृति के साथ निकट सम्पर्क से पैदा होता है। इन लोगों ने इस बात को समझ लिया था कि मनुष्य और प्रकृति दो अलग अस्तित्व नहीं, बल्कि एक ही कार्बनिक तत्व, एक ही दैवी आत्मा के अविभाज्य अंग हैं। उनका विश्वास था कि प्रकृति का बुनियादी तत्व अंतरक्षीय प्राणी बनाता है- वह प्राणी, पर्वत जिसकी अस्थियाँ, धरती मांस, समुद्र रक्त, वायु सांस और अग्नि ऊर्जा है। उन्होंने यह प्रचारित किया कि ‘‘पृथ्वी हमारी माता है और हम उसकी संतान।’’ चार हजार वर्ष पूर्व रचित प्राचीन काल के आरम्भिक वैदिक स्रोतों में वह संदेश निहित है जिसे आज हम सतत विकास के नाम से जानते हैं।

धरती की सृजन और वहन क्षमताओं को एक मजबूत अध्यात्मिक आधार माना गया है। यही कारण है कि भारत शताब्दियों से प्राकृतिक और सांस्कृतिक सम्पत्ति का भंडार बना हुआ है।

दुर्भाग्य से प्रकृति को सम्मान देने और उसके साथ सद्भाव से रहने की यह लम्बी परम्परा बाद में अनियंत्रित भौतिकवाद के आक्रमण और अन्तरराष्ट्रीय व्यवस्था में बढ़ती असमानता के कारण विकृत होती गई और कई तरीकों से विकासशील देशों की क्षमता को दुर्बल बनाती गई। आज यह परम्परा इतनी कमजोर हो चुकी है कि वास्तविक रूप में कोई निर्णायक प्रभाव नहीं डाल सकती। विश्व में अन्यत्र सभी विचार गोष्ठियों, सेमिनारों और घोषणा-पत्रों में बारंबार स्थायित्व के बारे में स्रोतों का पाठ किया जाता है, लेकिन वह बिरले ही मूर्त रूप ले पाता है।

आंतरिक प्रोत्साहन


मैंने यह जरूरी समझा कि उपर्युक्त तथ्यों की तरफ ध्यान आकर्षित किया जाए, क्योंकि आज हमारे विचारों और आदर्शों को एक जागृत और उनत आत्मा के आन्तरिक प्रोत्साहन के जरिए समर्थन देने की परम आवश्यकता है। मेरा विश्वास है कि कोई भी स्वस्थ परिदृश्य तब तक नहीं बन सकता जब तक कि एक स्वस्थ मानसिक दृष्टिकोण मौजूद न हो, जो उसे जन्म दे और उसकी परवरिश करें। अनुकूल और उत्तरदायी मृदा के बिना कोई भी बीज चाहे कितना ही अच्छा और उपजाऊ क्यों न हो, अपनी जड़ें नहीं जमा सकता और न ही वांछित फसल दे सकता है।

इस सिलसिले में मुझे संयुक्त राष्ट्र और उसकी एजेंसियों के पिछले पाँच दशकों के अनुभव की तरफ ध्यान आकर्षित कराना होगा। सदस्य देशों द्वारा स्वीकृत आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरणीय लक्ष्य पूरे नहीं हो सके। इसका कारण मुख्य रूप से यह था कि जो मूल्य, जो बुनियादी शक्ति राष्ट्रों का जीवन चलाती है, उसमें कोई परिवर्तन नहीं हुआ। व्यवहार में पर्यावरण प्रणाली अथवा समानता तथा स्थायित्व के भुरभुरेपन के प्रति बहुत मामूली सम्मान दर्शाया गया। अन्यथा इस बात का कोई औचित्य नहीं है कि पियर्सन आयोग, विली ब्रांट आयोग, ब्रंटलैंड आयोग और संयुक्त राष्ट्र की पर्यावरण तथा रियो सम्मेलन की सिफारिशों के बावजूद पहले से अधिक लोग स्लमों में क्यों रह रहे हैं; क्यों लोगों को साफ पानी नहीं मिल रहा है और सफाई सुविधा नहीं है; और क्यों अन्तरराष्ट्रीय वातावरण गर्म होता जा रहा है, जिससे तटवर्ती क्षेत्रों के बड़े भाग और द्वीपसमूहों के अस्तित्व को खतरा पैदा हो गया है।

अगर वर्तमान प्रवृत्ति बनी रही तो पर्यावरण-पर्यटन की वकालत के परिणाम भी ऐसे ही होेंगे। अन्तरराष्ट्रीय नैतिक शास्त्र संहिता के अनुच्छेद तीन में कहा गया है कि ‘‘पर्यटन विकास के सभी शेयरधारकों को प्राकृतिक पर्यावरण को सुरक्षित रखना चाहिए ताकि वर्तमान और भावी पीढ़ियों की आवश्यकताओं और आकांक्षाओं को समान रूप से संतुष्ट करने वाले सक्षम, मजबूत और सतत आर्थिक विकास का लक्ष्य हासिल किया जा सके।’’ इसमें संदेह नहीं कि सभी सदस्य-राष्ट्र दिल की गहराईयों से इसे स्वीकार करेंगे। लेकिन मुद्दा सिद्धान्त रूप में इसे स्वीकार करने का नहीं है, इसे व्यवहार में वास्तविक रूप देने का यह काम तब तक पूरा नहीं हो सकता जब तक हम सब एक साथ मिलकर उचित तरह का आन्तरिक प्रोत्साहन बनाने के लिये ठोस और सक्षम उपाय न करें। अभी हम लोग इस दिशा में बहुत कम काम कर रहे हैं।

ब्रंटलैंड आयोग ने जोर देकर कहा है कि सतत विकास का अर्थ उत्पादन से कहीं अधिक है। यह उत्पादन की विषय-वस्तु में परिवर्तन चाहता है ताकि यह कम भौतिक बने और अधिक ऊर्जा गहनता वाला तथा प्रभाव में अधिक समानता वाला हो। पारिस्थितिक पूँजी बनाए रखने, आमदनी के वितरण में सुधार लाने और आर्थिक संकट की असुरक्षा घटाने के उपायों के तौर पर सभी देशों में ये परिवर्तन आवश्यक हैं। जोर कागजों पर ही अधिक है।

उदाहरण के तौर पर ऊर्जा के इस्तेमाल के सिलसिले में आज भी अमेरिका, जहाँ विश्व जनसंख्या के सिर्फ 5 प्रतिशत व्यक्ति रहते हैं, विश्व का करीब एक-चौथाई कार्बन उत्सर्जित करता है, जो किसी भी अन्य देश से अधिक है। यह चीनी आबादी के प्रति व्यक्ति से 11 गुना अधिक, भारत से 20 गुना अधिक और मोजांबिक से 300 गुना अधिक है। क्योटो प्रोटोकाॅल द्वारा निर्धारित लक्ष्य की अनदेखी कर दी गई है हालाँकि प्रमुख वैज्ञानिकों ने बार-बार अन्तरराष्ट्रीय समुदायों को चेतावनी दी है कि ‘ग्रीन हाउस’ के खत्म होने में सिर्फ 5 से 10 साल का समय रह गया है, गैस उत्सर्जन से वातावरण स्थिर रखने का काम पहुँच से बाहर हो जाने की आशंका है और यह ग्रह मानवमुक्त ‘जोन’ बनने की ओर अग्रसर है। सतत विकास और पर्यावरण-पर्यटन जैसे विचारों की तब क्या प्रासंगिकता रह जाएगी जब द्वीप के द्वीप लुप्त हो जाएंगे, तट के तट कट जाएंगे और राष्ट्रों को बाढ़, तूफान, आँधी तथा सूखे के कारण भारी आर्थिक नुकसान उठाना पड़ेगा। समझा जाता है कि पिछले दशक (1990-2000) में मौसम-संबंधित नुकसान करीब 480 अरब डाॅलर का रहा।

जहाँ तक समान प्रभाव और आमदनी के वितरण के मुद्दे का सवाल है, स्थिति अधिक परेशान करने देने वाली है। असमानता इतनी बढ़ गई है कि आज विश्व के 20 प्रतिशत लोगों के पास विश्व के कुल सकल राष्ट्रीय उत्पाद का 86 प्रतिशत, विश्व के निर्यात बाजार का 82 प्रतिशत और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का 68 प्रतिशत है। इसके विपरीत कम आय वाले 20 प्रतिशत लोग प्रतिदिन एक डाॅलर आमदनी के सहारे जिंदा रहने पर मजबूर हैं और उन्हें विश्व के सकल घरेलू उत्पाद का सिर्फ एक प्रतिशत हिस्सा मिलता है। विश्व निर्यात बाजार का एक प्रतिशत और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में भी इनका हिस्सा एक प्रतिशत ही है। ये असमानताएँ दिन प्रतिदिन बढ़ ही रही हैं। पिछले 10 वर्षों में लोगों, निगमों तथा देशों के बीच आमदनी, संसाधन और दौलत में बढ़ती एकाग्रता देखने को मिली है। धनवान देशों में रहने वाले विश्व की आबादी के 5वें और निर्धन देशों में रहने वाले 5वें का अनुपात 1960 में 30:1 का था जो 1997 में बढ़कर 74:1 का हो गया। आज तीन बड़े अरबपतियों की सम्पत्ति सभी कम विकसित देशों और उनके 60 करोड़ लोगों के संयुक्त सकल राष्ट्रीय उत्पाद से कहीं अधिक है।

नई विचारदृष्टि


संक्षेप में पिछले पचास वर्षों में मिला सबक बिल्कुल स्पष्ट है। पूरी दुनिया में नये सांस्कृतिक मूल्य के घोषणा-पत्र के आधार पर जीवन की एक नई रूपरेखा विकसित किए जाने की आवश्यकता है। हमारी सैद्धांतिक अवधारणा सार्थक बनाने और उसे मूर्त रूप देने के लिये एक नई विचारदृष्टि और एक नये विश्व को एक साथ उभरना होगा।

भारत में हम इस सबक से सीख लेने और अन्य देशों को इस बात पर राजी करने में काफी रुचि ले रहे हैं कि एक नये नीतिशास्त्र का निर्माण किया जाए जो इस ब्रह्मांड को एक नये अंतरिक्षीय ‘वेब’ के तौर पर देखें, जिसके तहत यह माना जाता है कि हर चीज एक दूसरे से जुड़ी है और पृथ्वी पर जो कुछ घटित होगा वहीं पृथ्वी पर रहने वाले मनुष्यों पर घटित होगा।

हमें तथ्यों के मूल में जाना चाहिए और बात की तह में जाकर उस मानसिक अवधारणा का निर्माण करना चाहिए जो विचारों और आदर्शों के समरूप हो और जिसे मूर्त रूप दिया जा सके। हम यह महसूस करते हैं कि पर्यावरण-पर्यटन का उन लोगों के लिये बहुत कम आकर्षण है जिन्हें मौजूदा दौर के भौतिकवाद ने डसा हुआ है या जिनका दिमाग सुखवादी दृष्टिकोण से निर्देशित है, जो भौतिक सुख की तलाश में रहते हैं अथवा जिनकी दृष्टि उनके विश्वास से निर्देशित होती है। दुनिया एक मशीन है जिसकी रचना निष्क्रिय पिण्डों से हुई है। इसे भौतिक आवश्यकता घुमाती है और वैचारिक प्राणी के अस्तित्व के प्रति यह असंवेदनशील है। दूसरी तरफ वुड्सवर्थ की तरह, उन लोगों के लिये जिनका दिल आसमान में डेफोडिल्स को देखकर सम्मोहित होता है, इसका अर्थ अलग है।

इसीलिए हम लोग उन उपायों को प्राथमिकता दे रहे हैं जो स्वस्थ विचारदृष्टि बनाने में मदद करे। एक ऐसी विचारदृष्टि जो जीवन के उत्कृष्ट पहलुओं के प्रति संवेदनशील हो और बेहतर मूल्य-व्यवस्था को स्वीकृति की तरफ ले जाए।

सभी स्थलों पर पर्यावरण-शिक्षा और प्रकृति से सामंजस्य बिठाकर रहने की प्राचीन परम्परा फिर से पैदा करना हमारी राष्ट्रीय नीति का बुनियादी घोषणा-पत्र होना चाहिए। समग्र एकता में हमारे बुनियादी विश्वास की पुनर्व्याख्या और उसका सुदृढ़ीकरण तथा ब्रह्मांड के अद्वैतवाद यानी ‘सभी में एक और एक में सब’ हमारी कार्यसूची में सबसे ऊपर होने चाहिए।

हमारा यह भी विश्वास है कि पर्यावरण पर्यटन को सिर्फ प्रकृति-पर्यटन नहीं समझा जाए। यह काफी व्यापक विषय है। इसे गरीबी दूर करने, बेरोजगारी कम करने, नया कौशल निर्मित करने, महिलाओं की स्थिति सुधारने, सांस्कृतिक विरासत का संरक्षण करने, सम्पूर्ण वातावरण में सुधार लाने, सभ्यताओं के बीच वार्तालाभ बढ़ाने और अधिक न्यायोचित विश्व-व्यवस्था के विकास में सहायक बनने में सक्षम होना चाहिए। इसे एक धुँआ-रहित उद्योग के तौर पर काम करना चाहिए और इसका पारिस्थितिकी प्रभाव इतना नरम होना चाहिए कि उसका आरम्भिक विरूपण इस धरती द्वारा समय से निष्प्रभाव कर दिया जाए।

भारत की पुनर्खोज


पिछले कुछ समय से पर्यावरण और संस्कृति की रंगभूमि पर भारत अनिद्रा की स्थिति में था। लेकिन अब यह पूरी तरह जाग गया है और सही दिशा में कोशिशें कर रहा है। यह अपनी विशाल प्राकृतिक उदारता तथा कला और वास्तुकला की विशाल निधि तथा अपने दृष्टिकोण को सुधार कर अपने वातावरण को उन्नत बना रहा है। यह वास्तव में समृद्ध सांस्कृतिक और पवित्र स्थानों को सुस्पष्ट कर रहा है। यह पहाड़ों, साहसिक, ग्रामीण तथा वन्यजीव पर्यटन की सभी सम्भावनाओं का पता लगा रहा है। और शारीरिक तथा मानसिक बीमारी से निपटने में योग, सिद्ध, आयुर्वेद तथा यूनानी पद्धितियों की अद्भुत तकनीकी को पर्यटन-स्थलों के माध्यम से विश्व के सामने रख रहा है। इस काम के लिये प्राकृतिक दृश्यों से सम्पन्न 572 क्षेत्रों, 89 राष्ट्रीय उद्यानों और 483 वन्यजीव उद्यानों, तथा प्राचीन स्मारक तथा पुरातत्व और अवशेष अधिनियम के तहत 3606 संरक्षित स्मारकों की मदद ले रहा है। यह प्राचीन प्रतिष्ठा के सन्दर्भ में सिर्फ भौतिक आधार पर नहीं बल्कि समग्र गुणवत्ता के आधार पर जीवन मूल्यांकन के लिये सब कुछ करने की कोशिश कर रहा है।

कुल मिलाकर हमारा प्रयास दुनिया के सामने उस चमत्कार को पेश करना है जोकि ‘भारत’ है। यह आश्चर्य न सिर्फ सुन्दरता और प्राकृतिक विशालता के अर्थ में है बल्कि उस सभ्यता के सन्दर्भ में भी है जिसने यहाँ जन्म लिया और जिसका यहाँ लालन-पालन हुआ; एक ऐसी सभ्यता जो मूल और शक्तिशाली मस्तिष्क से निकली और जिसने दुनिया की पाँच बड़ी विचारधाराओं में से तीन को जन्म दिया- हिन्दू धर्म, बौद्ध धर्म और जैन धर्म। हम यह सुनिश्चित करने में रुचि रखते हैं कि भारत आने वाला पर्यटक शारीरिक रूप से शक्तिशाली बने, मानसिक रूप से उसका उत्साह बढ़े, सांस्कृतिक रूप से वह समृद्ध बने और नैतिक रूप से उसका उत्थान हो; अपने देश लौट कर वह अपने अंदर ‘भारत’ को महसूस करे।

हमने यह समझ लिया है कि अगर उभरते अन्तरराष्ट्रीय पर्यटन के मानचित्र पर भारत को सही स्थान बनाना है तो उसे बेहतर प्रयास करने होंगे। विश्व पर्यटन संगठन के अनुमानों के अनुसार अन्तरराष्ट्रीय पर्यटकों की संख्या मौजूदा 700 मिलियन से बढ़कर सन 2020 तक डेढ़ अरब पार कर जाएगी और यह कारोबार वर्तमान 476 अरब डाॅलर से बढ़कर 2000 डाॅलर का हो जाएगा। साथ ही हम कुप्रबंधन तथा ‘अदूरदर्शी’ पर्यटन से होने वाले गम्भीर नुकसानों के प्रति भी सचेत हैं जो खासतौर से राष्ट्र की जैव-विविधता तथा उसके प्राकृतिक पर्यावरण और ऐतिहासिक स्थलों और स्थानीय समुदायों को नुकसान पहुँचा सकते हैं।

संस्थागत स्तर पर हमने एक ढाँचा विकसित किया है जो सरकार के नेतृत्व में निजी क्षेत्र द्वारा संचालित है और सामुदायिक कल्याण की ओर उन्मुख है। सरकार को पर्यटन व्यापार और उद्योग नियंत्रित करने, पर्यटकों की सुरक्षा सुनिश्चित करने तथा बुनियादी ढाँचा और स्वास्थ्य देखभाल सुविधा उपलब्ध कराने के लिये कानून बनाना होगा। निजी क्षेत्र को इन गतिविधियों के मुख्य संचालक के तौर पर काम करना होगा और विकास प्रक्रिया को गति देनी होगी; साथ ही उनका संरक्षण भी करना होगा। सरकार और निजी क्षेत्र, दोनों को ही स्थायित्व की सुरक्षा करनी होगी और स्थानीय समुदाय के सामाजिक तथा आर्थिक विकास को बढ़ावा देना होगा।

दो अध्ययन


पर्यटन, खास तौर से पर्यावरण के प्रति हमारे बुनियादी दृष्टिकोण को हाल के दो मामलों के संक्षिप्त तथ्यों द्वारा बेहतर तरीके से निरूपित किया जा सकता है। एक का संबंध उत्तर भारत के जम्मू क्षेत्र में स्थित वैष्णो देवी मंदिर से है और दूसरे का पश्चिम भारत के महाराष्ट्र में स्थित अजंता एलोरा गुफाओं से।

वैष्णो देवी मंदिर


माता वैष्णो देवी का मंदिर भारत के बहुत ही सम्मानित मंदिरों में एक है। यह शक्तिपंथ से सम्बन्धित है जो माता देवी के आर्य-पूर्व पंथ से जुड़ा है। यह मंदिर, जोकि वास्तव में एक प्राकृतिक गुफा मंदिर है, जम्मू से 45 किलोमीटर दूर त्रिकूट पर्वत पर स्थित है। इसके सबसे नजदीक का कस्बा ‘कटरा’ है जहाँ से श्रद्धालु 6 हजार फीट की यह ऊँचाई चढ़ते हैं। इस पवित्र गुफा में तीन पिंड्स मौजूद हैं- तीन मूर्तियाँ, जो तीन शक्तियों का प्रतिनिधित्व करती हैं- बुद्धि की देवी ‘महासरस्वती’ का, धन की देवी ‘महालक्ष्मी’ का, ओर मनोरंजन की देवी ‘महाकाली’ का।

मंदिर के प्रबंध और परिसर के आस-पास की स्थिति में सुधार के लिये एक कानून बनाया गया है। इसके तहत माता वैष्णो देवी मंदिर बोर्ड के नाम से एक स्वायत्त बोर्ड का गठन किया गया है जिसके अध्यक्ष राज्यपाल होते हैं। मंदिर और इसके आस-पास के परिसर का पूरा प्रबंधन इस बोर्ड को सौंप दिया गया है। बोर्ड के कोष में जो दान-दक्षिणा जमा होती है, उसे मानवीय और विकास योजनाओं पर खर्च किया जाता है।

इस मंदिर-कोष से वहाँ तीव्र सुधार किए गए। बहुत ही कम समय में पूरा 14 किलोमीटर का मार्ग चौड़ा किया गया, उसे पक्का बनाया गया, उस पर टाइल्स लगाए गए तथा मार्ग में करीब एक हजार सोडियम-वेपर लैम्प लगाए गए। 10 लाख से अधिक टाइल्स लगाए गए; लगभग 5 हजार मुंडेर-दीवारों का निर्माण किया गया; खतरनाक स्थानों पर करीब दो हजार मीटर रेल (रेलिंग) लगाई गई; 26 ‘शरणस्थल सह कैफेटेरिया’ इकाईयाँ स्थापित की गई; हजारों फ्लश शौचालयों, वैक्यूम क्लीनरों, फोगिंग मशीनों तथा झाडु़ओं सहित सभी आधुनिक सुविधाएँ उपलब्ध कराई गईं। इसके अलावा हजारों कम्बलों का भी इंतजाम किया गया जो ड्राईक्लीनिंग संयंत्रों से धोए जाते हैं। सैकड़ों नये विश्रामघर, दुकानें कियोस्क, बनाए गए। परिसर में व्यापक वृक्षारोपण के अलावा फूलों और झाड़ियों वाले 60 हरित क्षेत्र बनाए गए। चिकित्सालय, स्कूल और कार्यकेन्द्र खोलकर आस-पास के गाँवों और छोटे शहरों में रहने वाले लोगों को मानवीय सेवा प्रदान की गई। इधर-उधर बिखरे इतिहास के कुछ उपेक्षित अवशेषों, जैसे कि बाबा जीट्टो और जनरल जोरावर सिंह के स्मारकों को पुनरुज्जीवित किया गया।

अब वैष्णौ देवी मंदिर अपने आप में एक सुधारात्मक भावना का रूप, सामाजिक और सांस्कृतिक प्रगति का प्रतीक, तथा प्रशासन में सृजनात्मक तथा गतिशीलता का आदर्श बन गया है। यह परिस्थिति हमारे जन-साधारण और आध्यात्मिक जीवन की तलाश करने वाले उस व्यक्ति को भी प्रभावित करती है जो आधुनिक विज्ञान द्वारा उपलब्ध कराई गई आंतरिक और बाह्य दृष्टि की अवधारणा से सामंजस्य स्थापित कर सकता है। मंदिर कोष का 50 से 60 करोड़ रुपया प्रतिवर्ष क्षेत्र के आस-पास रहने वालों के आर्थिक विकास और पर्यावरण उन्नति पर खर्च किया जाता है। इसका असर भी पड़ा है। तीर्थयात्रियों की संख्या वार्षिक दस लाख से बढ़कर 50 लाख पर पहुँच गई है। रोजगार के अवसर तथा स्वास्थ्य और शिक्षा सुविधाओं का लाभ ज्यादातर स्थानीय आबादी को मिला है। इतिहास और विरासत को भी संरक्षित किया गया है और उसे मजबूत आधार प्रदान किया गया है। विकास और संरक्षण की आवश्यकताओं में प्रभावशाली तरीके से सामंजस्य बिठाया गया है। भौतिक और आध्यात्मिक बंजर भूमि के स्थान पर अब मंदिर परिसर के आंतरिक और बाह्य दोनों रूपों में हरियाली ला दी गई है।

अजंता-एलोरा गुुफाएँ


अजंता-एलोरा गुफाएँ प्राचीन हैं। इन्हें पहाड़ियाँ काटकर बनाया गया है तथा इनमें उत्तम चित्रकारी और रेखांकन है। इन्हें दुनिया की महत्त्वपूर्ण अमूल्य सांस्कृतिक धरोहरों में गिना जाता है और यह भारत की समृद्ध कला का शक्तिशाली प्रतीक भी है। इन गुफाओं को ‘विश्व-विरासत स्मारक’ घोषित किया गया है।

अजंता में तीस गुफाएँ हैं जिनमें से एक अधूरी है। ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी से छठी शताब्दी के बीच इन गुफाओं का निर्माण हुआ। इनके अंदर की चित्रकारी का विषय बुद्ध और जातक हैं। जो चित्र उकेरे गए हैं, उनकी गहन मानवीयता और चित्रकार की संवेदनशीलता इन चित्रों को अद्वितीय बनाती है। वास्तव में यह भारत में पहली विकसित चित्रकारी का प्रमाण है जो बौद्ध धर्म के विस्तार के साथ ही हिमालय क्षेत्र में फैल गई और वहाँ से सिल्क मार्ग से होते हुए मध्य एशिया और फिर चीन तथा वहाँ से जापान और कोरिया तक पहुँच गई। एलोरा में 34 गुफाएँ हैं और इनका अपना ही महत्व हैं ये भारत की उत्कृष्ट कलात्मक परम्परा का प्रतिनिधित्व करती हैं जो तीन महत्त्वपूर्ण विश्वासों- बौद्ध धर्म, ब्राह्मवाद और जैन धर्म से जुड़ा है। पहाड़ काटकर बनाया गया मंदिर ‘कैलाश’ खासतौर से उल्लेखनीय है क्योंकि इसका जो अनुपात है, इसमें जिस कारीगरी का इस्तेमाल किया गया है और इसमें जिस तरह के वास्तुशिल्प का प्रयोग किया गया है वह और कहीं देखने को नहीं मिलती।

संरक्षण और विकास के दोहरे लक्ष्य के लिये और उस पुराने समय को फिर से हासिल करने के लिये, जब आध्यात्मिक शांति थी, सहयाद्री पहाड़ी के आस-पास घना जंगल था और बाघोरा उपनदी में पानी का शोर था, जापान के अन्तरराष्ट्रीय सहकारिता बैंक की वित्तीय सहायता से जीर्णोद्धार के लिये एक व्यापक योजना बनाई गई। अब इसे तेजी से लागू किया जा रहा है। निकट के हवाई अड्डे तथा औरंगाबाद से गुफास्थल तक की पूरी 160 किलोमीटर लम्बी सड़क को उन्नत बनाया जा रहा है और आस-पास की 730 हेक्टेयर भूमि में पेड़ लगाए जा रहे हैं। आस-पास की पहाड़ियों को मनोरम दृश्य से सुसज्जित किया जा रहा है। चित्रों का संरक्षण किया जा रहा है और गुफाओं में आप्टिक फाइबर की हल्की रोशनी की जा रही है। गुफाओं से दो किलोमीटर दूर एक पर्यटक-केन्द्र बनाया जा रहा है जिसमें सभी तरह की आधुनिक सुविधाएँ और वाहनों की पार्किंग की व्यवस्था है। इसके आस-पास काफी हरियाली भी है। एक व्यावसायिक-केन्द्र भी विकसित किया जा रहा है। ये दुकानें स्थानीय लोगों को आवंटित की जाएँगी। इस केन्द्र के विकास और प्रबंध से जो रोजगार सम्भावनाएँ पैदा होंगी, उनमें कुछ अन्य सदस्यों को भी जगह दी जाएगी। इस स्थल पर एक द्विभाषी-सह-सूचना केन्द्र भी बनाया जा रहा है। इस केन्द्र से पर्यटक विद्युत ट्राली के जरिए ही गुफाओं में जा सकेंगे जिससे एक बेहतर पर्यावरण का विकास होगा और पर्यटकों को प्रकृति की अनूठी अनुभूति मिल सकेगी। साथ ही वे कला तथा मानवीय कौशल का सन्देश भी प्राप्त कर सकेंगे। यह पूरा काम अगले दो से तीन महीनों में पूरा हो जाने की सम्भावना है।

अन्य परियोजनाएँ


इस व्यापक सिद्धान्तों को ध्यान में रखते हुए बड़ी संख्या में अन्य परियोजनाएँ भी शुरू की गई हैं और आशा है कि पर्यावरण पर्यटन के क्षेत्र में जल्द ही यह भी एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि बन जाएगी।

(श्री जगमोहन केन्द्रीय पर्यटन और संस्कृति मन्त्री हैं। यह लेख फरवरी, 2002 में मालदीब में एशिया-प्रशांत मन्त्री स्तरीय सम्मेलन में दिए गए उनके भाषण पर आधारित है।)

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