पर्यावरण रक्षा हेतु आन्दोलन की जरूरत

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विश्व पर्यावरण दिवस (5 जून) पर विशेष
बिल्कुल रेगिस्तान में जिस तरह शुतुरमुर्ग रेत में सिर छिपा कर रेतीले तूफान के प्रति आश्वस्त हो जाता है और अंततः एक प्रवंचनापूर्ण मृत्यु को प्राप्त होता है, कुछ ऐसी ही स्थिति पर्यावरण के सन्दर्भ में हमारी है। हम दावे कुछ भी करें, असलियत यह है कि दुनिया में पर्यावरण चौकसी के मामले में हम पिछड़े हैं। विडम्बना तो यह है कि लिथुआनिया जैसा देश इस मामले में शीर्ष स्थान पर है। देखा जाए तो पर्यावरणीय सूचकांक में भारत समूची दुनिया में 24वें स्थान पर है।

दुनिया के 70 देशों के पर्यावरणीय लोकतन्त्र सूचकांक में हमारे देश का 24वां स्थान यह साबित करता है कि पर्यावरणीय जागरूकता के मामले में हमारी स्थिति क्या है। यह दुनियाभर के 70 देशों में पहली बार पर्यावरण सतर्कता को लेकर किया गया आकलन है जिसमें लिथुआनिया, लातविया, रूस, अमेरिका, दक्षिण अफ्रीका, ब्रिटेन, हंगरी, बुल्गारिया, पनामा और कोलम्बिया शीर्ष पर हैं। यदि बड़े कैनवास पर देखें तो दुनिया-जहान की कमोवेश यही हालत दिखाई देती है।

पर्यावरण की बिगड़ती स्थिति को लेकर हम दुनियाभर में वह चाहे कोपेनहेगन हो, कानकुन हो, डरबन हो, दोहा हो या वारसा या फिर कहीं और हर जगह शोर तो खूब करते रहे हैं, सभा, सेमिनार में लम्बे चौड़े भाषण होते रहे हैं, कागजी कार्यवाही भी खूब हुई है और हो भी रही है किन्तु आम जनता, जो महत्त्वपूर्ण घटक है, इस मामले में, उसकी इस सब में कोई हिस्सेदारी नहीं है। इस दिशा में उसको शिक्षित करने का आज तक कोई प्रयास ही नहीं किया गया। जहाँ तक भारतीय समाज की पर्यावरण के प्रति सनातन समझ का प्रश्न है तो वृक्ष-पूजा हमारी सांस्कृतिक परम्परा रही है। पीपल हमारे लिए देवताओं का निवास है, आम-बरगद की हमारे यहाँ पूजा-परम्परा है।

इस तरह वृक्षों के प्रति भारतीय समाज का अनुराग सांस्कृतिक परम्परा के रूप में विकसित हुआ। यह बात दीगर है कि हम जैसे-जैसे विज्ञान के युग में प्रवेश करते गये, वृक्षों के प्रति हमारी सांस्कृतिक श्रद्धा समाप्त होती गई या इसके पीछे छिपी वैज्ञानिक सोच की जगह मात्र जड़ता का भाव रह गया। पर्यावरण विनाश के लिए मूलतः दोषी इस महाजनी सभ्यता की शुरूआत भारत में अंग्रेजी राज के दौरान ही हुई। ब्रिटेन के कल-कारखानों के उत्पादन के लिए कच्चे माल के लिए भारतीय वन अंग्रेजों के लिए बहुत मुफीद साबित हुए। उन्होंने पहाड़ों को नंगा करना शुरू किया, साथ ही पहाड़ों पर काटे जाने वाले वृक्षों को नदी जल-मार्ग के जरिए मैदानी इलाकों में पहुँचाने की शुरूआत की।

वनों के निर्मम दोहन की यह शुरूआत अंग्रजों के जाने के बाद थमी नहीं, बल्कि स्वदेशी सरकार ने इसे और व्यापक बनाया। महाजनी सभ्यता के पोषण के लिए विकास का जो ताना-बाना बुना गया, उस फैलाव ने इस देश के वनों को निगलना शुरू कर दिया। पर्यावरण पर आज तक जो भी प्रहार होते रहे हैं, उन सभी के मूल में विकास की वह अवधारणा रही है, जो एक वर्ग विशेष के हितों का पोषण करती रही है।

आजादी के बाद से जारी अनेक नदी घाटी परियोजनाएँ देश में आम आदमी को बेरोजगार और बेघर कर रहीं हैं। बड़े-बड़े बाँध बनाने के लिए कृषि भूमि तथा वनों का बड़े पैमाने पर किये जा रहे विनाश का दुष्परिणाम अब तथ्यों के रूप में आम जनता के सामने आ रहा है। उसके बावजूद सरकार द्वारा देश में जारी बाँध परियोजनाओं से आज जो तस्वीर सामने आती है उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि हम विकास की जिस परिकल्पना को आदर्श मान कर अपनी नीतियाँ निर्धारित कर रहे हैं, उनमें किन वर्गों का कल्याण निहित है। तापमान को ही लें।

दिनों दिन बढ़ता तापमान पृथ्वी पर कहर बरपा रहा है। पृथ्वी पर बाढ़ आ सकती है। यह बाढ़ वर्षा के पानी से नहीं, बल्कि पृथ्वी के ध्रुवों पर अनंतकाल से जमा हिमखण्डों के पिघलने से आएगी। एक अध्ययन के अनुसार, सन 1850 से अब तक तापमान में लगभग एक डिग्री से अधिक सेल्सियस की बढ़ोतरी हो चुकी है। एक अनुमान के अनुसार, ओजोन में कमी व कार्बन डाईआक्साइड में वृद्धि से सन 2030 तक तापमान दो डिग्री सेल्सियस से अधिक बढ़ जायेगा। इससे जहाँ समुद्रों व वातावरण में विद्यमान नमी से जल का वाष्पन होने लगेगा, वहीं दूसरी तरफ ग्लेशियरों के पिघलने से समुद्र के पानी में बढ़ोतरी होने लगेगी। देश में पड़ रही भीषण गर्मी इस बात का पर्याप्त संकेत दे रही है कि यदि हमने अपने पर्यावरण की रक्षा की गम्भीर कोशिशें नहीं की तो आने वाले दिन भयावह होंगे।

आवश्यकता है आज हमारे वक्त की हम सभी-विशिष्ठ और आम जन-पर्यावरण की बिगड़ती स्थिति के प्रति न केवल चिन्तित हों बल्कि उसके सुधार की दिशा में एक आन्दोलन खड़ा करें। साथ ही हम अपने पर्यावरण की रक्षा के लिए कमर कस कर तैयार हो जायें और ऐसी जीवन पद्धति विकसित करें जो हमारे पर्यावरणीय सन्तुलन को बनाये रखने में सहायक हो। सिर्फ कागजी योजनाओं और भाषण बाजी से यह संकट दूर होने वाला नहीं है।

कई अध्ययनों से यह स्पष्ट हो गया है कि मानवीय स्रोतों से उत्पन्न तत्त्व हमारे पर्यावरण को काफी नुकसान पहुँचा चुके हैं। औद्योगीकरण और नगरीकरण की प्रक्रिया में घने वन-उपवन उजाड़े गये और इससे पर्यावरण सन्तुलन काफी हद तक बिगड़ गया है। यह सच है कि औद्योगीकरण के चलते रोजगार के नये अवसर खुले और देश की अर्थव्यवस्था मजबूत हुई, पर इसका नकारात्मक पहलू यह है कि औद्योगिक विकास ने हमारे पर्यावरण को काफी क्षति पहुँचायी। आज स्थिति यह है कि हमारी नदियाँ, समुद्र, भू-जल, वायु-सभी के सभी प्रदूषित हो चुके हैं।

औद्योगिक इकाइयों से अनेकानेक प्रदूषणकारी तत्त्व निकलते हैं जिनसे हमारा प्राकृतिक संसाधन ही नहीं बल्कि समूचा वायुमंडल विषाक्त होता जा रहा है। कागज के कारखानों से हाइड्रोजन सल्फाइड, ताप बिजलीघरों से सल्फर डाइआक्साइड, तेल शोधक कारखानों से हाइड्रोकार्बन और रासायनिक उर्वरक कारखानों से अमोनिया उत्सर्जित होती है जो वायुमंडल को ही नहीं, नदियों को भी खतरनाक ढँग से प्रदूषित करती है। कार्बन डाईआॅक्साइड से वायुमंडल का ताप भी बढ़ता है। अगर यही क्रम चलता रहा तो तापमान बढ़ने से पहाड़ों पर जमी बर्फ तेजी से पिघलेगी और जिस कारण भीषण तबाही मच सकती है। इसके चलते जलवायु और मौसम में भी भारी परिवर्तन की सम्भावना को नकारा नहीं जा सकता।

लेकिन जहाँ तक सरकार की मानसिकता का सवाल है, देश की पर्यावरण नीति पर्यावरण संरक्षण की दिशा में कोई नवीन दृष्टिकोण प्रस्तुत नहीं करती। असलियत में यह भूमंडलीकरण की वर्तमान छाया से अछूती नहीं रही है और इसमें समाज की समझ व परम्पराओं का बिल्कुल ध्यान नहीं रखा गया है। हमारे यहाँ की विडम्बना है कि हमारे यहाँ नीति-निर्माता उस विषय-मुद्दे से जुड़े विशेषज्ञ नहीं होते, बल्कि तथाकथित वैज्ञानिक और मौजूदा दृष्टिकोण से पढ़े-लिखे कहे जाने वाले लोग होते हैं। वही हाल पर्यावरण नीति का है। इसमें ऐसा लगता है कि सरकार ने लाखों-लाख तालाब बनाने वाले, हजारों हेक्टेयर जंगल रोकने वाले, पानी की सुन्दर व्यवस्था करने वाले लोगों की राय लेना मुनासिब ही नहीं समझा है। यदि वह ऐसा करती तो पर्यावरण नीति की दिशा-दृष्टि कुछ और ही होती।

आवश्यकता है आज हमारे वक्त की हम सभी-विशिष्ठ और आम जन-पर्यावरण की बिगड़ती स्थिति के प्रति न केवल चिन्तित हों बल्कि उसके सुधार की दिशा में एक आन्दोलन खड़ा करें। साथ ही हम अपने पर्यावरण की रक्षा के लिए कमर कस कर तैयार हो जायें और ऐसी जीवन पद्धति विकसित करें जो हमारे पर्यावरणीय सन्तुलन को बनाये रखने में सहायक हो। सिर्फ कागजी योजनाओं और भाषण बाजी से यह संकट दूर होने वाला नहीं है। अब हमें इस दिशा में कुछ सार्थक प्रयास करने होंगे, तभी स्थिति में कुछ सुधार सम्भव है। अब देखना यह है कि पर्यावरण के अच्छे दिन कब आयेंगे, यह तो आने वाला समय ही बतायेगा।

लेखक से सम्पर्क - आर.एस.ज्ञान कुँज, 1/9653-बी, गली नं-6, प्रताप पुरा, वेस्ट रोहताश नगर, शाहदरा, मोबाइल: 9891573982, ई-मेल: rawat.gyanendra@rediffmail.com /rawat.gyanendra@gmail.com

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