पर्यावरण सन्तुलन पर सहमति की कवायद

पिछले दिनों जलवायु परिवर्तन और कार्बन उत्सर्जन को लेकर पेरू की राजधानी लीमा में 190 देशों के प्रतिनिधि पर्यावरण के बदलाव पर चर्चा करने के लिए एकत्र हुए थे।

12 दिनों तक चलने वाले इस शिखर सम्मलेन का आयोजन यूनाइटेड नेशन फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (यूएनएफसीसीसी) द्वारा किया गया था जिसमें दुनिया भर के 12,500 राजनीतिज्ञ, राजनयिक, जलवायु कार्यकर्ता और पत्रकारों ने भाग लिया। लेकिन यह सम्मलेन रस्म अदायगी का एक और सम्मलेन बनकर रह गया जिसमें कोई ठोस निष्कर्ष नहीं निकला।

इस शिखर सम्मेलन का उद्देश्य नई जलवायु परिवर्तन सन्धि के लिए मसौदा तैयार करना था, ताकि 2015 में पेरिस में होने वाली वार्ता में सभी देश सन्धि पर हस्ताक्षर कर सकें।इसके तहत् हर देश को कानूनी रूप से बाध्य एक सन्धि के लिए राजी करना था, ताकि ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन घट सके और 1997 के क्योटो प्रोटोकॉल को नए मसौदे से बदला जा सके। लेकिन सम्मेलन एक मजाक बनकर रह गया क्योंकि जिस लीमा शिखर सम्मेलन का उद्देश्य ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन घटाने के उपायों पर चर्चा करना था वहाँ स्वयं किसी छोटे देश से अधिक कार्बन उत्सर्जन हुआ और वहाँ बिजली के लिए बड़ी तादाद में डीजल जनरेटर चले।

डेली मेल की एक रिपोर्ट के मुताबिक पेरू की राजधानी में हुई जलवायु वार्ता जहाँ एक ओर मझधार में अटक गई वहीं सम्मेलन में 50 हजार टन कार्बन डाइऑक्साइड (सीओटू) का उत्सर्जन हुआ। यह बात स्वयं संयुक्त राष्ट्र ने स्वीकार की है, जिसका मतलब है कि बीते दो दशकों में हुई जलवायु वार्ताओं में लीमा सम्मेलन अब तक का सबसे ज्यादा कार्बन उत्सर्जित करने वाला सम्मेलन बन गया।

रिपोर्ट के अनुसार, 12 दिनों के इस शिखर सम्मेलन से उत्सर्जित हुई सीओटू गैस की मात्रा मलावी सिएरा लियोन, फीजी या बारबाडोस जैसे देशों द्वारा उत्सर्जित गैसों से अधिक है। यूएनडीपी परियोजना समंवयक जार्ज अलवारेज के मुताबिक, इस सम्मेलन में हरित ऊर्जा के इस्तेमाल की योजना थी, लेकिन योजना गड़बड़ हो जाने के कारण यहाँ इस दौरान इतना अधिक कार्बन उत्सर्जन हो गया।

वार्ता के लिए बनाए गए विशाल परिसर में बिजली के लिए डीजल जनरेटरों का इस्तेमाल किया गया। कुल मिलाकर यहाँ ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ वाली कहावत चरितार्थ हुई यानी कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए सभी देश मसौदा तैयार करने के लिए वार्ता कर रहे है और खुद सम्मेलन स्थल पर पाँच हजार टन सीओटू का उत्सर्जन हुआ।

शिखर सम्मेलन में भारत का पक्ष


इस सम्मेलन में जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर धनी देशों पर दबाव बढ़ाते हुए भारत ने कहा है कि दुनिया भर में गरीबों के विकास की खातिर विकसित राष्ट्र अपने कार्बन उत्सर्जन में कटौती करें भारत में जलवायु परिवर्तन के खतरे का सामना करने को विकासशील देशों की मदद के लिए विकसित राष्ट्रों से प्रद्योगिकी हस्तान्तरण मदद देने की माँग भी की। पर्यावरण मन्त्री प्रकाश जावड़ेकर ने कहा कि कार्बन उत्सर्जन में कटौती के सम्बन्ध में भारत ने समय सीमा स्वीकार नहीं की। हालांकि भारत ने खुद ही कई ऐसे कदम उठाए हैं जिससे जलवायु परिवर्तन को थामा जा सकेगा।

जावड़ेकर ने कहा कि विकसित देशों का कार्बन उत्सर्जन भारत के मुकाबले कई गुना ज्यादा है। ऐसे में इन देशों को अपने उत्सर्जन में कटौती करनी चाहिए। वैसे भी भारत सहित विकासशील देशों में गरीबों की संख्या अधिक है, उन्हें विकास की जरूरत है इसलिए विकासशील देश अपने उत्सर्जन में कटौती नहीं कर सकते।

अमेरिका और चीन की तरह भारत अपना कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए कोई समय सीमा भी तय नहीं करेगा। फिलहाल भारत का प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन चीन की अपेक्षा काफी कम है। इसके साथ ही कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए भारत सरकार ने सौर ऊर्जा उत्पादन क्षमता 20 हजार मेगावाट से बढ़ाकर एक लाख मेगावाट करने का लक्ष्य रखा है। इसके साथ ही ‘नमामि गंगे’ और ‘हिमालय मिशन’ जैसे कार्यक्रम शुरू किए गए हैं।

लीमा शिखर सम्मेलन में विकसित और विकासशील देशों के बीच मतभेद और दीवार एक बार फिर खुलकर सामने आ गए जिसकी वजह से सम्मेलन में कोई बड़ी उपलब्धि हासिल नहीं हुई। सारे वार्ताकार अन्ततः इस बात पर सहमत हुए की सभी देशों को कार्बन उत्सर्जन पर अंकुश लगाने के लिए काम करना चाहिए। कार्बन उत्सर्जन को ही लू, बाढ़, सूखा और समुद्र के जलस्तर में बढ़ोतरी का कारण माना जा रहा है। क्योटो प्रोटोकॉल के अन्तर्गत महज् सर्वाधिक विकसित देशों को ही अपना उत्सर्जन कम करना था और यह एक मुख्य कारण था कि अमेरिका ने इसे स्वीकार करने से इंकार कर दिया। पर्यावरण मन्त्री प्रकाश जावड़ेकर ने कहा कि भारत जलवायु परिवर्तन के खिलाफ वैश्विक लड़ाई के लिए प्रतिबद्ध और पूरी तरह से तैयार है और हम जलवायु परिवर्तन सम्बन्धी चिन्ताओं के सार्थक समाधान के साथ जनता के लिए विकास केन्द्रित नीतियों को लागू कर रहे हैं।

दो धड़ों में बँटी दुनिया


अन्तरराष्ट्रीय मंचों पर अक्सर आमने-सामने नजर आने वाले विकसित और विकासशील देश एक बार फिर इसी मुद्रा में नजर आए। लीमा में जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में शिरकत कर रहे देश मोटे तौर पर दो धड़ों में बँट गए। एक तरफ विकसित देशो के धड़े में यूरोपीय संघ के देश और जापान खुलकर अपना पक्ष रख रहे थे, तो दूसरी ओर ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका, भारत और चीन ने भी बेसिक के नाम से यहाँ अपना अलग मंच बना लिया। बेसिक देशों ने जलवायु परिवर्तन समझौते के मसौदे पर चर्चा के लिए इस मंच के तहत् नियमित बैठकें करने का फैसला लिया।

अगले साल पेरिस में हस्ताक्षर किए जाने वाले समझौते का अन्तिम मसौदा तय करने के लिए अब ये देश साथ मिलकर काम करेंगे।

भारतीय प्रतिनिधिमण्डल का नेतृत्व कर रहे पर्यावरण मन्त्री प्रकाश जावड़ेकर ने बेसिक देशों के प्रतिनिधियों के साथ कई द्विपक्षीय बैठकें करके रणनीति तय की। बेसिक देश कई मसलों को लेकर एकमत हैं। सम्मेलन में सभी देशों की घरेलू जलवायु परिवर्तन सम्बन्धी कार्य योजनाओं यानी इच्छित राष्ट्र स्तरीय तयशुदा योगदान (इण्टेण्डेड नेशनली डीटरमाइण्ड कण्ट्रीब्यूशंस- आईएनडीसी) पर विचार-विमर्श हुआ। बेसिक देश आईएनडीसी को संरचनात्मक स्तर पर ज्यादा अनुकूलन आधारित बनाने पर सहमत हुए हैं।

अनुकूलन की व्यवस्था के तहत् जलवायु परिवर्तन के कारण सामने आने वाली स्थितियों का लाभ उठाते हुए नई प्रणालियों के विकास पर जोर दिया जाएगा। ताकि इन प्रणालियों के विकास से होने वाले लाभ के जरिए जलवायु परिवर्तन से होने वाले नुकसान को बेअसर किया जा सके। दूसरी ओर यूरोपीय संघ और जापान जैसे विकसित देश जलवायु परिवर्तन समझौते को केवल न्यूनीकरण की व्यवस्था पर केन्द्रित रखने पर जोर दे रहे हैं।

लीमा शिखर सम्मेलन में विकसित और विकासशील देशों के बीच मतभेद और दीवार एक बार फिर खुलकर सामने आ गए जिसकी वजह से सम्मेलन में कोई बड़ी उपलब्धि हासिल नहीं हुई। सारे वार्ताकार अन्ततः इस बात पर सहमत हुए की सभी देशों को कार्बन उत्सर्जन पर अंकुश लगाने के लिए काम करना चाहिए। कार्बन उत्सर्जन को ही लू, बाढ़, सूखा और समुद्र के जलस्तर में बढ़ोतरी का कारण माना जा रहा है।

क्योटो प्रोटोकॉल के अन्तर्गत महज् सर्वाधिक विकसित देशों को ही अपना उत्सर्जन कम करना था और यह एक मुख्य कारण था कि अमेरिका ने इसे स्वीकार करने से इंकार कर दिया।

अमेरिका का कहना था कि चीन और भारत जैसे तेजी से बढ़ रही अर्थव्यवस्था वाले देश हर हाल में इसका हिस्सा बनें। विकासशील देशों का यह तर्क सही है कि जब वैश्विक भूमण्डलीय ताप वृद्धि (ग्लोबल वार्मिंग) में ऐतिहासिक रूप से उनका योगदान पश्चिम के औद्योगिक विकसित देशों की तुलना में ना के बराबर है, तो उन पर इसे कम करने की समान जवाबदेही कैसे डाली जा सकती है? जबकि लीमा में क्योटो प्रोटोकॉल से उलट धनी देश सब कुछ सभी पर लागू करना चाहते थे, खासकर उभरते हुए विकासशील देशों पर1992 में रियो डि जेनेरियो में अर्थ समिट यानी पृथ्वी सम्मेलन से लेकर लीमा तक के शिखर सम्मेलनों के लक्ष्य अभी भी अधूरे हैं।

आज आपसी विवादों के समाधान की जरूरत है। कटु सच्चाई यह है कि जब तक विश्व अपने गहरे मतभेदों को नहीं सुलझा लेता, तब तक कोई भी वैश्विक कार्रवाई कमजोर और बेमानी सिद्ध होगी।

आज जरूरत है इसके ठोस समाधान की। इसके लिए एक निश्चित समय सीमा में लक्ष्य तय होने चाहिए। पिछले दो दशक में पर्यावरण संरक्षण को लेकर अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर 20 जलवायु सम्मेलन हो चुके हैं, लेकिन अब तक कोई ठोस नतीजा नहीं निकला। लीमा शिखर सम्मेलन या ऐसे अन्य सम्मेलनों में भी पूरी तरह से निराश किया है। ऐसे मेें यह महज् एक रस्म अदायगी भर बनकर रह गया है।

ग्लोबल वार्मिंग के लिए जिम्मेदार इंसान


ग्लोबल वार्मिंग से सम्बन्धित अध्ययन में से एक मुख्य शोध के बाद आई ऐतिहासिक रिपोर्ट में वैज्ञानिकों ने दावा किया कि साल 1950 के बाद से वैश्विक तापमान में होने वाली वृद्धि के लिए मनुष्य सबसे प्रभावशाली कारण है। इस बारे में 95 फीसदी यकीन है। संयुक्त राष्ट्र की जलवायु परिवर्तन पर गठित दल की रिपोर्ट में जलवायु परिवर्तन के मौजूद साक्ष्यों का ब्यौरा दिया गया है।

रिपोर्ट में साफ किया गया है कि जमीन, हवा और समुद्र में ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव स्पष्ट है। इसके अनुसार पिछले 15 सालों में तापमान में वृद्धि पर आया विराम इतना छोटा है कि इसमें दीर्घकालिक असर पर बात नहीं की जा सकती।

ग्लोबल वार्मिंग

आईपीसीसी की रिपोर्ट


संयुक्त राष्ट्र पैनल ने चेतावनी दी है कि ग्रीन हाउस गैसों के निरन्तर उत्सर्जन से वैश्विक तापमान में वृद्धि होगी जो मौसम प्रणाली के हर पहलू को बदल देगी। इन बदलावों को रोकने के लिए ‘ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में निरन्तर और पर्याप्त कमी लाने’ की जरूरत होगी। रिपोर्ट तैयार करने वाले कार्य दल का कहना है कि ग्लोबल वार्मिंग से पृथ्वी पर खतरा मँडरा रहा है। स्वीडन की राजधानी स्टॉकहोम के दो सप्ताह के गहन विमर्श के बाद अन्ततः ग्लोबल वार्मिंग के विज्ञान के सार बिन्दुओं को नीति निर्माताओं के लिए जारी किया गया। आईपीसीसी की तीन शृंखला वाली पहली रिपोर्ट को धरती के बढ़ते तापमान की वजहों को समझने के लिए सबसे विस्तृत और अहम् दस्तावेज माना जा रहा है। रिपोर्ट बहुत साफगोई से कहती है कि 1950 से मौसम प्रणाली में देखे गए बहुत से बदलाव सहस्त्राब्दी के दशकों में अनोखे हैं पिछले तीन दशक में से हर एक में धरती का तापमान लगातार बढ़ा है।

वर्ष 1850 के बाद से यह पहली बार हुआ है और सम्भवतः 1400 साल के इतिहास में यह सबसे गर्म है। रिपोर्ट तैयार करने वाले आईपीसीसी कार्यदल के संयुक्त अध्यक्ष कनिदाहे ने कहा, ‘इस मुद्दे पर वैज्ञानिक दृष्टि से किए गए हमारे मूल्यांकन से पता चलता है कि वायुमण्डल और समुद्र का तापमान बढ़ गया है, हिमपात और बर्फ की मात्रा में कमी आ रही है, समुद्र की सतह ऊँची हुई है और ग्रीनहाउस गैसों की सघनता में बढ़ोतरी हो रही है।’ कार्यकाल के एक अन्य संयुक्त अध्यक्ष प्रोफेसर थॉमस स्टॉकर ने कहा कि, ‘जलवायु परिवर्तन ने पारिस्थितिकी तन्त्र और मनुष्य के दो प्रमुख स्रोतों, जमीन और पानी के लिए चुनौती खड़ी कर दी है। संक्षेप में कहा जाए तो इससे हमारे ग्रह, हमारे घर पर भी खतरा पैदा हो गया है। इनसे बचने का एकमात्र उपाय है, पर्यावरण के प्रति हमारा जागरूक होना।’

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