पर्यावरण : वैश्विक एवं स्थानीय परिप्रेक्ष्य में

28 Mar 2014
0 mins read
आज पर्यावरण की समस्याओं पर हमारे जीवन की भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु संपादित हो रही विकास योजनाओं पर गंभीरता से विचार करने पर लगता है कि हम पर्यावरण संरक्षण एवं विकास का सामंजस्य स्थापित कर सकेत हैं। हम पर्यावरण संरक्षण के साथ देश का ठोस विकास भी कर सकते हैं। हम मजदूर, पर्यावरण, व्यापार एवं विकास का तारतम्य स्थापित करने की दिशा में कार्य करके भविष्य का सृजन कर सकते हैं। पिछली शताब्दियों में मनुष्य का भौतिकता से संबंध उत्तरोत्तर बढ़ता गया। इस अवधि में मनुष्य ने भौतिक शक्तियों का क्रमशः विकास किया। स्थूल भौतिक ज्ञान का विकास किया और इस ज्ञान एवं शक्ति का उपयोग प्रकृति पर विजय प्राप्त करने एवं भौतिक जीवन के लेए अधिक सुख-साधन इकट्ठे करने के लिए किया। मनुष्य ने अपने इस लक्ष्य की पूर्ति में बहुत सफलता हासिल की। इंद्रियों की स्थूल शक्ति एवं उनके भोग्य पदार्थों की प्राप्ति में आशातीत सफलताएं मिलीं, लेकिन इन अप्रत्याशित शक्ति एवं सुख-सुविधा प्राप्ति के क्रम में मनुष्य ने अपनी जीवन-धात्री पृथ्वी माता एवं प्रकृति के ईश्वर प्रदत्त साधनों का इतना निर्मम दोहन किया है कि आज पृथ्वी एवं प्रकृति विध्वंस के कगार पर आ गई हैं। आज मनुष्य की भौतिक शक्तियां एवं सुख भोग की भूख जैसे कुंभकरण के रूप में संसार में विचरण करने लगी है। पृथ्वी एवं प्रकृति इनके आहार बन गए हैं। ऐसा लगता है कि कुंभकरण रूपी इन दानवों से ‘विश्व बेगि सब चौपट होई’ की घटना चरितार्थ हो रही है।

विज्ञान के उत्सर्ग के चलते आज हम अन्य ग्रहों पर जाने लगे हैं। आज अग्रिम पंक्ति के वैज्ञानिक दिक् एवं काल (टाइम एवं स्पेस रहस्य-भेदन में लगे हैं। विज्ञान ने आज असंभव को संभव कर दिखाया है, लेकिन आज भी वह मनुष्य की पीड़ा, रोग एवं गरीबी नहीं दूर कर सका है। मात्र विज्ञान के सहारे किए जाने वाले विकास के चलते आज संसार का जल एवं वायु प्रदूषित होता जा रहा है। पृथ्वी की हरियाली खत्म होती जा रही है। बाढ़, तूफान, एवं भयंकर ताप से पृथ्वी तप्त होती जा रही है। यदि हमने इन भयंकर परिस्थितियों की तरफ ध्यान नहीं दिया तो संसार में मनुष्य जाति का जीवित रहना संभव नहीं हो पाएगा। विनाश हमारा दरवाजा खटखटा रहा है, पृथ्वी के पर्यावरण का संतुलन बिगड़ता जा रहा है।

आज पर्यावरण की समस्याओं पर हमारे जीवन की भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु संपादित हो रही विकास योजनाओं पर गंभीरता से विचार करने पर लगता है कि हम पर्यावरण संरक्षण एवं विकास का सामंजस्य स्थापित कर सकेत हैं। हम पर्यावरण संरक्षण के साथ देश का ठोस विकास भी कर सकते हैं। हम मजदूर, पर्यावरण, व्यापार एवं विकास का तारतम्य स्थापित करने की दिशा में कार्य करके भविष्य का सृजन कर सकते हैं। आज ज्ञान एक बहुत बड़ी संपदा (रिसोर्स) है। इस संपदा का भरपूर उपयोग कर हम पर्यावरण-संरक्षण एवं विकास का सामंजस्य स्थापित कर सकते हैं। सिंगापुर एक ऐसा देश है, जहां प्राकृतिक संसाधनों के पूर्ण अभाव में भी देश ज्ञान संपदा का भरपूर उपयोग कर समृद्ध है।

विश्व-पर्यावरण की समस्या का केंद्र-बिंदु नगर है। पर्यावरण की प्रायः सारी समस्याएं आज नगरीय विकास से जुड़ी हैं। नगरों के बढ़ते कदम पूरी पृथ्वी पर दीख पड़ते हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट (1999) के अनुसार सन् 1960 में संसार की एक-तिहाई आबादी शहरों में रहती थी। 1999 में 47 प्रतिशत लोग शहरों में रहते थे। सन् 2030 में 61 प्रतिशत लोगों के शहरों में रहने की संभावना है। शहर एवं गांव दोनों से संबंध रखने वाले समुदाय की जनसंख्या बढ़ती जा रही है और यही कारण है कि गांवों पर शहर की छाप दिनोंदिन गहराती जा रही है।

अतः शहरों पर ध्यान देना और इनकी समस्याओं का समाधान करना पर्यावरण संरक्षण का एक बहुत कारगर कार्यक्रम हो सकता है। नगरों का आकार-प्रकार बढ़ता जा रहा है। इन नगरों की समस्याएं मूलतः पर्यावरण की समस्याएं हैं। नगरों में स्वच्छ जल एवं स्वच्छ वायु सुलभ कराना, खुले स्थान सुलभ कराना औज पर्यावरण की दृष्टि से सुखद एवं सक्षम यातायात सुलभ कराना आज पर्यावरण की बड़ी चुनौतियां हैं। हमें इन चुनौतियों का सामना करने के लिए दीर्घकालीन प्रयास करने होंगे। हमारे देश की पर्यावरणीय समस्याएं मूल रूप से दो कारणों से हैं। प्रथम विकास की प्रक्रिया से ऋणात्मक प्रभाव के कारण और दूसरी जनसंख्या, गरीबी, अशिक्षा, एवं पिछड़ेपन के कारण। वर्तमान में जिन समस्याओं का सामना भारत को करना पड़ रहा है, उनमें निम्न हैं-

जनसंख्या वृद्धि के चलते जीवनयापन के साधनों पर पड़ रहे अधिभार के कारण विकास के धनात्मक प्रभाव का निष्प्रभावी हो जाना।
बढ़ती हुई पशु संख्या के कारण घास के मैदानों एवं चारागाहों के क्षेत्र का कम होना।
3290 लाख हेक्टेयर भूमि में से 1750 लाख हेक्टेयर भूमि को विशेष उपचार की आवश्यकता है, ताकि उससे होने वाले लाभ एवं आमदनी को बढ़ाया जा सके।
बढ़ता बुआ भू-अवकरण-
(क) वायु एवं जल द्वारा (1590 लाख हेक्टेयर)
(ख) लवणता एवं क्षारता द्वारा (80 लाख हेक्टेयर)
(ग) नदियों द्वारा (70 लाख हेक्टेयर)
5. वनक्षेत्र में कमी (47500 हेक्टेयर प्रतिवर्ष)। इसके मुख्य कारण-पशुओं का जंगलों में चरना, लकड़ी के लिए पेड़ों की अंधाधुंध कटाई, वनों का अतिक्रमण एवं अन्य क्रियाकलाप आदि।
6. कृषि क्षेत्र में वृद्धि एवं उनका स्थानांतरण सड़कों, मकानों, नहरों एवं विद्युत संयंत्रों का निर्माण।
7. पशु, पौधों एवं जीवाणुओं की प्रजातियों की संख्या में कमी (15,000 पशुओं एवं पौधों की प्रजातियों के विलुप्त होने का खतरा विद्यामान है)
8. सजल क्षेत्रों का प्रदूषण एवं उनमें मिट्टी जमा होने की गति में वृद्धि।
9. रसायनों एवं समुद्रीय जल द्वारा भूगर्भीय जल का प्रदूषण
10. समुद्रतटीय क्षेत्रों में निर्माण के चलते बढ़ता प्रदूषण।
11. समुद्रतटीय वनस्पतियों में कमी।
12. वन के परितंत्र का अवकरण।
13. द्वीपों के परितंत्र का विनाश।
14. नगरों में बढ़ता प्रदूषण एवं स्वास्थ्य सुविधाओं में कमी।
15. घातक अवशिष्टों एवं जैवीय प्रक्रिया से विघटित न हो सकने वाले अवशिष्टों का निस्तारण।
16. नदियों के प्रदूषण एवं उनमें मिट्टी जमा होने की गति में वृद्धि।
17. नगर क्षेत्रों में समीप उद्योगों एवं विकास योजनाओं की स्थापना द्वारा प्रदूषण एवं भीड़-भाड़ में वृद्धि।
18. ग्रामीण क्षेत्रों में संसाधनों एवं नगरों की तरफ प्रवजन प्रमुख हैं। इनके निराकरण हेतु सुविचारित दीर्घकालीन नीति अपनाने की आवश्यकता है।

काशी और गंगा


पर्यावरण के सर्वांगीण स्वरूप का ध्यान रखना हमारा दायित्व है परंतु वैश्विक रूप से सोचते हुए भी स्थानीय पर्यावरण की समस्याओं के समाधान में प्रवृत्त होना हमारा सर्वोपरि कर्तव्य है।

काशी में देवनदी गंगा का लोकोत्तर महत्व है। यहां गंगा और गंगा की मिट्टी कुछ और ही अलौकिकता धारण कर लेती है। असी संगम से वरुणा संगम तक सात कि.मी. में फैली घाटों की श्रृंखला पर प्रतिदिन लगभग 60 हजार नर-नारी श्रद्धापूर्वक स्नान करते हैं, जो संभवतः संसार के किसी अन्य नदी तट पर देखने को नहीं मिलेगा। काशी का वह दृश्य अद्भुत है। इसी स्वरूप ने कला, संस्कृति एवं परंपरा को जन्म दिया है। इसका बने रहना एवं इसमेंवि श्वास रखकर मज्जन-पान करने वालों को स्वस्थ प्रसन्न रखना हम सबका दायित्व है।

गंगा-कार्य योजना के प्रथम चरण में इस दायित्व का निर्वाह हो सकता था, लेकिन ऐसा नहीं हो पाया। असी-वरुणा के बीच स्थित कई नाले आज भी गंगा में मल-जल गिरा रहे हैं। इस क्षेत्र में गंगा पर तैरने वाले वस्तुओं का वर्णन करने से मन बहुत खराब हो जाता है। इस देवभूमि से निकलती गंगा का दर्शन करने से हमें सुख एवं शांति का अनुभव हो, यह लक्ष्य सर्वोपरि है। आज के भौतिकवादी युग में इन भावनात्मक बातों का कितना असर पड़ेगा, यह तो हम नहीं जानते, लेकिन अभी भी पर्याप्त संख्या में ऐसे लोग हैं, जिनकी भावनाओं का यह सत्य निरुपण है कि वे गंगा के साथ जिएंगे तथा गंगा के साथ मरेंगे।

कम-से-कम इन प्राणियों की रक्षा के लिए गंगा को साफ करना आवश्यक है। ये लोग जैविक ऑक्सीजन मांग की बात भी नहीं सुनेंगे। पक्षियों एवं जानवरों की नस्ल बचाने में लगे पर्यावरणविदों को इन प्राणियों की रक्षा के लिए, उनकी भावनाओं की रक्षा के लिए, गंगा को साफ रखना चाहिए। वैज्ञानिकों की भाषा में मुझे यह कहना पड़ रहा है कि असी-करुणा के बीच गंगा जल का बी.ओ.डी. 3 मिग्रां. प्रति लीटर से अधिक है। कुछ स्थानों पर तो 10-15 मि.ग्रा. प्रति लीटर तक है। पेट की अनेक एवं जानलेवा बीमारियों को फैलाने वाले जीवाणुओं में फीकल कोलीफॉर्म बहुत खतरनाक है।

असी-वरुणा के बीच ये जीवाणु 70 हजार से 1 लाख की संख्या में, जल के प्रत्येक 100 घन से.मी. के नमूने में पाए जाते हैं। गंगा कार्य योजना में इन्हें कम करने का कोई उपाय नहीं किया गया। यह कितनी विडंबना है कि यह सब नालों के अवजल गंगा में गिरने से हो रहा है, असी से पहले 6 कि.मी. दूर गंगाजल का बी.डी.ओ. एक मि.ग्रा. प्रति लीटर एवं फीकल कोलीफार्म बैक्टीरिया की संख्या शून्य है। यानी की वहां का जल अत्यधिक निर्मल है। जाहिर है कि गंगाजल की दुर्दशा मुख्यतः काशी में ही गंगा में गिरने वाले नालों से हो रही है।

गंगा कार्य-योजना के प्रथम चरण की अवधारणा एवं कार्यों की वरीयता में कुछ ऐसी असावधानियां की गई हैं, जिनके चलते वाराणसी नगर की भी स्थिति बिगड़ी है। वर्तमान में वाराणसी नगर निगम अपने प्रदेश का एकमात्र नगर निगम है, जिसने अपने नगर एवं देश-विदेश के सहयोग से एक सराहनीय योजना पेश की है। आज हमें प्रतीत हो रहा है कि वाराणसी की तरफ हम सबका ध्यान एवं शक्ति केंद्रित हो और वहां नदी-प्रदूषण रोकने का एक अनुकरणीय कार्य कर दिखाया जाए।

पिछले 9 वर्षों से वाराणसी गंगा कार्य-योजना उचित निर्णय एवं प्रोत्साहन की कमी से रुकी पड़ी है। आज भी वाराणसी में पूरे शहर का मल-जल अबाध गति से गंगा में गिर रहा है। यदि हम कोटि-कोटि गंगा-काशी प्रेमियों की आकांक्षा पूरी करने का सत्-संकल्प लें तो विश्व के सम्मुख जल संरक्षण, संस्कृति एवं परंपरा संरक्षण का अप्रतिम निर्णय होगा। इस पुनीत कार्य में विश्व हमारी मदद करेगा। हमें अपनी इस प्राकृतिक एवं सांस्कृतिक संपदा का विचारपूर्वक सेवन करना आवश्यक प्रतीत होता है।

किसी भी सिविल सोसायटी में नदी में मल-जल गिराना असहनीय अपराध है। इस संकल्प को साकार करने हेतु हमें कड़े प्रयास करने होंगे, उचित विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी का प्रयोग करना होगा। जनता, गैर-सरकारी संस्थाओं एवं निकायों को इस बड़े कार्य में लगाना होगा। यह गुरुतर कार्य मात्र भावनात्मक आवेश से नहीं संपन्न होगा। किसी एक स्थान पर हमें उचित विज्ञान प्रौद्योगिकी का प्रयोग कर नदी में मल-जल गिरना बंद करके, देश के समक्ष एक उदाहरण पेश करना होगा, जिससे जनता उत्साहित हो, प्रेरणा ले।

(लखनऊ (उ.प्र.)

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading