पश्चिमी घाट का पर्यावरणीय घोटाला

28 Jun 2013
0 mins read
माधव गाडगिल का खुला पत्र

ऐसा लगता है कि आज हम अंग्रेजों से भी ज्यादा अंग्रेज हैं और दावा कर रहे हैं कि सांस्कृतिक इलाके में एक प्रकृति-स्नेही तरीका मात्र एक बहाना है ताकि देश के अमीर व ताकतवर लोगों और वैश्वीकृत दुनिया को सारे पानी और जमीन पर कब्जा करने और अराजक, रोजगार-विहीन आर्थिक विकास के लिए उनका दोहन करने व उन्हें प्रदूषित करने से रोका जा सके। भारत सरकार के पर्यावरण व वन मंत्रालय ने देश के छः राज्यों में फैले पश्चिमी घाट की स्थिति पर विचार करने के लिए प्रतिष्ठित पर्यावरणविद प्रोफेसर माधव गाडगिल की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया था। इस समिति ने अपनी रिपोर्ट 31 अगस्त 2001 को सरकार को सौंप दी थी। समिति की सिफारिशें सरकार को नहीं भाईं और उसने गाडगिल समिति की रिपोर्ट पर विचार करने के लिए एक और उच्च स्तरीय कामकाजी समूह का गठन कर दिया। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो के भूतपूर्व अध्यक्ष और वर्तमान में योजना आयोग के सदस्य के कस्तूरीरंगन को इस कामकाजी समूह का अध्यक्ष नियुक्त किया गया।

जैसी कि उम्मीद थी कस्तूरीरंगन समूह को गाडगिल समिति की सिफारिशों में कई कमियां नजर आईं और उसने गाडगिल समिति की लगभग सारी सिफारिशों को खारिज कर दिया। इस से विचलित होकर माधव गाडगिल ने कस्तूरीरंगन को एक खुला पत्र भेजा। जिसमें उन्होंने सारे मुद्दों पर अपने विचार रखे हैं।

प्रिय डॉ. कस्तूरीरंगन,
उन्नीसवीं सदी के मशहूर वैज्ञानिक और मानवतावादी जेबीएस हाल्डेन (जिन्होंने स्वेज नहर पर साम्राज्यवादी हमले के विरोध में इंग्लैंड छोड़ दिया था) ने कहा था “हकीकत सिर्फ हमारी कल्पना से ज्यादा विचित्र नहीं बल्कि हमारी कल्पना शक्ति से भी ज्यादा विचित्र होती है।” मैं कभी सोच भी नहीं सकता था कि आप पश्चिमी घाट के संदर्भ में गठित उच्च स्तरीय कामकाजी समूह की रिपोर्ट जैसी हरकत में शामिल होंगे। मगर हकीकत सचमुच हमारी कल्पना से कहीं अधिक विचित्र है।

व्यापक विचार-विमर्श और मैदानी दौरों के आधार पर हमने पर्यावरण व वन मंत्रालय को जो रिपोर्ट प्रस्तुत की थी, उसमें हमने एक श्रेणी-आधारित व्यवस्था की वकालत की थी और उसमें पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशील पश्चिमी घाट की सुरक्षा के लिए स्थानीय स्तर की भागीदारी की प्रमुख भूमिका रखी थी। आपने इस सोच को खारिज कर दिया है और इसकी जगह आप इस क्षेत्र के दो हिस्से करना चाहते हैं। एक-तिहाई हिस्से को आप प्राकृतिक इलाके (लैंडस्केप) कहते हैं और सुरक्षा कर्मियों और बंदुकों के बल पर इसकी सुरक्षा की वकालत की है। शेष दो तिहाई को आपने सांस्कृतिक इलाके (लैंडस्केप) माना है जिसे (आपके मुताबिक) विकास के लिए खोल दिया जाना चाहिए जैसा कि गोवा में 35,000 करोड़ रुपए के गैरकानूनी खनन के घोटाले में हुआ है।

यह पर्यावरणीय सर्वनाश के समंदर में विविधता के कुछ टापू बचाकर रखने की कोशिश जैसा है। पर्यावरण का विज्ञान हमें सिखाता है कि इस तरह के बंटवारे का परिणाम यह होगा कि जल्दी ही समंदर टापुओं को लील लेगा। प्राकृतिक परिवेश की निरंतरता के महत्व को समझना जरूरी है। जैव विविधता से समृद्ध क्षेत्रों के दूरगामी संरक्षण के लिए पर्यावरण और स्थानीय समुदाय दोनों से मित्रतापूर्ण व्यवस्था के महत्व को समझना भी जरूरी है। हमने यही प्रस्ताव रखा था।

इसके अलावा, वन्य जैव विविधता की बनिस्बत मीठे पानी (नदियों, तालाबों) की जैव विविधता कहीं ज्यादा खतरे में है और यह अधिकतर उस इलाके में है जिसे आप सांस्कृतिक इलाका कहते हैं। मीठे पानी की जैव विविधता हमारे लोगों के एक बड़े तबके की जीविकाओं और पोषण के लिहाज से भी महत्वपूर्ण है। इसीलिए हमने महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले के लोटे रासायनिक उद्योग संकल की एक केस स्टडी भी प्रस्तुत की थी। यहां प्रदूषण ने सारी कानूनी सीमाओं का उल्लंघन किया है और इसकी वजह से मछली भंडारों का ऐसा सर्वनाश हुआ है कि उन पर आश्रित 20,000 लोग बेरोजगार हो गए हैं जबकि मात्र 11,000 व्यक्तियों को उद्योगों में नौकरियां मिली हैं। इस अनुभव के बावजूद सरकार इसी इलाके में और प्रदूषक उद्योग लगाना चाहती है। इसके लिए उसने उद्योगों के स्थान निर्धारण के लिए अपने ही बनाए चिन्हित क्षेत्रों के नक्शे को दबा दिया है।

हैरत की बात है कि आपकी रिपोर्ट में निर्णय के अधिकार के विकेंद्रीकरण की संवैधानिक गारंटी को भी यह कहकर खारिज कर दिया गया है कि आर्थिक निर्णयों में स्थानीय समुदायों की कोई भूमिका नहीं हो सकती। ऐसे में यह कोई अचरज की बात नहीं है कि आपकी रिपोर्ट में हमारे द्वारा प्रस्तुत किए गए इस तथ्य को अनदेखा कर दिया गया है कि एक ओर तो सरकार लोटे में गैर-कानूनी प्रदूषण के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं करती, वहीं दूसरी ओर, उसने इस प्रदूषण के खिलाफ सर्वथा जायज और शांतिपूर्ण प्रदर्शनों को दबाने के लिए पुलिस बल का उपयोग किया। 2007-09 में 600 में से 180 दिन प्रदर्शनों के खिलाफ बल प्रयोग किया गया।

जिसे आपने भारत के ‘सांस्कृतिक इलाके’ कहा है उसमें जैव विविधता के कई कीमती घटक फल-फूल रहे हैं। लगभग 75 प्रतिशत सिंह जैसे पूंछ वाले बंदर (बंदरों की एक प्रजाति जो सिर्फ पश्चिमी घाट में पाई जाती है) चाय बागानों के सांस्कृतिक इलाके में ही हैं। मैं पूणे में रहता हूं और मेरी बस्ती में काफी सारे बरगद, पीपल और गूलर के वृक्ष हैं। ये वृक्ष फाइकस वंश के हैं जिनके बारे में आधुनिक पर्यावरण विज्ञान में बताया जाता है कि ये कीस्टोन बुनियादी महत्व के संसाधन हैं जो तमाम अन्य प्रजातियों को सहारा देते हैं। रात को मैं मोरों की पुकार सुनता हूं, और सुबह उठकर जब मैं छत पर जाता हूं, तो वे नाचते हुए दिखाई पड़ते हैं। हमारे लोगों ने प्रकृति के प्रति सम्मान से ओत प्रोत सांस्कृतिक परंपराओं में रचे बसे पवित्र वनों, फाइकस वृक्षों बंदरों और भोरों की पूजा व रक्षा की है। मगर(आपकी रिपोर्ट से) लगता है कि इस सबको तिलांजलि दे देना चाहिए। इससे मुझे ब्रिटिश साम्राज्य के घोषित एजेंट फ्रांसिस बुकानन की बात याद आ रही है। उन्होंने 1801 में लिखा था कि भारत के ‘पवित्र वन’ महज एक बहाना है ताकि ईस्ट इंडिया कंपनी को इन्हें अपनी संपत्ति घोषित करने से रोका जा सके।

ऐसा लगता है कि आज हम अंग्रेजों से भी ज्यादा अंग्रेज हैं और दावा कर रहे हैं कि सांस्कृतिक इलाके में एक प्रकृति-स्नेही तरीका मात्र एक बहाना है ताकि देश के अमीर व ताकतवर लोगों और वैश्वीकृत दुनिया को सारे पानी और जमीन पर कब्जा करने और अराजक, रोजगार-विहीन आर्थिक विकास के लिए उनका दोहन करने व उन्हें प्रदूषित करने से रोका जा सके।

आश्चर्य की बात है कि आपकी रिपोर्ट इस तरीके का जोरदार समर्थन करती है। हकीकत सचमुच हमारी कल्पना से भी ज्यादा अजीब है।

गाडगिल समिति का प्रमुख सिफारिशें
पश्चिमी घाट 6 राज्यों (गुजरात, महाराष्ट्र, गोवा, कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु) में तापी नदी से कन्याकुमारी तक फैली पर्वत श्रृंखलाएं हैं। इसका कुल क्षेत्रफल 1,29,037 वर्ग किलोमीटर है। माधव गाडगिल की अध्यक्षता में गठित पश्चिमी घाट पर्यावरण विशेषज्ञ पैनल ने सिफारिश की थी संपूर्ण पश्चिमी घाट क्षेत्र को तीन पर्यावरण संवेदनशील भागों में बांटा जाए। इनमें से प्रत्येक क्षेत्र में अलग-अलग प्रतिबंध रहेंगे। राज्य सरकार और उद्योगपतियों ने इसे लेकर खूब शोर मचाया क्योंकि उन्हें लगा कि यह रिपोर्ट तो पश्चिमी घाट के लगभग 75 प्रतिशत भाग में विकास कार्यों पर रोक लगाने की बात कर रही है। गाडगिल पैनल के भाग 1 व 2 का क्षेत्रफल पश्चिमी घाट के कुल क्षेत्रफल का लगभग 75 प्रतिशत है।

माधव गाडगिल की अध्यक्षता में पैनल ने निम्नलिखित प्रमुख सिफारिशें की थीः-
1. पूरे पश्चिमी घाट को पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशील मानते हुए संवेदनशीलता के तीन क्षेत्रों में विभाजन। इनहें संवेदनशील क्षेत्र 1,2 व 3 कहा गया था।
2. इन तीन क्षेत्रों में प्रतिबंधों का स्तर अलग-अलग होगा और क्षेत्रों व उनके प्रबंधन का फैसला स्थानीय स्तर पर लोगों के साथ विचार-निमर्श के जरिए होगा। इसमें ग्राम सभा की प्रमुख भूमिका होगा।
3. पैनल की सिफारिश है कि प्रथम श्रेणी के संवेदनशील क्षेत्र में अतिरापल्ली व गुंदिया समेत किसी बड़े बांध के निर्माण की अनुमति न दी जाए।
4. गोवा में संवेदनशील क्षेत्र 1 व 2 में नए खनन कार्य की अनुमति न दी जाए और क्षत्र 1 में वर्तमान में चल रहे खनन कार्य को 2016 तक क्रमशः समाप्त कर दिया जाए।
5. कुछ जिलों में उपरोक्त के अलावा नए ताप बिजलीघरों व अन्य प्रदूषक उद्योगों पर भी प्रतिबंध लगाया जाए और वर्तमान उद्योगों को शून्य प्रदूषण पर लाया जाए।
6. पैनल ने इस इलाके में मौजूद पर्यावरण जागरुकता की प्रशंसा करते हुए कहा था कि वर्तमान प्रशासन प्रणाली में इस जागरुकता का कोई उपयोग नहीं हो रहा है। पैनल ने हर स्तर पर नागरिकों को जोड़ने की बात कही थी।
उद्योगपतियों ने इन सिफारिशों का डटकर विरोध किया और सरकार ने के. कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता में एक नई समिति गठित कर दी। कस्तूरीरंगन समिति को गाडगिल पैनल की रिपोर्ट की समीक्षा करने का काम सौंपा गया।

अभिवादन सहित, भवदीय, माधव गाडगिल

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading