पत्थर दिल क्यों सुनेंगे, पत्थरों का दर्द

18 Jun 2017
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बरकागाँव से कुछ मील दक्षिण में एक बड़ा गाँव है, जो अब प्रस्तावित पांकुरी बरवाडी कोयला खदान का संचालन केंद्र बन चुका है। एक रेतीली नदी के पार और माहुदी श्रृंखला के सोबनई पहाड़ है, जो पुराने शिवगढ़ मन्दिर-किले के बाद आता है, उसे 17वीं सदी के बादाम राजा दलेल सिंह द्वारा बनवाया गया था। पहाड़ियों और पहाड़ों के महत्त्व को मानव हृदय में जगह मानव सभ्यता की शुरुआत से ही प्राप्त है। दक्षिण अमेरिका से लेकर मैक्सिको व मध्य पूर्व तक सभी प्रारम्भिक मानव पहाड़ों को देवताओं के निवास स्थान के रूप में पूजा करते थे। मध्य अमेरिका के ऐजटेक व इनकास पहाड़ों में सूर्य देवता से जुड़े विशाल मंदिरों का निर्माण किया गया। भारत में मंदिरों के निर्माण की शुरुआत पहली सदी के प्रारम्भ में पहाड़ों के शिखर पर हुआ। जहाँ देवताओं की छवियों की पूजा होती थी। पहाड़ पवित्र क्यों माना जाता था? मनुष्य ने भगवान की जगह हमेशा पृथ्वी से परे अन्तरिक्ष में कहीं अन्यत्र माना है। भारत में अद्वितीय धार्मिक विश्वास है। यहाँ मान्यता है कि पूरी धरती पवित्र व माँ के समान है।

इसके प्रति आस्थापूर्ण अभिव्यक्ति पहाड़ों की पूजा को प्रेरित करती है। इसलिये हिमालय से लेकर प्रायद्वीप के सभी महान पहाड़ हमेशा पूजनीय रहे हैं। प्राचीन मानवों के लिये बड़ी पहाड़ी या पर्वत भगवान के निवास स्थान थे। सभी प्रकार की प्रार्थनाएँ इन पहाड़ियों की ओर उन्मुख होती थी। सूर्य व पर्वत की पूजा मानवीय पूजा के प्रारम्भिक स्वरूप हैं। वैसी जगह जहाँ कुछ पहाड़ थे, लोगों ने विशाल मंदिरों का निर्माण कर दिया। मेसोपोटामिया व दक्षिण अमेरिका में विशाल वेदियों और मिस्र में पिरामिड के रूप में पहाड़ों जैसी इमारतें बनाई गईं व इनके शिखर पर रहने वाले देवों को पूजा गया। इसी तरह हाल में बौद्धों ने गगनचुम्बी मन्दिरों का निर्माण किया है।

आज के पूँजीवादी व वाणिज्यिक युग में पहाड़ों को अधिक भौतिकवादी दृष्टि से देखा जाता है और मनुष्य खुद को भगवान मानने लगा है। झारखंड पर भी इसी सोच का असर दिख रहा है। मनुष्य पहाड़ों को बॉक्साइट व लोहा, पत्थर व रसायन जैसे खनिजों से युक्त धन का भंडार मानता है, जिसका आसानी से दोहन किया जा सकता है। अयस्क, बॉक्साइट व कोयला की सबसे अधिक मात्रा सामान्यतः पहाड़ों पर पाई जाती है।

खतरे में पर्वत श्रृंखलाएँ : अमेरिका में कोयले के लिये अपलेशियन पहाड़ों पर खनन किया गया है, जिसे माउंटेन टॉप रिमूवल माइनिंग कहा जाता है। हाल ही में भारत में ओडिशा में नियमगिरी जैसे पवित्र पहाड़ों पर बॉक्साइट के लिये विशाल खनन किया जा रहा है। इस खनन का विरोध पहाड़ों व पहाड़ों के नीचे रहने वाले निवासी कर रहे हैं। जिनकी धर्म व संस्कृति इस धरती से जुड़ी है, विशेषकर उनके चारों ओर स्थित पहाड़ियों से। भारतीय उपमहाद्वीप में पर्वत पूजा, धार्मिक अभिव्यक्ति की एक जीवंत परम्परा रही है। इस प्रकार यहाँ पहाड़ियों को बचाने के लिये भारत के मध्य-पूर्वी, दक्षिण-पूर्वी व दक्षिण-पश्चिमी आदिवासी समाज द्वारा शक्तिशाली खनन हितों के खिलाफ संघर्ष छेड़ दिया गया है।

झारखंड को कोयला भूमि कहा जाता है, क्योंकि यहाँ भारत का सबसे बड़ा कोयला भंडार है। पूरी दुनिया में इन खनिजों का सबसे बड़ा भंडार इन्हीं पहाड़ियों के हृदय में उपस्थित है। पहाड़ जंगलों के विशाल भंडारगृह व बारहमासी पानी के स्रोत हैं। ओडिशा के पूर्वी घाट में स्थित बॉक्साइट के नियमगिरी पहाड़ी को स्थानीय खोंड आदिवासियों द्वारा एक देवता के रूप में पूजा जाता है। ऐसे पहाड़ों व मध्य भारत के लौह अयस्क के पहाड़ों पर रहने वाले आदिवासियों को बड़े पैमाने पर विस्थापन का सामना करना पड़ रहा है। और ये आदिवासी समाज जबरन विस्थापन को नहीं रोक पा रहे हैं। इनके स्थानीय अधिकार को सम्मान नहीं मिल पा रहा है। पहाड़ों पर खनन व अन्य विनाशकारी विकास परियोजनाएँ वायुमंडलीय प्रदूषण को बढ़ा रही हैं। तथाकथित विकास परियोजनाओं से उत्पन्न धूल सीधे उच्च वातावरण में छोड़ दी जाती है, जो धूलकणों के ढेर का कारण बनती है। इसे बारूडीह पर्वत श्रेणी के चुटुपालू घाटी की कटाई कर राँची-रामगढ़ के बीच बनते नए राजमार्ग में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। कई हानिकारक रासायनिक व रेशेदार यौगिक वातावरण में छोड़े जा रहे हैं, जो श्वसन क्रिया के लिये हानिकारक है व साँस सम्बन्धी बीमारियों को बढ़ाने का काम कर रहे हैं। दामोदर नदी से जुड़े पहाड़ों के तल में दुनिया का सबसे बड़ा कोयला खनन परिसर है।

यह उत्तरी कर्णपुरा से बंगाल तक फैला है और यहाँ कोयला खनन से ने विशाल घाटियों का निर्माण कर दिया है। भारी मात्रा में हानिकारक रासायनिक यौगिक उत्पन्न हो रहे हैं, जो इस क्षेत्र की जीवन प्रत्याशा को कम कर रहा है। कोयले व खनिज को ढोने के लिये झारखंड के बीहड़ पहाड़ी इलाकों में बनने वाली नई सड़कों व रेलवे लाइनों के जाल से यहाँ के पर्यावरण को बड़ी क्षति पहुँच रही है। शोषित आर्थिक लाभ व तथाकथित मुक्त खनिज भंडार की तुलना हम पर्यावरणीय नुकसान से नहीं कर रहे हैं। अभी का झारखंड अपनी प्राचीन वातावरण की तुलना में परिवर्तन के लिये अग्रणी है।

कई स्थानों पर इस परिवर्तन को आधे किलोमीटर में देखा जा सकता है। हाल ही में इंग्लैड के विल्टशायर के व्हाइट हॉर्स हिल्स में था और यहाँ की पहाड़ियों की दृश्यता तीस किलोमीटर से अधिक थी, जबकि झारखंड में यह एक किलोमीटर से कम है। झारखंड के इन्हीं क्षेत्रों में दो दशक पूर्व दृश्यता 30 किलोमीटर से अधिक थी। झारखंड में विकास के इस विनाशकारी स्वरूप ने यहाँ की सुन्दरता, पर्यटन व स्वास्थ्य के लिये बड़ा खतरा उत्पन्न किया है। हजारीबाग शहर से 80 किलोमीटर दूर एनएच-2 पर स्थित पारसनाथ पहाड़ी भारत में जैन समुदाय के लिये सबसे प्रसिद्ध पहाड़ी है।

23 तीर्थंकरों ने यहाँ परिनिर्वाण प्राप्त किया। इसकी पुरातना दंतकथाओं व परम्पराओं में सिमट रही है। यहाँ 18वीं सदी के पुरातात्विक स्मारक व 72 जैन मन्दिर है। यहाँ प्रागैतिहासिक पाषाण नक्काशियाँ हैं जो पार्श्वनाथ के पद को प्रतिबिम्बित करती है, जिसे पादुका कहते हैं। ये पहाड़ हजारीबाग, मानभूम, बांकुरा व संथाल परगना के संथालों के लिये पवित्र पहाड़ियाँ हैं और इनके द्वारा इसे मरांग बुरू कहा जाता है। ऐसा देखा गया है कि प्रारम्भिक जैन धर्म का प्रवाह बिहार से झारखंड की ओर है और पुराना तीर्थ मार्ग गंगा घाटी से पंचेत होते हुए पूर्वी सिंहभूम जाता है, जो प्राचीन मंदिरों का सबसे बड़ा स्थल है। भगवान महावीर व पारसनाथ दोनों ने अपने मिशन के दौरान इस पहाड़ी का दौरा किया।

यह 1912 में बिहार विभाजन के पहले बंगाल में था। पारसनाथ पहाड़ी की पौराणिकता सिंधु सभ्यता से भी पुरानी है, जैसा कि हाल के पुरातात्विक साक्ष्यों से प्रकाश में आया है। यह वह क्षेत्र था, जहाँ जैन धर्म की मूलतः उत्पत्ति हुई। पहाड़ का विशाल त्रिकोणीय शिखर है, जो एक विशाल आयताकार पठार पर अवस्थित है। इसके पूर्व में तोपचांची जलाशय है। जैन संत प्रमाण सागर जी का ऐसा विश्वास है कि इस पहाड़ का सम्बन्ध सिंधु घाटी सभ्यता के साथ रहा है। जैन श्रावक जो जैन धर्म के पहले धर्मांतरित थे, वर्तमान बंगाल व ओडीशा से सटे पूर्वी सिंहभूम के आदिवासी थे। जैन श्वेताम्बरों या नागा सम्प्रदायों को पहाड़ी पर अधिकार की मान्यता राजा पालगुंज द्वारा प्रदान की गई थी। परम्परागत रूप से यह एक संथाल क्षेत्र था। यह पहाड़ी किसी प्रकार की विनाशकारी विकास से संरक्षण की माँग कर रही है, जो इसकी प्राचीन विरासत को नष्ट कर सकता है।

विकास से संरक्षण चाहिए : हजारीबाग शहर के कुछ किलोमीटर पूर्व में सीतागढ़ पहाड़ी है, जो उत्तर की ओर से देखने पर लेटी हुई आकृति प्रतीत होती है। यह पूर्व से पश्चिम तक दो किलोमीटर लम्बी है। स्थानीय आदिवासियों जैसे बिरहोर द्वारा इस आकृति की पूजा देवी माँ के रूप में की जाती है। पहाड़ी के दक्षिण में सिर के आकार का 60 फीट ऊँचा अखंड पत्थर है, जिसकी पूजा एक देव के रूप में की जाती है। इसके शिखर पर हर वर्ष पूर्णिमा में पूजा का आयोजन किया जाता है। यहाँ बुद्ध की स्मृति भगवान शिव के साथ जुड़ी हुई है, जो पशुपति के रूप में पशुओं का निर्माता व भगवान हैं। इस विशाल शिलास्तम्भ को बिरहोरों द्वारा भुतहा या दानव देवता कहा जाता है।

पहाड़ी के पूर्व में एक बेसिन है, जिसे मारवातेरी कहा जाता है, जिसका अर्थ है शादी की जगह के पास। कुछ वर्ष पहले बुद्ध पूजा के अवशेष यहाँ से मिले हैं और उस स्थान को पर्यटन विभाग द्वारा मान्यता प्राप्त है। गुप्त काल (चौथी-छठी सदी) के समय की बौद्ध प्रस्तरप्रतिमा की विशाल संख्या के बावजूद इस सीतागढ़ पर सीमा सुरक्षा बल का फायरिंग रेंज बनाया गया था। विरोध किये जाने के बावजूद इसे जारी रखा गया है। गोलियों के कुछ टुकड़े कथित तौर पर मारवातेरी में पाए गए हैं व बमबारी ने इस प्राचीन पहाड़ी को हिलाकर रख दिया है। यह क्षेत्र आम लोगों के घूमने के लिये सुरक्षित नहीं रह गया है। चित्रित धूसर मिट्टी के बर्तन (200 ई पू) लौह युग के कुछ अवशेष यहाँ पाए गए हैं। पत्थर के कुएँ व पोखर की श्रृंखला के साथ विशाल निर्मित क्षेत्र प्राचीन बौद्ध बस्तियों के है। बाद के पाल काल में काले पत्थर के बने उल्लेखनीय मानव धड़ के टुकड़े मिले हैं। सैक्रेड साइट्स इंटरनेशनल द्वारा 2005 में इसे लुप्तप्राय विश्व विरासत के रूप में मान्यता दी गई है।

हजारीबाग शहर से कुछ मील दूरी पर राष्ट्रीय राजमार्ग 33 के किनारे एक बड़ी त्रिभुजाकार पहाड़ी है। इसके कंधे जैसा स्वरूप होने के कारण कुछ शोधकर्ताओं ने दावा किया है कि यह मानवनिर्मित है। 2005 में इसे अन्तरराष्ट्रीय महत्ता को सैक्रेड साइट्स इंटरनेशनल सहित इंटरनेशनल काउंसिल ऑफ मोनूमेंट्स एंड साइट्स द्वारा पहचाना गया। आज यह बड़े पैमाने पर पत्थर खनन वाला क्षेत्र बन गया है। उत्तरी कर्णपुरा की माहुदी पर्वतमाला में पाषाण कला क्षेत्र विशाल संख्या में मौजूद हैं, जो मीसो-कैलकोलिथिक काल (7000-2500 ई पू) के हैं। ऊपरी दामोदर घाटी के इस क्षेत्र में नए कोयला खनन कार्य से यह खतरे में है।

बरकागाँव से कुछ मील दक्षिण में एक बड़ा गाँव है, जो अब प्रस्तावित पांकुरी बरवाडी कोयला खदान का संचालन केंद्र बन चुका है। एक रेतीली नदी के पार और माहुदी श्रृंखला के सोबनई पहाड़ है, जो पुराने शिवगढ़ मन्दिर-किले के बाद आता है, उसे 17वीं सदी के बादाम राजा दलेल सिंह द्वारा बनवाया गया था। सोबनई पहाड़ पर शिवगढ़ से तीन किलोमीटर दूर पत्थर को काटकर बनाया गया एक सुन्दर शिव मन्दिर है, जिसे स्थानीय लोग गुफा कहते हैं। इस आकृति का यह नाम एक बड़े पत्थर को खूबसूरती से गहराई तक काटकर बनाये जाने के कारण पड़ा है। इसके नीचे रानी दह नाम का एक स्वच्छ जल का कुंड है। इस शिवमन्दिर से थोड़ी ही दूरी पर प्राचीन पाषाण कला क्षेत्र और पत्थरों को काटकर बनाए गए तीन बौद्ध मन्दिर हैं।

धीरे-धीरे इस श्रृंखला को कोयले की गहरी खुली खदानों ने घेर लिया है। हजारीबाग के पश्चिम में चतरा शहर व इसके दक्षिण में कुलेश्वरी मन्दिर के लिये प्रसिद्ध कोलूहा पहाड़ है, जो सोन नदी के पश्चिम में स्थित है। यह मन्दिर रोहतास जिले की ओर उन्मुख है। यह उत्तरी झारखंड के पश्चिमी किनारे पर गया की ओर जाने वाली सड़क के किनारे स्थित है। लगभग एक सदी पहले कोलुहा पहाड़ पर आरेन स्टेन को एक बौद्ध मूर्ति मिली, जिसके तल पर एक बौद्ध शिलालेख मिला था। कुलेश्वरी मन्दिर बौद्ध देवी तारा को समर्पित प्रतीत होता है, जिनके बाएँ हाथ में कमल व दाहिना हाथ अभयमुद्रा में है। इसके दक्षिण में जैन कला की अनेक लक्षणों और क्रियाओं को दर्शाती पत्थर की तराशी गई मूर्तियाँ और प्राचीन नागरी में लिखे शिलालेख है। स्थानीय लोकोक्तियों के अनुसार भगवान बुद्ध बौद्ध गया जाने के क्रम में इटखोरी होते हुए कुलेश्वरी आए थे।

बेरहम कहर जारी : हजारी बाग के दक्षिण एनएच-33 पर चरही व कोनार श्रृंखला के पूर्व में मरांग-बुरू पहाड़ी है। इसे हजारीबाग के आदिवासी लुगु पहाड़ कहते हैं। हजारीबाग में 1940-42 में हजारीबाग के जनसंख्या अधीक्षक रहे डब्ल्यू जी आर्चर में उरांव गीतों की अपनी किताब ‘द ब्लू ग्रोव’ का शीर्षक यहीं से लिया। इस पहाड़ी के ऊपर एक गाँव है, जिसके आस-पास घने पेड़ों के जंगल हैं। इन जंगलों के बारे में अनेक कहानियाँ व दंतकथाएँ प्रचलित हैं।

लुगु पहाड़ के उत्तर व पूर्व में कोनार श्रृंखला फैली है, यह क्षेत्र पारम्परिक शिकार त्यौहारों ‘दिशोम सेदरा’ के लिये लैंडमार्क हैं। हजारीबाग पठार अपने दक्षिण में 40 किलोमीटर से अधिक पहाड़ी श्रृंखला से घिरी है। एक बार मैंने आद्रा-हुदवा पहाड़ी के शीर्ष पर 100 वर्ग फीट का अंग्रेज वन अधिकारियों का तम्बू शिविर क्षेत्र पाया, जहाँ तम्बू बाँधने के छिद्र व पत्थर के चूल्हे बने थे। हजारीबाग की सबसे लोकप्रिय पहाड़ी कैनेरी हिल है। मुझे विश्वास है कि इसका यह नाम अटलांटिक कैनेरी द्वीप के टेनेफायर द्वीप से समानता के कारण है। हालाँकि स्थानीय कहानी है कि हजारीबाग के कोने में होने के कारण ऐसा नाम है।

आज यह एक वन्यजीव अभ्यारण्य और शहर का लोकप्रिय पर्यटन केंद्र है। इसके दक्षिण में महत्त्वपूर्ण बौद्ध साक्ष्य मिले हैं। लेकिन एनएच-33 की नई हजारीबाग बाईपास सड़क जो इस क्षेत्र से होते हुए गुजरती है, इसकी सुन्दरता व पुरातात्विक विरासत को नष्ट कर रही है। यह हजारीबाग की प्राचीन काल का सबसे आकर्षक अवशेष है। यह एक सबसे महत्त्वपूर्ण सम्भावित वन्यजीव निवास स्थल है और स्थानीय निवासियों के पर्यटन व विश्राम के लिये एक वरदान हो सकता है। इतना कुछ जानने-समझने के बाद भी हम क्यों इनका नामों निशान तक मिटाने पर आमादा हैं?

 

और कितना वक्त चाहिए झारखंड को

(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।)

जल, जंगल व जमीन

1

कब पानीदार होंगे हम

2

राज्य में भूमिगत जल नहीं है पर्याप्त

3

सिर्फ चिन्ता जताने से कुछ नहीं होगा

4

जल संसाधनों की रक्षा अभी नहीं तो कभी नहीं

5

राज व समाज मिलकर करें प्रयास

6

बूँद-बूँद को अमृत समझना होगा

7

जल त्रासदी की ओर बढ़ता झारखंड

8

चाहिए समावेशी जल नीति

9

बूँद-बूँद सहेजने की जरूरत

10

पानी बचाइये तो जीवन बचेगा

11

जंगल नहीं तो जल नहीं

12

झारखंड की गंगोत्री : मृत्युशैय्या पर जीवन रेखा

13

न प्रकृति राग छेड़ती है, न मोर नाचता है

14

बहुत चलाई तुमने आरी और कुल्हाड़ी

15

हम न बच पाएँगे जंगल बिन

16

खुशहाली के लिये राज्य को चाहिए स्पष्ट वन नीति

17

कहाँ गईं सारंडा कि तितलियाँ…

18

ऐतिहासिक अन्याय झेला है वनवासियों ने

19

बेजुबान की कौन सुनेगा

20

जंगल से जुड़ा है अस्तित्व का मामला

21

जंगल बचा लें

22

...क्यों कुचला हाथी ने हमें

23

जंगल बचेगा तो आदिवासी बचेगा

24

करना होगा जंगल का सम्मान

25

सारंडा जहाँ कायम है जंगल राज

26

वनौषधि को औषधि की जरूरत

27

वनाधिकार कानून के बाद भी बेदखलीकरण क्यों

28

अंग्रेजों से अधिक अपनों ने की बंदरबाँट

29

विकास की सच्चाई से भाग नहीं सकते

30

एसपीटी ने बचाया आदिवासियों को

31

विकसित करनी होगी न्याय की जमीन

32

पुनर्वास नीति में खामियाँ ही खामियाँ

33

झारखंड का नहीं कोई पहरेदार

खनन : वरदान या अभिशाप

34

कुंती के बहाने विकास की माइनिंग

35

सामूहिक निर्णय से पहुँचेंगे तरक्की के शिखर पर

36

विकास के दावों पर खनन की धूल

37

वैश्विक खनन मसौदा व झारखंडी हंड़ियाबाजी

38

खनन क्षेत्र में आदिवासियों की जिंदगी, गुलामों से भी बदतर

39

लोगों को विश्वास में लें तो नहीं होगा विरोध

40

पत्थर दिल क्यों सुनेंगे पत्थरों का दर्द

 

 
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