पत्थर जैसी जिंदगी है पत्थर तोड़ने वालों की

6 Sep 2013
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अवैध खनन पर चर्चा में अक्सर मज़दूरों की अनदेखी कर दी जाती है। लेकिन विंध्य क्षेत्र की पत्थर खदानों में काम करने वाले आदिवासी मजदूर कुछ दिनों से आंदोलन की राह पर हैं। नेता, नौकरशाही और ठेकेदारों की तिकड़ी ने इन्हें एक तरह से बंधुआ मजदूर बना रखा है। इनकी व्यथा-कथा बयान कर रही हैं सीमा आज़ाद।

कोलों के लिए उनके क्षेत्र का विस्तार मध्य प्रदेश तक है। दोनों प्रदेशों में फैले उनके रिहायशी क्षेत्र में उन्हें जहां भी काम मिलता है, वे वहीं बस जाते हैं। उनके लिए राज्य की राज्य की सीमा का कोई मतलब नहीं है। बड़ी संख्या में शंकरगढ़ में बसे कोल आदिवासी मूल रूप से मध्य प्रदेश के निवासी हैं। मध्य प्रदेश में कम मजदूरी के कारण वहां से बड़ी संख्या में कोल आदिवासी शंकरगढ़ की खदानों में काम के लिए आते हैं और यहां ये ठेकेदारों के शोषण का शिकार होते हैं। प्रवासित होने के कारण सरकारों के लिए भी यह सुविधा होती है कि वे इन्हें आसानी से अपनी योजनाओं से बेदखल कर सकती हैं।

इलाहाबाद शहर को देखकर यह अंदाजा लगाना मुश्किल है कि इसके मात्र पचास किलोमीटर की दूरी पर एक ऐसा इलाक़ा है जहां विकास की कोई किरण आज तक नहीं पहुंची है। कोल आदिवासी बहुल यह इलाक़ा पत्थर खदानों से भरा हुआ है। यही इनकी आजीविका का साधन है और साथ ही समस्याओं की वजह भी। ये खदानें हैं जीविका देती हैं तो साथ में मरने के लिए सिलीकोसिस और मलेरिया जैसी बीमारियाँ भी। ये खदानें ही दूर-दूर के आदिवासी मज़दूरों को रोज़गार के लिए आकर्षित भी करती हैं और अनजाने ही उन्हें बंधुआगीरी की अदृश्य डोर में इन्हें बांध भी लेती हैं। इसी कारण एक बार यहां आ जाने के बाद इनका यहां से जाना असंभव सा हो जाता है। सच्चाई यह भी है कि सालों से इसी काम में लगे रहने के कारण ये दूसरे कामों के बारे में सोचते भी नहीं हैं। बरसों-बरस बहुमूल्य पत्थर खोदने और तोड़ने वाले ये मज़दूर इतनी सारी समस्याओं से इसलिए घिरे हैं, क्योंकि वे एक तरह से ठेकेदारों के कर्ज में बंधे हैं।

आमतौर पर शहर की खबरों में उपेक्षित रहने वाला शंकरगढ़ का यह क्षेत्र पिछले दिनों सुर्खियों में भी था। मुद्दा है इलाके में अवैध और अवैज्ञानिक खनन, जिसके कारण धरातलीय संतुलन बिगड़ रहा है और पर्यावरण को क्षति पहुंच रही है। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने फिलहाल खनन पर रोक लगा दी है। इससे खदान मालिकों और ठेकेदारों की करनी का फल उनसे ज्यादा आदिवासी मज़दूरों को भुगतान पड़ रहा है, जिनकी रोजी-रोटी इन खदानों में पत्थर तोड़कर चलती है। इनमें से अधिकतर मज़दूर कहीं और कमाने नहीं जा सकते क्योंकि इनके ऊपर ठेकेदारों का कर्ज भी है। वे बिना कर्ज उतारे वहां से नहीं जा सकते। यह एक किस्म की बंधुआ मजदूरी है। अवैध और असंतुलित खनन की मुश्किलें काफी पुरानी हैं। सरकार विभिन्न सरकारी योजनाओं और कानून के माध्यम से बंधुआ मजदूरी समाप्त करने और इनकी स्थिति में सुधार करने के दावे बार-बार करती है, लेकिन वह सब कुल मिलाकर हवा-हवाई ही होता है।

सिलिका सैंड, गिट्टी, पत्थर और मोरंग से भरा यह इलाक़ा शंकरगढ़ कहलाता है। लेकिन यह इतना छोटा इलाक़ा नहीं है, बल्कि यह एक बड़े भूभाग में पसरा हुआ है। भौगोलिक दृष्टि से यह विंध्य क्षेत्र में आता है, जिसका विस्तार 10 हजार 350 वर्ग किलोमीटर है और पूरा इलाक़ा उन्नीस विकास खंड में बंटा हुआ है। इसमें इलाहाबाद जिले का शंकरगढ़, कोराव, मेजा, मांडा और जसरा का एक हिस्सा आता है। इसके अलावा मिर्जापुर जिले के चार विकास खंड और चंदौली जिले के दो विकासखंड आते हैं। इस पूरे क्षेत्र का एक तिहाई हिस्सा आरक्षित वन क्षेत्र है और तीन चौथाई हिस्सा पठारी भाग है। इतने बड़े क्षेत्र को देखते हुए इसकी आबादी विरल है क्योंकि यह क्षेत्र जीवनयापन के लिए कठिन है। इस इलाके की कुल आबादी मोटेतौर पर चालीस लाख के आसपास होगी, जिसमें साढ़े तीन लाख के करीब कोल जनजाति हैं। इनमें से ही एक लाख से ज्यादा लोग खनन के काम में लगे हैं।

कोलों के लिए उनके क्षेत्र का विस्तार मध्य प्रदेश तक है। दोनों प्रदेशों में फैले उनके रिहायशी क्षेत्र में उन्हें जहां भी काम मिलता है, वे वहीं बस जाते हैं। उनके लिए राज्य की राज्य की सीमा का कोई मतलब नहीं है। बड़ी संख्या में शंकरगढ़ में बसे कोल आदिवासी मूल रूप से मध्य प्रदेश के निवासी हैं। मध्य प्रदेश में कम मजदूरी के कारण वहां से बड़ी संख्या में कोल आदिवासी शंकरगढ़ की खदानों में काम के लिए आते हैं और यहां ये ठेकेदारों के शोषण का शिकार होते हैं। प्रवासित होने के कारण सरकारों के लिए भी यह सुविधा होती है कि वे इन्हें आसानी से अपनी योजनाओं से बेदखल कर सकती हैं। इतना ही नहीं इसी कारण कानून भी इनके पक्ष में खड़ा नहीं होता, बल्कि कानूनी लड़ाई के हक़दार भी ये नहीं बन पाते। इसके बावजूद सालों से ये लोग यहां कि खदानों में मजदूरी करते हुए यहीं रह रहे हैं। ठेकेदार इन आदिवासियों को मजदूरी के लिए जिस तरह से नियुक्त करते हैं उसी में इनके बंधन में बंधने और शोषण के अंतहीन शिकंज में फंसने की तैयारी हो जाती है। पहले से आए जत्थे को देखकर दूसरा जत्था जब इस क्षेत्र में मजदूरी के लिए आता है तो घात लगाए ठेकेदार उन्हें मजदूरी का अग्रिम भुगतान करते हैं। नतीजतन मज़दूर उनके चंगुल में आसानी से फंस जाते हैं।

नए क्षेत्र में बसने के लिए इन्हें शुरुआती समय में कुछ पैसों की जरूरत भी होती है और यह जरूरत इन्हें शुरू से ही ठेकेदारों के चंगुल में फंसा देती है। इसके पीछे वजह ये भी है कि ठेकेदार यहां मजदूरी का भुगतान रोज़ाना के हिसाब से न करके तयशुदा काम के बदले में करता है। जैसे गिट्टी तोड़ने के काम में मजदूरी का माप प्रति ट्रक गिट्टी से तय किया जाता है। एक ट्रक गिट्टी तोड़ने की मजदूरी बारह सौ से पंद्रह सौ रुपए के बीच होती है। इसमें राजस्व और रवन्ना निकाल कर उसका शुद्ध मुनाफ़ा तीन हजार से पांच हजार होता है। ठेकेदार अक्सर राजस्व की चोरी करके इस मुनाफ़े को और अधिक बढ़ा लेता है। दूसरी ओर चार से बारह सदस्यों वाले परिवार का झूमर पत्थर तोडऩे वाला बहुत ही भारी हथौड़ा, लगातार एक हफ्ते या दस दिन तक पत्थरों पर गिरता है तब जाकर एक मज़दूर परिवार को बाहर सौ से पंद्रह सौ रुपए का मेहनताना मिलता है। उसमें भी अगर उस मज़दूर परिवार ने कर्ज लिया है तो इसमें भी कटौती हो जाती है। मजबूरी में इसके बदले उसे अगले ट्रक की गिट्टी तोड़ने के लिए अग्रिम लेना पड़ता है। इसी कारण वह एक ही ठेकेदार से बंधा रहता है, उसके पास दूसरी जगह जाने का विकल्प नहीं होता। इस तरह हर ठेकेदार अपने ‘गुलाम’ बढ़ाता जाता है। मज़दूरों की जरूरतें रोज ही उन्हें कर्ज लेने पर विवश किए रहती हैं, खासतौर पर अपने इलाज के लिए अधिकतर ऐसे रोग के इलाज के लिए जो उन्हें इस रोज़गार ने ही दिया है। पत्थर तोड़ने से उठती गर्द मज़दूरों की श्वांस नली से होकर फेफड़ों में पहुँचती रहती है और खतरनाक सिलिकोसिस रोग का कारण बनती है जिसका अंत मौत ही मौत है।

इस क्षेत्र के मजबूत मांसपेशियों वाले हट्टे-कट्टे मज़दूर ज्यादातर इसी रोग से मर जाते हैं, वह भी कम उम्र में। खदान में विस्फोट के समय भी अक्सर दुर्घटनाएँ होती हैं और मज़दूर मारे जाते हैं क्योंकि ठेकेदार इस काम के समय न ही मज़दूरों को हेल्मेट उपलब्ध कराते हैं, न ही सुरक्षा के दूसरे उपाय करते हैं। उलटे, ठेकेदार उनकी इस स्थिति का इस्तेमाल उन पर कर्ज का बोझ और लादने के लिए करते हैं। इसके अलावा मलेरिया भी इस क्षेत्र की प्रमुख बीमारी है जो ज्यादातर बरसात के महीने में महामारी बन जाती है, क्योंकि खदानों में बारिश का पानी भर जाता है। इस क्षेत्र में सक्रिय बहुत सारे स्वयं सेवी संगठन सिलोकोसिस बीमारी से बचने के लिए मास्क उपलब्ध कराने, विस्फोट के समय सुरक्षा उपाय करने और मलेरिया की दवा बांटने की मांग करते रहते हैं फिर भी लोग विस्फोट और इन बीमारियों से मर भी रहे हैं और इसके इलाज के लिए कर्ज के बोझ तले दबते भी जा रहे हैं।

इन मज़दूरों की दुर्दशा की कहानी का एक सिरा शंकरगढ़ के राजपरिवार से भी जुड़ा है। यहां के कुल 46 गाँवों के खनन का पट्टा इस शंकरगढ़ की रानी के पास है। बाकी ठेकेदारी के पट्टे भले ही बदलते या रद्द होते रहें, पर रानी का पट्टा हमेशा उनके ही पास रहा है। क्योंकि यह राजपरिवार को मिली दैवीय संपत्ति मानी जाती है, जिसे कोई छीन नहीं सकता। सरकार भी नहीं। तभी तो इस परिवार से मात्र चार हजार रुपए सालाना कर के बदले जिला प्रशासन उनके पट्टे को यथावत चला रहा है। जबकि यहां भी दूसरी जगहों की तरह न तो श्रम कानूनों का पालन किया जाता है और न ही सुरक्षा और पर्यावरण के मानकों का। सभ्यता की शुरुआत से ही तमाम बसावट किसी विशेष क्षेत्र में इसलिए हुई है क्योंकि वहां पानी की उपलब्धता थी लेकिन इस पठारी क्षेत्र में पानी की ज़बरदस्त कमी के बावजूद बसावट इस कारण हुई, क्योंकि यह पथरीला क्षेत्र उन्हें रोज़गार देता है। इस पूरे क्षेत्र में पानी पत्थरों से रिसकर आता है, जो कि वैसे ही दूषित रहता है। यहां के बाशिंदों ने इस रिसते हुए पानी को अलग-अलग खांचों में बांट कर इसका प्रदूषण कम करने का उपाय किया है। पत्थर से सीधा आता पानी पीने के लिए है। उससे आगे बढ़ता पानी नहाने और कपड़े धोने के लिए है उससे आगे बहा पानी शौच और जानवरों के पीने के लिए। कहीं-कहीं पर कुएँ भी हैं जिसका पानी एकदम मटमैला है और काफी नीचे भी। कुछ सरकारी हैंडपंप भी हैं जो कि गांव के दबंगों के दालान में हैं, जहां से ये मज़दूर पानी नहीं भर सकते। यानी इनके लिए पत्थरों से रिसता पानी ही उपलब्ध है। उसे भी सिलिका सैंड के ठेकेदार अक्सर वाशिंग प्लांट के तौर पर इस्तेमाल करते हैं, जिससे यह पानी भी दूषित हो रहा है। ऐसे में तपते पत्थरों के बीच ये लोग पानी की कमी के साथ कैसे रहते होंगे, इसकी कल्पना करना मुश्किल नहीं है। इस स्थिति में कुछ स्वयं सेवी संगठन काम के नाम पर ऐसा काम करते हैं जो बेतुके के साथ-साथ हास्यास्पद भी होता है। कुछ वर्ष पहले एक संगठन ने पानी की कमी वाले इस इलाके में शौचालय बनवाकर गांव वालों को सभ्य बनाने का दावा किया। लेकिन पानी के अभाव में ये पहले गंदे, बाद में बेकार हो गए। वास्तव में इस क्षेत्र में आदिवासियों कि स्थिति सुधारने के नाम पर ढेर सारे एनजीओ अस्तित्व में हैं, सभी यहां काम करने के नाम पर विदेशों से मोटी धनराशि बटोरने में लगे हैं। स्वयं सहायता समूहों की तो यहां बाढ़ सी है, लेकिन कोई भी एनजीओ इन मज़दूरों की स्थिति में मूलभूत परिवर्तन कि बात नहीं करता। इसी कारण इतने सालों से इतने सारे संगठनों की उपस्थिति के बावजूद इन मज़दूरों की स्थिति में न तो सरकार ही कोई परिवर्तन ला सकी और न ही ये एनजीओ। गरीबी निवारण तमाम की योजनाएं यहां औंधे मुंह गिरी हैं।

इनमें से कुछ क्षेत्रों की जीवनचर्या अभी भी आदिम है। कई गाँवों में अब भी खरीदारी के लिए वस्तु विनिमय प्रणाली प्रचलन में है। खाने में आलू, चावल और खुद्दी दाल के अलावा कुछ भी नहीं है। चिकित्सक और अस्पताल के अभाव में जले कटे का इलाज भी आलू से ही होता है। शिक्षा के बारे में तो सोचा भी नहीं जा सकता। हथौड़ा संभाल सकने लायक होते ही बच्चे पत्थर तोड़ने में जुट जाते हैं और परिवार के लिए कमाऊ हो जाते हैं। ‘बाल श्रम उन्मूलन’ और ‘अनिवार्य शिक्षा’ यहां किताबी लफ्ज भर हैं। यहां की ग्राम पंचायतों में इनका प्रतिनिधित्व नहीं के बराबर है क्योंकि इनकी बड़ी आबादी ‘बाहरी’ कहलाती है।

सरकार भले ही मनरेगा की उपलब्धि गिनाते हुए इसके माध्यम से देश से बंधुआ मजदूरी समाप्त करने का ढिंढोरा पीट रही हो, पर वास्तविकता यही है कि इन तक यह योजना पहुंची ही नहीं, बंधुआपन से मुक्त होना तो दूर की बात है। यह इलाक़ा इस सरकारी विज्ञापन के झूठ को उजागर कर देता है, बल्कि इस सरकारी दावे के साथ-साथ सरकारी विकास के दावे की भी हंसी उड़ाता है।

इन मज़दूरों की दुर्दशा की कहानी का एक सिरा शंकरगढ़ के राजपरिवार से भी जुड़ा है। यहां के कुल 46 गाँवों के खनन का पट्टा इस शंकरगढ़ की रानी के पास है। बाकी ठेकेदारी के पट्टे भले ही बदलते या रद्द होते रहें, पर रानी का पट्टा हमेशा उनके ही पास रहा है। क्योंकि यह राजपरिवार को मिली दैवीय संपत्ति मानी जाती है, जिसे कोई छीन नहीं सकता। सरकार भी नहीं। तभी तो इस परिवार से मात्र चार हजार रुपए सालाना कर के बदले जिला प्रशासन उनके पट्टे को यथावत चला रहा है। जबकि यहां भी दूसरी जगहों की तरह न तो श्रम कानूनों का पालन किया जाता है और न ही सुरक्षा और पर्यावरण के मानकों का। हाल ही में इलाहाबाद के आयुक्त हिमांशु कुमार की पहल पर इसी परिवार का लाखों टन का अवैध सिलिका सैंड पकड़ा गया। इसके बाद इलाहाबाद हाईकोर्ट ने यहां खनन पर रोक लगा दी है। इतने बड़े पैमाने पर अवैध सिलिका सैंड की छापेमारी के बाद आयुक्त का तबादला कर दिया गया। यह तबादला भी काफी चर्चा का विषय बना। कानूनी रोक के बाद इन गाँवों में खनन का काम बंद हो चुका है। लेकिन, इस बंदी की सर्वाधिक मार उन आदिवासी मज़दूरों पर पड़ रही है, जिनके पास यहां हाड़ तोड़ने के अलावा कोई चारा नहीं है। यहां वर्षों से काम कर रहे मज़दूर अब रानी का खनन पट्टा रद्द कर, उस पर कानूनी कार्रवाई करने और खनन का पट्टा खुद को दिए जाने की मांग कर रहे हैं। मजदूरों का कहना है कि इससे अवैध खनन तो रुकेगा ही, सरकार को टैक्स के अलावा राजस्व भी मिलेगा जिससे शंकरगढ़ का विकास किया जा सकेगा।

मालिकाना हक है इलाज


इलाहाबाद के गोविंदवल्लभ पंत संस्थान में एसोसिएट प्रोफेसर सुनीत सिंह, जो शंकरगढ़ और कोराव के क्षेत्र में करीब 15 वर्षों से अध्ययन कर रहे हैं का कहना है कि खदान मजदूरों को खदान का मालिकाना हक दिए बिना उनकी स्थिति को बदलना असंभव है। कोई भी योजना इन मजदूरों की स्थिति को नहीं बदल सकती। उनका कहना है सरकार का मनरेगा के माध्यम से बंधुआ मजदूरी समाप्त करने का दावा पूरी तरह आंख में धूल झोंकने वाला है। जिसका उदाहरण शंकरगढ़ के खदान मजदूर हैं जो अब भी ठेकेदार के कर्ज जाल में फंसे हुए हैं। सुनीत सिंह ने बताया कि कानूनी परिभाषा के हिसाब से बंधुआ मजदूर वह है जो कहीं जाने के लिए स्वतंत्र नहीं है। जिसे न्यूनतम मजदूरी से कम मजदूरी मिलती है। जो अपने उत्पाद का मूल्य खुद तय नहीं कर पा रहा है। जिसे किसी एडवांस या कर्ज के चलते जबरन काम करना पड़ रहा है। अब इस परिभाषा के अनुसार देखें तो शंकरगढ़ क्षेत्र में काम करने वाले खदान मजदूर बंधुआ की श्रेणी में ही आते हैं। दरअसल ठेकेदारों द्वारा मजदूरी की भर्ती का तरीका इन्हें बंधुआ बनाता है। अगर ठेकेदार इन्हें न्यूनतम मजदूरी की दर से प्रतिदिन भुगतान करें तभी ये बंधुआ की स्थिति से बाहर आ सकेंगे। लेकिन ठेकेदार इन्हें दैनिक मजदूरी पर न रखकर जानबूझकर अग्रिम भुगतान करके उन्हें बंधुआ बना लेते हैं। मजदूरों की अपनी समस्या भी उन्हें कर्ज लेने के लिए मजबूर कर देती है।

सुनीत सिंह के मुताबिक शंकरगढ़ के खदान मजदूरों को बंधुआपन से तब तक मुक्ति नहीं मिल सकती जब तक कि खदान का पट्टा मज़दूरों को नहीं दिया जाता। यानी कि जब तक वे खुद इसके मालिक नहीं बन जाते। वे इसके लिए उत्तरदायित्वपूर्ण साझा प्रबंधन का समर्थन करते हैं, जिसमें खनन किसी ठेकेदार का नहीं, बल्कि मजदूरों की साझा ज़िम्मेदारी हो। आदिवासियों को समाज से जोड़ने के लिए सामाजिक ताने-बाने को बदलने की भी जरूरत है।

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