पुनर्वास के नाम पर एक नई आस


राज्य और केन्द्र में बैठी सरकारों ने केवल विस्थापन के दंश पर मुआवजा रूपी मरहम लगाने की एक झूठी कोशिश की है। आजादी के बाद से लेकर आज तक केवल बाँध बनाने के नाम पर लगभग चार करोड़ लोग उजाड़े जा चुके हैं। सरकार भी यह मानती रही है कि पुनर्वास इतना आसान नहीं है।

पूरे देश में विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) के नाम पर लगभग 400 सेज को मंजूरी मिलनी तय है। इनमें 181 सेज को सितम्बर, 2006 में ही मंजूरी मिल चुकी है। जगह-जगह किसान विरोध में मोर्चाबद्ध होकर लड़ने की तैयारी कर रहे हैं। महामुम्बई, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, सिंगुर या नंदीग्राम-सभी जगह अपने-अपने तरीके के विरोध हो रहे हैं। बंगाल में सिंगुर और बाद में नंदीग्राम में किसानों की हो रही गोलबन्दी के कारण दबाव में आ चुकी राज्य और केन्द्र सरकार को अपने बयान में नरमी बरतनी पड़ रही है। वे किसानों के साथ की जा रही ठगी पर पुनर्विचार करने की बात कह रहे हैं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने ‘फिक्की’ की वार्षिक बैठक के अपने उद्घाटन भाषण में यह घोषणा की कि वे अगले तीन महीने के भीतर ‘नई पुनर्वास नीति’ लागू करने जा रहे हैं। प्रधानमंत्री ने यह भी कहा है कि यह नीति ज्यादा प्रगतिशील, मानवीय और दीर्घकाल के लिये हमारी अर्थव्यवस्था में भागीदारी करने वालों के लिये प्रेरक एवं कल्याणकारी होगी।

अब सवाल यह उठता है कि क्या पूर्व में बनाई गई पुनर्वास नीति प्रगतिशील, मानवीय और लोक कल्याणकारी नहीं थी? दूसरा सवाल यह है कि अगर पुनर्वास नीति पहले से मौजूद थी, तो इसमें ‘नई’ शब्द जोड़ देने से क्या सत्ता का चरित्र रातोंरात बदल जाएगा?

दरअसल, देखा यह गया है कि जब भी किसी नीति के साथ ‘नई’ शब्द जोड़ा गया, तब यह पहले की तुलना में ज्यादा अप्रगतिशील, अमानवीय और अ-लोककल्याणकारी रूप में हमारे सामने आई है। नई आर्थिक नीति और नई शिक्षा नीति के परिणाम हमारे सामने कितने नकारात्मक निहितार्थों वाले हैं कि इनकी मिसाल देने की कोई जरूरत नहीं। इनसे तसल्ली मिलने की बजाय इन नीतियों ने हमारी बेचैनी में इजाफा ही किया है। सामाजिक मूल्यों में गिरावट के साथ हमारे नेतृत्व में भी गिरावट आई है। गौरतलब है कि सत्ता में बैठे लोगों की भाषा में आजादी के बाद से आज तक कोई खास फर्क नहीं दिखता है।

उदाहरण के जरिए सत्ता के खेल को समझना आसान होगा। साठ के दशक में आये सूखे से बेहाल-बदहाल जनता की तकलीफों से द्रवित हो उठी राज्य सरकार ने कृषि के विकास के लिये सिंचाई योजना तैयार की। सिंहभूम जिले के अन्तर्गत सुवर्णरेखा एवं खरकई नदी पर सुवर्णरेखा बहुउद्देशीय परियोजना की रूपरेखा तैयार की गई। इन नदियों पर बाँध, नहर और बैराज बनाए गए। परियोजना का उद्देश्य सिंचाई, पेयजल और उद्योगों के लिये जलापूर्ति बताया गया था। इसके शुरू होते ही राज्य सरकार ने टाटा और टिस्को से औद्योगिक एवं उनकी कॉलोनियों के लिये पेयजल की जरूरत के बारे में पूछा था। यहाँ की स्थानीय आदिवासी जनता से उद्योग चलाने के लिये जमीनें ली गईं। उन्हें न पानी मिला और न ही उद्योगों में हिस्सेदारी। हालत यह है कि ये आदिवासी झारखण्ड में खनन कार्य से लेकर कारखानों में मजदूरी करने तक ही सीमित हैं।

निचले स्तर पर शामिल लोगों की भागीदारी दो प्रतिशत से ज्यादा आज भी नहीं है। इन क्षेत्रों में उद्योग के नाम पर उजाड़े गए लोगों के बीच स्वास्थ्य, शिक्षा, भाषा और बोली, हरेक स्तर पर समस्या घनी ही हुई है। उजाड़ का यह सिलसिला जवाहरलाल नेहरू के प्रधानमंत्रित्वकाल में भी रहा। इन तकलीफों में वे लोग भी शामिल हैं, जिन्होंने आजादी की लड़ाई में संघर्ष किया था। उजाड़ का सिलसिला नई आर्थिक नीति के लागू होने के बाद और गति पकड़ चुका है। बड़े बाँधों के नाम पर नर्मदा, टिहरी और हरसूद जैसी बड़ी तबाही बेकसूर जनता ने झेली है। इन बाँधों की वजह से विस्थापन बड़े स्तर पर हुए हैं।

राज्य और केन्द्र में बैठी सरकारों ने केवल विस्थापन के दंश पर मुआवजा रूपी मरहम लगाने की एक झूठी कोशिश की है। आजादी के बाद से लेकर आज तक केवल बाँध बनाने के नाम पर लगभग चार करोड़ लोग उजाड़े जा चुके हैं। सरकार भी यह मानती रही है कि पुनर्वास इतना आसान नहीं है। सभी को समझना होगा कि विस्थापन केवल जनता का ही नहीं होता, विस्थापन के साथ उनकी बोलियाँ, आबोहवा और कुल मिलाकर पूरी संस्कृति तहस-नहस हो जाती है। हालांकि नई पुनर्वास नीति में कहा गया है कि जिनकी जमीनें ली गई हैं, उनको वैसी ही जमीन दी जाएगी, जैसी उनसे ली गई है, लेकिन यह बात जितनी सरलता से कह दी गई है, क्या उसे लागू करना भी उतना ही सहज होगा? राज्य सरकारें तो उद्योगपतियों के हित में खड़ी दिखती हैं। जरूरत पड़ती है तो वे अपना पूरे तंत्र की ताकत हक माँगने वालों के विरोध में झोंक डालती हैं। पुनर्वास के लिये जीवटता और बड़ी इच्छाशक्ति की जरूरत होती है, जो तत्काल किसी सरकार में नहीं दिखती है। ‘नई पुनर्वास नीति’ के नाम पर भ्रम पैदा करने की कोशिश की जा रही है। जनता को बगैर लड़े कभी भी कुछ हासिल नहीं हुआ है, चाहे धरती पुत्र का राज्य हो या शोषणविहीन समतामूलक शासन बताने वाली साम्यवादी पार्टियों का राज्य हो।

 

जल, जंगल और जमीन - उलट-पुलट पर्यावरण

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क्रम

अध्याय

 

पुस्तक परिचय - जल, जंगल और जमीन - उलट-पुलट पर्यावरण

1

चाहत मुनाफा उगाने की

2

बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के आगे झुकती सरकार

3

खेती को उद्योग बनने से बचाएँ

4

लबालब पानी वाले देश में विचार का सूखा

5

उदारीकरण में उदारता किसके लिये

6

डूबता टिहरी, तैरते सवाल

7

मीठी नदी का कोप

8

कहाँ जाएँ किसान

9

पुनर्वास की हो राष्ट्रीय नीति

10

उड़ीसा में अधिकार माँगते आदिवासी

11

बाढ़ की उल्टी गंगा

12

पुनर्वास के नाम पर एक नई आस

13

पर्यावरण आंदोलन की हकीकत

14

वनवासियों की व्यथा

15

बाढ़ का शहरीकरण

16

बोतलबन्द पानी और निजीकरण

17

तभी मिलेगा नदियों में साफ पानी

18

बड़े शहरों में घेंघा के बढ़ते खतरे

19

केन-बेतवा से जुड़े प्रश्न

20

बार-बार छले जाते हैं आदिवासी

21

हजारों करोड़ बहा दिये, गंगा फिर भी मैली

22

उजड़ने की कीमत पर विकास

23

वन अधिनियम के उड़ते परखचे

24

अस्तित्व के लिये लड़ रहे हैं आदिवासी

25

निशाने पर जनजातियाँ

26

किसान अब क्या करें

27

संकट के बाँध

28

लूटने के नए बहाने

29

बाढ़, सुखाड़ और आबादी

30

पानी सहेजने की कहानी

31

यज्ञ नहीं, यत्न से मिलेगा पानी

32

संसाधनों का असंतुलित दोहन: सोच का अकाल

33

पानी की पुरानी परंपरा ही दिलाएगी राहत

34

स्थानीय विरोध झेलते विशेष आर्थिक क्षेत्र

35

बड़े बाँध निर्माताओं से कुछ सवाल

36

बाढ़ को विकराल हमने बनाया

 


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