प्यास बुझाने की चुनौती

14 Oct 2008
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किसी के लिए भी अपने बच्चों को हर जगह मिलने वाले पानी को पीने से रोकना हमेशा चुनौतीपूर्ण रहा है। बच्चों को यह समझाना मुश्किल है कि कौन-सा पानी पीने के लिए अच्छा होता है और कौन सा नहीं? शुरू से ही पानी मानवीय, सामाजिक और आर्थिक विकास का घटक रहा है। तमाम मानव सभ्यताएं नदी के किनारे ही विकसित हुई हैं। ताजे और खारे पानी की पर्याप्त आपूर्ति और प्रबंधन के बिना सामाजिक और आर्थिक विकास पूरा नहीं हो सकता। नि:संदेह पानी और विकास एक-दूसरे से गहरे जुड़े हैं।

पीने योग्य पानी मुख्यत: दो स्त्रोतों से आता है, सतह और भूमिगत पानी। अधिकतर जल आपूर्ति सतह के जल स्त्रोत पर निर्भर करती है। इसका बहुत छोटा हिस्सा भूमिगत जल है। सतह जल में नदी, तालाब और नहर आदि शामिल हैं। भूमिगत जल कुओं या ट्यूबवेल के माध्यम से निकाला जाता है। कुओं के जल की गुणवत्ता वहां के पत्थर, मिट्टी या रेत की प्रकृति पर निर्भर करती है। पीने योग्य पानी छिछले या गहरे स्तर पर मिल सकता है। अपने देश के अनेक स्थानों पर पानी मिलना अब मुश्किल होता जा रहा है। हालात यहां तक बिगड़ रहे हैं कि ऐसे क्षेत्रों में लोगों को पीने के लिए भी शुद्ध पानी उपलब्ध नहीं है। विडंबना यह है कि शासन के स्तर पर इस समस्या की ओर उतनी गंभीरता से ध्यान नहीं दिया जा रहा जैसा कि अपेक्षित है।

सच्चाई यह है कि हम गंभीर जल संकट की ओर बढ़ रहे हैं। भारत की 85 फीसदी आबादी केवल भूमिगत पानी पर निर्भर है, जो तेजी से सूख रहा है। हालांकि शहरी इलाकों में साठ फीसदी लोग सतह के जल स्त्रोतों पर निर्भर हैं लेकिन इस प्रकार के पानी की उपलब्धता और गुणवत्ता पर सवालिया निशान लगा है। जनसंख्या बढ़ोतरी के अनुपात में ताजे जल की प्रति व्यक्ति उपलब्धता घटने की आशंका है। 2000 में यह 2200 घन मीटर थी। हाल में एक अनुमान के मुताबिक 2017 तक भारत में पानी की कमी से गंभीर स्थिति पैदा हो जाएगी। उस समय पानी की उपलब्धता करीब 1600 घन मीटर रह जाएगी। देश में जल संग्रह धीरे-धीरे लोगों के जीवन और पर्यावरण को प्रभावित करने लगा है। कुछ मसलों पर तत्काल विचार करने की जरूरत है। सबसे पहले तो घरेलू, कृषि और औद्योगिक जरूरतों के लिए भूमिगत पानी के अत्यधिक दोहन के कारण देश के बहुत से हिस्सों में गर्मियों के दौरान अच्छी गुणवत्ता वाला पानी नहीं मिलता। यही नहीं, करीब 10 प्रतिशत ग्रामीण और शहरी जनता को स्वच्छ व सुरक्षित पीने का पानी नहीं मिल पाता है। उनमें से अधिकतर को अपनी रोजमर्रा की जरूरतों के लिए पानी के असुरक्षित स्त्रोतों पर निर्भर रहना पड़ता है। पानी की कमी के कारण शहरों और गांवों में भारी मात्रा में टैंकरों और पाइपलाइनों से पानी पहुंचाना पड़ता है। इसके अलावा पानी में घुले फ्लोराइड, आर्सेनिक और सेलेनियम जैसे रसायनों से देश में गंभीर बीमारियां हो रही हैं।

एक अनुमान के मुताबिक 20 राज्यों की सात करोड़ आबादी फ्लोराइड और एक करोड़ जनता सतह के जल में आर्सेनिक की अधिकता के खतरों से जूझ रही है। इसके अलावा सुरक्षित पेय जल कार्यक्रम के तहत सतह के जल में क्लोराइड, टीडीसी, नाइट्रेट की अधिकता भी बड़ी बाधा बनी हुई है। इस समस्या का तत्काल निदान जरूरी है। सतह के पानी के अत्यधिक दोहन से उसमें रसायनों की मात्रा बढ़ जाती है। अत्यधिक निकासी के कारण तटीय इलाकों की भूमिगत जल पट्टियों में समुद्री पानी की अधिकता बढ़ रही है। इससे इन इलाकों का पानी और अधिक खारा हो रहा है, जो पीने योग्य नहीं है। भूमिगत और सतह के पानी में कृषि रसायनों और औद्योगिक कचरे की निरंतर मिलावट के कारण जल प्रदूषण बढ़ रहा है, जो स्वास्थ्य के लिए खतरनाक है। देश को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ती है। विश्व बैंक के एक अनुमान के मुताबिक पर्यावरण की क्षति के कारण भारत को हर साल करीब 9.7 अरब डालर चुकाने पड़ते हैं। 59 फीसदी बीमारियों की वजह जल प्रदूषण है। प्रभावशाली प्रबंधन के लिए भरोसेमंद जल गुणवत्ता प्रबंधन योजना बुनियादी शर्त है। यह निराशाजनक है कि इस ओर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। जल प्रबंधन के संदर्भ में बातें तो खूब की जाती हैं, लेकिन यथार्थ के धरातल पर कुछ होता हुआ नजर नहीं आता। साफ पानी के इस्तेमाल के बारे में जागरूकता फैलाने और जल संरक्षण के तरीके अपनाना स्वच्छ पेयजल की आपूर्ति के लिए बुनियादी कदम है। जल प्रदूषण के मामलों में गरीब शहरी और ग्रामीण तबका सबसे अधिक प्रभावित होता है। वाजिब दाम में अच्छी गुणवत्ता का पानी जीवन की बुनियादी जरूरत है। इसे देखते हुए पैकेटबंद पीने के पानी पर उत्पाद शुल्क में कटौती का प्रस्ताव सही दिशा में उठाया गया कदम है।

[बढ़ते जल संकट पर शुब्बिदा रंधावा के विचार]

 

 

साभार जागरण/ याहू

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