फ्लोराइड : विष का अविरल प्रवाह (Fluorosis in India: An Overview)

2 Jul 2015
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काल और स्थान (टाइम और स्पेस)


फ्लोराइड नामक विष और उससे होने वाली बीमारी फ्लोरोसिस के बारे में हमें 1930 में ही पता चल गया था। फ्लोरोसिस रोग का फैलाव देश के बड़े भू-भाग में हो चुका है और 19 राज्यों के लोग इसके चपेट में आ गए हैं। इसके भौगोलिक फैलाव और इससे होने वाली समस्या की गम्भीरता का आकलन मुमकिन होने के बावजूद अब तक हमारे पास इसके बारे में समुचित जानकारी नहीं है। देश में अब भी फ्लोराइड प्रभावित इलाकों की खोज हो रही है; परन्तु इसके फैलाव की सीमा रेखा खींचने का काम अभी बाकी है। हालांकि इसका यह मतलब नहीं है कि यह कहीं और विद्यमान नहीं है।

बरसों से इसने पेयजल के जरिए मिलने वाले पोषण को नुकसान पहुँचाया है। फ्लोराइड प्रभावित इलाकों में लोग बड़ी तेजी से अपंग हो रहे हैं। आज वास्तव में उस इलाकों में रहने वाले लोग एक अलग मुल्क के बाशिंदे लगने लगे हैं। उस देश के सभी नागरिक भावनात्मक रूप से एक हो गए हैं, सभी ज़मीन से निकाला गया ऐसा पानी पीते हैं, जिसमें प्रति लीटर पानी में 1.5 मिलिग्राम (मि.ग्रा.) से भी ज्यादा फ्लोराइड है। यहाँ रहने वाले सभी लोग बीमार हैं।

फ्लोरोसिस को गुजरात में वाह, मध्य प्रदेश में गेनू वालगम, राजस्थान में बंका पट्टी और उत्तर प्रदेश में लुंज-पुंज के नाम से पुकारा जाता है। कहते हैं कि प्रभावित इलाकों में लोग बालपन से सीधे बुढ़ापे में प्रवेश कर जाते हैं।

दर्द भरी दास्तान


राजस्थान के जयपुर शहर से 20 किलोमीटर की दूरी पर स्थित झरना खुर्द गाँव में आपको कोई युवा नजर नहीं आएगा। यहाँ रहने वाले 1,200 लोग भले ही वे चाहे जिस उम्र के हों, बूढ़े ही दिखते हैं और उनके दाँत टूटे हुए हैं। गाँव के 30 वर्षीय सायर सिंह कहते हैं, “हमारी बाहें, कूल्हे और एड़ियाँ सूज गई हैं और इनमें हमेशा दर्द बना रहता है। अगर हम ज़मीन पर बैठ गए तो उठना दूभर हो जाता है।”

वहीं 40 वर्षीय ग्रामीण भंवर सिंह कहते हैं, “पिछले तीन साल तक लगातार सूखा पड़ने की वजह से गाँव के सभी 25 ट्यूबवेल सूख गए हैं। अब हमारे पास सिर्फ एक ट्यूबवेल ही बचा है। डॉक्टर ने हमें बताया है कि इसका पानी जहर है। लेकिन हमारे पास इसका पानी पीने के सिवा दूसरा कोई चारा नहीं हैं।”

गुजरात में अमरेली जिले के लिलिया प्रखण्ड के लोग कमरों के पंखों से लेकर शौचालयों तक में रस्सी बाँधकर रखते हैं। उन्हें पकड़कर चलना पड़ता है। उस गाँव के लगभग 70 प्रतिशत लोग वाह से पीड़ित हैं। सुबह-सुबह उनके घुटने सूज जाते हैं और उन्हें उठकर चलने के लिये करीब एक घंटे तक इन्तजार करना पड़ता है। ऐसा दीवानी फीकामाई कहती हैं, जो इसी प्रखण्ड के हरीपुर गाँव की सरपंच हैं।

इस मुसीबत के कारण सबका जीवन ठहर गया है। हर रोज की दिनचर्या एक विचित्र अनुभव बनकर रह जाता है। गुजरात के पाटन जिले में स्थित बालीसाना गाँव के बाबाभाई पटेल ने ‘डाउन टू अर्थ’ के संवाददाता से यह सवाल किया कि “क्या आप मेरे लिये बेहतर शौचालय का प्रबन्ध कर सकते हैं, क्योंकि मैं बैठकर मलत्याग नहीं कर सकता?” उनका कहना था कि कुछ साल पहले तक वे एक दिन में 40 मील तक चल लिया करते थे।

इस मुसीबत से लोगों की आजीविका छिन जाती है। राँची स्थित भूवैज्ञानिक नितीश प्रियदर्शी बताते हैं, “झारखण्ड के डाल्टनगंज जिले में स्थित बखारी गाँव की लगभग दो-तिहाई आबादी के लोग शरीर से अपंग हो गए हैं क्योंकि यहाँ के पानी में फ्लोराइड की काफी अधिक मात्रा है (1.65-5 मिग्रा)।” गुजरात के अमरेली जिले में स्थित गोंदारन गाँव के किशोर परमार कहते हैं, “इस बीमारी की वजह से उनका मुख्य व्यवसाय, यानी कृषि का काम बाधित हो गया है। यहाँ ज़मीन जोतने लायक कुछ ही लोग बचे हैं। इसके अलावा फ्लोराइड युक्त पानी ज़मीन और फसल दोनों के लिये बुरा है।” वे कहते हैं कि एक दशक पहले एक हेक्टेयर की ज़मीन में 100 किलो कपास उगता था। आज सिर्फ 40 किलोग्राम कपास की पैदावार होती है। एक ग्रामीण शिकायती लहजे में कहते हैं कि फ्लोराइड युक्त पानी से उगने वाले गेहूँ का स्वाद भी काफी बेकार है। अहमदाबाद स्थित आगा खां रूरल सपोर्ट प्रोग्राम के रमन पटेल कहते हैं कि फ्लोराइड प्रभावित गाँवों से लोग पशु भी नहीं खरीदना चाहते हैं।

70 और 80 के दशक में गाँव में पानी के प्रबन्धन के विकास के लिये राज्य ने बहुत निवेश किया। पीने का पानी उपलब्ध कराने के साथ-साथ खेती योग्य ज़मीन की सिंचाई क्षमता को भी बढ़ाया गया। इस दशक में जहाँ सार्वजनिक कुओं पर होने वाले निवेश में कोई बदलाव नहीं हुआ, वहीं निजी पम्पों और कुओं के नाम पर बजट में काफी बढ़ोत्तरी हुई। डीजल व बिजली पर राज्य द्वारा दी जाने वाली रियायत से प्रोत्साहित होकर लोगों ने डीजल और सबमर्सिबल पम्प में पैसे लगाए। ज़मीन पर हर जगह बोरवेल ही दिखाई पड़ते थे। मानो जलाशय से पानी निकालने के लिये लोगों में प्रतिस्पर्धा हो रही हो। यह परेशानी से सामाजिक कलंक का रूप ले लेती है। भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण के पूर्व निदेशक, वीके जोशी जानकारी देते हैं कि उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले का सिरिहा खेड़ा गाँव ऐसे ही सामाजिक बहिष्कार का सामना कर रहा है। कोई भी इस गाँव की लड़की के साथ शादी नहीं करना चाहता है।

गुजरात वाटर सप्लाई एण्ड सीवेज बोर्ड (जीडब्ल्यूएसएसबी) के सहायक इंजिनियर नानक संत दसानी फ्लोराइड प्रभावित साढ़े छः करोड़ लोगों की स्थिति का निचोड़ इस तरह से पेश करते हैं: “फ्लोरोसिस एक ऐसी बीमारी है, जो व्यक्ति को न तो जीने देती है और न मरने देती है।”

एक प्राकृतिक अभिशाप…


यह स्पष्ट है कि फ्लोरोसिस किसी एक स्थान की समस्या नहीं है। यह कई राज्यों में और विभिन्न पारिस्थितिकीय क्षेत्रों तक फैली हुई है- थार मरुस्थल, गंगा तट के मैदानी इलाके और दक्षिणी पठार तक। इसके फैलाव में हर इलाका बारिश, मिट्टी की किस्म, भूजल पुनर्भरण व्यवस्था, मौसमी दशा और भूजल विज्ञान के मायने से अनूठा है। तो फिर, ऐसे में इसकी सर्वव्याप्ति को कैसे आँके?

इसका आधा जवाब तो भारत के प्राकृतिक स्वरूप में मौजूद है: भूजल में फ्लोराइड की काफी ज्यादा सघनता।

चीन, श्रीलंका, वेस्टइंडीज, स्पेन, हालैंड, इटली और मैक्सिको जैसे करीब 23 देशों के भूजल में फ्लोराइड की अत्यधिक सघनता एक प्राकृतिक अभिशाप है। विशेषज्ञों का यह दावा है कि फ्लोराइड की एक पट्टी पाकिस्तान और भारत के आर-पार मध्य पूर्व से गुजरती हुई अफ्रीका के उत्तर और पूर्व के आर-पार तक फैली हुई है। वहाँ से यह दक्षिण-पूर्व और चीन के दक्षिण तक जाती है। राजीव गाँधी राष्ट्रीय पेयजल मिशन (आरजीएनडीडब्ल्यूएम) की रिपोर्ट के मुताबिक, भारतीय प्रायद्वीप के शिलान्त में फ्लोराइड उत्पन्न करने वाले कई खनिज मौजूद हैं: फ्लोराइड, टोपाज, एपेटाइट; और रॉकफॉस्फेट, फॉस्फेटिक पिंड और फॉस्फॉराइट (इनमें सभी में फ्लोराइड की काफी सघनता है)। जब शिलान्त छीजता है तो एक ऐसी प्राकृतिक रासायनिक प्रक्रिया चलती है, जिसमें चट्टान में धीरे-धीरे मिट्टी जमने लगती हैं -फ्लोराइड ऐसे में पानी और मिट्टी में रिसने लगता है।

इसका रिसाव कई बातों पर निर्भर करता है। पानी का रासायनिक संयोजन; पानी में फ्लोराइड खनिजों की मौजूदगी और उस तक पहुँच; और स्रोत खनिज तथा पानी के बीच सम्पर्क का समय। मिसाल के तौर पर, गहरे कछारी भूजल भण्डारण में भारी मात्रा में पानी होता है, जो कि भू-पटल निर्माण के समय में जमा होता है और इसीलिये इसके तल में ज्यादा सघन फ्लोराइड हो सकता है। सख्त चट्टान के भूजल भण्डारण का पानी इनकी दरारों में जमा होता है, लेकिन इन चट्टानों के ज्यादा समीप होने से भी पानी में ज्यादा फ्लोराइड हो सकता है, खासकर तब जब इसका भूजल पुनर्भरण से ज्यादा बाहर खींचा जाता हो।

मौसमी परिस्थितियों से भी भूजल भण्डारण में फ्लोराइड की सीमा तय होती है। जैसे, वर्ष 2002 के एक पेपर ‘फ्लोराइड इन शेलो एक्विफर इन राजगढ़ तहसील ऑफ चुरू डिस्ट्रिक, राजस्थान: एन एरिड इन्वायरन्मेंट’- जो कि करेंट साइंस में छपा, में इस बात को उठाया गया कि भारी वाष्पीकरण वाले शुष्क मौसम और बहुत ही कम प्राकृतिक पुनर्भरण के कारण हो सकता है कि इस (चुरू जिले) क्षेत्र के भूजल में फ्लोराइड की ज्यादा सान्द्रता बनी हो।

...जो अप्राकृतिक बनी


भूजल में फ्लोराइड की ज्यादा सान्द्रता विद्यमान रहने के बावजूद यह सवाल उठता है कि भारतीय प्रायद्वीप का शिलान्त तो हमेशा से एक जैसा रहा है; फिर कैसे ऐसा हुआ कि यह समस्या सिर्फ पिछले तीन दशकों में ही बनी है?

फ्लोराइड से ग्रस्त ग्रामीण व बच्चेइसका जवाब देते हुए अहमदाबाद स्थित फिजिकल रिसर्च लेबोरेटरी के वरिष्ठ वैज्ञानिक एसके गुप्ता बताते हैं कि भूजल में फ्लोराइड और मिट्टी की मौजूदगी भी मानवकृत है। हमने भारी फ्लोराइड की सान्द्रता वाले भूजल और गहरे भण्डारण का पानी बेइन्तहा खींचा है। अहमदाबाद के ही एक गैर-सरकारी संगठन ‘उत्थान’ के कौशिक भाई कहते हैं कि पिछले 20 सालों में भूजल का अतिदोहन ही गुजरात में फ्लोरोसिस के फैलाव का मुख्य कारण है। डीजल के पम्पसेट लगने के साथ ही चीजें बदली हैं। किसानों ने ज़मीन के भूपृष्ठ तक गहरी खुदाई करना शुरू कर दिया है और हकीक़त यह है कि वे इसमें से विष ही खींच रहे हैं।

गुजरात के पाटन जिले में स्थित ठाकरासान गाँव के देवाजी ठाकुर का कहना है कि तीस साल पहले तक हम कुओं और तालाबों से पेयजल का उपयोग करते थे। परन्तु पिछले दो दशकों में हम भूजल की ज्यादा-से-ज्यादा गहराई में पहुँचते चले गए और हम पम्पसेट की मदद से यह पानी खींच रहे हैं। वे कहते हैं कि उनका राज्य जलस्तर के नीचे चले जाने और पानी में फ्लोराइड के बढ़ने के मामले का एक जीता-जागता उदाहरण है। वर्ष 1937 से पूर्व, महज 5-10 मीटर की गहराई पर पानी प्राप्त हो जाया करता था और इसे हाथ से खींचा जा सकता था। वर्ष 1955 के बाद, भूजल का स्तर बड़ी तेजी से नीचे सरकता गया, प्रतिवर्ष एक से तीन मीटर की दर से। वर्तमान में, कुछेक जिलों में, जैसे मेहसाणा में पानी का स्तर 365 मीटर तक नीचे सरक गया है। एसके गुप्ता कहते हैं कि अतिदोहन से भूजल में फ्लोराइड का प्रवेश नहीं हो सकता है, लेकिन इससे ज्यादा फ्लोराइड वाले भूजल भण्डारण के सुराख खुलने लगते हैं।

गुप्ता का यह वक्त्व्य और भी ज्यादा डरावना लगता है, जब हमें यह पता चलता है कि भारत में 85 प्रतिशत जलापूर्ति ज़मीन के नीचे के पानी से की जाती है और शहर भी अपनी प्यास बुझाने के लिये जमीन के क्रोड़ तक गहरी खुदाई कर रहे हैं। सरकार और लोगों की जरूरत के बीच एक विचित्र परस्पर क्रिया ने इस स्थिति को और जटिल बना दिया है। अहमदाबाद स्थित एक नियोजक, राजीव कठपालिया इस बात को इस रूप में रखते हैं कि यह लोगों के जीवन-मरण का सवाल है। उन्हें पानी चाहिए और अगर सरकार इसकी आपूर्ति नहीं करती है तो वे और गहरे उतरेंगे। गुजरात के अमरेली जिले के कलेक्टर बीसी त्रिवेदी कहते हैं, अब लोग 300 मीटर की गहराई से पानी खींच रहे हैं, राज्य इसमें क्या कर सकता है?

पर राज्य ने क्या किया है?


70 और 80 के दशक में गाँव में पानी के प्रबन्धन के विकास के लिये राज्य ने बहुत निवेश किया। पीने का पानी उपलब्ध कराने के साथ-साथ खेती योग्य ज़मीन की सिंचाई क्षमता को भी बढ़ाया गया। इस दशक में जहाँ सार्वजनिक कुओं पर होने वाले निवेश में कोई बदलाव नहीं हुआ, वहीं निजी पम्पों और कुओं के नाम पर बजट में काफी बढ़ोत्तरी हुई। डीजल व बिजली पर राज्य द्वारा दी जाने वाली रियायत से प्रोत्साहित होकर लोगों ने डीजल और सबमर्सिबल पम्प में पैसे लगाए (जैसे-जैसे पानी का स्तर गिरता रहा)। ज़मीन पर हर जगह बोरवेल ही दिखाई पड़ते थे। मानो जलाशय से पानी निकालने के लिये लोगों में प्रतिस्पर्धा हो रही हो।

सरकार ने 1971-72 में एक्सलरेटेड वॉटर सप्लाई कार्यक्रम शुरू किया। इसका उद्देश्य राज्य और केन्द्र शासित प्रदेशों को पीने के पानी की उपलब्धता बढ़ाने में उनकी मदद करना था।

कार्यक्रम को 1986 में ‘मिशन’ का स्वरूप दिया गया, जिसका नाम था ‘राष्ट्रीय पेयजल मिशन’। 1991 में यह ‘राजीव गाँधी राष्ट्रीय पेयजल मिशन’ में तब्दील हो गया और अब यह केन्द्रीय ग्रामीण विकास मन्त्रालय के अन्तर्गत आता है। 1980 का दशक ‘पेयजल दशक’ घोषित हुआ और ‘यूनिसेफ’ जैसी कई अन्तरराष्ट्रीय एजेन्सियाँ इससे जुड़ गईं। ‘मार्क।।’ का हैण्डपम्प हर जगह दिखने लगा।

इसमें भूजल-स्रोत पर किसी ने ध्यान न दिया और भूजल की गुणवत्ता को तो नजरअन्दाज ही कर दिया गया। ‘यूनिसेफ’ का एक दस्तावेज़ कहता है, “जल गुणवत्ता मापने के तरीकों के अभाव में और जल मुहैया कराने पर जोर देने के कारण 30 लाख गहरे हैण्डपम्प 1977 से 1997 के बीच लगाए गए, पर इस दौरान जल गुणवत्ता के मापन पर ध्यान नहीं दिया गया।”

फिर आया 1990 का दशक। वैज्ञानिक और शोधकर्ताओं ने कहना शुरू किया कि “जल विकास” की जगह अब “जल प्रबन्धन” होना चाहिए। पर देर हो चुकी थी। सरकार अपने आप को फ्लोरोसिस के दलदल में पा रही थीं।

पर फिर भी जो सरकार की प्रतिक्रिया थी वह आश्चर्यजनक थी

नकारना :


“1998 तक हम ‘फ्लोरोसिस’ की रोकथाम के लिये केन्द्र से सीधे धनराशि राज्यों को देते थे। 1998 के बाद यह जिम्मेदारी राज्य सरकारों के पास चली गई। राज्यों को धनराशि दी जाती है पर अब योजना बनाना राज्यों का काम है। हमने राज्यों को कहा है कि बजट का 20 प्रतिशत जल की गुणवत्ता पर खर्च होना चाहिए, पर राज्य यह करने के लिये बाध्य नहीं है। गुणवत्ता पर खर्च करने वाले राज्य बहुत कम हैं। ” - कुमार आलोक, डिप्टी सचिव, राजीव गाँधी पेयजल मिशन।

सरकारी कार्यक्रमों ने साफ पानी उपलब्ध कराने वाले सामुदायिक प्रयासों को विफल कर दिया है। मेथान गाँव उनमें से एक है। यहाँ मोनावर अवद चेरिटेबल ट्रस्ट एक गैर सरकारी संस्था ने सफलतापूर्वक डीफ्लोरीडेशन यन्त्र का खर्चा उठाने के लिये गाँव वालों को राजी किया था। इस यन्त्र ने चार साल तक काम किया। पर पिछले एक साल से गाँव वालों ने उसका इस्तेमाल करना बन्द कर दिया है क्योंकि धरोई परियोजना के अन्तर्गत गाँववालों को पानी दिया जाने लगा है। इसका नतीजा यह हुआ कि हमें अब पानी चार-चार दिन के बाद मिलता है। पर गाँव वालों को यह समस्या नहीं लगती।

कातरता:


एसके गुप्ता कहते हैं, “बचाव के नज़रिए से हमने फ्लोरोसिस की समस्या का अध्ययन नहीं किया है। हमने इस ओर पैसा भी नहीं लगाया है। हम सदैव फ्लोरोसिस की प्रतिक्रिया के इन्तजार में रहते है और बचाव की ताकत का इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं।” राजीव गाँधी पेयजल मिशन के एक अधिकारी का कहना है कि फ्लोरोसिस समस्या को सही-सही समझने की कूबत राज्यों में है ही नहीं।

नक्शेबाजी :


गाँधीनगर में स्थित गुजरात जल सेवा प्रशिक्षण संस्थान के निदेशक केके गुप्ता कहते हैं, नर्मदा और उसमें जुड़ी नदियों से हमने स्वच्छ जल पाइप के जरिए 2005 तक सौराष्ट्र के सभी गाँवों में और 2007 तक पूरे राज्य में पहुँचा दिया है। पर अगर आप गाँव जाकर देखें, तो मालूम चलता है कि यह भुलावा है, मिथ्या है। ग्रामीणों ने पाइपों में छेद कर दिये हैं और रियायती जल यूँ ही बह जाता है।

गुजरात जल आपूर्ति बोर्ड के एक अधिकारी कहते हैं कि हमें पता है कि ग्रामीणों ने पाइप तोड़ दिये हैं और पानी चुरा रहे हैं, पर हम क्या कर सकते हैं? हम पूरी पाइप लाईन पर पुलिस तो नहीं तैनात कर सकते हैं। उनका कहना सही है पर यहाँ प्रश्न उठता है कि ऐसे कार्यक्रम कब तक चल सकते हैं। अमरेली के ग्रामीण कालूमार बाँध योजना से जल पा रहे हैं। 65 किमी. लम्बी पाइप के द्वारा।

इस पानी की कीमत सरकार को पड़ती है 3 रुपए प्रति लीटर। पर उपभोक्ताओं से केवल 14 रुपए प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष ही माँगा जाता है, और यह भी वह देने को राजी नहीं है। अहमदाबाद में सेंटर फॉर एनवायरनमेंट एजुकेशन की भूतपूर्व योजनाकार वन्दना पण्ड्या कहती हैं, “राज्य जानता है कि कीमत बहुत अधिक है। नलकूप से जल आपूर्ति बहुत महंगी पड़ती है, खासकर तब जब इस पर रियायत ज्यादा हो।” गुजरात सरकार इस योजना को लेकर विश्व बैंक के पास गई है, पैसों के लिये। परन्तु विश्व बैंक ने उसे यह कहकर लौटा दिया कि योजना वाजिब नहीं है।

हालांकि गुजरात जल आपूर्ति बोर्ड के एक अधिकारी कहते हैं, इसके बावजूद राज्य सरकार की उम्मीद अभी खत्म नहीं हुई है। जडेजा कहते हैं-जल्द ही हम गुजरात में सुधार लाएँगे। उद्योगों से ज्यादा कीमत की अपेक्षा है और इस धन से हम गाँव में जल आपूर्ति रियायती दर पर देंगे। जबकि पाटन जिले के बलिसाणा ग्राम के गोवर्धन भाई कहते हैं- कोई भी सरकारी योजना तब तक सफल नहीं हो सकती जब तक स्थानीय लोगों को उससे जोड़ा न जाए, क्योंकि ऐसा नहीं होने पर व्यवस्था को चालू हालत में रखने वाला कोई नहीं होता है। अगर लोगों से कहा जाए की वो कुल कीमत का 10 प्रतिशत ही दें, तो वो व्यवस्था को अपना लेंगे।”

साजिश :


गुजरात सरकार युद्ध-स्तर पर गाँवों में छोटे बाँधों से पाइप्ड-वाटर जल पहुँचाने में जुटी है। धरोई बाँध का पानी 550 गाँवों और मेहसाणा और पाटन के 8 शहरों तक पहुँच रहा है। कालूमार बाँध का जल लाठी-लिलिया तालुका, अमरेली जिले के 42 गाँवों तक पहुँच रहा है। लिलिया के 80 वर्षीय खोडीदास डक्कट कहते हैं - “जलापूर्ति में राजनीति की जाती है। आमतौर पर पिछड़े गाँव योजना में नहीं लिये जाते हैं। पानी पहले उन गाँवों तक जाता है जिनकी राजनीतिक पैठ होती है।” गोदरण ग्राम के किशोर परमार कहते हैं कि उनके गाँव में पिछड़ी जातियों के लिये एक ही जल स्तम्भ है, जबकि बाकी लोगों के लिये तीन स्तम्भ हैं।

चालू रवैया :


जल में फ्लोराइड मापने का कोई तय तरीका नहीं है। राज्य अपने नियम-कायदे तरीके खुद बनाते हैं। मापक यन्त्र हर प्रयोगशाला में अलग होते हैं। सभी जलस्रोतों का जल जाँचा नहीं जाता। आलोक कहते हैं, “भारत में 40 लाख हैण्डपम्प हैं। क्या ऐसा सम्भव है कि इन सबका पानी नियमित रूप से जांचा जा सके?”

तकनीकी खामियाँ :


भारत सरकार जरूरत के मुताबिक तकनीकीकरण और उसका प्रबन्धन नहीं कर पाई है। न तो फ्लोराइड मापने के लिये और न ही फ्लोराइडयुक्त पानी को साफ करने के लिये।

मनाही :


उत्तर प्रदेश के सोनभद्र के जिलाधिकारी उस ‘अजीब’ बीमारी का कारण खोजने से साफ मुकर गए जिससे रोहनिया डामर के लोग 10 साल से जूझ रहे हैं। अधिकारियों का ध्यान इस ओर 2001 में ही गया, जब इलाहाबाद के एक मिशनरी ईसाई समूह ने उच्च न्यायालय में जनहित याचिका दायर की थी। मामला न्यायालय में अभी भी चल रहा है।

तकनीक और मर्ज


फ्लोराइड से लैस भूजल के प्रति सरकारी रवैये का अन्दाजा राज्य द्वारा समाधान निकालने के तरीकों से ही पता चल जाता है। 1999 में किये गए एक देशव्यापी शोध में नई दिल्ली स्थित ‘फ्लोरोसिस रिसर्च एंड रूरल डेवलपमेंट फाउंडेशन’ (एफआरआरडीएफ) ने पाया कि “देश में बहुत कम प्रयोगशालाएँ हैं जिन्होंने फ्लोराइड के प्रभाव का विश्लेषण और उनका विवरण प्रस्तुत किया है।” विशेषज्ञों का कहना है कि आयन सेलेक्टिव इलेक्ट्रोड प्रक्रिया सबसे अधिक सूक्ष्मग्राही और संवेदी है। मगर भारत में केवल 117 प्रयोगशालाओं में यह प्रक्रिया उपलब्ध है। आलोक कहते हैं, “पानी की गुणवत्ता जाँचने की प्रक्रिया महत्त्वपूर्ण नहीं है। आजकल जोर दिया जा रहा है पानी के आपूर्ति पर। अत्याधुनिक प्रयोगशालाएँ बनाने के लिये पैसा उपलब्ध कराया गया है, मगर कुछ राज्यों ने इस दिशा में कोई कदम नहीं उठाया है।”

एफआरआरडीएफ की 1999 की रिपोर्ट यह भी कहती है कि अधिकतर राज्य अलग-अलग प्रणालियों का प्रयोग कर रहे हैं। फ्लोराइड जाँचने के लिये उनके पास कोई विशेष उपकरण नहीं हैं। आदर्श स्थिति तो यह है कि फ्लोराइड पीड़ित अंचलों में पानी के हर एक स्रोत की जाँच होनी चाहिए, फ्लोराइड भूजल में असमान रूप से वितरित है। मगर आलोक कहते हैं, हमने पानी का स्ट्रेटीफाईड सैम्पलिंग (5-10 प्रतिशत नमूने) किया है, क्योंकि 100 प्रतिशत स्रोतों का जाँच करना, महंगा है।

अगर नमूने सन्दूषित मिलते हैं, तो फिर हम आक्रान्त इलाकों में 100 प्रतिशत जाँच करते हैं। तो यह आम बात है कि जैसे ही हैंडपम्प लगाया जाता है, उससे विषैला पानी निकलता है। गुप्ता कहते हैं, “भारत में ट्यूबवेल खोदना तकनीकी निर्णयों पर ही आधारित नहीं होता। यह एक राजनीतिक निर्णय भी होता है। अधिकतर राज्य सरकार नियमित रूप से भूजल मॉनीटर नहीं करतीं।”

KaliBai, School Falia, Miyati, Thandla, Jhabuaअगर पानी में फ्लोराइड पाया जाता है, तो उसका पहला असर होता है पानी से फ्लोराइड निकालना। तकनीक का चयन निर्भर करता है पानी की मात्रा और इस पानी में फ्लोराइड की मात्रा पर। भारत में कई तकनीकों का परीक्षण किया गया है। लेकिन उनमें से कोई भी सुस्पष्ट नहीं है। करेन्ट साइन्स पत्रिका के एक आलेख के मुताबिक “आयन एक्सचेंज और रासायनिक ट्रीटमेंट की लागत कम है, जबकि भौतिक प्रक्रियाओं में कोई-न-कोई कमी रहती ही है।”

गाँधीनगर (गुजरात) में यूनिसेफ के प्रोजेक्ट अफ़सर अरुण मुदगिरकर कहते हैं, “डी फ्लोरोडेशन प्लांट और पानी की जाँच व ट्रीटमेंट के घरेलू उपकरण कामचलाऊ समाधान ही हैं।” उनकी बात सच है, मगर यह भी सच है कि पानी से फ्लोराइड निकालने की परियोजनाएँ - बड़ी हों या छोटी, समुदाय के स्तर पर हों या अकेली- अनुचित प्रबन्धन की वजह से विफल हो चुकी हैं।

नालगोंडा तकनीक की ही बात कीजिए-इसे आसानी से कार्यान्वित नहीं किया जा सकता। गुजरात में, 1988 और 1992 में, इस तकनीक पर आधारित दो प्लांट जीडब्ल्यूएसएसबी ने लगाए थे। ये प्लांट तावाड़िया और थकरासेन गाँवों में लगाए गए थे। संत देसानी कहते हैं, “थकरासेन प्लांट, जिसकी क्षमता थी 600 लाख क्यूबिक मीटर, 15 लाख रुपए की लागत से बनी। प्रतिवर्ष का रखरखाव का खर्च था 1.83 लाख रुपया, और प्रति क्यूबिक मीटर पानी की कीमत थी 7.69 रुपए।” तवाड़िया का प्लांट 3.45 लाख रुपए की लागत से बना और इसकी क्षमता थी 100 लाख क्यूबिक मीटर।

प्रतिवर्ष का रखरखाव का खर्च था 1.81 लाख रुपया और प्रति क्यूबिक मीटर पानी की कीमत थी 8.26 रुपए। मगर कुछ महीने के अन्दर ही दोनों प्लांट बन्द कर दिये गए। जीडब्ल्यूएसएसबी के एक अफ़सर ने बताया कि ये प्लांट अपर्याप्त रखरखाव व प्रबन्धन के अभाव की वजह से विफल रहे। एनजीओ इन प्लांटों की विफलता और जनता के पैसे के अपव्यय के लिये सरकार को जिम्मेदार ठहराते हैं।

आगा खान प्लानिंग और बिल्डिंग सर्विस, पाटन के एरिया मैनेजर बीबी पटेल का कहना है कि कुछ साल पहले जीडब्ल्यूएसएसबी ने मेहसाना जिले में कई डीफ्लोरीडेशन यन्त्र लगाए। जिनका खर्चा 12-15 लाख रुपए आया। पर कुछ ही दिनों में इन यन्त्रों ने काम करना बन्द कर दिया क्योंकि इनका ढंग से नी------रीकरण नहीं किया गया। इसके अलावा, सामुदायिक सहायता की भी कमी थी। कुछ लोग कहते हैं कि यह प्लांट इसलिये लगाए गए थे क्योंकि फ्लोराइड की समस्या को हल करने के लिये बहुत पैसे मिले थे।

नालगोंडा तकनीकी का इस्तेमाल घरेलू स्तर पर भी हुआ है। पर वह भी विफल रहा है। पांडिया कहते हैं, “गाँव वालों को डीफ्लोरीडेशन सिखाना कठिन काम है। 1987 में गुजरात सरकार ने ऐसे घरेलू यन्त्र ‘लाठी’ लीलिया के लोगों में बाँटे थे। पर कुछ ही महीनों में गाँव वालों ने उनका इस्तेमाल करना बन्द कर दिया क्योंकि इससे डीफ्लोरीडेशन करने में बहुत समय लगता है।”

बाकी जगह भी सरकारी कार्यक्रमों ने साफ पानी उपलब्ध कराने वाले सामुदायिक प्रयासों को विफल कर दिया है। मेथान गाँव उनमें से एक है। गाँव की सकेबा बहन कहती हैं, “यहाँ मोनावर अवद चेरिटेबल ट्रस्ट एक गैर सरकारी संस्था है जिसने सफलतापूर्वक डीफ्लोरीडेशन यन्त्र का खर्चा उठाने के लिये गाँव वालों को राजी किया था। इस यन्त्र ने चार साल तक काम किया। पर पिछले एक साल से गाँव वालों ने उसका इस्तेमाल करना बन्द कर दिया है क्योंकि धरोई परियोजना के अन्तर्गत गाँववालों को पानी दिया जाने लगा है। इसका नतीजा यह हुआ कि हमें अब पानी चार-चार दिन के बाद मिलता है। पर गाँव वालों को यह समस्या नहीं लगती। उनको सरकार पर निर्भर रहना अच्छा लगता है। राज्य सरकारें अधिकतर पानी पाइपों द्वारा उपलब्ध करवा रही हैं। पर यह तो वक्त ही बताएगा कि इस तरह की व्यवस्था कब तक लोगों की मदद कर सकती है।”

बीमारी की वजह और लक्षण


.फ्लोराइड पानी के जरिए शरीर में आता है। 96-99 प्रतिशत हड्डियों में घुस जाता है क्योंकि फ्लोराइड कैल्शियम फास्फेट के साथ बहुत जल्दी घुलती है। फ्लोराइड का अधिक सेवन कई बीमारियों का जड़ बन सकता है: फ्लोरोसिस, स्केलेटल फ्लोरोसिस और नान-स्केलेटल फ्लोरोसिस। दाँतों के फ्लोरोसिस से दाँतों का रंग प्रभावित होता है और वो काले हो जाते हैं। हड्डी के फ्लोरोसिस से हड्डियाँ हमेशा के लिये विकृति हो सकती है। नान-स्केलेटल फ्लोरोसिस से पेट और दिमाग की बीमारियाँ हो सकती हैं। फ्लोरोसिस भ्रूण को भी बुरी तरह प्रभावित कर सकता है और फ्लोरोसिस से प्रभावित बच्चे मन्दबुद्धि होते हैं।

फ्लोरोसिस के प्रभाव शरीर पर कई जगह देखे जा सकते हैं- गला, घुटने, कंधे, हाथों और पैर के जोड़ों पर। पाचन तन्त्र को भी यह कई तरीके से प्रभावित करता है, जैसे-पेट में दर्द, दस्त कब्ज। दिमाग पर भी कई तरह से असर होता है-बहुत ज्यादा प्यास लगना और बार-बार पेशाब लगना।

पर इतने सब लक्षणों के बावजूद फ्लोरोसिस की बीमारी का पता जल्द नहीं लगता है। इसका एक कारण यह है कि उसके लक्षण अर्थराइटिस, स्पान्डलाईटिस वगैरह की तरह होते हैं। 2001 के एक शोध के अनुसार “अगर ढंग से पोषक खाना खाने को न मिले तो फ्लोरोसिस होना निश्चित है।” इस बात से हमें पता चलता है कि क्यों फ्लोरोसिस के शिकार अधिकांश गरीब ही होते हैं।

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