फ्लोरोसिस से उबर कर आगे बढ़ा मंडला

14 Apr 2016
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Mandla moving on after successfully eliminating fluorosis

.मध्य प्रदेश का मंडला जिला वर्षों तक एक रहस्यमय बीमारी का शिकार रहा। स्थानीय मीडिया की अनभिज्ञता और सरकारी जागरुकता की कमी ही थी जिसके चलते एक चिकित्सकीय परेशानी या बीमारी को देवी-देवता, अन्धविश्वास और ऊपरी प्रकोप से जोड़कर देखा जाता रहा। हुआ यह कि 80 के दशक और उसके बाद अचानक मंडला जिले के कुछ खास इलाकों में लोगों के हाथ-पैर अचानक टेढ़े होने लगे, उनकी गर्दन नीचे को झुककर सख्त हो गई और लगभग गाँव-के-गाँव दाँतों के पीलेपन की बीमारी से पीड़ित हो गए।

यह समस्या दरअसल पेयजल में फ्लोराइड की अधिकता की वजह से उत्पन्न हुई थी। दिक्कत यह थी कि उस वक्त तक मंडला जिला देश के फ्लोराइड मानचित्र पर मौजूद तक नहीं था। यही वजह थी कि न तो स्थानीय मीडिया और न ही स्वास्थ्य विभाग का अमला इस बीमारी की पहचान कर पा रहा था। मीडिया में इसे दैवीय प्रकोप बताकर प्रचारित किया जा रहा था तो सरकारी स्वास्थ्य विभाग कभी रिकेट तो कभी पोलियो का मामला बताकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर रहा था।

आखिरकार लगातार आ रही ऐसी खबरों को देखते हुए सन 1995 में मंडला के जिलाधिकारी और मुख्य चिकित्सा अधिकारी ने शासन से यह माँग की कि मंडला जिले के दो गाँवों हीरापुर और तिलईपानी में युवाओं और बच्चों (ज्यादातर 20 वर्ष से कम उम्र) को अपनी चपेट में ले रही इस रहस्यमय बीमारी का पता लगाने के लिये गम्भीर प्रयास किये जाएँ। इस बीमारी में बच्चों के शरीर का निचला हिस्सा खासकर घुटनों के नीचे का हिस्सा न केवल विकृत हो रहा था बल्कि वे दर्द से भी बेहद परेशान रहा करते थे।

जिलाधिकारी के उक्त अनुरोध के बाद सरकार ने व्यवस्थित ढंग से जाँच का काम शुरू किया, इस क्षेत्र में फ्लोरोसिस को लेकर लगातार 10 साल तक काम चला। सरकार के तमाम प्रयासों के बाद हालात कुछ बदले हैं लेकिन पूरी तरह नहीं। हमने इन गाँवों का जमीनी दौरा करने का निश्चय किया तो हमें कुछ चौंका देने वाली बातें पता चलीं। स्थानीय स्कूलो में बच्चे बहुत बड़ी संख्या में डेंटल फ्लोरोसिस से पीड़ित नजर आये। स्केलेटल फ्लोरोसिस के मामले भी देखने को मिले जो कागजों पर या तो गायब हैं या फिर ठीक हो चुके हैं।

गाँव में पीने के साफ पानी का एक स्रोतसरकार ने मामले की जाँच के लिये जिस टीम का गठन किया था उसके प्रमुख थे वैज्ञानिक और नेशनल इंस्टीट्यूट फॉर रिसर्च इन ट्राइबल हेल्थ विभाग के मौजूदा उप निदेशक डॉ. तपस चकमा। इस टीम ने अपनी जाँच का केन्द्र बनाया जिले के दो गाँवों तिलईपानी और हीरापुर को।

 

 

तिलईपानी और हीरापुर ही क्यों?


फ्लोरोसिस की जाँच का काम मंडला जिले के तिलईपानी और हीरापुर गाँवों से इसलिये शुरू किया गया क्योंकि इन दोनों गाँवों में इन रहस्यमय बीमारियों का प्रकोप अन्य स्थानों की तुलना में बहुत अधिक था। बाद में पता चला कि इन दोनों गाँवों के पानी में फ्लोराइड का स्तर बहुत ज्यादा यानी तकरीबन 10 पीपीएम से भी अधिक था। बहरहाल, अध्ययन की शुरुआत के वक्त तो यह तक पता नहीं था कि यह समस्या फ्लोराइड की वजह से है। जाहिर सी बात है कि इन गाँवों का चयन केवल यहाँ मरीजों की बहुतायत देखकर किया गया था।

उस वक्त तिलईपानी की आबादी 542 थी और वह जिला मुख्यालय से करीब 12 किमी दूर था। यह गाँव मंडला ब्लॉक में आता था। वहीं हीरापुर की आबादी 620 थी और यह गाँव जिला मुख्यालय से तकरीबन 50 किमी दूर नैनपुर ब्लॉक में आता था।

डॉ. चकमा और उनके साथियों ने तिलईपानी को अपने अध्ययन का केन्द्र बनाया। गाँव में 20 वर्ष से कम उम्र के युवाओं के सर्वेक्षण से पता चला कि तकरीब 51 फीसदी से अधिक युवा स्केलेटल फ्लोरोसिस यानी अस्थि विकृतियों से पीड़ित थे जबकि 74 प्रतिशत से अधिक युवा दन्त फ्लोरोसिस के शिकार थे। डॉ. चकमा बताते हैं कि अध्ययन की शुरुआत के वक्त तक उनको भी यह पता नहीं था कि यह मामला फ्लोरोसिस का है। लेकिन बहुत बड़ी संख्या में बच्चों के दाँतों की स्थिति ने इस बात की पुष्टि कर दी कि यह बीमारी फ्लोराइड की अधिकता से ताल्लुक रखती है। डॉ. चकमा कहते हैं, ‘शुरुआत में जब उन्होंने इस बीमारी के फ्लोरोसिस होने की आशंका जताई तो बड़े अधिकारियों ने उसे खारिज कर दिया। लेकिन वह नहीं माने और आखिरकार अपने स्तर पर उन्होंने इसकी जाँच प्रयोगशाला में कराई। तब जाकर यह पता चला कि यह समस्या दरअसल फ्लोरोसिस की है। जिस वक्त मंडला में यह अध्ययन शुरू किया गया उस वक्त मध्य प्रदेश के झाबुआ अंचल में डेंटल फ्लोरोसिस की शिकायत सामने आनी शुरू हो चुकी थी लेकिन स्केलेटल फ्लोरोसिस का कोई पुराना रिकॉर्ड मौजूद नहीं था। यही वजह थी कि बच्चों के दाँतों को देखकर ही सबसे पहले उनके फ्लोरोसिस पीड़ित होने की आशंका ने जन्म लिया।वहीं हीरापुर में किये गए अध्ययन से पता चला कि यहाँ डेंटल फ्लोरोसिस के मामले स्केलेटल फ्लोरोसिस की तुलना में कहीं अधिक थे। 20 साल से कम उम्र के लोगों में करीब 57 फीसदी इस बीमारी से पीड़ित थे जबकि स्केलेटल फ्लोरोसिस से पीड़ित बच्चों की संख्या 7 फीसदी से कुछ अधिक थी।’

 

 

 

 

अध्ययन पद्धति


चिकित्सकों और शोधकर्ताओं की टीम ने दोनों गाँवों की प्रभावित आबादी की जाँच का काम वैज्ञानिक तरीके से करना शुरू किया। इसके लिये बाकायदा तीन तरीके अपनाए गए।

 

 

 

 

रेडियोलॉजी:


स्केलेटल फ्लोरोसिस से पीड़ित बच्चों की समुचित जाँच के लिये उनके हाथ पैरों के प्रभावित हिस्सों की रेडियोग्राफी की गई। इससे उनकी हड्डियों में आये टेढ़ेपन और उसकी वजहों को करीब से समझने में मदद मिली। यह भी पता चला कि फ्लोरोसिस की बीमारी के कारण किस प्रकार उनकी हड्डियों में से कैल्शियम का खात्मा हो रहा है।

 

 

 

 

बायोकेमिकल


तिलईपानी से 86 बच्चों के जबकि हीरापुर से 84 बच्चों के रक्त के नमूने लिये गए। इन नमूनों की रासायनिक जाँच की गई ताकि इनमें फास्फोरस और कैल्शियम की स्थिति का सही-सही अन्दाजा लगाया जा सके। अधिकांश बच्चों के शरीर में कैल्शियम की जबरदस्त कमी देखने को मिली।

 

 

 

 

भोजन सम्बन्धी जाँच


हीरापुर की आँगनबाड़ी कार्यकर्ता इमरती देवीतिलईपानी के 22 और हीरापुर के 26 गाँवों में खानपान से जुड़ा सर्वेक्षण किया गया। इन घरों में कैलोरी, कैल्शियम और आयरन का औसत इस्तेमाल आमतौर पर अनुशंसित भोजन स्तर से काफी कम था। वहीं हीरापुर में प्रोटीन का स्तर ज्यादा था जबकि तिलईपानी में उसका स्तर खासा कम था। तिलईपानी में विटामिन सी का प्रयोग भी काफी कम था। भोजन में पोषण के इस असन्तुलन ने समस्या में इजाफा करने में बहुत अहम भूमिका निभाई।

 

 

 

 

बोरवेल बना वजह


उस वक्त तक यह माना जाता था कि गहरे खोदे गए बोरवेल से निकला पानी प्राय: विभिन्न प्रकार के दोषों से मुक्त होता है लेकिन ऐसे बोरवेल के पानी की रासायनिक संरचना की जाँच नहीं की जाती थी। तिलईपानी में लोगों की समस्या को देखने के बाद टीम ने पानी के स्रोत की जाँच करने का निश्चय किया। जिले के लोक स्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभाग के आँकड़ों में पाया गया कि गाँव में मौजूद बोरवेल 37 मीटर से 43 मीटर तक गहरे थे। जब टीम इस बात को लेकर आश्वस्त हो गई कि इस समस्या के लिये पानी में फ्लोराइड की अधिकता जिम्मेदार है तो उसने पानी को जाँच के लिये हैदराबाद स्थित प्रयोगशाला में भेजा। परीक्षण से पता चला कि सभी पाँच नमूनों में फ्लोराइड की मात्रा 9.22 पीपीएम से 9.8 पीपीएम के बीच थी। जबकि वास्तव में पीने लायक पानी में फ्लोराइड की मात्रा एक पीपीएम से भी कम होनी चाहिए।

 

 

 

 

शुरुआती अध्ययन प्रक्रिया


तिलईपानी और हीरापुर समेत जिन गाँवों का अध्ययन किया गया उनकी कुल आबादी करीब 3000 थी। इनमें से 2263 लोगों को अध्ययन में शामिल किया गया। कुल मिलाकर 11.5 प्रतिशत लोगों में डेंटल फ्लोरोसिस पाया गया जिनमें से अधिकांश 20 वर्ष से कम उम्र के थे। इसी प्रकार 7.5 प्रतिशत लोग स्केलेटल लोरोसिस से पीड़ित पाये गए। इनमें से 120 लोगों के मूत्र के नमूनों में फ्लोराइड का स्तर 2 पीपीएम से अधिक था। गौरतलब है कि विशेषज्ञों के मुताबिक अगर रक्त में फ्लोराइड का स्तर काफी अधिक हो जाये तभी वह मूत्र में नजर आता है। स्पष्ट है कि मूत्र में 2 पीपीएम का स्तर सामान्य से कई गुना अधिक है।

 

 

 

 

क्यों गहरी हो गई समस्या?


इस पूरे क्षेत्र में फ्लोरोसिस की समस्या के लिये केवल और केवल पानी में फ्लोराइड की अधिक मात्रा ही उत्तरदायी थी। इसकी और कोई वजह नहीं थी लेकिन अल्पपोषण और कुपोषण ने इस समस्या में कई गुना इजाफा कर दिया था। अगर फ्लोरोसिस पीड़ितों को कैल्शियम, विटामिन सी, आयरन, प्रोटीन, मैगनीशियम आदि खनिज सही समय पर सही मात्रा में मिल रहे होते तो शायद हालत इतनी बुरी नहीं होती। जिन लोगों में डेंटल फ्लोरोसिस था वे इस बीमारी की चपेट में कम समय से थे। जबकि निरन्तर फ्लोराइड युक्त पानी पीने वालों की हड्डियों में विकृतियाँ आनी शुरू हो गई थीं।

 

 

 

 

द गार्जियन की रिपोर्ट ने मचाया हड़कम्प


इस बीच जुलाई 1998 में द गार्जियन में छपी एक रिपोर्ट ने मंडला में फ्लोरोसिस की समस्या को विश्व पटल पर ला खड़ा किया। द गार्जियन के पर्यावरण पत्रकार फ्रेड पियर्स मंडला पहुँचे और वहाँ की दर्दनाक तस्वीर उन्होंने दुनिया के सामने रखी। पियर्स ने लिखा कि मंडला जिले के हीरापुर गाँव में सबको साफ पानी उपलब्ध कराने के उद्देश्य से खोदा गया हैण्डपम्प ही वहाँ के लोगों के जी का जंजाल बन गया। वह पानी सतह के पानी की तुलना में जीवाणुओं आदि से तो मुक्त था लेकिन खनिज के मामले में वह खतरनाक स्तर तक दूषित था।

पियर्स ने फ्लोरोसिस रिसर्च एंड रूरल डेवलपमेंट फाउंडेशन चलाने वाली डा. ए सुशीला के हवाले से कहा कि मध्य प्रदेश तो वैसे भी अपने खनिज संसाधनों के लिये दुनिया भर में जाना जाता है। ऐसे में प्रदेश में इस समस्या की भयावहता का अन्दाजा ही लगाया जा सकता है।

तिलईपानी गाँव में फ्लोरोसिस का संदिग्ध मरीज पुष्पराज यादवबहरहाल सन 1998 आते-आते सरकारी अमला पूरी तरह सचेत हो गया था। मंडला जिले के 300 गाँवों में 500 से अधिक हैण्डपम्प को बन्द कर दिया गया क्योंकि इनसे फ्लोराइड युक्त पानी आ रहा था। स्थानीय लोग और सामाजिक कार्यकर्ता दबी जुबान में इस समस्या का परोक्ष सम्बन्ध भ्रष्टाचार से भी कायम करते हैं। उनका कहना है कि यूनिसेफ तथा अन्य संस्थाओं की ओर से स्वच्छ पेयजल के नाम पर आने वाले फंड को ध्यान में रखते हुए जमकर लॉबीइंग की गई और खूब सारे हैण्डपम्प खोदे गए। इनमें से किसी के पानी की जाँच नहीं की गई। चूँकि इस पूरी प्रक्रिया में बहुत बड़ी धनराशि शामिल थी इसलिये जल गुणवत्ता पर किसी का ध्यान ही नहीं गया। ठेकेदारों ने ज्यादा कमाई के लालच में अधिक गहरे बोरवेल खोदे। उदाहरण के लिये जिन जगहों पर 30 मीटर गहरे बोरवेल से काम चल सकता था वहाँ 40-45 मीटर तक गहरा बोरवेल खोदा गया। इसकी वजह साफ थी। जितनी गहरी खुदाई, ठेकेदार की जेब में उतना अधिक पैसा।

डॉ. चकमा बताते हैं कि स्वच्छ पेयजल के सतह से बहने वाले स्रोतों मसलन कुओं, बावड़ियों, नदी, झरनों आदि के पानी में यह समस्या नहीं आती। लेकिन जगह-जगह बोरवेल खोदने से दो बातें हुईं। एक तो लोगों को अपनी रिहाइश के करीब आसानी से पानी मिलने लगा वहीं दूसरी ओर साफ पानी के स्रोतों के आसपास हैण्डपम्प खोदे जाने का असर अन्य स्रोतों पर भी पड़ा।

बहरहाल, वर्ष 2003 डॉ. चकमा और उनकी टीम का अध्ययन समाप्त हुआ। इस अध्ययन की उपलब्धि यह रही कि समस्या को भलीभाँति पहचाना जा चुका था यानी अब सरकार के पास एक लाइन थी जिस पर चलकर इलाज किया जा सकता था। सरकार ने अपने स्तर पर प्रयास शुरू किये। स्थानीय स्तर पर पीड़ितों को चिह्नित कर उनका इलाज शुरू किया गया।

 

 

 

 

ठीक होने लगा स्केलेटल फ्लोरोसिस!


यह अपने आप में एक अनूठी घटना थी। क्योंकि आम तौर पर यह माना जाता है कि स्केलेटल फ्लोरोसिस की समस्या में बहुत हद तक सुधार देखने को नहीं मिल सकता है। लेकिन डॉ. चकमा और उनकी टीम के नतीजे इस मामले में भी बहुत अधिक आशान्वित करने वाली रिपोर्ट देते हैं। डॉ. चकमा और उनकी टीम ने सन 1995 से 2003 तक चले अपने अध्ययन में 32 घरों के 72 बच्चों को शामिल किया। इन सभी बच्चों में फ्लोरोसिस का प्रभाव नजर आने लगा था। अध्ययन के पूर्व और अध्ययन के पश्चात इन बच्चों में क्या बदलाव आया यह जानने के लिये एक खास शैली का प्रयोग किया गया। वैज्ञानिकों ने पाया कि छह साल की इस अवधि में स्केलेटल फ्लोरोसिस के मामले 58 प्रतिशत से घटकर 18.6 प्रतिशत रह गए थे। वहीं घुटनों तथा शरीर के निचले हिस्से में हड्डियों का विशेष टेढ़ापन काफी हद तक गायब हो चुका था। डॉ. चकमा कहते हैं कि स्केलेटल फ्लोरोसिस के कम ही मामलों में हालात बदलते देखा जा सकता है। इस लिहाज से तिलईपानी में किया गया अध्ययन सफल और कारगर रहा। जाहिर है ये नतीजे देश के अन्य फ्लोराइड प्रभावित हिस्सों के लिहाज से अत्यन्त उपयोगी साबित होने वाले थे। बाद में झाबुआ में हमें इसका व्यापक सकारात्मक प्रभाव देखने को भी मिला।

तिलईपानी के लक्ष्मण सन 1996 के अध्ययन में फ्लोरोसिस से पीड़ित एकमात्र वयस्क के रूप में चिन्हित किये गए थेटीम ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि स्केलेटल फ्लोरोसिस के अलावा डेंटल फ्लोरोसिस के मामले भी कुछ हद तक ठीक होते देखे गए। यह भी कहा गया कि फ्लोरोसिस के मरीजों में जो भी सुधार है वह केवल बचपन में ही सम्भव है। वयस्कों में ऐसे सुधार देखने को नहीं मिले।

 

 

 

 

कैसे निकला हल?


टीम ने सबसे पहले तो लोगों को स्वच्छ पेयजल उपलब्ध कराने की अनुशंसा की। उसके बाद पर्याप्त चिकित्सकीय जाँच करके प्रभावितों को समुचित मात्रा में कैल्शियम, विटामिन सी, विटामिन डी3, आयरन आदि दिया गया। उनके खानपान की आदतों में भी समुचित बदलाव किया गया ताकि वे प्राकृतिक रूप से ऐसी चीजों का सेवन करें जो फ्लोराइड के प्रभाव को कम करने वाली हों। क्षेत्रीय चिकित्सा शोध संस्थान जबलपुर के हस्तक्षेप के बाद और उसकी अनुशंसा पर मध्य प्रदेश सरकार ने इन गाँवों में मौजूद फ्लोराइड प्रभावित हैण्डपम्प को बड़े पैमाने पर नष्ट करवाया।

ये हैण्डपम्प संयुक्त राष्ट्र की एक परियोजना के तहत खोदे गए थे जिसका मकसद था ग्रामीण भारत की अधिसंख्य आबादी को पीने का पानी उपलब्ध कराना। इसके बाद सरकार ने पाइपलाइन की मदद से इन गाँवों के लोगों को पीने का पानी उपलब्ध कराया गया। इसके समान्तर स्थानीय लोगों को अपने खानपान में ऐसे खनिज शामिल करने के लिये प्रोत्साहित किया गया जो फ्लोराइड को काफी हद तक निष्प्रभावी करने में सक्षम हैं।

मंडला में फ्लोराइड निवारण के सिलसिले में काम कर रहे एक स्वयंसेवी संगठन नवीन भारती के कार्यकर्ता चंद्रहास पटेल बताते हैं कि स्थानीय लोगों को वैज्ञानिक भाषा में समझाना मुश्किल है। यानी उनको यह नहीं बताया जा सकता है कि उनके शरीर में किस पदार्थ की अधिकता या कमी है। उनको या तो दवा दी जा सकती है या फिर आसपास मौजूद चीजों में से वे चीजें खाने के लिये प्रेरित किया जा सकता है जो उनको फ्लोराइड के दुष्प्रभाव से बचाएँ। लम्बे समय से मंडला के गाँववासियों को दूध, आँवला, मुनगा, गुड़, दलिया, सोयाबीन और हरी सब्जियों का अधिक-से-अधिक सेवन करने की सलाह दी जा रही है ताकि उनके शरीर में कैल्शियम, प्रोटीन, मैगनीशियम, विटामिन सी आदि पदार्थ पर्याप्त मात्रा में मौजूद रहें। इसके अलावा डॉ. चकमा के विशेष शोध के बाद चकौड़ भाजी का भारी प्रयोग भी स्थानीय बच्चों में फ्लोरोसिस का प्रभाव कम करने में मददगार साबित हुआ।

इसके अलावा सामुदायिक स्तर पर भी प्रयास किये गए। टीम ने समय-समय पर इन गाँवों में जाकर समाज के लोगों खासतौर पर महिलाओं के साथ बैठकें कीं और उनको फ्लोराइड के खतरों के बारे में जागरूक किया। लोगों को स्वच्छ पेयजल की महत्ता के बारे में भी समझाया गया। उनको पोषक तत्त्वों का महत्त्व भी समझाया गया।

 

 

 

 

जादुई पत्ती चकौड़ा


चकौड़ा (केसिया टोरा) फ्लोरोसिस का अचूक बाणयह सच है कि चमत्कारी गुणों वाली औषधियाँ अक्सर बहुत महंगी होती है लेकिन डॉ. तपस चकमा की खोज ने इसे झुठला दिया। डॉ. चकमा लम्बे समय से आदिवासी बच्चों के इलाज के काम में लगे थे और वे उनमें कैल्शियम की कमी से बखूबी परिचित थे। जब उन्हें बच्चों में फ्लोरोसिस की समस्या का पता चला तो वे तत्काल समझ गए कि कैल्शियम की कमी उनकी समस्या को कई गुना बढ़ा रही है। उनकी तलाश पूरी हुई केसिया टोरा या चकौड़ा भाजी के रूप में जो मानसून के मौसम में इस इलाके में खूब प्रचुर मात्रा में उगती है।

डॉ. चकमा ने अपनी प्रयोगशाला में इन पत्तियों की जाँच की और पाया कि इनमें अप्रत्याशित रूप से कैल्शियम की भरपूर मात्रा मौजूद है। इसके अलावा इनमें मैगनीशियम और विटामिन सी भी था। यानी इसमें हर वह खनिज था जो फ्लोरोसिस से निपटने में मदद कर सकता था। उन्होंने पीड़ित आदिवासियों के बीच चकौड़े का खूब प्रयोग किया और आज देश के तमाम हिस्सों में केसिया टोरा यानी चकौड़े के पाउडर का प्रयोग इस बीमारी के इलाज में किया जाता है। आयुर्वेद में इस वनस्पति का नाम चक्रमर्धा है।

 

 

 

 

जमीनी हालात


मंडला के जिला अस्पताल में दन्त चिकित्सक डॉ. अशोक शर्मा का कहना है कि डेंटल फ्लोरोसिस के मामले आते ही रहते हैं। महीने में करीब 25 - 30 मामले आ ही जाते हैं लेकिन ये केस पुराने ही ज्यादा हैं नए मामले कम आ रहे हैं। गर्मी के दिनों में पानी के सारे रिसोर्सेस कम हो जाते हैं बाकि दिनों में तो पीएचई के हैण्डपम्प काम करते ही हैं। सामान्यतया पानी में फ्लोराइड उन हैण्डपम्पों में पाया जाता है जिनका लेवल 120 या 130 फीट नीचे से है। और गर्मी के दिनों में ये डीप बोर वाले पानी लोगो को मजबूरी में पीना पड़ता है।

तिलईपानी के सरकारी विद्यालय की अध्यापिक मीनाक्षी याकूब और उनके छात्रतिलईपानी में हमारे विजिट के दौरान हमने प्राथमिक विद्यालय में देखा कि 70 में से करीब 25-30 बच्चे नजर आये जिनके दाँतों की रंगत बता रही थी कि वे सम्भवत: डेंटल फ्लोरोसिस से प्रभावित हैं। हमारी इस आशंका को उस समय बल मिला जब वहाँ की प्रधानाध्यापिका मीनाक्षी याकूब ने बताया कि इनमें से कुछ बच्चे पिछले साल तक पढ़ाई में बहुत अच्छे थे लेकिन अब उनकी रुचि कम होती जा रही है। डॉ. शर्मा ने इस बात पुष्टि करते हुए कहा कि स्केलेटल फ्लोरोसिस की वजह से शारीरिक व मानसिक विकास पर बुरा असर पड़ता है। मिसाल के तौर पर 10 साल का बच्चा देखने में व समझ के स्तर पर दो तीन साल के बच्चे जैसा नजर आ सकता है। तिलईपानी का तीन वर्षीय पुष्पराज यादव एक सन्दिग्ध बीमारी से ग्रस्त है जिसके स्केलेटल फ्लोरोसिस होने की प्रबल आशंका है। किसी भी तरह से उठने-बैठने में अक्षम पुष्पराज के पिता टीकाराम यादव ने बताया कि वह बच्चे की जाँच कराने में सक्षम नहीं हैं जबकि स्तर पर गाँव में कोई कैम्प आदि नहीं लगाया जाता।

तिलईपानी निवासी व करीब के पटपरा स्थित सरकारी विद्यालय के अध्यापक मोतीलाल यादव बताते हैं कि सरकार ने साफ पानी के लिये जो सप्लाई व्यवस्था की है वह पानी दो या तीन दिन में एक बार आता है। गर्मियाँ शुरू हो गई हैं पानी की जरूरत बढ़ती जा रही है। इस आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता है कि लोग कहीं पानी के असुरक्षित स्रोत का सहारा न लेने लगें।

जागरुकता के स्तर की बात करें तो हीरापुर की सरपंच ममता पंद्रो को फ्लोराइड से होने वाली किसी समस्या के बारे में कोई जानकारी ही नहीं है। गाँव की आँगनबाड़ी कार्यकर्ता इमरती देवी सन 1996 से इस गाँव में काम कर रही हैं। उन्होंने बताया कि उस समय तमाम हैण्डपम्प बन्द किये गए थे। अब पीने का पानी गाँव के कुएँ से ही लिया जाता है। उन्होंने भी गाँव में फ्लोरोसिस के किसी नए मामले से अनभिज्ञता जताई।

अध्ययन के सूत्रधार डॉ. तपस चकमाइस सम्बन्ध में जब हमने डॉ. तपस चकमा से बात की तो उन्होंने कहा, 'जहाँ तक मेरी जानकारी है, इन दोनों गाँवों के पानी में फ्लोराइड का स्तर 1.5 पीपीएम से कम है यानी वह मान्य स्तर के भीतर है। यहाँ के लोग स्वच्छ पेयजल स्रोत से पानी पी रहे हैं। परन्तु यदि आप कह रही हैं कि आपने कुछ बच्चों को डेंटल फ्लोरोसिस के लक्षणों के साथ देखा है तो इसकी पुष्टि करनी होगी। कई बार गन्दे दाँत भी फ्लोरोसिस के आरम्भिक लक्षणों जैसे प्रतीत होते हैं। यह भी हो सकता है कि ये बच्चे काली चाय, गुटका, सुपारी आदि के सेवन के चलते फ्लोरोसिस की चपेट में आ गए हों। हालांकि स्पष्ट तौर पर कुछ भी बिना जाँच के नहीं कहा जा सकता।'

हमने हीरापुर और तिलईपानी गाँवों में फ्लोराइड का मौजूदा आधिकारिक स्तर जानने की कोशिश की लेकिन विश्वसनीय मानी जा सकने वाली पेयजल एवं स्वच्छता मंत्रालय की वेबसाइट पर यह जानकारी नहीं मिल सकी। हाँ, इस वेबसाइट पर मंडला जिले में फ्लोराइड के प्रभाव की जानकारी हमें जरूर मिली। इसके मुताबिक मंडला जिले में फ्लोराइड प्रभावित इलाकों की जाँच के लिये वर्ष 2013-14 में जो 111 नमूने लिये गए उनमें से 110 फ्लोराइड प्रभावित निकले जबकि एक में आयरन की अधिकता थी। वहीं वर्ष 2014-15 में लिये गए 110 नमूनों में से 109 में फ्लोराइड तथा एक में आयरन पाया गया।

वर्ष 2014-15 के दौरान मंडला ब्लॉक में सभी 27 में से 27 नमूने जबकि नैनपुर ब्लॉक में 11 में से 11 नमूने फ्लोराइड से ग्रस्त पाये गए। उल्लेखनीय है कि तिलईपानी गाँव मंडला ब्लॉक में जबकि हीरापुर गाँव नैनपुर ब्लॉक में आता है। हमने स्थानीय पीएचई विभाग से तिलईपानी व हीरापुर के पानी में फ्लोराइड के स्तर के आँकड़े जुटाए जो तय सीमा के भीतर पाये गए। सरकारी आँकड़ों के मुताबिक तिलईपानी में फ्लोराइड का स्तर 0.12 पीपीएम है जबकि हीरापुर में यह आँकड़ा 0.22 पीपीएम है।

यह अध्ययन इण्डिया वाटर पोर्टल की फेलोशिप योजना के तहत किया गया। इस अध्ययन में मदद के लिये डॉ. तपस चकमा का विशेष आभार।

Summary
(In the decade of 80s and 90s Mandla district of Madhya pradesh was in news for a mystry disease which was affecting large number of young people there. The problems were related to bones and teeth. A report in The guardian took the matter to world level. Dr. Tapas Chakma and his team diagnosed that this was due to intake of fluoride affected water. Then they conducted a systematic study. With the help of medicines and local herbs they found a low cost cure. Govt also helped providing clean drinking water. After two decades of the study we revisited the two affected Villages and found that the villagers have moved ahead leaving the scars of deformities and disabilities behind and overcome the challenges of Fluorosis caused by excess intake of Fluoride. No new case has been registered in following years.)

 

 

 

 

 

 

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