प्राचीन भारत में जलविज्ञानीय ज्ञान: एक परिचय 

10 Oct 2020
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धोलावीरा में परिष्कृत जलाशय, प्राचीन सिंधु घाटी सभ्यता में हाइड्रोलिक सीवेज सिस्टम्स का प्रमाण। (स्रोत:विकीपीडिया)
धोलावीरा में परिष्कृत जलाशय, प्राचीन सिंधु घाटी सभ्यता में हाइड्रोलिक सीवेज सिस्टम्स का प्रमाण। (स्रोत:विकीपीडिया)

विज्ञान प्रकृति और जीवधारियों से संबंधित हमारे ज्ञान का संवर्धन करता है। यह ब्रह्माण्ड की कई अज्ञात चीजों का पता लगाने में मनुष्यों की सहायता करता है तथा व्यावहारिक समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करता है। वस्तुतः मानव जीवन की गुणवत्ता को सुधारने के साथ-साथ विज्ञान के कई अन्य कार्य भी हैं। यद्यपि प्राचीन काल में मनुष्य ने आधुनिक युग की तरह उन्नति नहीं की थी, विज्ञान अज्ञात था, फिर भी मनुष्य को यह आभास था कि जीवित रहने के लिए जल अत्यंत महत्वपूर्ण है और इसलिए प्राचीनतम सभ्यताएं मुख्य रूप से हाइड्रोलिक प्रकृति की रही हैं क्योंकि उनकी भिन्न-भिन्न ज़रूरतों की पूर्ति के लिए जल एक विश्वसनीय स्रोत रहा है। नदियों ने उन लोगों के जीवन तथा रहन-सहन में ऐसी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई कि उनकी सभ्यताओं को नदी घाटी सभ्यताओं के रूप में जाना जाने लगा।

इनमें से प्रमुख मिश्र की नील घाटी सभ्यता, मेसोपोटामिया में टिग्रीस घाटी सभ्यता, चीन में होवांग-हो घाटी सभ्यता तथा भारत में सिंधु घाटी सभ्यता थी। इनमें से अधिकतर सभ्यताएं 3500 से 300 ईसा पूर्व तक मौजूद थीं, और इस बात के ऐतिहासिक साक्ष्य उपलब्ध हैं जो यह दर्शाते हैं कि नदियों को अक्षुण्ण रखने तथा उनसे अधिकाधिक लाभ के साथ-साथ बाढ़ और सूखे के कारण होने वाली क्षति से उनकी सुरक्षा के लिए कुछ अभियांत्रिक उपायों को भी अपनाया गया था।

मानवजाति ने तकरीबन 10,000 वर्ष पहले स्थायी बस्तियों की स्थापना की जब लोगों ने जीने के लिए खेती-बाड़ी के तरीके अपनाए। स्थायी रूप से बसने तथा कुछ हद तक सुरक्षित जीवन के कारण, जनसंख्या पहले से कहीं अधिक तेजी से बढ़ने लगी तथा व्यवस्थित कृषि जीवन द्वारा गाँवों, शहरों और अंततः राज्यों का निर्माण संभव हुआ और ये सभी जल पर अत्यधिक निर्भर थे (वोरिनिन एट.एल. 2007)। इसने मनुष्यों और जल के बीच एक अद्वितीय संबंध बनाया। प्राचीन सभ्यताएं जैसे कि सिंधु घाटी, मिश्र, मेसोपोटामिया और चीनी आदि उन स्थानों पर विकसित हु ई जहां कृषि तथा मानव आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पानी सुगमता से उपलब्ध था, यानि झरनों, झीलों, नदियों तथा कम समुद्र तल के निकट (यन्नोपोलस एट. अल., 2015)। सामाजिक स्थिरता के साथ-साथ नदियों से अधिकाधिक लाभ लेने और हानिकारक बाढ़ और अन्य हाइड्रोलोजिकल चरम सीमाओं से बचाने के लिए वस्तुतः: सभी प्राचीन सभ्यताएं अत्यधिक विकसित तथा तकनीकी रूप से सुसज्जित थीं। गुरुत्वाकर्षण के प्रयोग द्वारा अधिक दूरी तक जल पहुंचाने के लिए लम्बे एक्वाडक्ट सिस्टम (वास्तव में, कभी-कभी 100 किमी. से अधिक) का भी उपयोग किया जाता था। इसके अलावा, कांस्य युग (सीए 3200-1100 ईसा पूर्व) के समय से वर्षा जल के संग्रहण के लिए जलकुंड़ों, नहरों और भूजल कूपों का भी उपयोग किया जाता था। हालांकि, इन सभ्यताओं के पतन और इनमें से कुछ के क्रमिक क्षय को मानव जाति द्वारा लाभ अर्जित करने के लिए नदियों के हाइड्रोलॉजी और हाइड्रोलिक्स में हस्तक्षेप के प्रतिकूल और हानिकारक परिणामों से निपटने की अक्षमता के लिए भी माना जा सकता है। स्कारबोरो एट.एल. (2003) तथा ऑर्टलोफ एट.एल. (2009) ने समीक्षा की है कि किस तरह पूर्वी प्रबंधन ने पूर्वी और पश्चिमी गोलार्द्धों में विशिष्ट उदाहरणों के माध्यम से प्राचीन सामाजिक संरचनाओं और संगठनों को प्रभावित किया जिसमें पूरी प्राचीन दुनिया शामिल थी।

यह सर्वविदित है कि आध्यात्मिक मूल्यों के संदर्भ में भारतीय विरासत एक महान और उत्कृष्ट तथा संभवतः अद्वितीय है, जैसा कि पश्चिम के कुछ महान व्यक्तियों ने प्रमाणित किया है जिन्होंने संस्कृत सीखने के लिए कठिन परिश्रम किया और विश्व को सुप्रसिद्ध वेद और उपनिषदों का अंग्रेजी एवं जर्मनी में अनुवाद प्रस्तुत किया। 

आध्यात्मिक विकास के अलावा, प्राचीन भारत ने विज्ञान के विकास को भी प्रदर्शित किया। सिंधु घाटी सभ्यता जो कि एक सबसे पुरानी तथा सबसे विकसित सभ्यताओं में से एक है, विस्तार में दुनिया की सबसे बड़ी तथा प्रोटो-ऐतिहासिक भारतीय उपमहाद्वीपीय में विज्ञान तथा समाज के विकास के स्तर का प्रतीक है।

प्राचीन भारतीय साहित्य, वेदों के युग से, विज्ञानों के इस विकास को प्रदर्शित करते हैं जिसमें जल विज्ञान भी शामिल है। सौभाग्य की बात है कि प्राचीन भारतीय संस्कृत के उत्कृष्ट कार्यों को संरक्षित किया गया है तथा भारत में विदेशी संस्कृतियों एवं जातियों का कई सदियों तक अधिपत्य होने के बाद भी इसे खोया नहीं गया है।

प्राचीन भारत में विज्ञान

वैज्ञानिक दुनिया के बहुत कम शोधकर्ता ही इस बात की जानकारी रखते हैं, जैसा कि वैज्ञानिकों द्वारा समझा और स्वीकारा गया है, कि प्राचीन संस्कृत साहित्य में कितना विज्ञान निहित है। यह एक अहम प्रश्न है कि “क्या प्राचीन ऋषियों-संतों ने आधुनिक विज्ञान के अश्रमपूर्वक एकत्र किए गए प्रेक्षण आंकड़ों तथा उचित संकल्पना के माध्यम से उन्हें समाकलित करने की कार्यपद्धति को अपनाया होगा”? सर्वविदित है कि अन्तर्निहित सच्चाई को समझने के माध्यम के रूप में प्रेक्षण को नजरअंदाज नहीं किया जा सका।

विज्ञान को “प्राकृतिक घटनाओं के सुव्यवस्थित ज्ञान और जिन संकल्पनाओं में इन घटनाओं को व्यक्त किया गया है उसके बीच संबंधों के तर्कसंगत अध्ययन" के रूप में परिभाषित किया जाता है। इसका व्यापक अर्थ ” भौतिक जगत को वर्णित तथा नियंत्रित करने की एक व्यवस्थित कार्यपद्धति" भी है। यह देखा जा सकता है कि वैज्ञानिक जो कुछ भी इस प्रकृति में पाते हैं वह उन्हें उसी क्रम में एक तार्किक एवं अनुकूल विवरण प्रदान करते है। यह प्रक्रिया मानव जीवन को धीरे-धीरे प्रभावित करती है।

भारत में तीसरी/चौथी सहस्राब्दी ईसा पूर्व की शुरूआत में एक उच्च विकसित सभ्यता जिसे सिंधु घाटी सभ्यता या हड़प्पा सभ्यता (कांस्य युग सभ्यता) के रूप में जाना जाता है, पाकिस्तान और उत्तर-पश्चिम भारत के हिस्सों में सिंधु नदी के उपजाऊ मैदानी भागों में पनपी।

हड़प्पा सभ्यता मुख्य रूप से भारत के गुजरात, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, जम्मू एवं कश्मीर राज्य तथा पाकिस्तान के सिंध, पंजाब तथा बलूचिस्तान प्रांतों में स्थित थी। यह मुख्य रूप से सिंधु और घग्गर-हकरा नदियों के क्षेत्रों में स्थित थी। प्रमुख शहरी केंद्र हड़प्पा, मोहन जोदड़ो, ढोलावीरा, गनेरीवाला तथा राखीगढ़ी में थे।

सिंधु सभ्यता के लोगों ने खूब वैज्ञानिक तरक्की की। उन्होंने लम्बाई, द्रव्यमान तथा समय मापने में बड़ी दक्षता प्राप्त की। ये लोग समान वजन तथा माप की पद्धति विकसित करने वाले पहले व्यक्तियों में से थे। विभिन्‍न समारोहों तथा अनुष्ठानों के लिए वैदिक कैलैन्डरों की तैयारी ने आकाशीय पिंडों और उनके आवागमन के अध्ययन की आवश्यकता जताई और इससे खगोल विज्ञान का विकास हुआ। वैदिक आर्यों को यह तथ्य ज्ञात था कि सूर्य के प्रकाश में सात रंग की किरणें होती हैं जैसा कि ऋग्वेद के निम्नलिखित श्ल्लोक से स्पष्ट होता हैः

य:सप्तरश्मिर्वृषभस्तुविष्मानवासृजत्सर्तवेसप्तसिन्धून |

योरोहिणमस्फुरद्वजवाहुर्घामारोहन्तं स जनासइन्द्र:॥ 

जिसका अर्थ है कि सात रंगों की किरणों वाला सूर्य नदियों में पानी के प्रवाह का कारण है (वर्षा की वजह से)। वर्षा के बाद, यह फिर से पृथ्वी से पानी को आकर्षित करता है और यह चक्र निरंतर चलता रहता है।

भारतीय अंकगणित उल्लेखनीय है क्‍योंकि कि इसमें इस बात के प्रमाण हैं कि तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व नोटेशन की एक प्रणाली विकसित की गई थी जिससे आज भी प्रचलित संख्याओं की प्रतिलिपि बनाई गई थी, आर्यभट्ट (476-550 सी.ई.) जो कि एक महान गणितज्ञ तथा खगोलशास्त्री थे ने अंकगणितीय श्रृंखला के सारांश का अध्ययन किया और क्वाडरेटिक इंडिटरमिनेट समीकरणों को हल किया। सातवीं शताब्दी के महान गणितज्ञ ब्रह्मगुप्त ने खगोलीय समस्याओं के लिए स्पष्ट रूप से सामान्य बीजगणीतीय पद्धतियों के अनुप्रयोग को विकसित किया। उपचार विद्या की शुरूआत तथा जड़ी बूटियों के उपचार की जानकारी अथर्वेद के ”कौशिकसूत्र" में पाई जाती है। सुसखुता तथा चरक प्रसिद्ध सर्जन और चिकित्सक थे। बौद्ध काल के दौरान, प्रसिद्ध विद्वान जीवक अपने अद्भुत चिकित्सा और शल्य चिकित्सा के उपचार के लिए प्रख्यात थे। तक्षशिला, नालन्दा तथा विक्रमशिला के प्राचीन विश्वविद्यात्रयों में चिकित्सा भी एक महत्वपूर्ण एवं अनिवार्य विषय था। सातवीं शताब्दी के बागभ्रट के चिकित्सा कार्य में मरकरी (पारा) का पहला उल्लेख (प्रसाद, 1980) शामिल है। भारत के बौद्ध दर्शनशास्त्र की सबसे उल्लेखनीय विशेषता कणाद (600 ई. पूर्व) (प्रकाश, 1965) के परमाणु सिद्धांत का निर्माण है।

विश्वास (1969) ने सही टिप्पणी की है कि भारत, चीन, अरब देशों के अग्रणी योगदान के बिना यूरोप में आधुनिक विज्ञान की तरक्की शायद ही संभव हो पाती।

लम्बे समय तक विदेशी शासकों के प्रभुत्व ने संस्कृत और अन्य साहित्यों की वैज्ञानिक लेखन को आगे नहीं बढ़ने दिया। आजादी के बाद भी, इस स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ और इसका स्पष्ट कारण यह है कि आधुनिक वैज्ञानिकों तथा संस्कृत विद्वानों के बीच कोई पारस्परिक अन्तःक्रिया एवं संवाद की कमी है। वैज्ञानिकों ने प्राचीन संस्कृत साहित्य में उपलब्ध वैज्ञानिक सामग्री के बारे में कभी भी ध्यान नहीं दिया और संस्कृत विद्वानों ने संस्कृत कार्यों में उपलब्ध वैज्ञानिक प्रकृति की समस्याओं पर ध्यान केंद्रित करने की परवाह नहीं की। वे स्वयं “व्याकरण" मिमांशा इत्यादि जैसी समस्याओं में उलझ कर रह गए। इसलिए आज तक भी, प्राचीन कार्यों की वैज्ञानिक सामग्री लगभग पूरी तरह से अज्ञात और अविश्लेषित बनी हुई है।

भारतीय परम्पराओं में जल का महत्व

भारतीय परम्पराओं में जल का महत्व प्राचीन काल से ही रहा है, और भारत को संस्कृति और अध्यात्म की भूमि कहा जाता है। भारतीय लोगों के सांस्कृतिक और धार्मिक जीवन पर जल का हमेशा एक व्यापक प्रभाव रहा है। मोहन जोदड़ों का “महान स्नान गृह" इस बात का एक अद्भुत प्रमाण है। इस स्नान गृह को विद्वानों द्वारा “प्राचीन विश्व का सबसे पुराना सार्वजनिक जल टैंक" के रूप में माना जाता है। हालांकि इस संरचना का यथार्थ महत्व ज्ञात नहीं है, फिर भी अधिकांश विद्वान इस बात से सहमत हैं कि इस टैंक का उपयोग विशेष धार्मिक अनुष्ठानों के लिए किया गया था।

चित्र . 1 मोहन जोदड़ो का महान स्नानागार (स्रोत:विकीपीडिया)

भारत में शुष्कतम मौसम और पानी की कमी ने जल प्रबंधन के क्षेत्रों में कई अन्वेषी कार्यों को मूर्तरूप दिया है। सिंधु घाटी सभ्यता के समय से इस पूरे क्षेत्र में सिंचाई प्रणाली, भिन्न-भिन्न प्रकार के कूपों, जल भण्डारण प्रणाली तथा न्‍यून लागत और अनवरत जल संग्रहण तकनीकें विकसित की गई थी। 3000 ईसा पूर्व में गिरनार में बने जलाशय तथा पश्चिमी भारत में प्राचीन स्टेप-वैल्स कौशल के कुछ उदाहरण हैं। प्राचीन भारत में जल पर आधारित तकनीकें भी प्रचलन में थीं। कौटिल्य के सदियों पुराने लिखे अर्थशास्त्र (400 ईसा पूर्व) में हस्तचालित कूलिंग उपकरण “वारियंत्र" (हवा को ठंडा करने के लिए घूमता हुआ जल स्प्रे) का संदर्भ दिया गया है। पाणिनी (700 ईसा पूर्व) के “अर्थशास्त्र" और “अष्टाध्यायी" में वर्षामापी (नायर, 2004) यंत्रों का विधिवत संदर्भ उपलब्ध है।

चित्र .2 : धोलावीरा में परिष्कृत जलाशय, प्राचीन सिंधु घाटी सभ्यता में हाइड्रोलिक सीवेज सिस्टम्स का प्रमाण। (स्रोत:विकीपीडिया)

वैदिक और अन्य भारतीय परम्पराओं में ग्रहों तथा नदियों सहित सभी प्राकृतिक शक्तियों को देवताओं और देवियों के रूप में माना जाता है और इनकी पूजा की जाती है। प्रांरभिक भारतीय संस्कृति नदी क्षेत्रों के निकट विकसित हुई। वास्तव में देश के नाम की व्युत्पत्ति सिंधु नदी के नाम से की गई है। गंगा, यमुना, सरस्वती, नर्मदा, गोदावरी, कृष्णा और कावेरी नामक सातों नदियां सांस्कृतिक आधार पर महत्वपूर्ण मानी जाती हैं। उदाहरण के लिए पवित्र नदी गंगा पौराणिक रूप से भगवान शिव से जुड़ी है और हिंदुओं द्वारा आत्मा की शुद्बि और मस्तिष्क के पुनरूद्धार के प्रतीक के रूप में मानी जाती है। पूरे भारत के त्रोग अपने पापों को धोने के लिए पवित्र नदी में डुबकी लगाते हैं। पूजा अनुष्ठान के पश्चात मंदिर में दिव्य जल को ग्रहण किया जाता है, पूजा की प्रतिमाओं पर पवित्र जल छिड़का जाता है, तथा भोजन के लिए रखे गए एक पत्ते को पानी से साफ किया जाता है और इसकी पूजा की जाती है। 

तालिका में कुछ महत्वपूर्ण श्लोक दिए गए हैं जिन्हें जल को भगवान के रूप में पूजते समय उच्चारित किया जाता हैः-

नीचे कुछ चयनित श्लोक (प्रार्थना) जिनके द्वारा जल देवता की अर्चना की जाती है :-

आपो हिषूठा मयोभुवस्था न ऊर्जे दधातन। महे रणाथ चक्षसे ॥1॥

हे जल! आपकी उपस्थिति से वायुमंडल बहुत तरोताजा है, और यह हमें उत्साह और शक्ति प्रदान करता है। आपका शुद्ध सार हमें प्रसन्‍न करता है, इसके लिए हम आपको आदर देते हैं।

यो वः शिवतमो रसस्तस्य भाजयतेह नः। उश्तीरिव मातरः ॥2॥

हे जल! आप अपना यह शुभ सार, कृपया हमारे साथ साझा करें, जिस प्रकार एक मां की इच्छा होती है कि वह अपने बच्चों को सर्वश्रेष्ठतम प्रदान करे।

 तस्मा अरं गमाम वो यस्य क्षयाय जिन्वथ। आपो जनयथा च नः ॥3॥

हे जल! जब आपका उत्साही सार किसी दुखी प्राणी को प्राप्त होता है, तो वह उसे जीवंत कर देता है। हे जल! इसलिए आप हमारे जीवन दाता हैं।

द्रां नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये। द्रां योरभि स्रवन्तु नः ॥4॥

हे जल! जब हम आपका सेवन करते हैं तो उसमें शुभ दिव्यता होने की कामना करते हैं। जो शुभकामनाएँ आप में विद्यमान हैं, उसका हमारे अंदर संचरण हो।

ईशाना वार्याणां क्षयन्तीश्चर्षणीनाम्।  अपो याचामि भेषजम्‌ ॥5॥

हे जल! आपकी दिव्यता कृषि भूमियों में भी संचरित हो!। हे जल, मेरा आग्रह है कि आप फसलों का समुचित पोषण करें।

अप्सु मे सोमो अग्रवीदन्तर्विष्वानि भेषजा। अग्नि च विश्वभुवम्‌ ॥6॥

हे जल, सोमा ने मूझे बताया कि जल में दुनिया की सभी औषधीय जड़ी बूटियाँ और अग्नि, जो दुनिया को सुख-समृद्धि प्रदान करती है, भी मौजूद है।

आप: पृणीत भेषजं वरूथं तन्वेs मम। ज्योक्च सूर्यं इशे ॥7॥

हे जल, आप में औषधीय जड़ी बूटियाँ प्रचुर मात्रा में समायी हुई हैं; कृपया मेरे शरीर की रक्षा करें, ताकि मैं सूर्य को लंबे समय तक देख सकूं (अर्थात मैं लंबे समय तक जीवित रह सकूँ।

इदमाप: प्र वहत यतिक च दुरितं मयि। यद्वाहमभिदुद्रोह यदवा शेप उतान्रूतम॥8॥ 

हे जल, मुझ में जो भी दुष्ट प्रवृतियाँ हैं, कृपया उन्हें दूर करें, और मेरे मस्तिष्क में विद्यमान समस्त विकारों को दूर करें और मेरे अंतर्मन में जो भी बुराइयाँ हैं उन्हें दूर करें।

आपो अद्यान्वचारिद्‌गां रसेन समगस्महि। पयस्वानग्न आ गहि तं मा सं सृज वर्चसा॥9॥

हे जल, आप जो उत्साही सार से भरे हुए हैं, मैं आपकी शरण में आया हूँ, मैं आप में गहराई से सम्माहित हूं (अर्थात स्नान) से घिरा हुआ है (अग्नि सिद्धांत) जो अग्नि (कर) मुझमें चमक पैदा करे।

प्राचीन भारत में जलविज्ञानीय ज्ञान

हाइड्रो साइंस के ऐतिहासिक विकास पर कई लेखकों (बेकर और हॉर्टन, 1936, चाउ, 1964, विश्वास, 1970) ने सघन शोध एवं प्रकाशन का कार्य किया है लेकिन इन सभी कार्यों में प्राचीन भारत में किए गए कार्यों का संदर्भ विशिष्ट रूप से अनुपस्थित है । (प्रसाद, 1980) ।

उदाहरण के लिए चाउ (1964) ने जलविज्ञान के इतिहास के वर्णन में ग्रीस में होमर, थेल्स, प्लेटो, अरस्तु, रोम में प्लिनी और उस समय के कई बाइबल विद्वानों के कार्यों का उल्लेख किया है लेकिन किसी ने भी भारतीय विद्वान, साहित्य, और उनके महान योगदान का जिक्र नहीं किया गया है | इनमें से अधिकांश पश्चिमी विद्वानों ने जल की उत्पत्ति के बारे में बेबुनियाद सिद्धांतों पर विश्वास किया। उदाहरण के लिए थेल्स, एक आयनियन दार्शनिक, गणितज्ञ और खगोलशास्त्री ने कहा कि समुद्र का पानी हवा से चट्टानों में चला जाता है यही भूजल का कारक है। प्लेटो (427-347 ईसा पूर्व), एक महान एथेनियन दार्शनिक ने कहा है कि समुद्रों, नदियों, झरनों आदि का पानी एक बड़े भूमिगत जलाशय से आता है और वही वापस चला जाता है। अरस्तु (384-322 ईसा पूर्व) ने कहा कि झरनों आदि का पानी भूमिगत जल से भूमिगत ओपनिंग के माध्यम से प्राप्त होता है । प्रसिद्ध साधु दार्शनिक लुसियस एनाकस सेनक्का (4 ईसा पूर्व) ने घोषणा की कि वर्षा, स्प्रिंग और भूमिगत जल का स्रोत नहीं हो सकती क्योंकि यह पृथ्वी में केवल कुछ ही फुट तक प्रवेश करता है । (प्रसाद, 1980)। 

मार्क्स विद्गवेज जो ईसा मसीह के समय में रहे हैं, ने एक सिद्धांत बनाया कि भूजल वर्षा का एक हिस्सा है जो कि अन्तःस्यन्दन के माध्यम से उत्पन्न होता है। पश्चिमी विद्वानों के ये सभी सिद्धांत प्राचीन काल में पश्चिमी दुनिया में जलविज्ञान के विकास के निम्न स्तर का संकेत देते हैं।  

दूसरी ओर समकालीन भारतीय विद्वानों ने जलविज्ञान के विभिन्‍न पहलुओं के उन्‍नत स्तर के ज्ञान का विकास किया था जैसा कि प्राचीन भारतीय साहित्य में परित्रक्षित होता है जिसमें जलविज्ञान और उनके व्यावहारिक अनुप्रयोगों पर बहुत मूल्यवान और महत्वपूर्ण वैज्ञानिक जानकारियां दी गई हैं । इस बात के प्रमाण के लिए पर्याप्त पुरातात्विक तथ्य हैं कि सिंधु घाटी के हड़प्पाकालीन लोग (2500 और 700 ईसा पूर्व) मौसमी वर्षा और सिंधु नदी की बाढ़ से संबंधित घटनाओं के बारे में अच्छी जानकारी रखते थे जो आधुनिक मौसम संबंधी जांच (श्रीनिवासन, 1975) द्वार अनुमोदित है। वैदिक ग्रन्थ, जिनकी रचना संभवत: 1500 से 200 ईसा पूर्व (कुछ विद्वानों के अनुसार 1700-1100 ईसा पूर्व) के बीच हुई थी, में जलविज्ञानीय चक्र” के लिए महत्वपूर्ण संदर्भ शामिल है। जलविज्ञान की महत्वपूर्ण अवधारणाएं विभिन्‍न श्लोकों और वेदों में विभिन्‍न देवताओं की अराधनाओं और प्रार्थनाओं में दी गई हैं। इसी तरह अन्य संस्कृत साहित्य में भी जलविज्ञान से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारियां समाहित हैं ।

भारत के क्षेत्रों में तथा दुनिया में कहीं भी कृषि की उत्पत्ति और विकास और सिंचाई में अनुभव अलग-अत्रग प्रक्रियाएं नहीं हैं, जैसा कि यजुर्वेद के निम्नलिखित श्लोक से स्पष्ट है:-

कृषिश्चमें यज्ञेनकलपंताम।

वृष्टश्चमें यज्ञेनकलपंताम || यजुर्वेद, 18-9 ।।

मारूतश्चमें यज्ञेनकलपंताम || यजुर्वेद, 18-17 ।।

ये श्लोक वर्षा, कृषि और वायु या पर्यावरण और उनके अंतर्संबंध के लिए यज्ञ के महत्व को दर्शाते हैं ।

जलविज्ञानीय चक्र की विभिन्‍न प्रक्रियाओं जैसे कि वाष्पीकरण, संक्षेपण, वर्षा, धारा प्रवाह आदि के दौरान जल का क्षय नहीं होता है बल्कि एक रूप से दूसरे रूप में परिवर्तित हो जाता है । इसका वैदिक एवं बाद के समय काल के लोगों को पूर्णतः ज्ञान था। पौधों द्वारा पानी का अंत:ग्रहण, विभिन्‍न प्रकार के बादलों, उनकी ऊंचाई वर्षा क्षमता, सूर्य की किरणों और हवा द्वारा सूक्ष्म कणों में पानी का विभाजन तथा पिछले वर्षा के प्राकृतिक परिदृश्यों के पूर्वानुमान के प्रेक्षणों के आधार पर वर्षा की मात्रा के पूर्वानुमान पुराणों, वृहतसंहिता (550 ए.डी.), मेघमाला (900 ए.डी.) आदि में भी उपलब्ध है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र (400 ईसा पूर्व) तथा पाणिनी की अष्टाध्यायी (700 ईसा पूर्व) में वर्षा मान/वर्षा यंत्रों का संदर्भ उपलब्ध है। भारत के विभिन्‍न भागों में वर्षा की मात्रा की भविष्यवाणी भी कौटिल्य ने की थी। भारतीय लोग वर्षा पर चक्रवाती प्रभाव, भौगोलिक प्रभाव, विकिरण और वाष्पीकरण तथा पृथ्वी के संवहन हीटिंग के प्रभाव से भली-भांति परिचित थे। उस काल में विभिन्‍न अन्य पहलुओं जैसे कि अंतःस्यंदन, अवरोधन, धारा प्रवाह, भूआकृतिकी विज्ञान तथा वर्षा की अपरदन क्रिया की भी जानकारी उपलब्ध थी | महाकाव्य रामायण (200 ईसा पूर्व) में आर्टिफिसीयल कुओं के संदर्भ भी उपलब्ध हैं।

प्राचीन भारत में भूमि जल विकास और जल की गुणवत्ता पर भी पर्याप्त ध्यान दिया जाता था जैसा कि वृहतसंहिता (550 ए.डी.) से स्पष्ट है।

जल प्रबंधन और संरक्षण, 400 ई.पू. के आस-पास सुसंगठित जल मूल्य निर्धारण प्रणाली, बांधों, टैंकों आदि की निर्माण विधियाँ और सामग्री, बैंक संरक्षण, स्पिलवे आदि के संदर्भ प्राचीन संस्कृत साहित्य में प्राचीन भारत में जल संसाधनों तथा जलविज्ञान के विकास के उच्च स्तर को दर्शातें हैं। वैदिक साहित्य, अर्थशास्त्र, पुराणिक स्रोतों,  वृहत्संहिता, मयूराचित्रा, मेघमाला, जैन, बौद्ध और अन्य प्राचीन भारतीय साहित्यों में असंख्य संदर्भ विद्यमान हैं जो प्राचीन भारत में जलविज्ञान और जल्र संसाधनों की स्थिति का वर्णन करते हैं। जलविज्ञान और जल संसाधनों के विभिन्‍न तत्व जिन पर विभिन्‍न प्राचीन भारतीय साहित्यों में और कुछ लेखकों द्वारा चर्चा की गई जैसे कि त्रिपाठी (1969), प्रसाद (1980), प्रसाद (1987) आदि, उनकी समीक्षा और विश्लेषण किया गया है और उन्हें इस खंड में प्रस्तुत किया गया है।

प्राचीन भारत में जल विज्ञान और जल संसाधनों के विभिन्न‍ पहलुओं पर चर्चा की गई है और उन्हें इस रिपोर्ट में निम्नलिखित अध्यायों के तहत प्रस्तुत किया गया है:-

प्राचीन भारत में जल विज्ञान के अध्याय 

1. प्राचीन भारत में जलविज्ञानीय ज्ञान: एक परिचय 

2. जलविज्ञानीय चक्र

3. बादल निर्माण, वर्षा, और इसका मापन

4. अवरोधन, अंतस्यन्दन और वाष्पीकरण,

5. भू-आकृतिविज्ञान और सतही जल

6. प्राचीन भारत में भूजल संबंधी जलविज्ञानीय ज्ञान

7. जल गुणवत्ता और अपशिष्ट जल प्रबंधन

8. जल संसाधन उपयोग, संरक्षण और प्रबंधन

9. प्राचीन भारत में जलविज्ञानीय ज्ञान: निष्कर्ष

 

 

HYDROLOGIC KNOWLEDGE IN ANCIENT INDIA

 

Science improves our knowledge of the nature and living beings. It helps the humans to investigate the several unknowns of the universe and generates solutions for practical problems. In fact, science has several functions, including the attempt to improve the quality of the human life. In ancient days, although science was unknown as such, yet man had realized the importance of water for survival, and therefore, the earliest civilizations were distinctly and predominantly hydraulic in character as they owed their origin to reliable sources of water to meet their various needs. Rivers played such a pivotal role in the life and living of those people that their civilizations came to be known as river valley civilizations. Prominent among these were the Nile valley civilization in Egypt, the Tigris valley civilizations in Mesopotamia, the Howang-Ho valley civilization in China and the Indus valley civilization in India. Most of these civilizations existed from 3500 to 300 BC and there are historical evidences to show that certain engineering measures were adopted by them to sustain as well as enhance benefits from rivers and also to protect against damages due to floods and droughts.

Humankind established permanent settlements about 10,000 years ago when people adopted an agrarian way of life. Due to settled and somewhat secured life, population began to expand faster than ever before. Settled agricultural life made it possible to construct villages, cities and eventually states, all of which were highly dependent on water (Vuorinen et al., 2007). This created a unique relationship between humans and water. Most of the ancient civilizations, i.e., Indus valley, Egyptian, Mesopotamian and Chinese were developed at places where water required for agricultural and human needs was readily available, i.e., close to springs, lakes, rivers and at low sea levels (Yannopoulos et al., 2015). Most ancient civilizations were highly developed and technologically equipped for societal sustainability as well as to enhance benefits from rivers and also to protect against damaging floods and other hydrological extremes. Water transport over long distances was based on gravity. Thus, long aqueduct systems (indeed, sometimes exceeding 100 km) were used to convey water over large distances, using gravity. Also, water cisterns for harvesting rainwater, canals and ground water wells were practiced since the Bronze Age (ca. 3200–1100 BC). However, fall of these civilizations and gradual decay of some of them were partly prompted by mankind’s creeping inability to cope up with adverse and damaging consequences of his interference with hydrology and hydraulics of the respective rivers in his attempts to derive benefits. Scarborough et al. (2003) and Ortloff et al. (2009) have reviewed how water management affected ancient social structures and organization through typical examples in the Eastern and Western hemispheres, covering the whole ancient world. 

It is well known that in the realm of spiritual values, the Indian heritage has been great and sublime and perhaps unparalleled, as testified by some of the great personalities of the west who underwent the toil of learning Sanskrit and presenting the world with translation of the renowned texts of Vedas and Upanishads in English and German. Besides the spiritual growth, ancient India also exhibited the growth of science. The Indus Valley civilization, one of the earliest and most developed civilizations of that time, was the world's largest in extent and epitomises the level of development of science and societies in proto-historic Indian sub-continent. Ancient Indian literature, dating back from the age of the Vedas, further witnesses this development of sciences (including the water science). It is a good fortune that the ancient Indian Sanskrit works have been preserved and not lost through centuries of domination by alien races and alien cultures in India. 

Science in Ancient India Very few workers in the scientific world are aware of how much science, as understood and accepted by scientists, is contained in the ancient Sanskrit literature. It is a moot question whether the ancient sages had adopted the methods of modern science of laboriously collecting observational data and integrating them through appropriate concepts into useful and acceptable truths. Observation as a medium of realizing the underlying truths could not have been ignored. Science is defined as ordered knowledge of natural phenomena and the rational study of the relations between the concepts in which these phenomena are expressed. It is in its widest sense, “a systematic method of describing and controlling the material world”. It can be seen, as it stands at any moment, as a logical and coherent account of that order which the scientists of the time find in nature. It progressively affects man’s life. In India, at the beginning of the third/fourth millennium B.C., a highly developed civilization, popularly known as the Indus Valley civilization or Harappan Civilization (a Bronze Age civilization) grew in parts of Pakistan and northwest India, on the fertile plains of the Indus River. The Harappan civilization was mainly located in present-day Indian states of Gujarat, Haryana, Punjab, Rajasthan, Uttar Pradesh, Jammu and Kashmir; and present-day Pakistan provinces of Sindh, Punjab, and Balochistan. It was located mainly in the region of the Indus and GhaggarHakra Rivers. The major urban centres were at Harappa, Mohenjo-daro, Dholavira, Ganeriwala and Rakhigarhi. The people of the Indus Civilization made great scientific advancements. They achieved great accuracy in measuring length, mass, and time. These people were among the first to develop a system of uniform weights and measures. Preparation of the Vedic calendar for various ceremonies and of rituals necessitated the study of heavenly bodies and of their movements. This led to the advancement of the astronomical Science (Prasad, 1980). The fact that sun light constitutes seven colour rays was known to Vedic Aryans, as evident from the following shloka of the Rig Veda (RV.II,12.12), 

यःसप्तरश्मिर्वृषभस्तुविष्मानवासृजत्सर्तवेसप्तसिन्धून। योरोहिणमस्फुरद्वज्रवाहुर्घामारोहन्तं स जनासइन्द्र:। (RV.II,12.12)

Meaning: the sun containing seven colour rays is the cause of water flow in the rivers (because of rain). After rain, it again attracts water from earth and this cycle goes on. 

Indian arithmetic is remarkable in that there is evidence to show that as early as third century B.C., a system of notation was evolved from which the scheme of numerals that is in vogue even today has been copied. The Aryabhatta (476–550 CE), a great mathematician and astronomer, studied the summation of arithmetic series and attempted to solve quadratic indeterminate equations. Brahmagupta, the great mathematician of 7 th century, developed application of explicitly general algebraic methods to astronomical problems. The beginning of the medical sciences goes back to the age of the Vedas. The early beginnings of the art of healing and of the knowledge of healing herbs are found in the ‘Kausikasutra’ of the ‘Atharvaveda’. Susruta and Charaka were well known surgeons and physicians. During the Buddhist period, renowned scholar Jivaka was famous for his amazing medical and surgical cures. Medicine was also an important and compulsory subject in the ancient universities of Taksasila, Nalanda and Vikramasila. The medical work of Vagbhata of the seventh century contains the first mention of mercury (Prasad, 1980). The most remarkable feature of the Buddhist Philosophy of India is the formulation of the atomic theory by Kanada (600 B.C.) (Prakash, 1965). Biswas (1969) has rightly remarked that the growth of modern science in Europe would have been hardly possible 4 without the background of pioneering contributions from India, China and Arabian countries, well up to the 12th century A.D. 

Domination of the foreign rulers for a long time did not help in bringing the scientific content of the Sanskrit and other literature to come to the fore. Even after independence, the situation did not improve for the obvious reason that there is no interaction between the modern scientists and the Sanskrit scholars. The scientist never bothered to know about the scientific content in the ancient Sanskrit literature while the Sanskrit scholars never cared to bring to focus the problems of scientific nature available in the Sanskrit works. They got entangled themselves in problems such as ‘Vyakarana’, Mimansa’ etc. Hence, even to date, the scientific contents of the ancient works have remained almost wholly unknown and unanalyzed. 

Significance of Water in Indian Traditions 

Since ancient times India is known as the land of culture and spiritualism. Water has always had a pervasive influence on the cultural and the religious life of Indian people. The Great Bath of Mohenjo-Daro is a great testimony to this fact (Fig. 1.1). The bath is considered by scholars as the "earliest public water tank of the ancient world". Although, the exact significance of the structure is unknown, most scholars agree that this tank was used for special religious functions.

Fig. 1.1: The Great Bath of Mohenjo-Daro (Source: Wikipedia)

Drier climates and water scarcity in India led to numerous innovations in water management. Since Indus valley civilization. Irrigation systems, different types of wells, water storage systems and low cost and sustainable water harvesting techniques were developed throughout the region. The reservoir built in 3000 BC at Girnar and the ancient step-wells in Western India are examples of some of the skills. Technologies based on water were also prevalent in ancient India. Reference to the manually operated cooling device “Variyantra” (revolving water spray for cooling the air) is given in the centuries old writing “Arthashastra” of Kautilya (400 BC). The “Arthashastra” and “Astadhyayi” of Panini (700 BC) give reference to rain gauges (Nair, 2004). 

 

Fig. 1.2: Sophisticated Water Reservoir at Dholavira, evidence for hydraulic sewage systems in the ancient Indus Valley Civilization (Source: Wikipedia). 

 

In the Vedic and other Indian traditions, all natural forces including planets and rivers are personified as gods and goddess and worshipped. Early Indian culture originated near river regions. As a matter of fact, the very name of the country is derived from the name of river Indus. The seven rivers namely Ganga, Yamuna, Saraswati, Narmada, Godavari, Krishna and Kaveri are considered important on cultural basis. For example, the Holy River Ganges is mythologically linked to Lord Shiva and is considered by the Hindus as the symbol for purification of the soul and rejuvenation of the mind. All over India people throng for a dip in the holy river to wash away their sins. Divine water is consumed in the temple after puja worship rituals; idols of worship are sprinkled with water (abhishekam); and a plantain leaf kept for a meal is cleaned with water and a prayer. Table 1.1 presents some of the important shlokas in the Sanskrit which are invoked while offering prayers to water as God. 

 

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