पुनर्जीवित नदी के जल का जन सहभागिता आधारित जल प्रबन्ध

अरवरी संसद
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नदी चेतना के यात्रियों के उपयोग लिए तरुण भारत संघ का अनुभव

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तरुण भारत संघ ने राजस्थान के अलवर, जिले की सात सूखी नदियों को पुनर्जीवित किया है। उसने यह काम जोहड़ों तालाबों को बनवाकर पूरा किया था। उल्लेखनीय है कि राजस्थान के अर्ध-शुष्क इलाकों का स्थानीय समाज सैकड़ों सालों से जोहडों से पानी की जरूरतों को पूरा करता रहा है। तरुण भारत संघ ने उसी को अपनाया। उन्होंने समाज और जोहड़ बनाने में पारंगत लोगों को संगठित किया। उनके द्वारा सुझाई तकनीकों के आधार पर, सूखी नदियों के कछारों में सैकड़ों की संख्या में जोहड़ों को बनाया। प्रक्रिया का पूरा नियंत्रण स्थानीय समाज के हाथ में रहा। लोगों का कहना है कि जब वर्षा जल जोहड़ों (तालाबों) के माध्यम से भरपूर मात्रा में धरती के गर्भ में उतरा तो उथली परतों के भूजल भंडार लबालब भर गए। उनके लबालब भरने के कारण भूजल का स्तर सतह के करीब आ गया। उसके सतह के करीब आने के कारण कुओं और नदियों में पानी लौटने लगा। 

नदियों को फिर से सूखने से बचाने के लिए समाज ने गहरे नलकूपों पर बन्दिश लगाई। कुओं से कम पानी उलीचा। इस कारण उथले एक्वीफरों में पानी बचा रहा। जिन्दा जोहड़ों ने गर्मी के अन्त तक भूजल निकासी की यथासंभव पूर्ति की। इस कारण नदियाॅ जीवन्त और धरती में नमी बनी रही। नमी के कारण जंगल में हरियाली लौट आई। जंगल में चारों ओर मंगल नजर आने लगा। जैवविविधता बहाल होने लगी। नदियों का संकट जैसे बीते दिनों की बात हो गई। प्रवाह बहाली की गंभीर चुनौती, उजली संभावनाओं में बदलने लगी। समाज, उपलब्धि के इसी बिन्दु पर नहीं रुका। उसने पानी के सदुपयोग के लिए कायदे-कानून बनाए। इस कारण अलवर का प्रयोग नदी के पानी के बुद्धिमत्ता पूर्ण उपयोग में रुचि रखने वाले लोगों के लिए अध्ययन केन्द्र, नदी के प्रवाह और उसकी अस्मिता लौटाने वालों के लिए लाइटहाउस तथा जीवन्त प्रयोगशाला बन गया। 

अलवर का प्रयोग बताता है कि प्रवाह बहाली के लक्ष्य को केवल भूजल रीचार्ज की मदद से हासिल करना संभव नहीं है। लक्ष्य को हासिल करने के लिए नदी कछार के स्थानीय भूगोल और उथली परतों के चरित्र को समझ कर काम करना आवश्यक है। इसके अलावा ज्ञान-विज्ञान की अनेक शाखाओं के जानकार लोगों का सक्रिय सहयोग एवं उनकी निर्णायक भागीदारी भी आवश्यक है। तरुण भारत संघ ने यही किया। उसने सबसे पहले जोहड़ों के पीछे के परम्परागत ज्ञान को समझा। प्रवाह के चरित्र को समझा। नदी समाज को खतरों से अवगत कराया। उसकी उपलब्धता और अवधि के साथ लोगों की आवश्यकताओं का तालमेल बिठाया। तालमेल के आधार पर सोच बदला और जल प्रबन्ध के महत्व को समझा। कछार के समाज की सहमति से टिकाऊ जल प्रबप्ध को लागू कराया। 

नियम बताते हैं कि नदी के दो से तीन प्रतिशत पानी का ही उपयोग किया जावेगा। उन्होंने पानी की कम खपत वाली फसलों को पैदा करने पर जोर दिया। रासायनिक खाद और जहरीली दवाओं के कम से कम उपयोग का फैसला लिया। गन्ना, मिर्च और चावल की फसलों पर रोक लगाई। जिन लोगों ने उपरोक्त फसलें बोईं उन्हें जोहड, कुये या नदी से पानी नहीं लेने दिया। पानी की बरबादी रोकी और गर्मी की फसलें नहीं लीं। पशु चारा उगाया और चारे की सिंचाई के लिए पानी का उपयोग सुनिश्चित कराया। उन्होंने तय किया कि होली के बाद नदी से सीधा पानी उठा कर सिंचाई नहीं की जाएगी। होली तक सरसों और चने की खेती करने वाले किसानों को नदी से पानी उठाने की अनुमति होगी। पशुओं के पीने के पानी और नये पौधों की सिंचाई के लिए कोई बन्दिश नही होगी।   

लोगों ने कुओं से सिंचाई के नियम बनाये। इन नियमों को बनाते समय उन्होंने स्थानीय एक्वीफरों की स्थिति और उनकी क्षमता को ध्यान में रखा। ज्यादा गहरे कुए या नलकूप नहीं बनाए। उन्होंने पानी की बिक्री पर रोक लगाई। पानी के व्यावसायिक उपयोग को रोका। गहरी बोरिंग और पानी की बिक्री करने वाले उद्योग प्रतिबन्धित किए। गरीब आदमी को पानी की निशुल्क पूर्ति की।  

उन्होंने उद्योगपतियों और भूमि उपयोग बदलने वाले व्यक्तियों को जमीन बेचने पर रोक लगाई। उन्होंने तय किया कि जमीन की बिक्री आपस में ही की जाएगी और पानी का अधिक उपयोग करने वाले कल-कारखाने नहीं लगने देंगे। भूजल के अतिदोहन पर हर समय निगाह रखेंगे। उन्होंने तय किया कि जो व्यक्ति धरती को पानी देगा, वही धरती के नीचे के पानी का उपयोग कर सकेगा। स्थानीय एक्यूफरों की क्षमता और व्यक्तियों की पानी की जरूरत में तालमेल रखने वाले सिद्धान्त का पालन किया। इसके अलावा, उन्होंने जल पुनर्भरण करने वाले व्यक्तियों को पुनर्भरण नही करने वाले की तुलना में 15 प्रतिशत अधिक पानी लेने का अधिकार दिया। खेती को यथासंभव स्वावलम्बी बनाया। 

अरवरी नदी के समाज ने नदी घाटी के जीव जन्तुओं की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए ’ शिकार वर्जित क्षेत्र ’ घोषित किया। गांव वालों को जागरूक और प्रशिक्षित करने, शिकार प्रभावित इलाके की पहचान करने और जंगल जीव बचाओ अभियान चलाने की जिम्मेदारी सौंपी। उन्होने नदी क्षेत्र में हरियाली और पेड़ बचाने का फैसला लिया। कायदे कानून बनाए। गाँवों की साझा जमीनों और पहाड़ों को हरा भरा रखने के लिए बाहरी मवेशियों की चराई पर बन्दिश लगाई। हरे वृक्ष काटने पर पाबन्दी, दिवाली बाद पहाड़ों की घास की कटाई करने, गाँव-गाँव में गोचर विकास करने, नंगे पहाड़ों पर बीज छिड़काव करने, लकड़ी चोरों पर नियंत्रण करने, स्थानीय परम्पराओं को बहाल करने, ऊंट, बकरी और भेड़ों की संख्या कम करने तथा नई खदानों और प्रदूषणकारी उद्योगों को रोकने का फैसला लिया। उनका मानना है कि इन कदमों से ही हरियाली बढ़ेगी और नदी बारहमासी बनी रहेगी। अलवर के प्रयोग की सफलता का राज वह समझदारी है जो कुदरत के नियमों का पालन करती है। 

लेखक का मानना है कि नदी चेतना यात्रा पर निकले लोगों के लिए आवश्यक है कि वे देश में उपलब्ध नदी जल प्रबन्ध के सफल तथा टिकाऊ उदाहरणों का अध्ययन करें। उनकी फिलासफी को समझें और उस आधार पर अपने अपने इलाके में कारगर प्रयास करें। अरवरी का उदाहरण उस कडी में हंडी का एक चावल मात्र है। उनकी समझ ही राज से सम्वाद के लिए पुख्ता आधार प्रदान करेगी।

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