राजस्थान में परम्परागत पेड़-पौधे

31 Mar 2018
0 mins read
खेजड़ी
खेजड़ी


राजस्थान में पेड़ों की सुरक्षा का इतिहास बहुत पुराना है। यहाँ पेड़ देवता की तरह पूजे जाते हैं। राजस्थान के ग्रामीणों की पेड़ के प्रति कर्तव्यनिष्ठा से प्रेरित होकर ‘चिपको आन्दोल’ की शुरुआत हुई थी। यहाँ के परम्परागत पेड़ जैसे खेजड़ी, बोरड़ी, देशी बबूल, कुमटिया, जाल, कैर, फोग तथा रोहिड़ा आदि बीजों के प्राकृतिक प्रसार से स्वतः ही खेतों में उग जाते हैं। किसान इन पेड़-पौधों की पूरी देखभाल करते हैं और हल चलाते समय पूरी सावधानी रखते हैं, ताकि इनकी जड़ें क्षतिग्रस्त ना हों।

पेड़ों के मुख्य लाभ निम्न प्रकार हैं-
1. पेड़ तेज हवा के साथ खेत की उपजाऊ मिट्टी को उड़ने से रोकते हैं।
2. पेड़ों से गिरने वाली पत्तियाँ जमीन को उर्वरकता प्रदान करती हैं।
3. पेड़ की जड़ें पानी के तेज बहाव से होने वाले भूक्षरण को रोकती हैं।
4. पेड़ फसल को गर्म हवा व लू से बचाते हैं।
5. पेड़ की छाया में पशु एवं पक्षी आराम कर पाते हैं।
6. खेजड़ी, केर, फोग एवं बोरड़ी की पत्तियाँ पशुओं के लिये चारे के रूप में काम आती हैं।
7. खेजड़ी से सांगरी, बोरड़ी से बेर और कुमटिया तथा केर जैसे फल एवं सब्जी खाने के काम आते हैं। ग्रामीण लोग अपने उपयोग से ज्यादा फलों एवं सब्जियों को बाजार में बेचकर आयवर्धन भी करते हैं।
8. पेड़ की लकड़ी से ईंधन मिलता है और टहनियाँ व काँटे बाड़ बनाने में उपयोगी रहती हैं।

राजस्थान में मुख्यतः ये पेड़ पाये जाते हैं
खेजड़ी का उपयोग- यह राजस्थान का राज्य वृक्ष है इसे तुलसी भी कहा जाता है। इसकी जड़े नत्रजन देती है। खेजड़ी से पत्ती, लकड़ी व सांगरी प्राप्त होती है। पत्ती पशुओं (विशेषकर ऊँट, बकरी) के चारे के काम में आती है। लकड़ी जलाने व कच्चे मकान की छत बनाने के काम आती है।

बोरड़ी का उपयोग- इससे पत्ती (पाला), लकड़ी, कांटा (पाई) व बेर प्राप्त होते हैं। पत्ती बकरी तथा ऊँट के लिये चारे के काम में आती है। लकडी जलाने तथा कांटे खेत एवं घर के चारों तरफ बाड़ बनाने के काम आती है। बैर खाने के काम में आते हैं।

कैर का उपयोग- कैर की लकड़ी को घर में खाना बनाने के लिये जलाते हैं और गाँव में झोपड़ा बनाने व कच्ची साल/ मकान बनाने के काम आती है। कैरीया से सब्जी व अचार बनाया जाता है।

जाल का उपयोग- जाल की लकड़ी जलाने के काम आती है। उसका फल, जिसे पीलू कहा जाता है। वे खाने में बहुत ही स्वादिष्ट होते हैं। यहाँ के लोग इसे राजस्थान का अंगूर भी कहते हैं, इसकी छाया में जंगली मोर, हिरन, नीलगाय आदि निवास करते हैं।

गुन्दी का उपयोग- यह पेड़ भी जाल जैसा ही होता है। इसकी लकड़ी जलाने के काम आती है। इसकी पत्तियाँ ऊँट तथा बकरी खाते हैं। इससे फल भी प्राप्त होता है, जिसे गुन्दिया नाम से जाना जाता है। इसके फल का उपयोग सब्जी एवं अचार बनाने में किया जाता है।

कुमटिया का उपयोग- इसकी लकड़ी का उपयोग घरेलू मकान बनाने, जलावन एवं खेती के औजार बनाने में किया जाता है। तथा फल (बीज) का उपयोग सब्जी के रूप में एवं पत्तियों तथा फलियों का उपयोग पशुओं के चारे के लिये किया जाता है।

रोहिड़ा का उपयोग- रोहिड़ा राजस्थान का इमारती वृक्ष है इसकी लकड़ी का उपयोग इमारती सामान (पलंग, कुर्सी, सोफासेट, दरवाजे आदि) बनाने में किया जाता है। इसकी लकड़ी पर खुदाई कर आकर्षक फर्नीचर विदेशों में भी निर्यात किये जाते हैं।

फलोद्यान- लोगों का पोषण स्तर सुधारने के लिये घरों में छोटे-छोटे फलोद्यान लगाने को भी प्रोत्साहित किया गया है, जिसमें 20-25 पौधों की देखभाल वे स्वयं कर सकें। इन उद्यानों में ज्यादातर नींबू, अनार, गून्दा, बेर आदि के पौधे लगाए जाते हैं।

फलोद्यान के लिये किसान नर्सरी से फलों के पौधे लाते हैं। फलोद्यान के लिये उपयुक्त स्थान पर डंडियों या झाड़ियों से बाड़ बना दी जाती है, जिसमें बावलडिया/देशी बोरड़ी की झाड़ी बहुत काम आती है। 1 बीघा जमीन में 30 पौधे लगाए जा सकते हैं। तैयार पौधों को 2 फीट x 2 फीट x 2 फीट आकार के गड्ढे खोदकर उसमें खाद आदि मिलाकर बोया जाता है। गर्मी की तेज धूप और सर्दी से पौधों को बचाने के लिये पौधों को झोपा बनाकर उससे ढँक दिया जाता है।

 

 

ओरण एवं गोचर (चारागाह)


ओरण, गोचर को मवेशियों के चरने के लिये बनाया जाता है और यह गाँव की सामूहिक जमीन होती है। गाँव का कोई भी मवेशी गोचर भूमि में चर सकता है। इसका प्रशासनिक अधिकार पंचायत के हाथ में होता है, परन्तु यह जमीन इस काम के अलावा किसी अन्य काम के लिये ना तो किसी को एलॉट की जा सकती है, ना ही बेची जा सकती है और ना ही किसी अन्य काम के लिये इस्तेमाल की जा सकती है। कानूनी तौर पर गोचर में कोई भी व्यक्ति खेती नहीं कर सकता है, क्योंकि यह जनता की सम्पत्ति होती है।

परिस्थिति के अनुसार इसका कुछ अधिकार सरकार को होता है कि वह इस भूमि को जनता के लिये या किसी अन्य काम के लिये इस्तेमाल कर सकती है। यह पूरे वर्ष इस्तेमाल होती है। गोचर में कुछ समय के लिये चराई को बन्द करने के लिये बरसात से पहले गाँव के कुछ वृद्ध मुखिया आपस में मिलकर एक मीटिंग करते हैं ताकि बरसात में गोचर में फिर से घास उग सके।

ओरण एवं गोचर के लिये पंचायत के अधिकारी या मन्दिर के पुजारी नियम बनाते हैं। जिस समय गोचर को बन्द किया जाता है उस समय गोचर पर एक रखवाला रख दिया जाता है, ताकि गोचर में कोई मवेशी आकर चराई न कर सके। परन्तु कुछ गाँवों में रखवाला रखने की बजाय गोचर की सुरक्षा के लिये प्रत्येक घर से प्रतिदिन एक व्यक्ति को नियुक्त कर दिया जाता है, क्योंकि गोचर की सुरक्षा करना गाँव के प्रत्येक आदमी की सामाजिक जिम्मेदारी का काम होता है।

इसलिये गाँव के सभी लोग इसके लिये बैठकर आपस में सलाह करते हैं फिर उसी हिसाब से गोचर पर प्रत्येक दिन हर घर से एक आदमी ओरण गोचर की सुरक्षा के लिये नियुक्त कर दिया जाता है। ओरण गोचर में परम्परागत पौधे एवं घास उगाए जाते हैं ताकि पशुओं को चारा मिल सके। पश्चिमी राजस्थान में सेवण, धामण, भुरट, गंठिया, धमासिया, लोपड़ी, दुधी, गोखरु (धकड़ी) मोथा, बेकर, कंटीली, खीप और सीनिया घास बहुत पाई जाती है।

 

 

 

 

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading