राख और जहरीली गैस से बदरंग होती जिंदगी

17 Oct 2012
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अतीत में यह जगह हवाखोरी के लिए उत्तम मानी जाती थी। यहां कई धनवानों ने अपने बंगले बनवाए थे लेकिन अब पर्यावरण बिगड़ने के चलते यहां की हवा शहर से ज्यादा खराब हो गई है। अंग्रेजों के जमाने के होटल एक-एक कर बंद हो गए। यहां करीब 20 होटल हुआ करते थे। इस संख्या से अंदाजा लगाया जा सकता है कि पर्यटन के लिहाज से यह जगह कितनी मशहूर रही होगी। प्रदूषण के चलते इस इलाके के शाल पत्तों का अरसे से चला आ रहा कारोबार भी चौपट हुआ है। बंगाल के कुछ इलाके ऐसे हैं जहां पेड़-पौधों का रंग हरा नहीं, चटख धूसर है। पत्तियां पीली और मुरझाई-सी हैं। इन पत्तियों पर धूल और राख की गहरी जमी परत है। ऐसे में इलाके में रहने वालों लोगों के फेफड़ों का क्या होता होगा, इसका अंदाजा ही लगाया जा सकता है। बंगाल के जिन औद्योगिक इलाकों में ऐसी फैक्ट्रियां हैं वहां दशकों से धूल, राख, धुआं और बेकार होते फेफड़ों की कहानियां हर घर में देखने-सुनने को मिल जाएंगी। झाड़ग्राम, बांकुड़ा, हुगली, मेदिनीपुर, हावड़ा, बर्दवान, दुर्गापुर में सैकड़ों-हजारों फैक्ट्रियों से निकलने वाले धुएं को लेकर अक्सर चिंता जताई जाती रही है लेकिन समस्याएं जस की तस बनी हुई हैं। नतीजा यह है कि लोगों का गुस्सा अब फूटकर सामने आ रहा है। कुछ अरसा पहले हुगली जिले में सिंगूर की एक केमिकल फैक्ट्री से ‘ब्लैक कार्बन’ गैस लीक होने से स्थानीय गांववालों का गुस्सा भड़क उठा। भारत के कोलतार बनाने वाली सबसे बड़ी इस फैक्ट्री से अक्सर ‘कार्बन ब्लैक गैस’ लीक होने की शिकायत को स्थानीय प्रशासन ही नहीं, प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड भी अनसुना करता रहा था। वैसे तो प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने 2006 में ही यहां जांच की थी और नमूने जमा किए थे।

बोर्ड ने कुछ निर्देश जारी किए थे लेकिन उन्हें अब तक लागू नहीं किया गया है। ऐसे में इस कारखाने की जद में पड़ने वाले महेश टिकारी, हरीपाल जैसे गांवों के लोगों को यहां एक और भोपाल गैस त्रासदी का डर सताने लगा है। इन गांवों में इस केमिकल कारखाने के कचरे से खेती चौपट हो गई है। स्थानीय लोग अक्सर आंखों में जलन और सीने में दर्द की शिकायत करते हैं। सिंगूर की फैक्ट्री का उदाहरण बिल्कुल ताजा है। सिंगूर की केमिलक फैक्ट्री से पहले कोलाघाट और बंडेल में बिजलीघरों की राख का मसला काफी उछल चुका है। राख को सही तरीके से ठिकाने नहीं लगाने के कारण बिजलीघरों के आसपास की दो हजार एकड़ से ज्यादा जमीन बंजर हो गई है। यही हाल बांकुड़ा, पुरुलिया और मेदिनीपुर में स्पॉन्ज आयरन कारखानों के प्रदूषण से हो रहा है। पिछले साल कोलकाता में ऐसे ही कई इलाकों के गांव वालों ने प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के मुख्यालय ‘परिवेश भवन’ का घेराव किया था। 2008 में पर्यावरण विभाग ने प्रदूषण फैलान वाले कारखानों के लिए नए दिशा-निर्देश जारी किए थे लेकिन बंगाल में तीन सौ से ज्यादा कारखानों में से सिर्फ 20 ने अपने यहां प्रदूषण नियंत्रण के उपाय किए, बाकी का काम यूं ही धड़ल्ले से चल रहा है। बंगाल के पर्यावरण सचिव एमएल मीणा का तर्क है कि शिकायतें मिलने पर कार्रवाई होती है। उनका कहना है कि हाल के दिनों में कई स्पॉन्ज आयरन और केमिकल फैक्ट्रियों को बंद कराया गया है लेकिन ऐसे कारखानों के करीब स्थित गांवों की कहानियां सरकारी दावे को गलत ठहराती हैं।

स्पॉन्ज आयरन इकाइयों को लेकर समस्या ज्यादा गंभीर है। कोलकाता के दक्षिण-पश्चिम में 170 किलोमीटर दूर राष्ट्रीय राजमार्ग-6 के दोनों ओर फैली 62 फैक्ट्रियां, बर्दवान में 34, पुरुलिया में 13, बांकुड़ा में 10, पश्चिम मेदिनीपुर में चार और कोलकाता से सटे दक्षिण-24 परगना में एक फैक्ट्री है जिसने लोगों का जीना दूभर कर दिया है। मिदनापुर के झाड़ग्राम और पुरुलिया में तो कुछ ही साल से ये फैक्ट्रियां अस्तित्व में आई हैं। इन इकाइयों को प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने लाल निशान की श्रेणी में रखा है। मेदिनीपुर के गाजाशिमूल में एक दशक पहले स्पॉन्ज आयरन की पहली फैक्ट्री लगाई गई थी। उसके बाद जीतूशाल और मोहनपुर में कारखाने खुले। स्थानीय ग्रामीणों को नौकरी देख रही थी। लिहाजा, न तो किसी ने पर्यावरण प्रदूषण का सवाल उठाया और न ही स्वास्थ्य का। एक दूसरे से कुछ ही किलोमीटर की दूरी पर स्थित ये कारखाने कुल आठ सौ टन प्रतिदिन की उत्पादन क्षमता रखते हैं। 1200 टन कोयला और 40 लाख किलोलीटर पानी का इस्तेमाल करते हैं। उसके बाद हवा और पानी में जो कचरा छोड़ा जाता है उसकी कल्पना भर की जा सकती है।

क्रशर से निकली धूल से बदतर होती जिंदगीक्रशर से निकली धूल से बदतर होती जिंदगीकरीब के बागमारी गांव के दुलाल मुड़ी और उनकी पत्नी सावित्री को चिंता है कि इन कारखानों के चलते इलाके में फसल मारी जा रही है। ‘लाल स्वर्ण’ किस्म का धान इस इलाके की पहचान था। अब धान की फसल कालिमा लिए होती है। स्थानीय ग्रामीण इस फसल को अब ‘काली स्वर्ण’ कहने लगे हैं। सावित्री के अनुसार, ‘स्थानीय चावल मिलों में यह धान कूटने से लोग मना कर देते हैं। पालतू पशु असमय मरने लगे हैं।’ अंजना महतो की आठ गायों और पांच बकरियों ने पिछले दो महीनों में समय से पहले बच्चा जना। उनमें से दो ही बच पाए। बाकी मरे पैदा हुए। पशु चिकित्सकों के अनुसार, ‘धूल और कचरा जमे पत्ते और घास खाने के चलते पालतू पशुओं के रक्त में कार्बन बढ़ रहा है।’ पालतू पशु ही नहीं, स्थानीय लोग भी बीमार हो रहे हैं। गाजाशिमूल के प्राइमरी हेल्थ सेंटर के डॉक्टर गौरीशंकर आदक के अनुसार, ‘बच्चों के फेफड़ों में भी कार्बन जम रहा है।’

अतीत में यह जगह हवाखोरी के लिए उत्तम मानी जाती थी। यहां कई धनवानों ने अपने बंगले बनवाए थे लेकिन अब पर्यावरण बिगड़ने के चलते यहां की हवा शहर से ज्यादा खराब हो गई है। अंग्रेजों के जमाने के होटल एक-एक कर बंद हो गए। यहां करीब 20 होटल हुआ करते थे। इस संख्या से अंदाजा लगाया जा सकता है कि पर्यटन के लिहाज से यह जगह कितनी मशहूर रही होगी। प्रदूषण के चलते इस इलाके के शाल पत्तों का अरसे से चला आ रहा कारोबार भी चौपट हुआ है। यहां के एक कारोबारी बैकुंठ महतो के अनुसार ‘यहां से कोलकाता के न्यू मार्केट में प्रति सप्ताह शाल पत्तों के दो ट्रक भेजे जाते थे। अब 15 दिन पर एक ट्रक निकलता है। पास के लोधाशुली में शाल के पत्तों का रोज का 20-25 ट्रकों का कारोबार दो-तीन ट्रकों तक सिमट आया है।’ प्रदूषण फैलाते कारखानों से लोगों को हो रही परेशानीयों का ओर-छोर नहीं है। इन समस्याओं को लेकर सक्रिय स्वयंसेवी संगठनों के पास खतरे की घंटी बजाते आंकड़ों का अंबार है। सरकारी एजेंसियों के पास कागजों पर प्रदूषण नियंत्रण और लोगों के स्वास्थ्य की देखभाल को लेकर लंबी-चौड़ी योजनाएं हैं लेकिन जमीनी हकीकत यही है कि पौधों की चटख हरी पत्तियां धूसर हो रही हैं। आसमान का नीला रंग बदरंग हो रहा है। फेफड़ों में धूल समा रही है और फेक्ट्रियों को घरघराती मशीनें से चंद लोग चांदी काट रहे हैं।

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