राष्ट्रीय जल नीति-2012 प्रारूप और आंकलन

प्रारूप और आंकलन


राष्ट्रीय जल नीति-2012 एक संशोधित-परिवर्धित प्रारूप प्रतीत होती है। इस अर्थ में कि इसमें नौकरशाही और राजनीतिक प्रतिष्ठान के ‘परियोजना उन्मुखता’ में बुनियादी बदलाव लाते हुए ‘संसाधन उन्मुख’ दृष्टिकोण की प्राथमिकता दी गई है। जल राज्य के भौगोलिक क्षेत्र से वास्ता रखने के कारण उसकी परिसंपत्ति माना जाता था। नई नीति में इसे ‘प्राकृतिक संसाधन’ के रूप में परिभाषित किया गया है।

प्राकृतिक संसाधन
• पनबिजली चक्र
• नदियों की पारिस्थितिक जरूरतें
• जलवायु में बदलाव
• स्रोतों में प्रदूषण


कह सकते हैं कि जल नीति में जिस तरह व्यापक मुद्दों को छुआ गया है, वह किसी को भी आश्वस्त करने के लिए काफी है। लेकिन यह दस्तावेज कुछ मामले में सच नहीं बोलता।

नियमन की जहां तक बात है तो यह राज्य की बुनियादी ताकत है। प्रारूप कहता है कि उसकी इस सत्ता में साझेदार राज्य स्तरीय नियामक प्राधिकरण तो है लेकिन स्थानीय सरकारें नहीं। इसलिए कहा जा सकता है कि राष्ट्रीय जल नीति 2012 के मसौदे को चमकती नई बोतल में पुरानी शराब कहा जा सकता है। इसमें प्रयोग किए गए सभी नए शब्द मोहक किंतु ठगी से भरे और भ्रामक मायने देते हैं। सरकार की साझेदार अब निजी क्षेत्र हैं। देश में जल संसाधन के प्रबंधन मे सरकार ने जनता के साथ अपने संबंधों को फिर से ताजा नहीं किया है जबकि जलवायु परिवर्तन और आसन्न प्राकृतिक आपदा सिर पर खड़ी है।

इसमें से कुछ अहम बिंदु अब भी गायब हैं। मसलन, वह मानसून जिससे हम जल को या तो वर्षा के रूप में प्राप्त करते हैं या बर्फ के रूप में, उसका राष्ट्रीय जल नीति के रूप में उल्लेख नहीं है। इसका सिर्फ एक जगह उल्लेख मिलता है- मांग प्रबंधन और जल उपयोग की क्षमता के अंतर्गत। राष्ट्रीय जल नीति के प्रारूप में मानसून के बारे में विस्तार से विचार होना चाहिए था। इसलिए कि अपने देश में बरसात साल में तीन से चार महीने ही होती है और उसके जल-जमाव का परिमाण स्थान और समय के मुताबिक परिवर्तित होता है; जैसे राजस्थान के पश्चिमी भाग में 100 मि.मी तो मेघालय के चेरापूंजी में 1000 मि.मी. तक ही वर्षा होती है।’ मौजूदा प्रारूप की प्रस्तावना में ‘स्थान और समय के मुताबिक वर्षा के पानी असमान वितरण’ के वक्तव्य में इसी विचार को व्यक्त किया गया है। लेकिन 2002 और 2012 के प्रारूप में भारत के मानसून के पूरे स्वभाव की तार्किक परिणति और संबद्धता को जानबूझकर नहीं रखा गया है। यूरोपीय देशों की भांति भारत में पूरे साल वर्षा नहीं होती। मानसून पर टिकी बरसात की पद्धति की मुख्य विशेषता यह है कि अधिकतर देशों में साल में 100 घंटे से ज्यादा वर्षा नहीं होती। इनमें से आधा जल केवल 20 घंटों की बरसात में प्राप्त हो जाता है। चूंकि भारत में बर्फबारी के रूप में बहुत कम जल मिलता है, इसलिए बरसात जब और जहां होती है, वहां जीवन सहायक सभी प्रणालियों और गतिविधियों को जारी रखना मुश्किल हो जाती है। हालांकि मानसून बरसात की अल्पावधि को देखते हुए उसके जल संग्रहण का काम अकेले सरकार के वश का नहीं है। अत: उसकी जवाबदेहियों का विकेंद्रण कर समाज को इसमें सहभागी बनाने की जरूरत है।

राष्ट्रीय जल नीति-2012 में इस वर्षा के जल संग्रहण पर भी कोई वक्तव्य नहीं है जबकि यह भारत की पहली प्राथमिकता और जल संसाधन प्रबंधन का प्रारंभिक बिंदु होना चाहिए। दरअसल, यह राजनीतिक अर्थव्यवस्था का मामला है-इस जल का मालिक कौन है? इस जल पर किसका प्रभुत्व है? इसका प्रबंधन (संग्रहण, संरक्षण, वितरण और रख-रखाव) कौन करता है? अगर किसी क्षेत्र की पूरी आबादी वर्षाजल संग्रहण (इसमें आवश्यक रूप से भूमि प्रबंधन भी शामिल होगा) के काम लगी है तब तो स्वाभाविक है कि उस जमा जल पर उनका साझा स्वामित्व, नियंत्रण और प्रबंधन होगा। प्रारूप में महत्वपूर्ण हस्तक्षेप के सिद्धांत को ‘सार्वजनिक न्यास (ट्रस्ट)’ से बदला गया है; लेकिन इस न्यास पर अभी तक राज्य का ही दखल है। प्रारूप के खंड-सात में कहा गया है कि राज्य ही उप जल संग्रहण, नदी जल संग्रहण और राज्य स्तर के जल संग्रहण से ‘लाभान्वितों’ के आधार पर उसकी कीमत तय करेगा। जब वर्षा जल के संग्रहण, उसके उपयोग और व्यवस्था में पूरी आबादी संलग्न है तो जल की दरें तय करने के राज्यों के हक का सवाल कहां से आता है? और इन तमाम कामों में नागरिकों की भागीदारी को देखते हुए वे अब केवल ‘लाभान्वित’ नहीं रहे बल्कि समान हिस्सेदार हो गए।

जल नीति के पूरे प्रारूप में स्थानीय स्व प्रशासनिक संस्थाओं का केवल दो जगह जिक्र किया गया है-

• खंड-तीन,जल के उपयोग का खंड 3.1 कहता है कि केंद्र, राज्य और स्थानीय निकाय (प्रशासनिक संस्थाएं) अपने सभी नागरिकों के घर-बार की पहुंच वाले दायरे में अपरिहार्य स्वास्थ्य और सफाई के लिए न्यूनतम जल मुहैया कराएं।

• खंड 09.04 योजना और परियोजना क्रियान्वयन। पंचायत, नगरपालिका, कार्पोरेशन जैसे स्थानीय प्रशासनिक निकायों तथा जल उपयोगकर्ता संघ परियोजना की योजना और क्रियान्वयन में संलग्न होंगे।

हालांकि महत्त्वपूर्ण खंड 13 में ‘सांस्थानिक व्यवस्था’ में स्थानीय सरकारों का उल्लेख नहीं किया गया है। स्थानीय निकाय ‘परियोजनाओं’ से जुड़े हो सकते हैं लेकिन जल को बिना ‘संसाधन’ माने हुए। शहरी और ग्रामीण स्थानीय प्रशासनिक संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा प्राप्त हैं लेकिन उन्हें कोई अधिकार (जबकि अमेरिका और ब्रिटेन में ऐसी संस्थाओं को पुलिस और भूमि क्षेत्र संबंधी अधिकार दिए गए हैं) नहीं दिया गया है। इस खंड में जल उपयोगकर्ता संघ का उल्लेख तो किया गया है लेकिन निर्वाचित स्थानीय निकायों का जिक्र तक नहीं है। इन निकायों को जल के निश्चित मात्रा पर शुल्क लगाने, उन्हें आवंटित जल के परिमाण का प्रबंध करने और अपने मातहत इलाके में जल वितरण प्रणाली का रख-रखाव करने के लिए ‘जल ‘संग्रहण और संरक्षण’ (लेकिन लेवी लगाने के नहीं) वैधानिक अधिकार तो दिए गए हैं।

स्पष्ट है कि जल की दरें तय करने का पूरा हक राज्य अपने जिम्मे रखना चाहता है और इसमें स्थानीय प्रशासन की दखल नहीं चाहता। नियमन की जहां तक बात है तो यह राज्य की बुनियादी ताकत है। प्रारूप कहता है कि उसकी इस सत्ता में साझेदार राज्य स्तरीय नियामक प्राधिकरण तो है लेकिन स्थानीय सरकारें नहीं। अब राज्य नियामक मुट्ठी भर निजी संचालकों और कुछ नागरिकों का नियमन तो कर सकता है लेकिन बिना स्थानीय प्रशासन को इस काम में जोते बिना उत्तर प्रदेश जैसे सूबे की 19 करोड़ की आबादी अथवा राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली की 16.7 करोड़ और यहां तक कि सिक्किम की 607,688 आबादी को कैसे संभाल सकता है? वह भी भारत जैसे देश में जल से जुड़े बहुआयामी, जटिल समस्याओं और मसलों का हल कैसे निकाल सकता है? इसलिए कहा जा सकता है कि राष्ट्रीय जल नीति 2012 के मसौदे को चमकती नई बोतल में पुरानी शराब कहा जा सकता है। इसमें प्रयोग किए गए सभी नए शब्द मोहक किंतु ठगी से भरे और भ्रामक मायने देते हैं। सरकार की साझेदार अब निजी क्षेत्र हैं। देश में जल संसाधन के प्रबंधन मे सरकार ने जनता के साथ अपने संबंधों को फिर से ताजा नहीं किया है जबकि जलवायु परिवर्तन और आसन्न प्राकृतिक आपदा सिर पर खड़ी है।

इनके प्रति हमारी सकारात्मक प्रतिक्रियाएं होनी चाहिए-


• पर्यावरणीय सातत्यता
• जल सुरक्षा
• टिकाऊ विकास
• जल संग्रहण की वैज्ञानिक योजना
• पवित्र और अंत: अनुशासनिक तरीका
• एकीकृत और पर्यावरणीय स्वरों का आधार
• जल पथ-चिह्न
• जीने का अधिकार
• आजीविका
• समेकित राष्ट्रीय परिदृश्य
• जन विश्वास
• भूमिगत जल-एक सामुदायिक स्रोत
• भागीदारों के साथ बातचीत
• समानता और सामाजिक न्याय
• बेहतर प्रशासन
• साफ और सुरक्षित पेयजल तथा सफाई
• पानी की कीमतें तय करना
• जलवायु में बदलाव को न्यूनतम स्तर पर लाना
• खेत,भूमि-जल प्रबंधन में हिस्सेदारों की भागीदारी
• खेती की विभिन्न पद्धतियों को काम में लाना
• भू-क्षरण को रोकना और उसकी उर्वरा शक्ति को बढ़ाना
• ऊपरी और नीचली धारा वाले क्षेत्रों के बीच साझा लागत प्रणाली विकसित करना
• बरसात के पानी को सीधे उपयोग में लाना और असावधानीवश हुए वाष्प-उत्सर्जन को टालना
• जल स्वच्छ-शुद्ध करने की समुदाय आधारित प्रबंधन
• जलभंडारण का विकास
• मांग प्रबंधन
• जल का अंकेक्षण
• पानी का पुनर्चक्रीय और पुनर्पयोग
• पानी उपयोगकर्ताओं का संघ बनाना
• जल नियामक प्राधिकरण
• बांध के सुरक्षा के उपाय
• बाढ़ आने की पूर्व सूचना देना
• शहरी और ग्रामीण जल आपूर्ति और सीवेज
• पुनर्स्थापन और पुनर्वास।

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