राष्ट्रीय झील को बचाने के लिये अन्तरराष्ट्रीय मुहिम


सन 1920 में शहर को विकसित व व्यवस्थित करने के लिये 20 वर्षीय योजना शुरू की गई और इसी के तहत सन 1920 में जंगलों से भरी 192 एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया गया। अधिग्रहण का उद्देश्य क्षेत्र को रिहाइशी इलाके में तब्दील करना था। 192 एकड़ में से 73 एकड़ भूखण्ड में झील के निर्माण की योजना बनाई गई। झील के लिये खुदाई से निकली मिट्टी से आसपास के क्षेत्रों को भरा गया और इस तरह झील बनकर तैयार हो गई। उस वक्त इसे ढाकुरिया लेक कहा जाता था। वर्ष 1958 में रवींद्र नाथ टैगोर को श्रद्धांजलि देते हुए इसे रवींद्र सरोवर नाम दिया गया। दक्षिण कोलकाता (पश्चिम बंगाल) में करीब 73 एकड़ में फैली एक राष्ट्रीय झील को बचाने के लिये पर्यावरणविदों व झील प्रेमियों ने अन्तरराष्ट्रीय मुहिम शुरू कर दी है।

झील के आसपास कंक्रीट के जंगल बोये जाने के खिलाफ पर्यावरण विशेषज्ञों ने चेंज डॉट ओआरजी पर याचिका दी है और इसे बचाने की गुहार लगाई है। देश-विदेश के लोगों ने इस मुहिम से खुद को जोड़ते हुए झील को बचाने की माँग की है।

याचिका देने वाले संगठन लेक लवर्स फोरम से जुड़े पर्यावरण विशेषज्ञ सौमेंद्र मोहन घोष कहते हैं, ‘24 जून को हमने इस प्लेटफॉर्म पर याचिका दायर की थी और अब तक देश-विदेश के 1 हजार से अधिक लोगों ने इस पर हस्ताक्षर कर दिये हैं। इससे जाहिर होता है कि वे झील को लेकर कितने चिन्तित हैं। चेंज डॉट ओआरजी के अलावा हम फेसबुक पर भी मुहिम चला रहे हैं, ताकि सरकार पर चौतरफा दबाव बनाया जा सके।’

इस ऑनलाइन अभियान का असर भी दिखने लगा है। घोष ने कहा कि चेंज डॉट ओरजी की तरफ से उक्त याचिका को केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय, राज्य के पर्यावरण विभाग व कोलकाता मेट्रोपोलिटन डेवलपमेंट अथॉरिटी के पास भेजा गया है।

रवींद्र सरोवर झीलकहा जाता है कि कोलकाता शहर को व्यवस्थित करने के लिये वर्ष 1912 में कलकत्ता (संप्रति कोलकाता) इम्प्रूवमेंट ट्रस्ट (केआईटी) का गठन किया गया था। इस ट्रस्ट ने शहर को विकसित व व्यवस्थित करने के लिये 20 वर्षीय योजना शुरू की और इसी के तहत सन 1920 में जंगलों से भरी 192 एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया गया। अधिग्रहण का उद्देश्य क्षेत्र को रिहाइशी इलाके में तब्दील करना था। 192 एकड़ में से 73 एकड़ भूखण्ड में झील के निर्माण की योजना बनाई गई। झील के लिये खुदाई से निकली मिट्टी से आसपास के क्षेत्रों को भरा गया और इस तरह झील बनकर तैयार हो गई। उस वक्त इसे ढाकुरिया लेक कहा जाता था। वर्ष 1958 में रवींद्र नाथ टैगोर को श्रद्धांजलि देते हुए इसे रवींद्र सरोवर नाम दिया गया।

यहाँ जाड़े के मौसम में प्रवासी पक्षियों का जमावड़ा लगता है। इस झील में जलीय जीवों की कई प्रजातियाँ पाई जाती हैं।

वर्ष 2002 में रवींद्र सरोवर को राष्ट्रीय झील का दर्जा मिला। सौमेंद्र मोहन घोष ने कहा, ‘झील के अस्तित्व पर खतरा बहुत पहले से ही मँडरा रहा था, लेकिन जब इसे राष्ट्रीय झील का दर्जा मिला, तो विकास के लिये फंड आना शुरू हुआ और अधिकारियों की अदूरदर्शिता के कारण झील की जैवविविधता को नुकसान पहुँचाने वाले काम किये गए।’

बताया जाता है कि केन्द्रीय पर्यावरण व वन मंत्रालय के नेशनल लेक कंजर्वेशन प्लान के तहत मिले फंड से वर्ष 2014 में केआईटी ने बड़े पैमाने पर यहाँ सुन्दरीकरण का काम शुरू किया जिसके तहत झील के किनारे को भी कंक्रीटाइज किया जाने लगा। इससे न सिर्फ झील के रिचार्ज का रास्ता अवरुद्ध हुआ, बल्कि जैवविविधता पर भी खतरा मँडराने लगा। पर्यावरणविदों का आरोप है कि कई बार शिकायत किये जाने के बावजूद कंक्रीटाइज करने का काम बदस्तूर जारी रहा। यही नहीं, लेक परिसर में बफर जोन के भीतर एक बड़े हिस्से की हरियाली को खत्म कार पार्किंग जोन बनाने का भी नुकसानदेह फैसला कर लिया गया।

झील के किनारे पौधारोपण करते लेक लवर्स फोरम के कार्यकर्तायहाँ यह भी बता दें कि लेक परिसर में कई प्रख्यात क्लब भी स्थित हैं। इनसे निकलने वाला गन्दा पानी सीधे झील में गिरता है, जिससे भी झील की सेहत पर बेहद बुरा असर पड़ा है।

वर्ष 2011 में पश्चिम बंगाल प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने क्लबों द्वारा लेक को गन्दा किये जाने का मामला उठाया था, लेकिन आरोप है कि क्लबों ने इसको लेकर किसी तरह की गम्भीरता नहीं दिखाई लिहाजा झील गन्दा होता चला गया।

सरकारी उदासीनता से तंग आकर वर्ष 2013 में कलकत्ता हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की गई। इसमें कोलकाता म्युनिसिपल कॉरपोरेशन, केआईटी व रवींद्र सरोवर के परिसर में स्थित क्लबों को पार्टी बनाया गया।

जनहित याचिका दायर करने वाली पर्यावरणविद सुमिता बनर्जी कहती हैं, ‘रवींद्र सरोवर बेहद दयनीय स्थिति में है। अव्वल तो 1920 में इसके निर्माण के बाद से अब तक इसकी ड्रेजिंग नहीं की गई और उल्टे हर तरह की गन्दगी इसमें फेंकी जा रही है, जिससे इसकी गहराई घट गई है। थोड़ी बारिश होने पर सरोवर से पानी बाहर आने लगता है। सरोवर में गन्दगी फेंके जाने से इसमें ऑक्सीजन की मात्रा भी कम हो गई है, जिससे जलीय जन्तुओं के अस्तित्व पर खतरा मँडराने लगा है।’ उन्होंने कहा कि हाईकोर्ट ने लेक में नहाने व कपड़े धोने पर पाबन्दी लगाई थी, लेकिन केआईटी की लापरवाही के कारण यह सब अब भी जारी है। पर्यावरण विभाग का निर्देश है कि लेक के 50 मीटर के दायरे में कंक्रीट का कोई भी काम नहीं होना चाहिए, लेकिन इस निर्देश की भी अनदेखी की गई।’

झील के आस-पास सफाई करते लेक लवर्स फोरम के कार्यकर्तालेक को लेकर दायर जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए कलकत्ता हाईकोर्ट ने तीन साल पहले 6 सदस्यीय कमेटी बनाई थी जिसका काम था नियमित बैठक कर लेक व उसके आसपास के क्षेत्र को संरक्षित और सुरक्षित रखना।

बताया जाता है कि तीन सालों में इस कमेटी की महज तीन बैठकें ही हो पाईं, लेकिन इन बैठकों में सरोवर को सँवारने पर कोई ठोस फैसला नहीं लिया गया। सुमिता बनर्जी ने कहा कि कमेटी तो बन गई, लेकिन यह प्रभावी तरीके से काम नहीं कर रही है। कमेटी से जुड़े कई सदस्यों का आरोप है कि केआईटी के सीईओ को इस कमेटी का चेयरमैन बनाया गया है और इसी वजह से यह स्वतंत्र रूप से काम नहीं कर पा रही है।

उन्होंने कहा कि सम्बन्धित विभाग को चाहिए कि वह झील को बचाने के लिये गम्भीरता से काम करे।

इधर, कलकत्ता हाईकोर्ट ने जनहित याचिका को राष्ट्रीय हरित पंचाट (नेशनल ग्रीन ट्रिब्युनल) में ट्रांसफर कर दिया है। आगामी 26 जुलाई को ग्रीन ट्रिब्युनल इस मामले की सुनवाई करेगा।

सौमेंद्र मोहन घोष ने कहा, ‘कोर्ट के फैसले के आधार पर हम अपनी अगली रणनीति बनाएँगे, लेकिन हमारा ऑनलाइन अभियान जारी रहेगा।’

73 एकड़ झील को खत्म करने की तैयारीउल्लेखनीय है कि पश्चिम बंगाल और खासकर कोलकाता जलाशयों व झीलों के लिये मशहूर है। यहाँ के कई जलाशय सैकड़ों साल पुराने हैं। जलाशयों पर कई किताबें लिखने वाले पर्यावरणविद मोहित राय के अनुसार, ढाई से तीन दशक पहले तक कोलकाता में 8 हजार से अधिक जलाशय थे, जिनकी संख्या अभी घटकर 5 हजार पर आ गई है।

इन जलाशयों से कोलकाता के 10 लाख लोगों की पानी की जरूरतें पूरी होती हैं। इसके साथ ही यह पर्यावरण के प्रदूषण को भी कम करने में मददगार है।

इंटरनेशनल रिसर्च जर्नल ‘करेंट वर्ल्ड एनवायरनमेंट’ में छपे एक शोध के अनुसार तालाब व जलाशय जल संरक्षण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

झील के किनारे हुआ निर्माण कार्यशोध में कहा गया है कि जलाशयों में कार्बन को सोखने की अकूत क्षमता होती है। 500 वर्ग मीटर का तालाब एक साल में 1 हजार किलोग्राम कार्बन सोख सकता है। जलाशय सतही पानी से नाइट्रोजन जैसी गन्दगी निकालने में भी मदद करता है। यही नहीं, यह तापमान को भी नियंत्रित रखता है।

राय का कहना है कि जलाशयों के बहुआयामी फायदे हैं और इन्हें हर हाल में संरक्षित करने की जरूरत है, वरना आने वाली पीढ़ी को इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी।

रवींद्र सरोवर झील के किनारे बना पार्क

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