रेगिस्तानी स्थलाकृतियां

15 Sep 2011
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‘‘रेगिस्तान के संदर्भ में आम धारणा यह नहीं है कि वहां बजरी बिछी हुई है अथवा तेज हवाओं ने पर्वतों को तराशा है, अपितु यह है कि वहां रेत के अंतहीन टीले हैं।’’- डेविड एटिनब्रो, इन दि लिविंग प्लानेट (1984)

स्थलाकृति को परिभाषित करने के लिए हम कह सकते हैं कि - प्राकृतिक रूप में पृथ्वी की सतह, चाहे वह समतल हो या पहाड़ी, उसमें तलछट और भू-क्षरण या उथल-पुथल के फलस्वरूप होने वाले बदलाव को स्थलाकृति (लैंडस्केप) कहा जाता है। रेगिस्तान में अनेक प्रकार की स्थलाकृतियां पाई जाती है।

रेगिस्तान में मुख्य स्थलाकृति निम्नांकित प्रकार की हैं:


• नदी के जलप्रवाह से उत्पन्न स्स्थलाकृति,
• रेत के विशाल सागर,
• चिकनी मिट्टी के मैदान,
• पथरीले फर्श या कुट्टिम (पेवमेंट),
• झील के उथले तल तथा
• अन्य समतल सतह।

रेगिस्तान की स्थलाकृतियां सामान्यतः वायु के प्रचंड प्रवाह के फलस्वरूप निर्मित होती है। रेगिस्तान की भूमि में चट्टानी सतह को ‘रेग्स’ कहते हैं। रेतीले टीलों (टिब्बा) को ‘अर्ग’ भी कहते रेतीले टीलेरेतीले टीलेहैं और यह पथरीली अथवा शैली मरुभूमि सतह में कम ही देखने को मिलती है। रेगिस्तान की सतह से जब तक कठोर चट्टानें उभर न आएं तब तक मृदा अपरदित होती रहती है। रेगिस्तान में अधिकतर भूमि पथरीली होती है जहां मिट्टी तथा वनस्पति बहुत ही कम होती है।

किसी भी रेगिस्तान में तेज बहती हवाएं वहां की स्थलाकृति में परिवर्तन लाने में सक्षम होती हैं। रेगिस्तान में सूखी मिट्टी और तेज हवाओं के प्रभाव से मिट्टी के कण बहुत दूर-दूर तक छितर जाते हैं। यहां न केवल हवा के कारण बल्कि सतही पदार्थों की कमजोर पकड़ के कारण भी स्थलाकृति बदलती रहती हैं। तेज हवाओं के कारण जैविक पदार्थ और चिकनी मिट्टी का कम घनी और शिथिल मिट्टी से कणों के रूप में क्षय होता है। प्रायः सूक्ष्म कण हवा में विसरित हो लंबी दूरियों तक बिखर जाते हैं। कुछ बड़े कण सतह पर ही रह सकते हैं। फिर भी यह कण धरती की सतह पर लुढ़कते रहते हैं। रेगिस्तान में हवाओं से 40 से.मी. गहराई तक की रेत के कण हवा के प्रवाह से स्थान परिवर्तन कर लेते हैं, यह प्रक्रिया वल्गन (साल्टेशन) कहलाती है। इस क्रिया के अनुसार रेत के कण उछल-उछल कर गतिशील होते रहते हैं। वल्गन की क्रिया रेतीले टीलों के उस ओर होती है जहां बालू हवा में ऊपर उठती है। ये कण पुनः नीचे गिर रेत से टकरा कर वापिस ऊपर उछलते है। वल्गन में बालू के कण एक-दूसरे से टकरा कर लगातार उछलते रहते हैं। यह कण बड़े कणों से भी टकरा सकते हैं और बहुत तेज उछलते हैं, किन्तु फिर वल्गन कणों के कारण इनकी गति मंद विसर्पित हो जाती है। रेगिस्तान में कणों की हलचल में सतही सर्पण की लगभग एक चैथाई भागीदारी होती है। रेत के कणों की गति सीमा वायु की गति और रेत के कणों के आकार पर निर्भर करती है।

रेतीले टीले


रेगिस्तान में आकर्षक दिखने वाले रेत के टीले या टिब्बे (ड्यून) एक जटिल प्रक्रिया का परिणाम होते हैं। यह रेत से बनी पहाड़ी के सदृश्य होते हैं जो हवाओं से उत्पन्न बल से निर्मित होते हैं। मध्यकालीन युग की जर्मन या नार्वे भाषा के ‘ड्यून’ शब्द से आए टिब्बा शब्द का अर्थ ‘पहाड़’ होता है। अनेक रेतीले टीलों वाले क्षेत्र को रेतीले टीलों की भूमि या ‘टिब्बा भूमि’ कहते हैं। टीलों के बीच की घाटी या गर्त को ‘स्लैक’ कहते हैं। रेतीले टीलों का अनुवात हिस्सा अर्थात प्रतिपवन ढाल जिसे प्रायः खड़ी ढाल से जाना जाता है, सर्पण पार्श्व (स्लिप फेस) को इंगित करता है। रेतीले टीले एक से अधिक सर्पण पार्श्व रखते हैं। सर्पण पार्श्व की न्यूनतम ऊंचाई लगभग 30 सेंटीमीटर होती है।

रेतीले टीलों का निर्माण एक जटिल परिघटना हैरेतीले टीलों का निर्माण एक जटिल परिघटना हैएक अनुमान के अनुसार संसार के समस्त रेगिस्तान की भूमि का 15 से 20 प्रतिशत भाग रेत के टीलों से युक्त होता है। लेकिन कुछ रेगिस्तान जैसे अरब रेगिस्तान में इन टीलों का प्रतिशत कुछ अधिक है। यह रेतीले टीले एक विशाल क्षेत्र की स्थापना करते हैं। जिसे ‘रेत का समुद्र’ कहा जाता है। संसार का सबसे बड़ा रेतीला समुद्र ‘रब आल खाली’ अरब के रेगिस्तान में स्थित है। यह करीब 56,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में फैला है। सहारा रेगिस्तान में बहुत अधिक संख्या में रेतीले सागर हैं। इनके निर्माण में हजारों वर्षों का समय लग जाता है। रेतील टीले रेतीले सागर के पूरे क्षेत्रफल में नहीं फैले हैं। रेतीले टीले रेतीले सागर का कम ही क्षेत्रफल घेरते हैं जो बालू के तरंगित मैदानों या रेतीली पट्टियों के रूप में होते हैं।

रेतीले टीलों का निर्माण


बालू के टीलों का निर्माण एक जटिल परिघटना है जिसे अभी तक पूर्ण रूप से समझा नहीं गया है। रेतीले टीलों का निर्माण मुख्यतः निम्नांकित तीन कारकों की क्रियाओं के कारण होता है:

• रेत की वृहद आपूर्ति
• इनकी हलचल के लिए उपयुक्त वायु वेग, और
• संग्रहण के लिए उचित स्थान

सामान्यतया इस बात पर सहमति है कि जहां हवा अपनी ऊर्जा मुक्त कर निलंबित बालू को गिराती है वहीं बालू के टीले बनते हैं। इस घटना से बालू के टीले वायु प्रवाह में व्यवधान डालते हैं। इस प्रकार से एक निश्चित मानक पर बालू के समान ऊंचाई के टीले बनते हैं। क्योंकि यह शिथिल बालू कणों से बने होते हैं इसलिए यह बहुत भंगुर, चलायमान एवं अपरदन और अवनति के प्रति बहुत ही संवेदी होते हैं।

रेतीले टीले बनने की सबसे सरल प्रक्रिया के अंतर्गत तेज हवाओं के कारण उड़ती हुई रेत वायु के प्रवाह की दिशा मं फैलती हुई किसी चट्टान, छोटी पहाड़ी अथवा झाड़ी में इकट्ठी होनी आरम्भ हो जाती है। मौरीटेनियां में ‘मेलीचिगडयून’ इसी प्रक्रिया द्वारा निर्मित है, जिसका विस्तार 100 कि.मी. तक के क्षेत्र में हुआ है। रेतीले टीलों का निर्माण हवा के प्रचंड वेग द्वारा जमा अवसाद से भी होता है।

रेतीले टीलों में गति


बालू के टीले हवा की अन्योन्यक्रिया द्वारा अपना आकार और स्थान बदलते रहते हैं। हवा के द्वारा ऊपर उठी बालू, मंद विसर्पण या वल्गन द्वारा टीले के एक ओर गति करती है। रेत का एक सर्पण पार्श्व के शीर्ष या किनारे पर लगता है। जब किनारों पर बालू का ढेर घर्षण कोण से अधिक हो जाता है तब सर्पण पार्श्व से कणों का अवधान होता है। रेतीले टीलों में कण अनुवात में गति करते हैं।

विभिन्न प्रकार के रेतीले टीले


रेतीले टीले 5 आकार के होते हैं: नवचंद्राकार, सामानांतर, तारक, गुम्बदाकर तथा परवलयाकार। यह विभिन्न प्रकार के रेतीले टीले, हवाओं के बदलते हुए वार्षिक चक्र तथा रेत की आपूर्ति पर निर्भर करते हैं। यह विभिन्न प्रकार के रेतीले टीले एक मीटर छोटी कटकों (त्पकहमे) से लेकर 300 मीटर ऊंचे आकार के हो सकते हैं।

नवचंद्राकार रेतीले टीले


नवचंद्राकार रेत के टीले को या बालचंद्रकार रेतीला टीला भी (क्रेसेंटिक ड्यून) कहते हैं। यह रेतीले टीले हवा के एक दिशा में बहाव से बनते हैं। इनको अनुप्रस्थ रेतीला टीला और चापाकार (बारकान) रेतीला टीला भी कहा जाता है। सामान्यतया नवचंद्राकार रेतीले टीले की चैड़ाई लम्बाई से अधिक होती है। कुछ प्रकार के नवचंद्राकार रेतीले टीले रेगिस्तान सतह पर अन्य रेतीले टीलों की अपेक्षा तेजी से गतिशील रहते हैं। चीन के ताकला माकन रेगिस्तान में विशाल नवचंद्राकार रेतीले टीले देखने में आते हैं, जिनकी चोटी से चोटी तक की चैड़ाई 3 कि.मी. से अधिक होती है।

समानांतर रेतीले टीले


सीधा अथवा हलका सा घुमावदार रेतीले टीले को समानांतर टिब्बा कहते हैं। यह स्वाभाविक रूप से चैड़ाई के अनुपात में अधिक लम्बाई लिये होता है। इनकी लम्बाई 160 कि.मी. से भी अधिक हो सकती है। सामान्यतः यह एक दूसरे के समानांतर स्थित होने वाले अनेक टीलों के रूप में होते हैं तथा प्रत्येक के बीच कई किलोमीटर तक के ऐसे क्षेत्र होते हैं जिनमें रेत, बजरी अथवा बारीक गिट्टी उपस्थित रहती है। कभी-कभी ये रेतीले टीले अलग-अलग प्रकार के दिखाई देते हैं, और कभी तो यह समानांतर रेतीले टीले अंग्रेजी के ‘Y’ आकार के अन्य टिब्बो में मिल जाते हैं।

परवलयाकार रेतीले टीले


परवलायाकार रेतीले टीला ‘U’ के आकार का होता है, इनका शिखर अवमुख तथा भुजाएं फैली हुई होती हैं। इन्हें यू-आकार अथवा हेयर पिन ड्यून भी कहते हैं। परवलयाकार रेतीले टीले अनेक तटीय रेगिस्तानों के साथ तथा थार रेगिस्तान में अधिक मिलते हैं।

गुम्बदाकार रेतीले टीले


यह गोल अथवा अंडाकार आकार के रेत के टीले हैं। इनके ढलान बहुत नुकीले न होकर गुम्बद के आकार के होते हैं। रेगिस्तान में यह टीले बहुत कम होते हैं।

तारक (स्टार) रेतीले टीले


तारक रेतीले टीले तब निर्मित होते हैं जब पवनों की दिशा वर्षभर बदलती रहती है। पिरामिड के आकार वाले इन रेतीले टीलों की लंबी भुजाएं शिखर तक फैली रहती हैं। तारक रेतीले टीले सहारा रेगिस्तान के ‘गांड अर्ग आरिएंटल’ क्षेत्र में बहुतायत से देखे जा तारक रेतीले टीलेतारक रेतीले टीलेसकते हैं। दूसरे रेगिस्तानों में ये रेतीले टीले समुद्र के किनारे के क्षेत्रों में विशेष रूप से ऐसे स्थानों पर जहां प्राकृतिक दृश्यावली में परिवर्तन हों, वहां बहुतायत में मिलते हैं। चीन के बदाइन जारन रेगिस्तान में 500 मीटर से भी अधिक ऊंचाई वाले कुछ ऊंचे तारक टिब्बे मिलते हैं।

उत्क्रमित रेतीले टीले


मलू प्रकार के रेतीले टीले एक दूसरे के विपरीत दिशाओं में स्थित रहते हैं। यह बदलाव अथवा उलटफेर तभी होता है जब पवन की दिशा बदल जाती है। इन रेतीले टीलो की सतह (हवा की दिशा वाली सतह) एक दूसरे के विपरीत होती है। यह रेतीले टीले पांच मुख्य रेतीले टीलों; नवचंद्राकार, समानांतर, गुम्बदाकार, स्टार तथा परवलयाकार में से ही किसी एक प्रकार के हो सकते हैं।

पांचों प्रकार के टिब्बे मूल रूप से, साधारण, मिश्रित और जटिल निम्न रूप में मिलते हैं। जब कोई टिब्बा अपने मूल रूप में पाया जाता है तो उसे साधारण टिब्बा कहते हैं। इनकी सतह पर ढलानों की संख्या कम से कम होती है तथा यही उसकी ज्यामित निर्धारित करती है। मिश्रित रेतीले टीले रेत के विशाल टीले होते हैं जिस पर छोटे-छोटे उसी प्रकार के अनेक रेतीले टीले आधारित होते हैं। जटिल रेतीले टीले दो या अधिक प्रकार के मिश्रित रेतीले टीले का रूप होता है।

यदि वर्ष भर वायु प्रवाह एक समान रहता है तब रेतीले टीले क्रमिक रूप से हवा की दिशा में स्थानांतरित हो जाते हैं। साधारण रेतीले टीले की उपस्थिती यह दर्शाती है कि इस रेतीले टीले के निर्मित होने के समय से वायु प्रवाह की दिशा में विशेष परिवर्तन नहीं हुए, किन्तु मिश्रित तथा जटिल रेतीले टीले निर्धारित रूप से हवाओं का वेग तथा दिशा में परिवर्तन का सूचक होते हैं।

रेतीले टीलों को खतरा


• रेत खनन संबंधी कार्यों से।
• सड़क निर्माण जैसे विकास कार्यों द्वारा।
• बाहरी पशुओं ओर वनस्पतियों को इन क्षेत्रों में लाना जो यहां की स्थानीय वनस्पतियों को अतिक्रमित और विस्थापित करते हैं।
• पर्यटकों के वाहनों द्वारा रेतीले टीलों की वनस्पतियों को क्षति पहुंचती है।
• आवागमन और रेत पर सफरिंग (Surfing) से रेतीले टीलों की वनस्पतियों पर विपरीत प्रभाव पड़ता है ।

स्थलाकृति तलाशना


वायूढ़ (ईओलियन) प्रक्रियाएं हवाओं विशेषकर पृथ्वी व अन्य ग्रहों को आकार देने की क्षमता रखने वाली हवाओं से सम्बन्धित होती हैं। इन प्रक्रियाओं का नामकरण हवाओं का स्वामी माने जाने वाले एक ग्रीक देवता ईओलस के नाम पर ईओलियन किया गया है।

जब हवाएं पदार्थों को स्थानांतरित या नष्ट करती हैं तब वे ढीले अवसाद और विरल वनस्पतियों को उस क्षेत्र में फैलाती हैं। किसी भी रेगिस्तान की स्थलाकृति को आकार देने में तेज हवाओं का महत्वपूर्ण योगदान होता है। किन्तु अन्य कारण जैस जल का प्रवाह भी इसमें सक्षम होता है। लेकिन यह भी विदित हो कि रेगिस्तान में जल के बहाव से होने वाली हानि उतना महत्व नहीं रखती क्योंकि वहां जल के स्रोत सीमित होते हैं। जल के प्रवाह से रेगिस्तान की दृश्यावली में आए परिवर्तनों को ‘बैडलेंड’ यानी उत्खात भूमि कहते हैं। यह क्षेत्र रेगिस्तानी अवनालिकाओं और छोटी खाइयों के सघन जाल से खण्डित (या विच्छेदित) होता है।

यारडांग


यारडांग शब्द तुर्की भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ खड़ा किनारा है। रेगिस्तान में ‘यारडांग’ तेज हवाओं के कारण अनियमित रूप से तराशे हुए चट्टानी पहाडि़यों के शिखर होते हैं। यह एक प्रकार की चट्टानों के तेज हवाओं से उत्पन्न क्षरण की क्रिया है। तेज प्रवाह से रेत के कण चट्टानी सतह पर टकराते हैं तथा लंबे अंतराल के दौरान रचनात्मक दृष्टि से क्षरण करने में सफल होते हैं। इन्हें निर्मित होने में लाखों वर्षों का समय लग सकता है। यारडांग और हवा से बनी छोटी पहाडि़यों का हवा से वृहद स्तर पर अपरदन होता है। यह उन क्षेत्रों में पाई जाती है जहां हवा तेजी से चट्टानों के विपरीत बहती है। यारडांग उन क्षेत्रों में मिलते हैं जहां पानी की कमी होने के साथ तेज गति से हवा किसी भी दिशा में बहती हुई बहुत मात्रा में अवसाद लाती है। हवा निचले क्षेत्रों को सामांतर कटकों में बांट देती है। यह क्रमिक रूप से अपरदित होकर अलग पहाड़ी की रचना करती है, जो अंततः यारडांग क्षेत्र में बदलती है। यारडांग के बनने में लाखों वर्ष लग सकते हैं। यह हवा की दिशा के समानांतर बनते हैं। अधिकतर मुलायम व ढीली प्रकार की चट्टानों में ही ‘यारडांग’ का निर्माण होता है किन्तु कठोर चट्टानों से इनके बनने के उदाहरण भी हैं। तिब्बत में स्थिति ‘यारडांग’ का निर्माण कठोर चट्टानों पर हुआ है।

वातवर्त (ब्लोआउट्स)


कहीं भी अपरदन के लिए हवा एक प्रभावशाली कारक है। हवा अपस्फीति (डिफ्लेशॅन) द्वारा भूमि को अपरदित करती है। अपस्फीति की घटना हवा द्वारा भू-सतह से सूक्ष्म बजरी कणों के कम होने के कारण होती है। भूमि सतह के मोटे कणों पर अपस्फीति के संकेन्द्रित होने के परिणामस्वरूप भूमि सतह पर अंततः हवा द्वारा स्थानांतरित नहीं होने वाले मोटे कण ही रहते हैं। इस प्रकार की सतह को डिज़र्ट पेवमेन्ट या रेगिस्तानी कुट्टिम कहते हैं। अक्सर हवा द्वारा अपरदन से बना लम्बवत खोखला गड्ढा अपस्फीती घाटी या वातवर्त कहलाता है। सामान्यतया वातवर्त छोटे होते हैं लेकिन इनका व्यास कई किलोमीटर तक हो सकता है। प्रायः वातवर्त वनस्पति विहीन होते हैं।

लवणीय समतल


लवणीय समतल या लवणीय कटाह (Salt pans) रेगिस्तान की महत्वपूर्ण स्थलाकृति है। यह क्षेत्र लवण व अन्य खनिजों को घेरने वाले मैदान होते हैं। यह स्थान उन क्षेत्रों में पाया जाता है जहां पानी जमा होता है और फिर वाष्पन के पश्चात पानी में विलेय खनिज वहीं छूट जाते हैं। लाखों वर्षों के दौरान यहां सतह पर लवण (समान्यतया नमक) चमकीले सफेद पपड़ीदार रूप में जमा हुआ है। पश्चिमी संयुक्त राज्य अमेरिका के शुष्क क्षेत्रों में स्थित बोनेविले लवणीय समतल बहुत प्रसिद्ध लवणीय कटाह हैं।

लवणीय समतललवणीय समतल

अपक्षय


वायुमंडल के प्रत्यक्ष संबंधों से शैलों का मिट्टी और उनका खनिजों में बिखर या टूट जाना अपक्षय प्रक्रिया कहलाती है। यह प्रक्रिया बिना हलचल से होने के कारण अपरदन से भिन्न है। अपरदन की घटना हवा पानी और अन्य कारकों की हलचल के शैलों और खनिजों में बिखराव या टुटन से संबंधित है। किसी स्थलाकृति के निर्धारण में यह महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इस प्रक्रिया से शैलें पृथक होती हैं। कभी-कभार यह प्रक्रिया बहुत ही असामान्य स्थलाकृति जैसे शैलों के स्तंभ का निर्माण करती है।

इंसेलबर्ग (दीपाभगिरी)


इंसेलबर्ग रेगिस्तान की स्थलाकृतियों में से एक है। कभी ऊंची रही पर्वत श्रृंखला के भारी क्षरण की प्रक्रिया द्वारा बचे हुए अवशेषों को ‘इंसेलबर्ग’ कहते है। रेगिस्तान की सपाट समतल समान सतह पर अलग-अलग दिखाई देती यह चपटी सी सतह, पहाड़ी चट्टानों के अवशेष रूप में होती है। आस्ट्रेलिया के ‘उलूरु’ (जिसे आयर चट्टानें भी कहते हैं) इंसेलबर्ग का उत्कृष्ट उदाहरण है। नामीब रेगिस्तान में स्पेकटेट्रर ग्रेनाइट इंसेलबर्ग को देखा जा सकता है।

मेसा और बॅस्ट


किसी पठार के एक किनारे पर क्षरण द्वारा तराशी हुई ढलान को ‘मेसा’ (Mesa) कहते हैं यह भी रेगिस्तान की स्थलाकृति का एक प्रकार है। यह शब्द इसकी टबल की ऊपरी आकृति सी दिखावट रखने के कारण स्पेनिश और पुर्तगाली भाषा के ‘टेबल’ शब्द से लिया गया है। मेसा उन क्षेत्रों में पाया जाता है जहां सतही शैलें विवर्तनिक गतिविधियों से ऊपर उठ आई हों। विभिन्न प्रकार की शैलों की अपक्षय और अपरदन का सामना करने की क्षमता भिन्न होती है। कमजोर शैलें शीघ्र अपरदित हो जाती हैं अपरदित भूमि के आसपास अधिक प्रतिरोधक क्षमता की शैलें निकल जाती हैं। यह प्रक्रिया विभेदी अपरदन कहलाती है। सामान्यतया छोटी मेसा को बॅस्ट कहते हैं।

धूल पैदा करते रेगिस्तान


रेगिस्तान धूल उत्पादन के सबसे बड़े कारखाने हैं। जब हवा द्वारा धूल उड़ती है तब धूल की आंधियां बनती हैं। सामान्यतया तूफान या आंधी-अंधड़ प्रचंड हवा के चलने और यकायक मौसम के परिवर्तन होने पर आते हैं।

रेतीला तूफान बालू के पूरे टीलों को भी विस्थापित कर सकता है। रेतीले तूफान में बहुत भारी मात्रा में धूल समायी रखती है जिससे इसका एक किनारा ठोस दीवार की भांति 1.6 किलोमीटर ऊंचा हो सकता है। हवा और जल द्वारा शैलों के क्षय से धूल बनती है। इसलिए शुष्क क्षेत्रों में वर्षा न होने या बहुत ही कम मात्रा में वर्षा होने के कारण यहां धूल कम ही होती है। धूल भरी आंधियां खेती को भी प्रभावित करती हैं। इससे फसल को नुकसान तो होता ही है साथ ही उस क्षेत्र में भू-क्षरण भी होता है। जब किसी क्षेत्र से हवा, मृदा की ऊपरी सतह को उड़ा ले जाती है तब वह क्षेत्र बंजर हो रेगिस्तान में परिवर्तित हो सकता है। उदाहरण के लिए वर्ष 2002 में पूर्वी आस्ट्रेलिया में बहुत व्यापक रेतीली आंधी आई थी जो क्वीनलैंड और न्यू साउथ वैल्स को पार करते समय अपने साथ लाखों टन पोषक मिट्टी उड़ा लाई थी। अदक्ष कृषि तकनीक और जानवरों द्वारा बहुत अधिक चराई से हवा द्वारा धूल और रेत क्षारित हो कर अकाल को जन्म देती है।

सहारा क्षेत्र में धूल भरी आंधिया


सहारा रेगिस्तान अकेला ही 6 से 10 करोड़ टन वार्षिक धूल उत्पादन के लिए जिम्मेदार है। सहारा से आने वाले रेतीले तूफान या धूल भरी आंधियों को सिमून या सिमूम कहा जाता है। सहारा खनिज धूल में प्रतिवर्ष 6 से 20 करोड़ टन की वृद्धि करता है। प्रतिवर्ष सहारा रेगिस्तान से आने वाली हवाएं उत्तरी अफ्रीका के आसमान को लाखों टन धूल से भर देती हैं। मौसम के अनुसार यह धूल भूमध्य सागर को पार कर यूरोप या फिर अटलांटिक महासागर की तरफ जाती है। हवा के दबाव से सहारा से आने वाली धूल बहुत उच्च अक्षांशों वाले क्षेत्रों तक पहुंच जाती है। इस कारण हवा द्वारा यह धूल पूरे विश्व में फैल जाती है। यह धूल गर्म शुष्क हवा के साथ मिलकर वायुमंडलीय पर्त बनाती है जिसे सहारा वायुमंडल पर्त कहते हैं। यह पर्त उष्ण कटिबंधीय मौसम पर महत्वपूर्ण प्रभाव डालती है।

धूल भरी आंधियां बहुत विशाल क्षेत्रों में आती हैं। कभी-कभार इसका प्रभाव ऐसे दूरस्थ क्षेत्रों में दिखाई देता है जहां भीषण तूफान जन्मते हैं। नासा द्वारा यह निष्कर्ष निकाला गया है कि सहारा की धूल भरी आंधियों का वहां से दूर मछलियों के मरने की घटना का आपस में अंतःसंबंध है। सहारा रेगिस्तान क्षेत्र की कुछ तूफानी गतिविधियों से पूर्वी व्यापारिक हवाएं अटलांटिक महासागर और मैक्सिको की खाड़ी में धूल के बादलों का निर्माण करती है। लौह तत्व से भरपूर धूल पश्चिमी फ्लोरिडा के तटीय क्षेत्रों के जल को उर्वरक बनाती है। जब लौहे का स्तर बढ़ता है तब ट्रिशोडेश्मियम (Trichodesmium) जीवाणु, नाइट्रोजन को स्थिर रखता है जिसे समुद्री जीवन के द्वारा उपयोगी रूप में परिवर्तित कर लिया जाता है।

धूल भरी आंधीधूल भरी आंधी

धूल भरी एशियाई आंधियां


एशियाई धूल (जो पीली धूल, पीली पवन या चीनी धूलमय आंधी) की आंधी एक मौसमी परिघटन है जो वसंत ऋतु में पूर्वी एशिया को प्रभावित करती है। उच्च वेग से चलने वाली हवाओं के कारण मंगोलिया, उत्तरी चीन और कजाकिस्तान क्षेत्रों से उत्पन्न होने वाली धूल की आंधियां छोटे और शुष्क मिट्टी के कणों के सघन बादलों का निर्माण करती हैं। तब यह बादल पूर्वी हवा से चीन, उत्तरी और दक्षिण कोरियाई एवं जापान के साथ सुदूर पूर्व में रूस के हिस्सों तक पहुंच जाते हैं। कभी-कभी हवा से जन्मे ये धूल कण पूर्व में बहुत दूर जैसे संयुक्त राज्य अमेरिका तक पहुंच कर हवा की गुणवत्ता को प्रभावित करते हैं।

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