रिफ़ाइनरी चाहिए तो पर्यावरण का भी रहे ध्यान

गुजरात की रिफ़ाइनरी में रोज़ाना पांच से छह मिलियन गैलन पानी का इस्तेमाल होता है। यानी अगर बाड़मेर की प्रस्तावित रिफ़ाइनरी बनती है तो सूखा प्रभावित इलाके में रोज़ाना लाखों लीटर पानी की जरूरत होगी। जल संसाधन मंत्रालय पहले ही राजस्थान को ज़मीन के अंदर के पानी के मामले में काला क्षेत्र घोषित कर चुका है। ऐसे में, सवाल उठता है कि इतना सारा पानी कहां से आएगा। इसके लिए अभी तक कोई कार्ययोजना भी पेश नहीं की गई है। फिर राजस्थान समुद्र के किनारे भी नहीं है कि वहां से खारा पानी लाकर उसे पहले मीठे पानी में तब्दील करके फिर रिफ़ाइनरी में इस्तेमाल किया जाए। विकास के लिए जारी आपाधापी और मशक्कत के दौर में यह सवाल निश्चित तौर पर कड़वा लग सकता है। देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु काफी पहले ही कह गए हैं कि बड़े उद्योग देश के नए तीर्थस्थल हैं। जिस देश में ऐसी परंपरा रही हो और जहां उदारीकरण की तेज बयार बह रही हो, ऐसे में यह सवाल न सिर्फ बेमानी, बल्कि विकास विरोधी भी लग सकता है। इस सवाल पर विस्तार से चर्चा से पहले उत्तराखंड में 16 जून को आई त्रासदी और उसके बाद उठ रहे सवालों पर गौर फरमाया जाए तो निश्चित मानिए कि यह सवाल कुछ ज्यादा ही महत्वपूर्ण लगने लगेगा। यह सच है कि तमाम कोशिशों के बावजूद राजस्थान अब भी विकसित राज्यों की उस पांत में शामिल नहीं हो पाया है, जिसमें तमिलनाडु, गुजरात, महाराष्ट्र और हरियाणा जैसे राज्य स्थापित हो चुके हैं। ऐसे मे अगर बाड़मेर में तेल रिफायनरी बनती हैं तो उसका स्वागत ही होना चाहिए। क्योंकि इससे राजस्थान के राजस्व ना सिर्फ बढ़ोतरी होगी, बल्कि रोज़गार के नए मौके बढ़ेगे। बीमारू राज्यों में शुमार रहे राजस्थान के लिए यह प्रस्ताव बेहतरी की गुंजाइश ही लेकर आया है।इसका स्वागत भी किया जाना चाहिए। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि इसके लिए कैसी कीमत चुकाई जानी है। उस पर भी गौर कर लेना जरूरी होगा।

उत्तराखंड में आई भयानक त्रासदी के लिए कमोबेश यह माना जाने लगा है कि जिस जल संसाधन पर उत्तराखंड की पुरानी और आज की सरकारों को नाज रहा है, जिसके दोहन के लिए वहां भारी-भरकम पनबिजली परियोजनाओं का जाल बिछाया जा रहा है। अब उस जाल ने कीमत वसूलनी शुरू कर दी है। केदारनाथ की त्रासदी तो उसकी एक कड़ी है। यह चिंता भूगर्भ वैज्ञानिकों और कुछ स्वयंसेवी संगठनों को तबसे सता रही है जब से उत्तराखंड को बिजली परियोजनाओं का गढ़ बनाए जाने की कोशिश शुरू की गई थी। तब उन्हें भी विकास विरोधी माना गया था। लेकिन जब इस विकास की परिणति मानवता पर हमले के तौर पर सामने आई तो लोगों की आंखे खुली और अब तो सुप्रीम कोर्ट ने भी राज्य में नई पनबिजली परियोजनाओं पर सिर्फ रोक लगा दी है, बल्कि चल रही या निर्माणाधीन परियोजनाओं की समीक्षा के लिए केंद्र सरकार को विशेषज्ञ समिति बनाने का आदेश भी सुना डाला है। जाहिर है कि राजस्थान के बाड़मेर में प्रस्तावित रिफ़ाइनरी को भी इन्हीं संदर्भों और भविष्य में पर्यावरण पर पड़ने वाले असर के नज़रिए से भी देखा जाना होगा।

देश में जिस तरह लगातार वाहनों की संख्या में लगातार बढ़ोतरी हो रही है, विकास कार्यों को गति मिली है, उससे निश्चित तौर पर देश में पेट्रोलियम पदार्थों की खपत भी बढ़नी ही है। योजना आयोग के अनुमान के मुताबिक बारहवीं पंचवर्षीय योजना के तहत हिंदुस्तान में 2012 से 2017 तक हर साल पेट्रोलियम पदार्थों की खपत में सालाना पांच से छह फीसदी को बढ़ोतरी होनी है। इस हिसाब से देश में पेट्रोलियम की जरूरत तो होगी ही। इस साल बजट पेश करने से पहले संसद में पेश आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक देश में 2011 में पेट्रोलियम रिफायनरी की क्षमता करीब 187.4 मिलियन मीट्रिक टन थी, जो जनवरी 2013 में बढ़कर करीब 215.1 मिलियन मीट्रिक टन हो गई। आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक 2013-14 में यह बढ़कर 239.6 मिलियन मीट्रिक टन हो जाएगी । दिलचस्प बात यह है कि यह किसी नई रिफ़ाइनरी की बदौलत नहीं, बल्कि देश में मौजूद रिफ़ाइनरी के साथ ही पारदीप में बन रही रिफ़ाइनरी के चलते संभव होगा। इतना ही नहीं, खुद भारत सरकार का ही मानना है कि 2016 तक मौजूदा रिफायनरियों के ही सहारे देश में तेल की मौजूदा रिफ़ाइनरी क्षमता में 24 फीसदी की बढ़त होगी जो 265 मिलियन टन सालाना हो जाएगी। ऐसे में तेल और प्राकृतिक गैस आयोग को राजस्थान के बाड़मेर जैसे पानी की कमी वाले इलाके में रिफ़ाइनरी लगाने की आखिर जरूरत ही क्यों पड़ गई।

यह सच है कि बाड़मेर में प्रस्तावित रिफ़ाइनरी से छोटे स्तर पर राजस्थान के लोगों के लिए नौकरियों की राह खुलेगी। हालांकि यह भी आंशिक सत्य ही है। क्योंकि मौजूदा दौर में आधुनिक रिफ़ाइनरी बमुश्किल 2000 लोगों को ही नौकरियाँ दे पाती हैं। उसमें भी ज्यादातर तकनीशियन और इंजीनियर ही होते हैं और निश्चित तौर पर इस बात की गारंटी नहीं होती कि जिस इलाके में रिफ़ाइनरी लगने वाली है, उस इलाके के लोगों में ही इतने सारे इंजीनियर और तकनीशियन मिल जाएं ऐसे में वह तर्क भी बेमानी है कि नौकरियों और रोज़गार के लिहाज से यह बेहतर योजना है। सच है कि रिफ़ाइनरी के साथ छोटा-मोटा आर्थिक ढाँचा भी खड़ा होगा। लेकिन उसके एवज में पर्यावरण पर कितना दबाव बढ़ेगा, यह सोचने वाली बात है। सबसे बड़ा सवाल यह है कि रिफ़ाइनरी के लिए सबसे ज्यादा जरूरी पानी कहां से आएगा। राजस्थान का यह रेगिस्तानी इलाक़ा वैसे ही पानी की अत्यधिक कमी से जूझता रहा है। फिर अंदाज लगाइए कि अगर बाड़मेर की यह रिफ़ाइनरी तैयार होती है तो पानी की कितनी खपत ही। एक आंकड़े के मुताबिक बड़ी क्षमता वाली रिफ़ाइनरी में एक हजार किलोमीटर क्रूड ऑयल को रिफाइन करने में 27 हजार 589 किलोलीटर, मध्यम श्रेणी की रिफ़ाइनरी में 23 हजार 521 किलोमीटर और छोटी रिफ़ाइनरी में 18 हजार 21 किलोमीटर पानी लगता है। यह तो खर्च की सीमा है। इसके साथ ही क्रूड ऑयल की प्रक्रिया में अलग से क्रमशः 27 हजार 573 किलोमीटर, 23 हजार 520 किलोलीटर और 17 हजार 972 किलोलीटर पानी अलग से लगता है। इसके अलावा रिफ़ाइनरी के कूलिंग सिस्टम में भी हजारों लीटर पानी की प्रति एक हजार लीटर के हिसाब से जरूरत पड़ती है।

गुजरात की रिफ़ाइनरी में रोज़ाना पांच से छह मिलियन गैलन पानी का इस्तेमाल होता है। यानी अगर बाड़मेर की प्रस्तावित रिफ़ाइनरी बनती है तो सूखा प्रभावित इलाके में रोज़ाना लाखों लीटर पानी की जरूरत होगी। जल संसाधन मंत्रालय पहले ही राजस्थान को ज़मीन के अंदर के पानी के मामले में काला क्षेत्र घोषित कर चुका है। ऐसे में, सवाल उठता है कि इतना सारा पानी कहां से आएगा। इसके लिए अभी तक कोई कार्ययोजना भी पेश नहीं की गई है। फिर राजस्थान समुद्र के किनारे भी नहीं है कि वहां से खारा पानी लाकर उसे पहले मीठे पानी में तब्दील करके फिर रिफ़ाइनरी में इस्तेमाल किया जाए। दूसरी बात यह है कि रिफ़ाइनरी को तैयार करने में भी निर्माण कार्य होगा। जिसके लिए भी पानी की जरूरत होगी। बाड़मेर की इस प्रस्तावित नौ मिलियन टन सालाना उत्पादन क्षमता वाली रिफ़ाइनरी के संदर्भ में राजनीति और समाज को ऐसे ही बिंदुओं पर चिंता करनी चाहिए। लेकिन सवाल यह है कि राजनीति ऐसे मसलों पर कितना ध्यान दे पाती है।

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