रिश्तों पर सवा सेर पानी


प्रकृति ने दिल खोलकर, उदारतापूर्वक हमें पानी का वरदान दिया है। यानी प्रचुर मात्रा में पानी उपलब्ध कराया है। एक अध्ययन के अनुसार हमारे देश में प्रति वर्ष वर्षा के रूप में चार हजार बीसीएम पानी बरसता है जिसमें से हम औसतन छः सौ बीसीएम का ही उपयोग कर पाते हैं, जाहिर है कि बाकी सब व्यर्थ बह जाता है। इसे यूं समझना आसान होगा कि बादलों से चार हजार बूंदे गिरती हैं जिसमें हम छः सौ बूंदों का इस्तेमाल कर पाते हैं। पानी मात्र प्यास की तृप्ति नहीं, हमारी तहजीब है, शिष्टाचार की पहली पहचान और संस्कार की पाठशाला है। आज हमारे घर कोई अतिथि पधारता है तो सर्वप्रथम, बगैर पूछे उसे पानी का गिलास पेश किया जाता है। पानी पिलाना प्रत्येक धर्म-संप्रदाय में पुण्य कार्य माना गया है, यही हमारी जल-संस्कृति है। लेकिन जल से जुड़ी हमारी इस महान संस्कृति पर शीघ्र ही पानी फिरने की आशंका उत्पन्न हो गई है। वजह वही है- पीने के पानी की निरंतर कमी।

ईश्वर न करे वह दिन भी आए कि लोग घर पधारे मेहमान से पानी पूछना बंद कर दें या उलाहना देने लगे कि घर से पानी पीकर भी नहीं आए क्या? यानी भली-भांति रिश्ते निभाने में पानी आड़े न आ जाए फिर पानी के इस्तेमाल से बनने वाली वस्तुएं चाय, लस्सी, शर्बत तो दूर की कौड़ी साबित हो जाएंगी।

घर के बाहर मोहल्ले में झांकें तो वहां भी आए दिन पानी को लेकर विवाद उपजने लगे हैं। सार्वजनिक नलों और टैंकर से उपलब्ध पानी पर गहमागहमी होने लगी है। फलस्वरूप अच्छे खासे अपनत्व, आत्मीय और मैत्रीपूर्ण रिश्तों पर पानी फिरना प्रारंभ हो गया है। किसी भी प्रकार से ये संकेत शुभ नहीं कहे जा सकते।

इस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति के लिए हम किसी दोषी मानें, किसे कठघरे में खड़ा करें? इस दयनीय स्थिति में पहुंचाने का जिम्मेदार कौन है? क्या हम स्वयं नहीं? निस्संदेह जरा अपने गिरेबां में झांककर देखें तो हम स्वयं वहां विराजमान होंगे।

यह सही है कि प्रकृति ने दिल खोलकर, उदारतापूर्वक हमें पानी का वरदान दिया है। यानी प्रचुर मात्रा में पानी उपलब्ध कराया है। एक अध्ययन के अनुसार हमारे देश में प्रति वर्ष वर्षा के रूप में चार हजार बीसीएम पानी बरसता है जिसमें से हम औसतन छः सौ बीसीएम का ही उपयोग कर पाते हैं, जाहिर है कि बाकी सब व्यर्थ बह जाता है। इसे यूं समझना आसान होगा कि बादलों से चार हजार बूंदे गिरती हैं जिसमें हम छः सौ बूंदों का इस्तेमाल कर पाते हैं। इसका सीधा तात्पर्य यह हुआ कि प्रकृति ने पानी देने में तो कोई कंजूसी नहीं बरती, हम ही उसे सहेजने-संवारने में असफल साबित हो रहे हैं।

हकीकत तो यह है कि हमने पानी की कीमत को कभी नहीं पहचाना, उसका सही मोल नहीं किया। माल-ए-मुफ्त, दिल-ए-बेरहम की लय पर पानी को बहाते रहे, खुले हाथों खर्च करते रहे, उसे बचाने की ओर ध्यान नहीं दिया। हम पानी की इज्जत करना भूल गए और क्रमशः उस अवस्था में पहुंच गए जहां पानी की कमी ने हमारे चेहरों का पानी उतारकर हमारी रंगत बिगाड़ दी है।

आज आवश्यकता इस बात की है कि हम पानी के वास्तविक मोल को पहचानें, उसके महत्व को समझें और हो सके तो दूध और अमृत के सदृश उसकी कद्र करें, उसे तरजीह दें। पानी का न केवल हम सदुपयोग करें वरन् उसके दुरुपयोग को दोषमुक्त माने, उतना ही जितना ईश्वर निंदा। उसके गलत इस्तेमाल को हम सामाजिक अपराध की श्रेणी में ले आए। आखिर वह हमारा जन्मदाता है।याद रखें, अगर हम अब भी नहीं जागृत हुए तो क्या आने वाली पीढ़ियां हमें कठघरे में खड़ा कर बूंद-बूंद का हिसाब नहीं मांगेगी। तब हमारा पानीदार चेहरा क्या शर्म से जमीन नहीं टटोलने लगेगा? क्या हमारे रिश्तों पर पानी सवा सेर साबित होगा।

सम्पर्क
डॉ. सेवा नन्दवाल, 98 डी के-1, स्कीम 74-सी, विजय नगर, इन्दौर-452010, मो. - 9685254053

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