रियो से पेरिस तक लम्बा फासला तय हुआ

19 Dec 2015
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अगर पेरिस समझौते पर गौर करें तो पाएँगे कि 1992 में हुई मौलिक सहमति से हम कितना आगे निकल चुके हैं। सच तो यह है कि ऐतिहासिक दायित्व नाम का शब्द इस बार सिरे से नदारद है। इस करके अपने तईं कुछ दायित्वों को पूरा करने सम्बन्धी विकसित देशों पर जो बाध्यता थी, विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन के मुक़ाबिल कुछ करने के मद्देनज़र उन्हें सक्षम बनाने का जो दायित्व था, वह भी नदारद है। सच है कि भारत जैसे देश अपने लिये हदें तय करने में सफल रहे हैं।

‘द पेरिस टेम्पलेट’ (इण्डियन एक्सप्रेस, 30 नवम्बर) में तर्क दिया गया था कि पेरिस सम्मेलन से सफल नतीजे मिलने सुनिश्चित हैं क्योंकि सफलता का पैमाना काफी नीचा निर्धारित किया गया था। मैं खुद भी मान रहा था कि ऐसा सम्भव है। कोई अड़चन आई भी अन्तिम क्षणों में मेजबान फ्रांस द्वारा तैयार मसौदे ‘स्वीकारें या नहीं स्वीकारें’ को प्रतिनिधिमंडलों को कोई विकल्प न होने की स्थिति में स्वीकार करने के लिये तैयार किया जा सकेगा।

इस तरह फ्रांस द्वारा तैयार ‘अन्तिम मसौदा’ के आधार पर सर्वसम्मति का फैसला पारित किया जा सका। मेजें थपथपाकर इसे सर्वसम्मति से स्वीकार किया गया। लेकिन यह उत्साह एक प्रकार की राहत के चलते ही था, न कि किसी निपुणता या कौशल के कारण।

इसके दो भाग हैं: यूएन फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज की कांफ्रेंस ऑफ पार्टीज (कोप) का फैसला, जो बाध्यकारी नहीं तथा पेरिस समझौता, जो हस्ताक्षरित और अपनी पुष्टि होते ही वैधानिक रूप से बाध्यकर हो जाना था।

पेरिस समझौते में ‘वैधानिक बाध्यता’ क्या है? इसमें ‘संकल्प और समीक्षा’ सम्बन्धी तौर-तरीके को सांस्थानिक रूप दिया गया है। इसके तहत तमाम देश खुद से जलवायु परिवर्तन को लेकर जरूरी कार्यकलाप को अंजाम देंगे। इन कार्यकलाप की आवधिक (हर पाँच के अन्तराल पर) समीक्षा होगी।

अलबत्ता, इन स्वैच्छिक लक्ष्यों को हासिल नहीं कर पाने की सूरत में किसी प्रकार के दंड का प्रावधान नहीं किया गया है। जब इस प्रकार से नतीजे हासिल करने हैं, तो फिर यह वैधानिक समझौता करने की कवायद क्यों? दरअसल, वैधानिक समझौता किये जाने का महत्त्व उस तंत्र में निहित है, जो इस मसौदे ने तैयार किया है।

इसी तंत्र के आधार पर तमाम देश 2020 के बाद जलवायु परिवर्तन सम्बन्धी अपने कार्यकलाप तय करेंगे। पश्चिमी देश खासकर अमेरिका इस प्रकार की वैधानिक व्यवस्था किये जाने को लेकर दृढ़ प्रतिज्ञ थे, जिसमें उन तमाम पहलुओं को शामिल किया गया हो, जो मौजूदा जलवायु परिवर्तन सन्धि यूएनएफसीसीसी का स्थान ले सके जिसे सर्वसम्मति से रियो में 1992 में अंगीकार किया गया था।

यूएनएफसीसीसी से खासा जुदा समझौता


पेरिस समझौता यूएनएफसीसीसी से खासा जुदा है। हालांकि यह तकनीकी तौर पर उसी को बयाँ करने वाला है। पेरिस समझौता रियो कन्वेंशन से इतर कार्यकलाप के क्रियान्वयन के लिये अपने तईं तकनीकों और प्रक्रियाओं के साथ एक समानान्तर वैधानिक जरिए के तौर पर अस्तित्व में आया है।

पेरिस समझौते कोप की पहचान भी कन्वेंशन की कोप से भिन्न है। पेरिस समझौता ही है, जो जलवायु परिवर्तन सम्बन्धी भावी क्रियाकलाप को स्वरूप प्रदान करेगा न कि इसका पूर्ववर्ती रियो कन्वेंशन। यह व्यवस्था विकासशील देशों का नुकसान है क्योंकि कन्वेंशन कहीं ज्यादा मजबूत व्यवस्था थी, जो ग्लोबल वार्मिंग के लिये विकसित देशों की ऐतिहासिक ज़िम्मेदारी की पुष्टि करने वाली थी।

इसने ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी लाने का प्रमुख दायित्त्व विकसित देशों पर बताया था। इसके लिये एक मजबूत परिपालन तंत्र लागू किया था। विकसित देशों से तकनीक और पैसा मिलने के उपरान्त विकासशील देशों के लिये जलवायु परिवर्तन सम्बन्धी कार्यकलाप सिरे चढ़ाने की बाध्यता थी। इस प्रकार की मदद विदेशी सहायता के रूप में नहीं थी।

अगर पेरिस समझौते पर गौर करें तो पाएँगे कि 1992 में हुई मौलिक सहमति से हम कितना आगे निकल चुके हैं। सच तो यह है कि ऐतिहासिक दायित्व नाम का शब्द इस बार सिरे से नदारद है।

इस करके अपने तईं कुछ दायित्वों को पूरा करने सम्बन्धी विकसित देशों पर जो बाध्यता थी, विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन के मुक़ाबिल कुछ करने के मद्देनज़र उन्हें सक्षम बनाने का जो दायित्त्व था, वह भी नदारद है। सच है कि भारत जैसे देश अपने लिये हदें तय करने में सफल रहे हैं। इसके लिये उनकी प्रशंसा की जानी चाहिए।

इक्विटी एंड कॉमन सिद्धान्तों के बरक्स भेदभावपूर्ण दायित्वों की पुष्टि हुई है। इससे हमें भविष्य में जलवायु परिवर्तन सम्बन्धी कार्यकलाप को लेकर वहन करने वाले बोझ को साझा करने में मदद मिल सकेगी। लेकिन अनेक्स एक और नॉन-अनेक्स दो देशों के रूप में चिन्हित विकसित और विकासशील देशों के मध्य कोई वैधानिक अन्तर नहीं किया गया है, जैसा कि कन्वेंशन में था।

विशिष्टीकरण भी समयबद्ध है। इस रूप में कि पेरिस समझौता तमाम देशों से अपेक्षा करता है कि यथा सम्भव शीघ्रता से अपने उत्सर्जन में कमी लाएँ और तत्पश्चात उसमें अर्थव्यवस्था-व्यापी कटौती करें। हालांकि विकासशील देशों को थोड़ी छूट दी गई है।

कुछ मामलों में नतीजे उम्मीद से बेहतर


इसके अलावा सामान्य रूप से एक और प्रावधान भी किया गया है। हालांकि यह थोड़ा नरम और मात्रात्मक है। फिर भी इसे लागू किया जाना है ताकि विकसित और विकासशील देशों, दोनों के प्रदर्शन का मूल्यांकन किया जा सके। हालांकि कुछ पहलुओं के मद्देनज़र हम पाते हैं कि नतीजे उम्मीद से बेहतर हैं।

तय यह है कि इन्हें सभी 190 से ज्यादा देशों ने स्वीकार किया है। इस करके इन्हें अन्तरराष्ट्रीय वैधता मिली है। जलवायु परिवर्तन से दरपेश चुनौती का सामना करने के लिये ऐसा होना बेहद महत्त्वपूर्ण है। समझौते में निहित ‘उत्तरोत्तर बढ़त’ के सिद्धान्त की भी सराहना करनी होगी।

इसका तात्पर्य यह है कि पहले से ही सूचित किये जा चुके लक्ष्यों से पीछे नहीं हटा जा सकेगा। समीक्षा के प्रत्येक चक्र में अपेक्षा का स्तर बढ़ा दिया जाएगा। चूँकि तापमान को 2 डिग्री सेल्सियस से कम रखने की गरज से मौजूदा स्वैच्छिक योगदान जरूरत का आधा ही है, इसलिये भविष्य में अपेक्षा का स्तर ऊँचा होना लाज़िमी है।

यह भी महत्त्वपूर्ण है कि उत्तरोत्तर बढ़त के सिद्धान्त के साथ जलवायु सम्बन्धी वित्त में बढ़त को भी जोड़ा गया है। भविष्य के लिये 2020 तक 100 बिलियन डॉलर की व्यवस्था आधार का काम करेगी। लेकिन यह बिल्कुल स्पष्ट नहीं है कि इसमें से कितना पैसा सार्वजनिक स्रोतों से जुटाया जाएगा। इसलिये कि निजी और सांस्थानिक प्रवाह का आकलन किया जाना सम्भव नहीं है।

भारत के लिये पेरिस एक अवसर रहा जब वह 2009 में कोपेनहेगन सम्मेलन के बाद से शुरू हुई अपघर्षण प्रक्रिया को थाम पाता। यह प्रक्रिया एक के बाद एक सालाना कोप के जरिए कन्वेंशन में निर्धारित लक्ष्य को उपेक्षित कर रही थी। पेरिस समझौता कन्वेंशन की ही हल्की छाया है, लेकिन हमारे वार्ताकार कम-से-कम कुछेक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्तों, जैसे कि इक्विटी और डिफ्रेंसिएशन, जो ‘ऐतिहासिक दायित्व’ के साथ ही छिन्न-भिन्न हो जाने के कगार पर जा पहुँचे थे, को बचाए रखने में सफल रहे।

तमाम मुश्किल दरपेश थीं, लेकिन वे दृढ़ता अख्तियार किये रहे। अब सारी तवज्जो उन अनेक तौर-तरीकों और प्रक्रियाओं पर जा टिकी है, जिन्हें पेरिस समझौते को कारगर किये जाने की गरज से अपनाया जाना है। इनमें वह तौर-तरीका भी शामिल है, जिसे पाँच वर्ष की अन्तराली समीक्षा के दौरान विशुद्ध उत्सर्जन के आकलन के लिये इस्तेमाल किया जाना है।

साथ ही, इस सन्दर्भ में विकासशील देशों को उपलब्ध लोच की प्रकृति भी इन प्रक्रियाओं में शुमार है। अलबत्ता, धन और तकनीक हस्तान्तरण जैसे मुद्दे अभी अनसुलझे हैं। बहरहाल, हमें सुनिश्चित करना होगा कि हम पेरिस में बचाए रख सके कुछेक फायदों को कमतर कर देने वाला कोई काम न करें।

लेखक पूर्व विदेश सचिव हैं

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