रियो+20: प्रकृति बिकाऊ नहीं

Rio+19
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इस लेख के लिखे जाने और छपने तक रियो+20 के परिणाम आ चुके होंगे। 20-22 जून को हो रहे आधिकारिक रियो+20 सम्मेलन का समापन हो चुका होगा। पर अभी से रियो+20 पृथ्वी सम्मेलन पर कुछ खतरे मंडराते दिख रहे हैं। अमेरिका के राष्ट्रपति ओबामा, ब्रिटिश प्रधानमंत्री कैमरुन का पृथ्वी सम्मेलन में भाग न लेना, कंपनी प्रतिनिधियों की प्रमुखता और अधिकृत भागीदारी लोगों की उम्मीदों पर पानी फेरता सा नजर आ रहा है।

1992 में पहला पृथ्वी सम्मेलन ब्राजील के रियो द जेनेरो में हुआ था। उसके ठीक 20 साल बाद रियो में दोबारा पृथ्वी सम्मेलन आयोजित हो रहा है। इस पृथ्वी सम्मेलन को ‘रियो+20’ कहा जा रहा है। रियो+ 20 संयुक्तराष्ट्र की वस्तुत: वैश्विक पर्यावरणीय कांफ्रेंस है। इस वार्ता से जुड़े विशेषज्ञों का कहना है कि दुनिया की सरकारें आने वाले इस रियो+ 20 में जो दस्तावेज प्रस्तुत करने जा रही हैं वह वैश्विक पर्यावरणीय विफलताओं के कारणों को जानने और दूर करने के लिए नाकाफी है। इन दस्तावेजों में इस बात का जिक्र तक नहीं है कि हम आज जिस वैश्विक पर्यावरणीय संकट से गुजर रहे हैं उसे दूर कैसे किया जाए। बल्कि कई बार तो ये दस्तावेज इस बात की मुखालफत करते ज्यादा नजर आ रहे हैं कि धरती मां को बचाने के लिए, उनके (गरीब देशों के) जल, जंगल, जमीन, हवा, जलीय जीवन आदि सभी संसाधनों के रखरखाव के लिए एक निश्चित दान तय करना होगा, विकसित देशों को अपनी आय से एक हिस्सा गरीब देशों को देना होगा। अब ये नए दस्तावेज प्रकृति को बिकाऊ बनाने की वकालत ज्यादा कर रहे हैं, उनका मानना है कि जो ज्यादा दान देगा प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जा उसका होगा और वही कहलाएगा धरती मां का रखवाला।

90 के दशक में बड़े-बड़े कारपोरेटियों ने जो कई-कई बहुपक्षीय व्यापार समझौते दुनिया के सामने रखे और किए, जिसके जरिए कारपोरेटिये ने दुनिया भर के प्राकृतिक संसाधनों, बाजार और तकनीक सभी को मुक्त अर्थव्यवस्था के अंतर्गत लाकर कब्जा कर लेने की इच्छा रखी। लेकिन उसी समय से ही मुक्त अर्थव्यवस्था के खतरों को भांप कर मानव-भविष्य की चिंता करने वाली विभिन्न संस्थाओं ने उसका विरोध किया। लेकिन आज फिर से वही सब दोहराया जा रहा है। पृथ्वी सम्मेलन वार्ताओं को भी व्यापार वार्ताओं में बदलने की कोशिश हो रही है।

धरती को बचाने के नाम पर रियो+ 20 के लिए बने मसौदे में कारपोरेटियों के हित और मंशाएं साफ-साफ झलक रही हैं। हालांकि अब तरीका बदल गया है। उस समय बहुपक्षीय व्यापार समझौते का सहारा लिया गया और अब बहुपक्षीय पर्यावरणीय समझौतों को इस्तेमाल किया जाने वाला है। पर्यावरण के लिए सच में चिंता करने वाले लोगों की भावनाओं के साथ शब्दों का एक मायाजाल रच कर खिलवाड़ किया जा रहा है। ऐसे समझौतों के जरिए कार्पोरेटियों को लगता है कि इससे स्थानीय समुदाय और राष्ट्रीय सरकारें अपनी ही राष्ट्रीय सीमाओं के अंदर स्थित प्राकृतिक-सम्पदाओं, संसाधनों पर अपना नियंत्रण छोड़ने के लिए मजबूर हो जाएंगे।

भागीदारी कर रहे समाजसेविओं और पर्यावरणविदों का मानना है कि रियो+ 20 में प्रस्तुत किए जाने वाला मसौदा प्रकृति का व्यापारीकरण और वित्तीयकरण कर देगा वो भी मात्र थोड़े से लाभ के लिए। लेकिन वो थोड़ा सा लाभ भी किसका होगा ये चिंता का विषय है क्योंकि ये लाभ कमाने वाले और कोई नहीं, बल्कि वैश्विक मुनाफेखोर, बहुराष्ट्रीय कंपनियां होंगी, जिन्होंने 2008 से लगातार वैश्विक अर्थव्यवस्था को डूबो रखा है।
 

हम सब मिलकर एक सुरक्षित समृद्ध भविष्य के लिए नए हरियाले रास्ते को चुन सकते हैं। जिससे सिर्फ हमारा ही नहीं बल्कि संसार के सभी का और आने वाली सभी पीढ़ियों का जीवन सुरक्षित होगा।

इस बार के पृथ्वी सम्मेलन और 1992 के रियो सम्मेलन में एक मूलभूत अंतर है। 1992 में रियो में हुए पृथ्वी सम्मेलन में दुनिया के सामने एक हरित व्यवस्था का रास्ता रखने वाले लोग ये कार्पोरेटी नहीं थे बल्कि वैश्विक स्तर पर जन से जुड़े संस्थाओं के प्रतिनिधि थे जिन्होंने एक ऐसा संधि मसौदा तैयार किया था। जिसमें मानव के लिए एक न्यायपूर्ण सतत् और प्रजातांत्रिक भविष्य का सपना देखा गया था। लेकिन ऐसा लगता है कि रियो+ 20 में कार्पोरेटियों ने लोगों के उन सपनों को तार-तार करने का मन बना लिया है। क्योंकि अब हमारे सामने दो रास्ते बन गए हैं। एक रास्ता वो है जो पृथ्वी सम्मेलन में लोगों ने एक आदर्श भविष्य के लिए चुना था और दूसरा रास्ता आज पश्चिमी सोच पर आधारित कार्पोरेटी जगत कर रहा है। जिसमें पारंपरिक देशी सोच को पश्चिमी हवा में लगभग उड़ा ही दिया है।

विरोधाभासी सोच


सभ्यता और संस्कृति की जड़ों से जुड़े हुए लोग आज भी इस पृथ्वी को एक अलग नजर से देखते हैं जबकि आज के अधिकांश लोग आधुनिकता का जामा पहने हुए इस पृथ्वी को पश्चिमी चश्मे से देख रहे हैं और इन दोनों ही नजरियों से पृथ्वी बिल्कुल अलग दिखाई दे रही है और इस अलग-अलग नजरिये को हम समय रिश्तों और स्थान के मद्देनजर अलग ढंग से समझने की कोशिश करेंगे क्योंकि पश्चिमी चश्मा लगाकर वो रास्ता दिखाई देता है। जहां बहुत दुख है, दर्द है। मन में कालिमा है, पर ऊपर खूब चमक धमक भरा है। यही वो रास्ता है जिस पर आज हम सब चल पड़े हैं। जबकि इसके ठीक विपरीत जो रास्ता हम पीछे छोड़ आए हैं। सभ्यता और संस्कृति की जड़ों से जुड़े लोगों का रास्ता देशी चश्में से दिखाई देने वाला रास्ता जहां एक समृद्ध हरा-भरा भविष्य का है। लेकिन इन दोनों नजरियों को गहराई से समझने के लिए हमें इन दोनों के अंतर को समझना होगा और फिर तय करना होगा कि अपनी इस धरती मां को बचाने के लिए हमें किस ओर जाना है।

आइए हम इन दोनों विचारधाराओं के अंतर को ‘काल, मानस और संबंध’ के खांचे में रखकर समझें :-

वर्तमान पश्चिमी विचारधारा


काल
पश्चिमी सभ्यता के हिसाब से समय ही धन है और वित्तीय संपदाओं उपभोग और आर्थिक क्रियाकलापों के बाजार मूल्य की वृद्धि में एक खास भूमिका निभा रहे हैं। निर्णय भी आर्थिक मुनाफे की बढ़ोतरी को प्राथमिकता देते हुए लिए जाते हैं। जिससे जीवन बेहतर बन सके और इस तरह चाहे सकल घरेलू उत्पाद का सूचकांक हो या शेयर बाजार का मूल्य सब जगह समय का ही खेल है।

मानस


व्यक्तिगत स्वतंत्रता और आर्थिक दक्षता महत्वपूर्ण है और ये दोनों ही मानवीय रिश्तों को वित्तीय व्यापार से जोड़ देने पर बढ़ाई जा सकती है क्योंकि इससे हर एक व्यक्ति को अपने व्यक्तिगत आर्थिक मुनाफे को बढ़ाने का मौका मिलता है। क्योंकि हर व्यक्ति ज्यादा से ज्यादा कमाना चाहता है इससे लोगों का भला होता है और उनका जीवन बेहतर बनता है। प्रकृति भी मनुष्यों के फायदे के लिए हैं और इसीलिए वो हक से इस नियंत्रण भी करता है और राज भी करता है।

स्थान


धरती एक ऐसा संसाधन है जिस पर मालिकाना हक होना चाहिए ये एक ऐसा संसाधन है जिसकी एक खास कीमत लगाकर बाजार में रखा गया है और ज्यादा-से-ज्यादा वित्तीय मुनाफे के लिए उसका इस्तेमाल और दोहन किया जा सकता है। हमारी अपनी व्यक्तिगत पहचान ही उन नामों से जानी जाती है। जो हम इस्तेमाल करते हैं। यानी हम किस ब्रांड की वस्तुएं उपभोग करते हैं। उन्हीं कंपनियों के ब्रांड से हमारी व्यक्तिगत पहचान तय होती है। हमारा व्यक्तिगत मूल्य उस दाम से तय होता है। जो हम बाजार में बोलते हैं। और उसी से हमारी आर्थिक संपदाओं या यूं कहिए आर्थिक औकात नापी जाती है। हम अपने व्यक्तिगत आर्थिक दक्षताओं को बढ़ाने की होड़ में इस कदर लग जाते हैं कि अपने व्यक्तिगत संबंधों और किसी स्थान व्यक्ति या समुदाय से किए गए वादों को भी नजरअंदाज कर देते हैं और जहां कहीं भी बड़ा वित्तीय अवसर दिखाई देता है। तो तुरंत अपनी तैयारी जोर-शोर से करना शुरू कर देते हैं। संपत्ति के अधिकार को भी व्यैक्तिक और मुक्त रूप से बिक्री के लायक समझा जाता है अगर दाम सही मिले तो।

चरम व्यक्तिवाद सिर्फ अपने बारे में ही सोचना और बाकी लोगों और प्रकृति से अलगाववाद पश्चिमी विचारधारा और पश्चिमी विचारधारा की खास पहचान है जो कि पशुवत सोच रखने वाले आदिम मनुष्य की सोच समझी जाती है। हमारे भारतीय दर्शन में तो कहा भी गया है। ‘यही पशु प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरें, वही मनुष्य, मनुष्य है जो मनुष्य के लिए मरे।’ इस तरह पश्चिमी सभ्यता का नजरिया तो यही बताता है कि हमने जिस माया का पीछा किया वो भी एक पवित्र उद्देश्य के लिए वास्तव में वो एक मायाजाल है मृगदृष्णा है। क्योंकि उस माया का पीछा करते हुए हमने यह भी ध्यान नहीं दिया कि पैसा कुछ भी नहीं है। हमने पैसे को ही सब कुछ समझते हुए जो हमारी सच्ची संपदा थी लोग समुदाय और प्रकृति उसको तो नष्ट ही करते जा रहे हैं।

भारतीय पक्ष


पारंपरिक देशी विचारधारा एक अलग ही नजरिया प्रस्तुत करती है। जिसे हम कह सकते हैं कि उसमें मनुष्य और प्रकृति से उसके जुड़ाव पर जोर दिया गया है।

काल


समय जीवन है जिसे जीवन के दैनिक मौसमी और पीढी दर पीढ़ी चलने वाले प्रवाह के लय और संगीत से अनुभव किया जाता है। इंसान होने के नाते हमें अपने कर्तव्यों का हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि हम अपनी जरूरतों को इस तरह से पूरा करें कि न केवल हमारा जीवन स्वस्थ्य रह सके बल्कि आने वाली पीढियों के लिए भी संसाधनों का एक संतुलन कायम हो सके। प्रकृति और एक दूसरे के साथ मिलजुलकर और तालमेल बनाकर रहने वाले लोगों की भलाई और स्वास्थ्य के संकेतकों पर आधारित भूटान के द्वारा बनाया गया ‘द ग्रॉस नेशनल हैपीनेंस इडेक्स’ उन लोगों की आर्थिक गतिविधियों का सटीक आंकलन करता है।

हजारों लाखों सालों तक हमारे पूर्वजों ने अपने गहन ज्ञान को जिंदा रखा और पीढ़ी दर पीढ़ी को उससे रोशन किया वही ज्ञान हमारी पीढ़ी के पास भी है। जररूत है उस रास्ते को चुनने की क्योंकि आज हमारे पास दो रास्ते हैं एक विकास के नाम पर विनाश लाने वाला विज्ञान और तकनीकी का रास्ता। दूसरा प्रकृति और मनुष्य के बीच प्रेम संबंधों और सम्मान पर आधारित न्यायपूर्ण, प्रजातांत्रिक, खुशियों से भरा रास्ता। विकल्प मौजूद हैं। जरूरत है सही दिशा में सही रास्ते पर कदम बढ़ाने की इसलिए हमें अपनी पूरजोर ताकत से ऐसे हर किसी मसौदे औऱ प्रस्ताव को नकार देना है जो हमारी प्रकृति को व्यापारीकरण और बाजारीकरण की वस्तु समझता है। हमारे कहने का मतलब यह नहीं है कि हम बिल्कुल एक ऐसी दुनिया में लौट जाएं कि जहां अपने आप को जिंदा रखने के लिए लोग शिकारियों के झुंडों में घुमा करते थे। क्योंकि आज हम जितना आगे आ चुके हैं। जितना सभ्य बन गए हैं। तो फिर से उस जीवनशैली में लौट जाना तो संभव ही नहीं है। उस तरह की जीवनशैली पारंपरिक देशी संस्थाएं और तकनीकी जो उस समय में कारगर थीं वो निश्चित रूप से आज के इस ग्लोबल विलेज की जरूरतों को पूरा नहीं कर पाएंगी एक ऐसा ग्लोबल विलेज जहां सात बिलियन लोग एक दूसरे से जुड़े हुए हैं।

नए रास्ते पर अपना रास्ता ढूढ़ने के लिए हमें एक ऐसी विश्व विचारधारा की जरूरत है। जिसकी नींव देशी या पारंपरिक ज्ञान पर टिकी हो लेकिन इतनी बड़ी जनसंख्या की सच्चाई और जरूरतों को ध्यान में रखते हुए उसमें कुछ नयापन हो और उचित आधुनिक तकनीकियों और संस्थाओं का चरित्र जिम्मेदारी के साथ अहिंसक करना होगा। तब शायद परिणाम कुछ ऐसे होंगे:

मानस


सभी जीव आपस में एक दूसरे से जुड़े हैं यह हम इंसानों का फर्ज है कि हम बाकी सभी जीवों के अधिकारों को पहचान और सम्मान दें और इसमें नदियां चट्टानें, ग्लेशियर आदि सब कुछ शामिल है। धरती मां हमें जीने के लिए साधन देती है। उसने हमें बहुत से उपहार दिए हैं जो हमें समान रूप से मिले हैं और इसीलिए समान रूप से उन्हें एक दूसरे के साथ बांटकर इस्तेमाल करना चाहिए और सम्मान और देखभाल करना चाहिए हममें से किसी ने भी वो सब बनाया नहीं है बल्कि प्रकृति का उपहार है और इसीलिए किसी को भी अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए उस पर अपना अकेले का दावा ठोकने का विशेषाधिकार नहीं है। जितनी जरूरत है। हमें सिर्फ उतना ही लेना है। बाकी प्रकृति को लौटा देना है। ये हमारा पवित्र धर्म और कर्तव्य है।

हम सभी इस बात को स्वीकार करेंगे की समय ही जीवन है और इसे जीवन चक्र के पीढ़ी दर पीढ़ी विकास के प्रवाह से अनुभव किया जाएगा हम जीवन का सम्मान करेंगे पैसे का नहीं और मानेंगे की व्यक्ति की योग्यताएं ही जीवन का उपहार है। और इसीलिए जीवन के स्वस्थ्य सतत् प्रवाह को सुनिश्चित करना हमारा पवित्र कर्तव्य होगा और प्रकृति के साथ अब और आने वाली पीढ़ियों के लिए तालमेल बनाकर जीना भी हमारा कर्तव्य होगा और उस समय हम अपने जीवन के स्वास्थ्य और मजबूती के संकेतकों से अपनी आर्थिक क्षमताओं का आंकलन करेंगे।

स्थान


धरती हमारी मां है। हर जीव का अपना महत्व है और इस अंतर जुड़ाव वाली सृष्टि में सभी का अपना एक अधिकारपूर्ण स्थान है। धरती पर हमारा अपना व्यक्तिगत और सामूहिक जुड़ाव पवित्र और अटल है क्योंकि हमारी व्यक्तिगत पहचान हमारे स्थान से संबंध पर निर्भर करती है। और इसी जुड़ाव से हम अपने कर्तव्यों को पूरा करते हैं। और समुदाय हमारे प्रति अपने कर्तव्यों को पूरा करता है। जिससे हम अपना जीवन सुचारू रूप से एक दूसरे के साथ मिलजुलकर चला पाते हैं।

देशी विचारधारा की गहराई में वो ज्ञान और मनुष्य से जुड़ाव के तार शामिल हैं। शायद इसीलिए आज के इस दौर में यह विचारधारा दिल की गहराईयों में कहीं छू जाती है। आधुनिक विज्ञान अब हमें ये बता रहा है कि हमारे पारंपरिक ज्ञानियों ने असंख्य पीढ़ियों न केवल पढ़ाया बल्कि पीढ़ी दर पीढ़ी ज्ञान की ज्योति जलाई इस तरह समृद्ध समाज में प्रकृति और एक दूसरे के साथ जीने के लिए हमने लाखों साल गुजारे हैं यानि हजारों-लाखों सालों के विकास के दौर के बाद हम इसी स्थिति तक पहुंचे हैं। हमारी खुशी, हमारी भलाई प्रकृति के साथ हमारे संबंधों और समाज की परवाह करने से जुड़े हैं।

पश्चिमी चश्मा पहने हुए आधुनिक भारत के लोगों के लिए भी अब यह जागने का समय आ गया है कि उन्हें अपनी ही संस्कृति और सभ्यता से जुड़े उसी हरे-भरे मार्ग पर चलना है क्योंकि वहीं नया हरियाला भविष्य है। हमें फिर से अपने उन्हीं देशी ज्ञानियों की सलाह पर लौटना होगा और पश्चिमीकरण वाले सभी सांस्कृतिक और ढांचागत ताकतों को खत्म करना होगा।

हम यह समझेगें कि वायुमंडल हमारी प्राकृतिक पारस्परिक, सामुहिक संपदा है और जीवन का आधार है और यह पैसों से कहीं ज्यादा है। हम यह भी जान पाएंगे की स्थान और समुदाय पर आधारित पहचान का मतलब बहुत बड़ा है। और वित्तीय संपदाओं या फिर उपभोग किए जाने वाले ब्रांड नामों से होने वाली पहचान इसके आगे कुछ भी नहीं है। हम इस बात को स्वीकार करेंगे कि प्रकृति ने अपने उपहार सबको समान रूप से दिए हैं और प्रकृति के उपहारों को स्थान विशेष पर रहने वाले लोगों के समुदाय ही बेहतर ढंग से संभाल सकते हैं। क्योंकि उच्च स्थान लोगों का स्वाभाविक हित अपनी धरती मां के संसाधनों को बचाने में होगा ताकि अपनी आने वाली पीढ़ियों को उतने ही संसाधन दे सकें जो उन्होंने इस्तेमाल किए हैं।

इसलिए आने वाली पीढ़ियों से एक बेहतर जिंदगी देने के लिए जरूरी है प्रकृति के साथ सामंजस्य और सम्मान का भाव रखना ना कि बाजारीकरण का और इसीलिए हम सभी को मिलकर संयुक्त राष्ट्र से एक नया मसौदा बनाने के लिए कहना चाहिए एक ऐसा मसौदा जिसमें यह स्वीकार किया जाए प्रकृति पवित्र है बिक्री के लिए नहीं। हम सब मिलकर एक सुरक्षित समृद्ध भविष्य के लिए नए हरियाले रास्ते को चुन सकते हैं। जिससे सिर्फ हमारा ही नहीं बल्कि संसार के सभी का और आने वाली सभी पीढ़ियों का जीवन सुरक्षित होगा।

-लेखक द्वय इंडिया वाटर पोर्टल से जुड़े हैं।

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