रियो+20 से ज्यादा प्रभावी है जनता का रियो+20

28 Jun 2012
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सदस्य देशों के शिखर सम्मेलन और जनता की भागीदारी वाले सम्मेलन में जमीन-आसमान का अंतर है। जनता के सम्मेलन में जहां दुनिया भर के लोगों की समस्याओं से सामना हो रहा है, वहीं सदस्य देशों के शिखर सम्मेलन में औपचारिक भाषणों की भरमार है और लगता है कि सभी देश पहले से ही तय करके आये हैं कि उन्हें यहां क्या कहना है। संयुक्त राष्ट्र महासचिव की यह चिंता कि हम अपने बच्चों को कैसा भविष्य देना चाहते हैं, यहां कहीं दिखाई नहीं देती है।

अटलांटिक सागर के किनारे छोटी-छोटी पहाडियों, विशाल चट्टानों, लम्बी-लम्बी सुरंगों, लगूनों और वनों के बीच बसे रियो द जेनेरो शहर का तापमान तो बहुत ज्यादा नहीं, लेकिन यहां रियो+20 का तापमान चरम पर है। सबकी निगाहें राष्ट्राध्यक्षों और शासनाध्यक्षों पर लगी हैं कि वे अंतत: रियो+20 पृथ्वी सम्मेलन के घोषणापत्र के ड्राफ्ट पर क्या फैसला लेते हैं और क्या धरती और इस पर रहने वाले जीवों को बचाने के इस उपक्रम को किसी तार्किक मोड़ तक ले जाते हैं, या नहीं। अब तक की स्थिति तो यह है कि घोषणापत्र के ड्राफ्ट ने ज्यादातर लोगों को निराश किया है। रियो+20 शिखर सम्मेलन के मुख्य कार्यक्रमों और पूरे शहर में जगह-जगह हो रहे सैकड़ों जन-कार्यक्रमों के बीच के फासले को खूब महसूस किया जा सकता है। दोनों के बीच उतना ही फासला दिखाई देता है, जितना कि ग्लोबल नॉर्थ और ग्लोबल साउथ के बीच है। अर्थात, उतना ही जितना कि अमीर और गरीब देशों में या अमीरी और गरीबी के बीच।

सम्मेलन ने अपने घोषणापत्र का जो ड्राफ्ट राष्ट्राध्यक्षों और शासनाध्यक्षों के अनुमोदन के लिये तैयार किया है, उसे लेकर जो असंतोष है, वह मुख्य सम्मेलन स्थल की साइड एवेंट्स और शहर के विभिन्न इलाकों में चल रहे जन-कार्यक्रमों में बराबर देखा जा सकता है। दूसरे शब्दों में, एक ओर औपचारिक रूप से बड़ी-बड़ी बातें बड़े-बड़े मंचों से कही जा रही हैं तो दूसरी ओर रियो+20 सम्मेलन स्थल रियोसेंत्रो से कई-कई किलोमीटर दूर फ्लेमिंगो पार्क में लगे टेंटों में चल रही विभिन्न विषयों पर गरमागरम बहसों को सुनने से लगता है कि लोगों में गुस्सा ज्यादा है और वे चाहते हैं कि यहां मौजूद तमाम देशों के नेता जिम्मेदारी का परिचय दें और रियो+20 पृथ्वी शिखर सम्मेलन को ऐतिहासिक बनाने का काम करें।

अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की अनुपस्थिति को लेकर लोगों में काफी गुस्सा है। प्रेक्षकों का मानना है कि अपने देश में आने वाले राष्ट्रपति चुनावों के मद्देनजर वह अपनी जनता को नाराज नहीं करना चाहते, इसीलिये रियो नहीं आये हैं। कुल मिलाकर अमेरिका की गैर-जिम्मेदारी को लेकर खूब चर्चायें हैं। लोग याद कर रहे हैं कि अमेरिका ने क्योतो प्रोतोकॉल के समय भी ऐसी ही गैर-जिम्मेदारी दिखाई थी।

लोगों ने बुधवार को शहर के पुराने इलाके में प्रदर्शन कर अपने गुस्से की अभिव्यक्ति की। अनुमान है कि इस मार्च में पचास हजार से ज्यादा लोगों ने हिस्सा लिया। इससे पहले सोमवार 18 जून को भी लोगों ने मार्च कर रियो+20 पृथ्वी शिखर सम्मेलन में हिस्सा लेने वाले तमाम सदस्य देशों को चेताने की कोशिश की थी कि वे ऐसे फैसले न करें जिनके कारण आने वाली पढ़ियों को पछताना पड़े। शिखर बैठक के अंतिम दिन शुक्रवार को भी सिविल सोसाइटी के लोगों ने मार्च निकालने का फैसला किया है।

वृहस्पतिवार को किसानी से जुड़े संगठनों ने ब्राजील के सबसे बड़े किसान संगठन ला विया कम्पेसिना के नेतृत्व में मार्च निकाला जिसमें सैकड़ों लोगों ने हिस्सा लिया। इस संगठन का कहना है कि किसानी का व्यावसायिकीकरण करने के बजाय पारम्परिक और आदिवासी शैली की किसानी को बहाल करने, एकल फसलों को त्यागने तथा पारिस्थितिकी पर आधारित वानिकी अपनाने से दुनिया की खाद्यान्न समस्या का हल खोजा जा सकता है। साथ ही, कृषि क्षेत्र में सुधारों की आवश्यकता भी है। इस संगठन का मानना है कि यह सब पाने के लिये ऊर्जा का कोई नया मॉडल भी अपनाना होगा।

“स्टॉप ग्लोबल वार्मिंग: चेंज द वर्ल्ड” जैसी मशहूर किताब के लेखक ने फ्लेमिंगो पार्क में जन-शिखर सम्मेलन की अपनी बैठक में कहा कि बेरोजगारी ने जलवायु परिवर्तन से ग्लोबल वार्मिंग बढ़ने की समस्या को और बढ़ा दिया है, लिहाजा ऐसी नौकरियां पैदा करना जरूरी है जो पारिस्थितिकी को बचाये रखें, अर्थात ग्लोबल वार्मिंग को न बढ़ायें। उन्होंने कहा कि जलवायु परिवर्तन को रोकना तो कठिन है पर इसका प्रभाव कम अवश्य किया जा सकता है। इसके लिये सोच और व्यवहार में परिवर्तन करना होगा। ऐसे ही अनेक विषयों पर फ्लेमिंगो पार्क के टेंटों में खूब बहस शुक्रवार तक चलती रहेगी।

कुल मिलाकर, सदस्य देशों के शिखर सम्मेलन और जनता की भागीदारी वाले सम्मेलन में जमीन-आसमान का अंतर है। जनता के सम्मेलन में जहां दुनिया भर के लोगों की समस्याओं से सामना हो रहा है, वहीं सदस्य देशों के शिखर सम्मेलन में औपचारिक भाषणों की भरमार है और लगता है कि सभी देश पहले से ही तय करके आये हैं कि उन्हें यहां क्या कहना है। संयुक्त राष्ट्र महासचिव की यह चिंता कि हम अपने बच्चों को कैसा भविष्य देना चाहते हैं, यहां कहीं दिखाई नहीं देती है। भारत तो जैसे इस पूरे संवाद से गायब ही है। किसी भी वर्कशॉप में भारत सरकार के प्रतिनिधियों की उपस्थ्ति नहीं दिखाई देती है। वैसे भी भारत के बहुत कम लोगों की उपस्थिति है। राष्ट्राध्यक्षों और शासनाध्यक्षों की बैठक में ही अपने देश के प्रधानमंत्री की गम्भीरता और संवेदनशीलता देखने को मिलेगी। प्रेक्षकों का कहना है कि यदि भारत स्वयं को बड़ी ताकत के तौर पर प्रस्तुत करना चाहता है तो उसे पारिस्थितिकी और पर्यावरण संरक्षण के प्रति पूरी गम्भीरता दिखानी होगी।

अंत में इतना ही कि रियो+20 सम्मेलन जैसे-जैसे अपने समापन की ओर बढ़ा रहा है, लोगों और दुनियाभर से यहां इकट्ठा हुये हजारों-हजारों एक्टिविस्टों की धड़कन बढ़ती जा रही है।

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