जल संकट के मौजूदा दौर में अक्सर जिस काम की सभी लोग पैरवी कर रहे हैं, वह काम है, रूफ वाटर हार्वेस्टिंग। पिछली सदी के अन्तिम दशक में गंभीरता से पहली बार रूफ वाटर हार्वेस्टिंग की आवश्यकता पर सरकार और समाज का ध्यान गया। उसके बाद से इसके प्रचार-प्रसार पर काम होने लगा है। इस काम में, समाज की भागीदारी की भी बात कही जाने लगी है। नगरीय निकाय भी रूफ वाटर हार्वेस्टिंग को आगे बढ़ाने में पीछे नहीं हैं। उन्होंने इसे अपनाने वालों के लिए हाउस टैक्स में छूट का प्रावधान भी किया है। बहुत सारे लोग अपने घरों में रूफ वाटर हार्वेस्टिंग करवाने भी लगे हैं। इस बदलाव के कारण, लगभग हर नगर और कस्बे में रेन वाटर हार्वेस्टिंग करने वाले लोग मिल जाते हैं। वे छत पर बरसे बरसाती पानी को पाइपों की मदद से धरती में उतारने का काम करते हैं। सेन्ट्रल ग्राउन्ड वाटर बोर्ड ने भी इसके लिए मानक जानकारी सुलभ कराई है। पिछले दिनों मध्यप्रदेश के इन्दौर शहर ने एक दिन में 1500 घरों में रुफ वाटर हार्वेस्टिंग की व्यवस्था स्थापित कर प्रदेश में रिकार्ड बना कर अखबारों की सुर्खियों बटोरी थीं। इन्दौर की इस उपलब्धि को आकाशवाणी ने भी प्रसारित किया था।
राजस्थान के मरुस्थलीय इलाके की दूसरी पद्धति रेन वाटर हार्वेस्टिंग थी। इस पद्धति में बरसाती पानी को व्यवस्थित तरीके से सही जगहों पर, रेतीली धरती में उतारा जाता था। वे लोग रेत के चरित्र को अच्छी तरह समझते थे इसलिए उन्होंने पानी को गलत जगह नहीं उतारा। समाज ने उन इलाकों को पहचाना, जहाँ कुछ गहराई पर जिप्सम की मीलों लम्बी चैडी अपारगम्य परत मिलती थी। जिप्सम की वह परत, पानी को नीचे उतरने से रोकती थी।
यह कहना काफी हद तक सही है कि रूफ वाटर हार्वेस्टिंग और रेन वाटर हार्वेस्टिंग आज की आवश्यकता है। उसे लेकर सरकार भी संजीदा है। रूफ वाटर हार्वेस्टिंग कराने वाले को समझाया जाता है कि इसे लगवाने के बाद अब उसे गर्मी के दिनों में पानी की किल्लत नहीं होगी। मंहगा पानी खरीदने से उसे मुक्ति मिलेगी। वह पानी के मामले में आत्मनिर्भर हो जाएंगे। यह भाव लोगों को उसे अपनाने के लिए प्रेरित भी करता है लेकिन पब्लिक डोमेन में ऐसा प्रमाणिक दस्तावेज उपलब्ध नहीं है जो सफलता की टिकाऊ कहानी का बखान करता हो। अलबत्ता, पिछली गर्मी में चेन्नई के अभूतपूर्व जल संकट ने रूफ वाटर हार्वेस्टिंग की उल्लेखनीय सफलता पर प्रश्न चिन्ह अवश्य लगाया है। उल्लेखनीय है कि रूफ वाटर हार्वेस्टिंग, राजस्थान के मरुस्थलीय इलाके में अपनाई जाने वाली परम्परागत प्रणाली है। उसकी तकनीकी बारीकियों से राजस्थान का आम आदमी पूरी तरह वाकिफ है। यह प्रणाली सैकड़ों सालों से बेहद कम बरसात वाले शुष्क रेतीले इलाके में सफलता पूर्वक अपनाई जा रही है। जनमानस में उसकी स्वीकार्यता के कारण बढ़ते जल संकट की प्रष्ठभूमि में भारत के अन्य भागों में उसे अपनाने की पहल हुई है। इस लेख में उन बातों को सांकेतिक तरीके से रेखांकित किया गया है जिन बातों को रूफ वाटर और रेन वाटर हार्वेस्टिंग की पैरवी करने वालों को समझने की आवश्यकता है।
राजस्थान के मरुस्थलीय इलाके में तीन पद्धतियाँ प्रचलन में थीं। पहली पद्धति अक्षरशः रूफ वाटर हार्वेस्टिंग थी। इसके लिए महलों की छत के पानी को व्यवस्थित तरीके से नीचे लाकर पक्के टैंकों में जमा किया जाता था। छत के पानी को धरती में नहीं उतारा जाता था। लोग जानते थे कि राजस्थान की रेतीली धरती में एक बार वह रिसा तो फिर उनकी पहुँच से दूर हो जायेगा। फिर उन्हें कभी नसीब नहीं होगा। इस कारण उन्होंने उसे पक्के टैंकों में संचित किया। संचित पानी को सुरक्षित रखने की पुख्ता व्यवस्था विकसित की। उसमें कीटाणु नही पनपें, इसकी व्यवस्था की। उसका किफायत से उपयोग किया और अत्यन्त कम बरसात वाले इलाके में पीने के पानी और निस्तार की आवश्यकता पूरी की। यह समयसिद्ध व्यवस्था थी। इस व्यवस्था ने उसके हितग्राहिओं को कभी निराश नहीं किया।
राजस्थान के मरुस्थलीय इलाके की दूसरी पद्धति रेन वाटर हार्वेस्टिंग थी। इस पद्धति में बरसाती पानी को व्यवस्थित तरीके से सही जगहों पर, रेतीली धरती में उतारा जाता था। वे लोग रेत के चरित्र को अच्छी तरह समझते थे इसलिए उन्होंने पानी को गलत जगह नहीं उतारा। समाज ने उन इलाकों को पहचाना, जहाँ कुछ गहराई पर जिप्सम की मीलों लम्बी चैडी अपारगम्य परत मिलती थी। जिप्सम की वह परत, पानी को नीचे उतरने से रोकती थी। इस गुण के कारण धरती में रिसा पानी जिप्सम की परत के ऊपर रेत के कणों के बीच संचित और सुरक्षित रहता था। समाज ने बरसात के पानी को जिप्सम की परत पर जमा किया। उस पानी को हासिल करने के लिए कुए जैसी बहुत छोटी संरचना बनाई। उससे मीठा पानी हासिल किया। पानी को धरती में उतारने के लिए सासर जैसी संरचनाएं बनाई। उनकी मदद से भूजल रीचार्ज को सुनिश्चित किया।
राजस्थान के मरुस्थलीय इलाके में तीसरी पद्धति खेती के लिए रेन वाटर हार्वेस्टिंग थी। इस पद्धति में कैचमेंट के पानी को खडीन में संचित किया जाता था। यह थोडा कठिन काम था। उसके लिए ऐसे कैचमेंट खोजे जाते थे जो मूलतः पथरीले होते थे। पथरीले होने के कारण उन पर बरसा पानी धरती में नहीं रिसता था। वह नीचे की ओर बहता था। उसे पाल डाल कर ऐसे इलाकों में रोका जाता था, जहाँ कम गहराई पर जिप्सम की परत मिलती थी। वहीं खडीन बनती थी। वहाँ बरसात में पानी जमा होता था और वह जगह ठंड के मौसम में गेहूँ का खेत बन जाती थी। बिना खाद-पानी के अच्छा उत्पादन देने वाला खेत। उसके नीचे के इलाके में मीठे पानी का कुआ बना लिया जाता था। पेयजल समस्या हल।
राजस्थान के मरूस्थलीय इलाके की उपर्युक्त तीनों पद्धतियों का लब्बोलुआब है पानी का पुख्ता इन्तजाम और खेती की सुरक्षित व्यवस्था। ऐसी व्यवस्था जो संभावनाओं पर नहीं परिणामों पर आधारित थी। राजस्थान की परम्परागत रूफ वाटर हार्वेस्टिंग प्रणाली का सबक है-पानी जमा करो ऐसा जो आपको हर समय मिल सके। पानी इतना जमा करो जिससे आपकी आवश्यकता पूरी हो सके। पानी का काम ऐसा करो जिसे समाज समझ सके और बिना बाहरी मदद के कर सके। उसकी सुरक्षा कर सके। उसके उपयोग की प्लानिंग कर सके। देश के अधिकांश भाग में अच्छी-खासी बरसात होती है। अर्थात देश में पानी का टोटा नहीं है। पानी के मामले में भारत धनी देश है। टोटा है सही विकल्पों के चयन का। टोटा है समाज के विश्वास का। टोठा है सही रणनीति का। टोटा है बरसात के पानी के प्रबन्ध का। उसकी दशा और दिश का। यही संकट का कारण है। सही वह समस्या है जिसे समाधान की आवष्यकता है।