साध्य, साधन और साधना

6 Jan 2017
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Anupam mishra
Anupam mishra

अगर साध्य ऊँचा हो और उसके पीछे साधना हो, तो सब साधन जुट सकते हैं

.यह शीर्षक न तो अलंकार के लिये है, न अहंकार के लिये। सचमुच ऐसा लगता है कि समाज में काम कर रही छोटी-बड़ी संस्थाओं को, उनके कुशल संचालकों को, हम कार्यकर्ताओं को और इस सारे काम को ठीक से चलाने के लिये पैसा जुटाने वाली उदारमना, देशी-विदेशी अनुदान संस्थाओं को आगे-पीछे इन तीन शब्दों पर सोचना तो चाहिए ही।

साध्य और साधन पर तो कुछ बातचीत होती है, लेकिन इसमें साधना भी जुड़ना चाहिए।

साधन उसी गाँव, मोहल्ले, शहर में जुटाए जाएँ या कि सात समुंदर पार से आएँ, इसे लेकर पर्याप्त मतभेद हो सकते हैं। पर कम से कम साध्य तो हमारे हों। कुछ अपवाद छोड़ दें तो प्रायः होता यही है कि साधनों की बात तो दूर, हम साध्य भी अपने नहीं देख पाते। यहाँ साध्य शब्द अपने सम्पूर्ण अर्थ में भी है और काम चलाऊ, हल्के अर्थ में भी। यानी काम, लक्ष्य, कार्यक्रम आदि।

पर्यावरण विषय के सीमित अनुभव से मैं कुछ कह सकता हूँ कि इस क्षेत्र में काम कर रही बहुत-सी संस्थाएं साध्य, लक्ष्य के मामले में लगातार थपेड़े खाती रही हैं। लोग भूले नहीं होंगे जब पर्यावरण के शेयर बाजार में सबसे ऊँचा दाम था सामाजिक वानिकी का। हम सब उसमें जुट गए, बिना यह बहस किए कि असामाजिक वानिकी क्या हो सकती है।

फिर एक दौर आया बंजर भूमि विकास का। अंग्रेजी में वेस्टलैण्ड डवलपमेंट। तब भी बहस नहीं हो पाई कि वेस्टलैण्ड है क्या। खूब साधन और समय इसी साध्य में वेस्ट यानि बर्बाद हो गया। बंजर जमीन के विकास का सारा उत्साह अचानक अकाल मृत्यु को प्राप्त हो गया। उसके बदले हम सब फिलहाल वाटरशेड डवलपमेंट में रम गए हैं।

इस नए कार्यक्रम के हिंदी से सिंधी तक अनुवाद हो गए। जलग्रहण क्षेत्र शब्द भी चल रहा है, जलागम क्षेत्र भी। थोड़े देसी हो गए तो मराठी वालों ने पानलोट विकास नाम रख लिया है पर मूल में इस सबके पीछे एक विचित्र वाटरशेड की कल्पना ही है।

ज्वाइंट फॉरेस्ट मैनेजमेंट दूसरा नया झंडा है। इसमें भी हमारी हिंदी प्रतिभा पीछे नहीं हैः संयुक्त वन प्रबंध कार्यक्रम फल-फूल रहा है। यदि हम अपनी संस्था को जमीन से जुड़ा मानते हैं तो हो सकता है हमें संयुक्त शब्द पर आपत्ति हो। तब हम इसे साझा शब्द से पटकी खिला देते हैं। नाम कुछ भी रखें, काम-यानी साध्य-वर्ल्ड बैंक का तय किया होता है। हिंदी में कहें तो विश्व बैंक। साधन भी उसी तरह की संस्थाओं से आ रहे हैं।

यह विवरण मजाक या व्यंग्य का विषय नहीं है। सचमुच दुख होना चाहिए हमें। इस नए काम की इतनी जरूरत यदि आ भी पड़े तो ‘जे.एफ.एम.’ यानी ज्वाइंट फॉरेस्ट मैनेजमेंट का काम उठाते हुए हमें यह तो सोचना ही चाहिए कि इस ज्वाइंट से पहले सोलो मैनेजमेंट किसका था। कितने समय से था।

वन विभाग ने अपने कंधों पर पूरे देश के वन प्रबंध का बोझ कैसे उठाया, उस बोझ को लेकर वह कैसे लड़खड़ाया और उसकी उस लड़खड़ाहट की कितनी बड़ी कीमत पूरे देश के पर्यावरण ने चुकाई? ये वन समाज के किस हिस्से से, कितनी निर्ममता से छीने गए? और जब वनों का वह गर्वीला एकल वन प्रबंध सारे विदेशी अनुदानों के सहजे, संभाले नहीं संभला, तो अचानक संयुक्त प्रबंध की याद कैसे आई? पल भर के लिये, झूठा ही सही, एकल वन प्रबंधकों को सार्वजनिक रूप से कुछ पश्चाताप तो करना ही चाहिए था। क्षमा माँगनी चाहिए थी, और तब विनती करनी चाहिए थी कि: अरे भाई यह तो बड़ा भारी बोझा है, हमारे अकेले के बस का नहीं, पिछली गलती माफ करो, जरा हाथ तो बँटाओ।

साधन और साध्य का यह विचित्र दौर पूरी तरह उधारीकरण कर रहा है। जो हालत पर्यावरण के सीमित विषय में रही है, वही समाज के अन्य महत्त्वपूर्ण विस्तृत क्षेत्रों में भी मिलेगी। महिला विकास, बाल विकास, महिला सशक्तीकरण, बंधुआ मुक्ति, महाजन मुक्ति, बाल श्रमिक, लघु या अल्प बचत, प्रजनन स्वास्थ्य, गर्ल चाइल्ड... सब तरह के कामों में शर्मनाक रूप दिखते हैं।

पर हम तो आँख मूँद कर इनको जपते जा रहे हैं।

बुन्देलखण्ड में एक कहावत हैः चुटकी भर जीरे से ब्रह्मभोज। सिर्फ जीरा है, वह भी चुटकी भर। न सब्जी है, न दाल, न आटा। पर ब्रह्मभोज हो सकता है। साध्य ऊँचा हो, साधना हो, तो सब साधन जुट सकते हैं। हाँ चुटकी भर जीरे से ‘पार्टी’ नहीं हो सकेगी।

यूरोप, अमेरिका की सामाजिक टकसाल से जो भी शब्द-सिक्का ढलता है, वहाँ वह चले या न चले, हमारे यहाँ वह दौड़ता है। यह भी संभव है कि इनमें से कुछ काम ऐसे महत्त्वपूर्ण हों जो करने ही चाहिए। तो भी इतना तो सोचना चाहिए कि हम सबका ध्यान इन कामों पर पहले क्यों नहीं जाता? सामाजिक कामों के इस शेयर बाजार में सामाजिक संस्थाओं के साथ-साथ सरकारों की भी गजब की भागीदारी है। केंद्र समेत सभी राज्यों की, सभी तरह की विचारधाराओं वाले सभी दलों की सरकारों में इस मामले में गजब की सर्वसम्मति है।

विश्व बैंक हर महीने कोई 200 पन्नों का एक बुलेटिन निकालता है। इसमें पिछले महीने में पारित सभी देशों के राज्यों की विभिन्न सरकारों को दिए जाने वाले ऋण का विस्तृत ब्योरा रहता है। इसे देख लें। पक्का भरोसा हो जाएगा कि डॉलर विचार की करंसी में बदल गया है।

ऐसा नहीं कि सभी बिक गए हैं। इस वृत्ति से लड़ने वाले भी हैं। पर कई बार खलनायक से लड़ते-लड़ते हमारे नायक भी कुछ वैसे ही बन जाते हैं। आपातकाल को अभी एक पीढ़ी तो भूली नहीं है। उससे लड़कर, जीतकर सत्ता में आए हमारे श्रेष्ठ नायकों ने तब कोका-कोला जैसे लगभग सर्वव्यापी पेय को खदेड़ा था। बदले में उसी जैसे रंग का, वैसी ही बोतल में उतने ही प्रमाण का यानी चुल्लू-भर पानी बनाकर उसका नाम कोका-कोला के बदले 77 (सतत्तर नहीं, डबल सेवन) रखा गया।

आपातकाल की स्मृति को समाज के मन में स्थायी रूप देने! यानी हमारे पास अपने कठिन दौर को याद रखने का इससे सरल कोई उपाय नहीं था। चलो यह भी स्वीकार है। कष्ट के दिनों को मनोरंजन के, शीतल पेय के माध्यम से ही याद रखते। पर हम उसे भी टिका नहीं पाए। डबल सेवन डूब गया, वे नायक भी डूबे। फिर कोका-कोला वापस आ गया, पहले से भी ज्यादा जोश से और संयोग यह कि हमारे डूबे नायक भी फिर से वापस आ गए। सहअसतित्व का सुंदर उदाहरण है यह प्रसंग।

तो साधनों की बहस हमें वहाँ ले जाएगी जब हम साध्य, लक्ष्य, अपने सामने खड़े काम, कार्यक्रम ही नहीं खोज पाएँगे। एक बार साध्य समझ लें तो फिर बाहर का साधन भी कोई उस तरफ मोड़ सकता है। तब ज्यादा गुंजाइश वैसे इसी बात की होगी कि साध्य अपना होगा तो साधन भी फिर अपने सूझने लगते हैं।

इसका एक छोटा-सा उदाहरण जयपुर जिले के एक गाँव का है। वहाँ ग्राम के काम में लगी एक संस्था ने बाहर की मदद से गरीब गाँव में पानी जुटाने के लिये कोई 30,000 रुपए खर्च कर एक तालाब बनवाया। फिर धीरे-धीरे लोगों से उसकी थोड़ी आत्मीयता बढ़ी। बातचीत चली तो गाँव के एक बुजुर्ग ने कहा कि तालाब तो ठीक है, पर ये गाँव का नहीं, हमारा नहीं, सरकारी-सा दिखता है। पूछा गया कि यह अपना कैसे बनेगा।

सुझाव आया कि इस पर पत्थर की छतरी स्थापित होनी चाहिए। पर वह तो बहुत महँगी होती है। लागत का अंदाज बिठाया तो उसकी कीमत तालाब की लागत से भी ज्यादा निकली। संस्था ने बताया कि हम तो यह काम नहीं करवा सकते। हमारे पास तो तालाब के लिये अनुदान है, छतरी के लिये नहीं।

गाँव ने जवाब दिया कि छतरी के लिये संस्था से माँग ही कौन रहा है। गरीब माने गए गाँव ने देखते ही देखते वह पहाड़-सी राशि चंदे से जमा की, अपना श्रम लगाया और तालाब की पाल पर गाजे-बाजे, पूजा-अर्चना के साथ छतरी की स्थापना कर डाली।

कुछ को लगेगा कि यह तो फिजूलखर्ची है। पर यह मकान और घर का अंतर है। समाज को पानी के केवल ढाँचे नहीं चाहिए। समाज को ममत्व भी चाहिए। छतरी लगाने से तालाब सरकारी या संस्था का तकनीकी ढाँचा न रहकर एक आत्मिक ढाँचे में बदलता है। फिर उसकी रखवाली समाज करता है।

वैसे भी अंग्रेजों के आने से पहले देश के पाँच लाख गाँवों में, कुछ हजार कस्बे, शहरों में, राजधानियों में कोई बीस लाख तालाब समाज ने बिना किसी ‘वॉटर मिशन’ या ‘वॉटरशेड डवलपमेंट’ के, अपने ही साधनों से बनाए थे। उनकी रखवाली, टूट-फूट का सुधार भी लोग खुद ही करते थे। जरा कल्पना तो करें हम उस ढाँचे के आकार की, प्रकार की, संख्या बल की, बुद्धि बल की, संगठन बल की, जो पूरे देश में पानी का प्रबंध करता था। वह भी एक ऐसे देश में जहाँ चेरापूँजी से जैसलमेर जैसी विचित्र परिस्थिति थी।

तालाबों का यह छोटा-सा किस्सा बताता है कि साध्य अपना हो तो साधन भी अपने जुटते जाते हैं। हाँ, उसके लिये साधना चाहिए। आज संस्थाएँ पूरी दुनिया से बात करने के लिये जितनी उतावली दिखती हैं, उसकी आधी उतावली भी वे समाज से बात करने में लगाएँ तो यह साधना अपना रंग दिखा सकती है। पर बात करने में और ‘पार्टिसिपेटरी रिसर्च अप्रेजल’ या ‘पी.आर.ए.’ करने में मूल अंतर होता है।

बुन्देलखण्ड में एक कहावत हैः चुटकी भर जीरे से ब्रह्मभोज। सिर्फ जीरा है, वह भी चुटकी भर। न सब्जी है, न दाल, न आटा। पर ब्रह्मभोज हो सकता है। साध्य ऊँचा हो, साधना हो, तो सब साधन जुट सकते हैं। हाँ चुटकी भर जीरे से ‘पार्टी’ नहीं हो सकेगी।

साफ माथे का समाज

(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिए कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें)

क्रम

अध्याय

1

भाषा और पर्यावरण

2

अकाल अच्छे विचारों का

3

'बनाजी' का गांव (Heading Change)

4

तैरने वाला समाज डूब रहा है

5

नर्मदा घाटीः सचमुच कुछ घटिया विचार

6

भूकम्प की तर्जनी और कुम्हड़बतिया

7

पर्यावरण : खाने का और दिखाने का और

8

बीजों के सौदागर                                                              

9

बारानी को भी ये दासी बना देंगे

10

सरकारी विभागों में भटक कर ‘पुर गये तालाब’

11

गोपालपुरा: न बंधुआ बसे, न पेड़ बचे

12

गौना ताल: प्रलय का शिलालेख

13

साध्य, साधन और साधना

14

माटी, जल और ताप की तपस्या

15

सन 2000 में तीन शून्य भी हो सकते हैं

16

साफ माथे का समाज

17

थाली का बैंगन

18

भगदड़ में पड़ी सभ्यता

19

राजरोगियों की खतरनाक रजामंदी

20

असभ्यता की दुर्गंध में एक सुगंध

21

नए थाने खोलने से अपराध नहीं रुकते : अनुपम मिश्र

22

मन्ना: वे गीत फरोश भी थे

23

श्रद्धा-भाव की जरूरत

 


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