साक्षरता के प्रसार में मीडिया की भूमिका

संचार माध्यमों द्वारा आम जनता को साक्षरता से जोड़ने के प्रयास जारी रखते हुए आगे बढ़ा जाए तो देश की आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक विद्रूपता को सन्तुलित किया जा सकता है, ऐसा लेखक का विचार है।

अतीत की याद भर बाकी है। भविष्य का भार हम सब पर है। हम चुनौती और बदलाव की वर्तमान मांग के प्रति स्वयं को शायद ही सन्तुलित कर पाते हैं जबकि यह पूर्णतः स्पष्ट हो चुका है कि मानवता एक नवीन समाज में बदल रही है। यह बदलाव उन पूर्व बदलावों की अपेक्षा विशेष महत्व रखता है जब मानव जीवन गुफाओं में बंद था। फिर वह गुफाओं से वनों की ओर, वनों से चारागाहों और फिर औद्योगिक समाज की ओर अग्रसर हुआ। आज जो कुछ भी घट रहा है, चाहे हम उस घटना के निकट हों या न हों, उसके महत्व को मीडिया सब तक पहुँचा देता है।

1947 तक देश में अंग्रेजों द्वारा थोपी गई शिक्षा पद्धति लागू थी जिससे उच्च घरानों के बच्चों को ही लाभ मिल पाता था। इसने शिक्षितों और निरक्षरों के बीच गहरी खाई पैदा कर दी। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय तक हमारे यहाँ मात्र 15 प्रतिशत लोग पढ़ना-लिखना जानते थे। उस समय मीडिया पर अंग्रेजों का नियन्त्रण था। उनके मनोनुकूल समाचार ही उनमें छपते थे। उन दिनों समाचार-पत्रों की संख्या बहुत कम थी लेकिन आजादी का बिगुल फूँका जा चुका था। भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन से जुड़ी सीमित पत्र-पत्रिकाएँ अपना असीमित प्रभाव दिखाने लगी थी। गाँव-गाँव में समाचार-पत्र अपना अग्रणी स्थान बनाने लगे थे। उन दिनों लुके-छिपे समाचार-पत्रों का वितरण किया जाता था क्योंकि अंग्रेजों की अंग्रेजियत, उनकी शोषणमूलक नीति के खिलाफ सामग्रियों से समाचार-पत्र भरे रहते थे और ब्रिटिश सरकार की दमनात्मक कार्यवाही का शिकार पत्रकारों को होना पड़ता था। सम्पादकों, प्रकाशकों, लेखकों को जेल की यातनाएँ सहनी पड़ती थीं। फिर भी हमारे साहसिक पत्रकार ब्रिटिश सरकार की चुनौतियाँ स्वीकारते रहे। कभी अपने कर्तव्यों से मुँह नहीं मोड़ा। परिणामतः लोग जाग उठे। चारों दिशाओं से आवाज आई ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ और अंग्रेजों को भारत छोड़ना पड़ा।

समय बदलता है। बदलना भी चाहिए। बदलाव विकास की कुँजी है। पत्रकारिता धीरे-धीरे व्यवसाय में तब्दील हो गई और देश-सेवा की भावना के साथ-साथ एक उद्योग के रूप में पनपी। बड़े-बड़े उद्योगपतियों (टाटा, बिड़ला) ने समाचार पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन पेशे के रूप में आरम्भ किया। इससे अच्छी आमदनी भी होने लगी क्योंकि एक का व्यय दूसरे की आय है। इस प्रकार दैनिक समाचार-पत्र ‘बेड-टी’ का हिस्सा बन गए। सुबह की गर्म चाय की प्याली के साथ यदि दैनिक समाचार-पत्र नहीं मिला तो लगता कुछ खो गया है। हमारे इस छोटे से व्यय से हजारों-लाखों लोगों को रोजगार मिला हुआ है। सुदूर ग्रामीण अंचलों के निमन्तम वर्ग के लोगों को उषा की प्रथम किरण दिखाने के लिए मीडिया का और सक्रिय होना बाकी है। जिस रूप में संचार माध्यमों का उपयोग होना चाहिए, नहीं हो पा रहा है। संचार के क्षेत्र में नई क्रान्ति आई, नई तकनीकी का विकास हुआ। फिर भी ग्रामीण गरीब वर्ग सूचना सम्पर्क से दूर रहा। ऐसे में संचार माध्यम ही समाज की सबसे निचली सीढ़ी पर खड़े इन लोगों को सही दिशा दे सकते हैं।

भारत गाँवों का देश है। यहाँ निरक्षरता एक प्रमुख समस्या है। इसी समस्या के कारण अन्य कई समस्याएँ, यथा जनसंख्या वृद्धि, बेरोजगारी, गंदगी, बीमारी, महामारी, प्रदूषण, तनाव, व्याभिचार आदि जन्म लेती हैं। निरक्षरता के अभिशाप से ग्रस्त ग्रामीण गरीब अज्ञान रूपी अंधकार में भटक रहे हैं। वे सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक शोषण के शिकार हैं जिससे उनकी सांस्कृतिक प्रगति एवं आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग अवरुद्ध होना स्वाभाविक है। निरक्षरता के कारण कुल उत्पादन में ह्रास होता है। दूसरों पर निर्भरता में वृद्धि होती है। बीमारी भूत बनकर सवार रहती है। धार्मिक उन्माद, अंधविश्वास, गरीबी के दुष्चक्र में फँसे रहना स्वभाव बन जाता है। निरक्षरता परिवार नियोजन कार्यक्रम को सही ढँग से नहीं अपनाने देती। परिणामतः गरीब वर्गों की आबादी अबाध गति से बढ़ रही है। विकास के सारे कार्यक्रम उन तक नहीं पहुँच पाते। इनके लाभ बिचौलिए ऊपर ही ऊपर उठा लेते हैं। तब प्रश्न उठता है कि अज्ञानता एवं निरक्षरता की नींव पर खड़े राष्ट्र का चहुँमुखी विकास कैसे सम्भव होगा। इसीलिए राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने कहा था- ‘‘करोड़ों लोगों का निरक्षर रहना भारतवर्ष के लिए कलंक और अभिशाप है। इससे मुक्ति पानी ही होगी।’’

बौद्धिक-स्तर पर तो सभी यह स्वीकार करते हैं कि शिक्षा विकास की एक अनिवार्य शर्त है और साक्षरता शिक्षा की पहली सीढ़ी। फिर भी अनेक ऐतिहासिक, सामाजिक, राजनैतिक एवं आर्थिक कारणों से इसे मूर्त रूप देने में हम असफल रहे हैं। सब लोग साक्षर हों और पढ़े-लिखे बंधु इन्हें साक्षर बनाने का प्रयास करें, ऐसा विश्वास करने वाले कम हैं तो कर दिखाने वाले और भी कम। आज देश की आबादी बढ़कर एक अरब से भी अधिक हो गई है और उसमें आधे से अधिक लोग निरक्षर हैं। वर्ष 1971 में भारत में करीब 29 प्रतिशत लोग साक्षर थे। वर्ष 1981 में साक्षरता-दर 36.23 प्रतिशत हो गई। लेकिन इस बीच निरक्षरों की संख्या भी 38 करोड़ से बढ़कर 41 करोड़ हो गई। वर्ष 1991 की जनगणना के अनुसार सात वर्ष से ऊपर के निरक्षरों की संख्या देश में 32.40 करोड़ थी। इस वर्ष हुई जनगणना के आँकड़े इसमें इजाफा होने का संकेत दे रहे हैं। साक्षरता अभियान से सामाजिक परिवर्तन हुआ, शहरी महिलाएँ अपने अधिकारों के प्रति जाग्रत हुईं। शराब की बिक्री, दहेज की मांग, बलात्कार की घटनाओं आदि सामाजिक बुराइयों का संगठित होकर विरोध करने लगी। दहेज-मुक्त सामूहिक विवाह की प्रथा शुरू हुई। पर ग्रामीण क्षेत्रों में अशिक्षा के कारण जनसंख्या बढ़ी है, जिससे ग्रामीण गरीब तंगी, तनाव, बेकारी का असहनीय बोझ ढोता परेशान है। शिक्षा के अभाव में वह आज भी अँगूठे का निशान लगाने को मजबूर है। पत्र पढ़वाने के लिए दूसरों का दरवाजा खटखटाता है। बिना अनुकूल वातावरण के व्यक्ति के व्यक्तित्व में निखार नहीं आ सकता। व्यक्ति के विकास के साथ समाज एवं राष्ट्र का विकास जुड़ा है।

जब रेडियो का आविष्कार हुआ तो संचार माध्यमों में नई धूम मच गई। आकाशवाणी ने शहरी क्षेत्रों के अतिरिक्त सुदूर बीहड़ और ग्रामीण क्षेत्रों में भी अपनी लोकप्रियता कायम की। आम आदमी की मानसिकता को बदलने में वह काफी हद तक सफल रहा। इसके बाद टेलीविजन का युग आया। अब ग्रामीण निरक्षर भी टेलीविजन पर रामायण, महाभारत के आदर्श पात्रों की भूमिका अपनी आँखों से देखने लगे जिससे दबी संस्कृति का उभार होने लगा। बहुत-सी बातें जब समझ से बाहर होने लगीं तो लोग साक्षर बनने की बात सोचने लगे यानी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने उनमें एक नई चेतना विकसित की। पढ़ने-लिखने और गणित सीखने के अतिरिक्त व्यक्ति के दैनिक जीवन को प्रभावित करने वाले आयामों को भी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने प्रभावित किया। अब हमारा ध्यान साक्षरता और ग्रामीण विकास, साक्षरता एवं बेरोजगारी, साक्षरता एवं पर्यावरण तथा साक्षरता एवं कृषि की ओर जाने लगा। मीडिया के व्यवसायीकरण के बावजूद आज ग्रामीण जनता लोक माध्यमों से जुड़ी है। राष्ट्रीय साक्षरता मिशन के अन्तर्गत अब तक तीन करोड़ बत्तीस लाख व्यक्तियों को साक्षर बनाया जा चुका है। विश्व बैंक ने अपनी रिपोर्ट में इस बात की पुष्टि की है कि भारत में गरीबी रेखा के नीचे वाली आबादी 1985 के 40 प्रतिशत से घटकर 1992 में 22 प्रतिशत रह गई। फिर भी आबादी में वृद्धि के कारण उनकी कुल संख्या में वृद्धि हुई।

राष्ट्रीय एवं अन्तरराष्ट्रीय दोनों क्षेत्रों में मीडिया ने सफलता प्राप्त की है। चाहे वह कश्मीर समस्या हो या कारगिल युद्ध, प्रतिभूति घोटाला हो या पशुपालन घोटाला, अन्तरराष्ट्रीय व्यापार हो या उग्रवाद- हमने सारी दुनिया को बता दिया है कि कश्मीर हमारा अभिन्न अंग हैं। जब कश्मीर समस्या को अन्तरराष्ट्रीय मंच पर उछाला गया, तो उसमें भी हमें अपार सफलता मिली। यह सब मीडिया के कारण ही सम्भव हो सका। लोगों को सीखने-समझने की उत्कंठा को बढ़ावा मिला। दूरी में कमी आई।

पत्र-पत्रिकाओं और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया द्वारा आम लोग साक्षरता के महत्व को समझने लगे हैं। धीरे-धीरे लोगों के मन में यह बात बैठने लगी है कि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क निवास करता है। जो निरक्षर हैं, वे ज्यादातर अस्वस्थ रहते हैं, भूत-प्रेत, डायन-ओझा में विश्वास करते हैं, गाँव के स्वास्थ्य उपकेन्द्र पर जाना नहीं चाहते, बीमारी भूत बनकर उन पर सवार है, बीमारी के कारण वे कमजोर हो जाते हैं, कमजोरी के कारण काम नहीं मिल पाता। यदि मिलता भी है तो कम मजदूरी पर काम करना पड़ता है जिससे गुजारा नहीं हो पाता यानी वे आजीवन गरीबी और निरक्षरता के चक्रव्यूह में घिरे रहते हैं।

आज विश्व सूचना क्रान्ति के युग से गुजर रहा है। जीवन के विविध आयामों- कृषि, उद्योग, स्वास्थ्य, शिक्षा, पर्यावरण- सबमें नए-नए परिवर्तन हो रहे हैं। ऐसे में साक्षरता का विशेष महत्व हो जाता है। अब यह माना जाने लगा है कि किसी भी देश की सबसे बड़ी पूँजी मानव है। यदि उसमें सृजनात्मक शक्ति का अभाव हुआ तो देश बर्बाद हो जाएगा। इसीलिए ‘मानवाधिकार’ शब्द विश्व पटल पर बारंबार चक्कर काट रहा है। मानव जीवन से संबद्ध कोई भी आयाम, चाहे वह कृषि हो या पशुपालन, नौकरी हो या दैनिक मजदूरी- सभी के लिए एक स्तर तक साक्षर होना अनिवार्य है। साथ ही मीडिया को अधिक सक्रिय बनाना भी जरूरी है। मीडिया ही बताता है कि फसल की बुआई का उचित समय क्या है, बीज की मात्रा कितनी होनी चाहिए, बीज का रख-रखाव कैसे किया जाए खाद एवं कीटनाशक दवाओं के प्रयोग की विधि क्या है, पशुओं के लिए उचित आहार तथा बीमार पशुओं के लिए दवा क्या है। कुटीर एवं लघु उद्योगों के लाभ पर्यावरण प्रदूषण से हानि आदि क्या हैं। इतना ही नहीं, वह नए-नए वैज्ञानिक तथ्यों को हमारे सामने रखता है, जैसे कि वन विनाश से ऑक्सीजन एवं वर्षा दोनों की कमी हो जाएगी। सूखे व अकाल की स्थिति पैदा होगी। ओजोन परत में छिद्र हो जाएगा या वह हल्की हो जाएगी, जिससे सूर्य की पराबैंगनी किरणें धरती पर सीधे पड़ने लगेंगी। फलतः हरियाली समाप्त हो जाएगी। विभिन्न प्रकार की बीमारियाँ फैलेंगी। मीडिया सिर्फ समस्याओं को उजागर नहीं करता बल्कि समाधान भी प्रस्तुत करता है। पहले परिवार नियोजन के कृत्रिम साधनों का नाम लेने में लोग लज्जा अनुभव करते थे। अब मीडिया के माध्यम से परिवार नियोजन के सभी तरीके लोगों के घरों में पहुँचने लगे हैं। समाचार-पत्र गरीबों के बीच लोकभाषा में यह बताने में सफल रहे हैं कि सिर्फ दूध, अंडा, मांस, सेब, अंगूर में ही पौष्टिक तत्व नहीं होते बल्कि साग, गोभी, मूली, गाजर, आलू, दाल, लहसुन, प्याज में भी प्रचुर मात्रा में पौष्टिक तत्व मौजूद हैं।

मीडिया के कारण कृषि उत्पादन में वृद्धि हुई है। बाढ़ और तूफान की पूर्व सूचना से हम सतर्क हो अपना बचाव करने लगे हैं। श्वेत क्रांति एवं नील क्रांति के करीब आने लगे हैं। सामाजिक कुरूपता पर नियन्त्रण होना शुरू हुआ है। हम समझने लगे हैं कि आवश्यकताओं की सीमितता ही वास्तविक सुख है। बड़े-बड़ों की नकल खुद का घर है। शोषण के विरुद्ध आवाज बुलंद करना हमारा कर्तव्य है और हमें ‘अहम’ की भावना से ऊपर उठकर काम करना चाहिए।

इलेक्ट्रॉनिक मीडिया गृहणियों के लिए भी कम उपयोगी नहीं है। गर्भवतियों की देखभाल से लेकर बच्चों के लालन-पालन तक की सारी जानकारी घर बैठे मिल जाती है। सफाई, खाना बनाना एवं उसे ढककर रखने के लाभों से अवगत कराया जाता है। खाली समय में मनोरंजन भी हो जाता है लेकिन टी.वी., रेडियो, दूरभाष, समाचार-पत्र उन निरक्षरों के लिए कितने उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं जो न तो पढ़ पाते हैं, न ही समझ पाते हैं। यानी मीडिया का प्रथम काम लोगों को पूर्ण साक्षर बनाना होना चाहिए। यदि कहें कि 21वीं शताब्दी के भारत में सम्पन्न वर्ग की ही मीडिया तक पहुँच है तो इसमें अतिश्योक्ति नहीं होगी। अब मीडिया को गरीबों की झोपड़ी में जाना होगा। नई पंचायती राज व्यवस्था में मीडिया का महत्व विशेषकर बढ़ जाएगा।

साक्षरता में मीडिया की भूमिका पर विचार करें तो एक दूसरा पक्ष भी उभर कर आता है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से युवक-युवतियों में शहरों की चकाचौंध के प्रति आकर्षक पैदा होता है। आधुनिक फैशन को बढ़ावा मिलता है। उपभोक्ताओं में आकर्षण पैदा करने के लिए भड़काऊ विज्ञापन दिए जाते हैं। नारी की अर्द्धनग्न तस्वीरों का उपयोग किया जाता है जिससे युवाओं के मन में विकृतियाँ उत्पन्न होती हैं, या फिर हीन भावना पनपती है। धनी बनने की ललक पैदा होती है। फलतः अपराध, भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलता है। गाँवों से शहरों की ओर बड़े पैमाने पर पलायन होता है जिससे शहर प्रदूषित होते हैं।

कुछ अखबार वाले जिनके हाथ में कलम और सरकारी मान्यता है, कार्यालय में बैठे-बैठे बड़े नेताओं एवं पहुँच वाले लोगों के बयान पर बिना हकीकत से परिचित हुए या फिर पक्षपात की भावना से ग्रसित होकर गलत समाचार छाप देते हैं जिससे मीडिया की विश्वसनीयता, प्रोफेशनलिज्म और प्रामाणिकता को धक्का लगता है।

लेकिन इन कुछ कुप्रभावों के चलते हमें मीडिया के लाभों के प्रति उदासीन नहीं हो जाना चाहिए। संचार माध्यमों द्वारा आम लोगों को साक्षरता से जोड़ने का प्रयास जारी रखा जाना चाहिए। साक्षरता के लिए दूरदर्शन पर एक चैनल सुरक्षित किया जा सकता है। सुनियोजित संचार नीति ही देश की आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक विद्रूपता को सन्तुलित कर सकती है। जिस दिन भारत पूर्ण साक्षरता का लक्ष्य प्राप्त कर लेगा उस दिन मीडिया भी गौरवान्वित अनुभव करेगा।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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