शासन में नैतिक मूल्य और सूचना-अधिकार का उपयोग

10 Nov 2013
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“मानव के रूप में हमारी महानता विश्व के पुनर्निर्माण में सक्षम होने में उतनी नहीं...(यह परमाणु की धारणा है) जितनी स्वयं के पुनर्निर्माण में सक्षम होने में है” – महात्मा गांधी

पारदर्शिता एक ऐसा अत्यधिक महत्वपूर्ण व्यवस्थित तथ्य है जो शासन की नैतिक विशेषताओं को निर्धारित करता है। भारत में यह शासकीय गोपनीयता अधिनियम, 1923 (ओ.एस.ए.) है, जिसे सरकार में व्यापक गोपनीयता के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार माना जाता है। इस अधिनियम की धारा-5 में आधिकारिक गोपनीयता को अनधिकृत रूप में प्रकट करने के लिए दंड देने का प्रावधान है, किंतु इसमें गोपनीयता की परिभाषा नहीं है। इससे निरंतर इसमें आलोचना एवं संशोधन की मांग होती रही है।

आज के समय में वैयक्तिक नैतिक मानकों के उत्थान की बढ़ती हुई आवश्यकताओं को इस प्रश्न पर एक लंबी या व्यापक बहस में उठाया गया कि क्या किसी संगठन की नैतिक विशेषताएं उसमें शामिल व्यक्तियों की नैतिक विशेषताएं उसमें शामिल व्यक्तियों की नैतिक विशेषताओं से बहुत स्वाधीन है, उस बहस में पड़ना इस लेख के विषय से परे है। तथापि, इस बहस से स्पष्ट हो गया है कि स्वयं के व्यवस्थित तथ्य किसी संगठन की नैतिक विशेषताओं को व्यापक रूप से प्रभावित करते हैं।

नीतिशास्त्र केवल इसलिए महत्वपूर्ण नहीं है कि यह एक समाज को बनाता है, बल्कि उससे भी अधिक उस व्यक्ति के व्यक्तिगत संतोष की दृष्टि से और महत्वपूर्ण है जो नीतिपरक है या गैर-नीतिपरक, नैतिक प्रवृत्तियों तथा समाज के लिए सफलता की स्थिति बनाती है। सुख-शांति एवं नीतिशास्त्र के बीच संबंध इस दृष्टि से द्वि-उद्देशीय होता है कि व्यक्तिगत नीतिशास्त्र किसी की सुख शांति को प्रभावित करता है, जबकि सुख-शांति भी नैतिक प्राथमिकताओं को प्रभावित करती है। अनुसंधान से पता चला है कि नैतिक प्रवृत्तियों में सुख-शांति बढ़ती है और व्यापक सुख-शांति से उन्नत नैतिक निर्णय लिए जा सकते हैं और इस तरह नीतिशास्त्र एवं स्वाभिमान के बीच सहक्रिया पनपती है। अमरीका के विपणन संस्था के सदस्यों पर किए गए अनुसंधान के परिणाम बताते हैं कि प्रबंधन विशेषज्ञ सामान्यतः यह विश्वास रखते हैं कि नीतिशास्त्र एवं सामाजिक दायित्व संगठन की प्रभावकारिता के महत्वपूर्ण घटक हैं।

नैतिक पतन से सामाजिक ढांचे का पतन होगा और संपूर्ण अव्यवस्था की स्थिति आ जाएगी। हमारे समाज में नीतिशास्त्र की भूमिका अत्यधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह मूल आस्था/धारणा एवं मानक है, जो सभी को बेहतर गतिशील बनाते हैं। नीतिशास्त्र का बोध ऐसे वातावरण के सृजन में सहायता करता है, जिसमें हम यह विश्वास रखते हैं कि नैतिकता का कम से कम कुछ बुनियादी स्तर तो सुनिश्चित है। उदाहरण के लिए चूंकि हम अपने डॉक्टरों पर विश्वास करते हैं इसलिए हम यह निसंदेह मानते हैं कि हम उनके उपचार पर विश्वास कर सकते हैं। नीतिशास्त्र के पतन के परिणामस्वरूप सार्वभौमिक अविश्वास/संदेह का जो वातावरण बनेगा वह संपूर्ण मानवता को ऐसे खतरनाक पड़ाव पर ला देगा जहां कभी भी कोई व्यवसाय संभव नहीं होगा।

पारदर्शिता एक ऐसा अत्यधिक महत्वपूर्ण व्यवस्थित तथ्य है जो शासन की नैतिक विशेषताओं को निर्धारित करता है। भारत में यह शासकीय गोपनीयता अधिनियम, 1923 (ओ.एस.ए.) है, जिसे सरकार में व्यापक गोपनीयता के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार माना जाता है। इस अधिनियम की धारा-5 में आधिकारिक गोपनीयता को अनधिकृत रूप में प्रकट करने के लिए दंड देने का प्रावधान है, किंतु इसमें गोपनीयता की परिभाषा नहीं है। इससे निरंतर इसमें आलोचना एवं संशोधन की मांग होती रही है।

“सूचना अधिकार एवं पारदर्शिता 1997” पर श्री एच.डी. शौरी की अध्यक्षता में गठित कार्य समूह की रिपोर्ट में यह सिफारिश की गई है कि ओ.एस.ए. की धारा 5(1) में ऐसे व्यापक संशोधन किए जाएं, जिनमें केवल राष्ट्रीय सुरक्षा को प्रभावित करने वाले उल्लंघनों पर लागू होने वाले दंडात्मक प्रावधान हों। श्री वीरप्पा मोइली की अध्यक्षता में जून, 2005 में जारी की गई द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग की पहली रिपोर्ट उस सिफारिश से इस रूप में सहमत है, “राष्ट्रहित में किसी सूचना की गोपनीयता को बनाए रखने के महत्व को मान्यता देते हुए, आयोग का यह मत है कि सूचना को प्रकट करने का मानदंड हो और इसे गोपनीय बनाए रखना एक अपवाद होना चाहिए। ओ.एस.ए. अपने वर्तमान रूप में सूचना की स्वतंत्रता व्यवस्था के सृजन में एक बाधा है और ओ.एस.ए. के प्रावधानों में उस सीमा तक संशोधन किए जाने की आवश्यकता है। सावधानीपूर्वक विचार करने के बाद आयोग, शौरी आयोग द्वारा प्रस्तावित संशोधन से सहमत है, क्योंकि यह राष्ट्रीय सुरक्षा से कोई समझौता किए बिना पारदर्शिता की आवश्यकता तथा राष्ट्रीय सुरक्षा की अत्यावश्यकता का सौहार्दपूर्ण रूप में समाधान करता है। आगे, यह अत्यधिक प्रशंसनीय है कि सिफारिश पर चलना शासकीय गोपनीयता अधिनियम 1923 को निरस्त करता है।

ओएसए हमारे पुराने कानूनों का ज्वलंत उदाहरण है, जिसमें उनिवेशवाद की बू आती है। ऐसे क़ानूनों और तौर-तरीकों की कमी नहीं है। उदाहरण के लिए भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 में यह प्रावधान किया गया है कि किसी भी अदालत में ऐसा कोई भी सबूत पेश नहीं किया जाएगा जो कार्यालय प्रमुख की अनुमति के बिना राज्य के कार्यों के बारे में अप्रकाशित सरकारी रिकार्डों से लिया गया हो। इसके अलावा धारा 124 में यह अत्यंत हास्यापद है जिसमें यह निर्धारित किया गया है कि किसी भी लोक अधिकारी को राजकीय विश्वास में उससे किए गए पत्र व्यवहार की जानकारी देने के लिए मजबूर नहीं करेगा, जबकि वह समझता है कि ऐसी सूचना देने से सार्वजनिक हित को नुकसान पहुँचेगा। यद्यपि विभाग प्रमुख की आधिकारिक नियुक्ति के आधार पर उसके पास उपलब्ध सूचना को प्रस्तुत करने की अनिवार्यता से उसे बचाने के लिए कुछ तर्क दिए जा सकते हैं। तथापि प्रत्येक सरकारी अधिकारी को ऐसी सुविधा देने से गोपनीयता को और बढ़ावा मिलेगा। विधि आयोग ने 1977 में अपनी 69वीं रिपोर्ट में और 1983 में 88वीं रिपोर्ट में शौरी समिति में और 1983 में 88वीं रिपोर्ट में शौरी समिति ने 1997 में और प्रशासनिक सुधार आयोग ने 2006 में इस अधिनियम में संशोधन करने की सिफारिश की है। बड़ी संख्या में आम भारतीय उसके द्वारा भेजे जा रहे अनेक कठिन मामलों के पर्याप्त समाधान में सरकारी संस्थाओं द्वारा अक्षमता से कुंठित है। अच्छा समाचार यह है कि बड़ी संख्या में व्यक्ति निर्णय लेने की प्रक्रिया को सार्थक रूप में समाहित किए जाने की मांग कर रहे हैं। नागरिक शासन के मामलों में शुरू से लेकर अंत तक शामिल होना चाहते हैं, यदि ऐसा होता है तो सरकारी संस्थाओं का उत्तरदायित्व पर्याप्त रूप में बढ़ जाएगा।

यद्यपि यह पूरे विश्व में देखा गया है कि शासन के मामले में ईमानदार सरकारें भी नागरिकों को शामिल नहीं किया है। अनुसंधान से पता लगता है कि इसका प्रारंभिक कारण यह है कि सरकार नागरिकों के निर्णय पर विश्वास नहीं करती। अन्य महत्वपूर्ण कारण यह है कि यह व्यापक धारणा है कि वह ऐसी शक्तियों के बँटवारे की अनिच्छुक है जो सरकारी अधिकारियों को नागरिकों में शक्ति वितरण से रोकती है। निश्चय ही भारत में वर्तमान परिदृश्य में अनेक दबाव समूहों तथा घबराई हुई अफसरशाही के साथ नागरिकों को शामिल करना दिखाई देगा। किंतु उसका कुछ महत्व होगा, वोट बैंक सुरक्षित रखने को प्राथमिकता देने में राजनीति में बढ़ रही प्रवृत्ति के कारण स्थिति और विकट हो गई है जिसमें सभी को खुश करने के प्रयास किए जाते हैं और प्रायः कोई खुश नहीं होता।

सूचना अधिकार अधिनियम, 2005 भारत के इतिहास में एकमात्र अत्यधिक शक्तिशाली विधान है। पहली बार लोगों को एक ऐसी सुविधा दी गई, जिसमें वे सरकारी कर्मचारियों को उत्तरदायी बनाए रखने के लिए उनसे प्रश्न पूछ सकते हैं।

सूचना अधिकार (आर.टी.आई.) जन केंद्रित शासन में सहभागी प्रजातंत्र तथा प्रवेश को मजबूती प्रदान करने में महत्वपूर्ण देखा गया है। सरकारी नीतियों और कार्य के बारे में सूचना की मांग करने और उसे प्राप्त करने तथा उसके द्वारा अपने कल्याण के लिए समाज के गरीब तथा कमजोर वर्गों को शक्ति मिल सकती है। आरटीआई से आम लोगों को सरकारी रिकॉर्डों की छानबीन करने का अवसर मिला है, जिससे वे यह जान सकते हैं कि सरकार क्या करती है और उसके कार्य का तरीका कितना कारगर है।

आरटीआई में सभी स्तर की सरकारों को शामिल किया गया है और इसका दायरा व्यापक बनाया गया है। इसमें केंद्र सरकार, राज्य सरकारें और स्थानीय निकाय आदि सभी शामिल हैं। आरटीआई के तहत कुछ अपवादों को छोड़कर आम आदमी को बहुत व्यापक पहुंच उपलब्ध कराई गई है। केंद्र द्वारा कनाडा, स्पेन, यूरोप में लॉ एंड डेमोक्रेसी पर आधारित आरटीआई रेटिंग परियोजना के आधार पर विश्व भर में किए गए व्यापक सर्वेक्षण के अनुसार भारत को दुनिया में दूसरा दर्जा प्राप्त है, जिसमें 150 में से 130 अंक तथा पहले दर्जें पर साइबेरिया ने 135 अंक लिए हैं। संयुक्त राज्य अमरीका तथा संयुक्त राज्य ने क्रमशः 89 एवं 97 अंक लिए हैं, जबकि जर्मनी और ग्रीस ने क्रमशः 54 एवं 40 अंक लिए हैं।

यद्यपि इस प्रकार के नए संविधान में सभी सरकारी एजेंसियों पर स्थायी रूप से प्रभाव पड़ने की आशा की थी। तथापि कई कार्यान्वयन के मामले हैं जिनका समाधान किए जाने की आवश्यकता है।

अधिकांश मामलों में सूचना किसी विभाग/एजेंसी से शिकायत होने पर मांगी जाती है। अनुभव दर्शाता है कि कार्यकर्ता/विभाग किसी शिकायत को दूर करने या (सूचना देने में) समर्थन देने की बजाय अपने बचाव की कार्रवाई करते हैं और विशेष रूप से तब, जब कोई प्रश्न सीधे उनके आचरण (या दुराचरण) से संबंधित होता है। यह प्रवृत्ति एक ऐसे स्वलंब मंच की आवश्यकता पर बल देती है। ऐसी कोई भूल-चूक जिसमें परेशान करने, भ्रष्टाचार आदि के कृत्यों पर शिकायतें सुनी जा सके जो या तो आर.टी.आई. के अंतर्गत मांगी गई सूचना से अन्यथा प्राप्त हुई हों।

सेवानिवृत्त केंद्रीय सूचना आयुक्त शैलेश गांधी के अनुसार इस समय आरटीआई. अधिनियम का सामना करने में बड़ी समस्या यह है कि उन सूचना आयोगों में मामले बड़ी संख्या में लंबित पड़े हैं, जो आर.टी.आई. अधिनियम को लागू करने के लिए जिम्मेदार है। लंबित मामलों की वर्तमान स्थिति यह है कि प्रायः सभी मामले, निपटान आदि में कई महीने ले लेते हैं और कई मामले कई वर्षों में सुलझते हैं। इस तरह से आम व्यक्ति इस प्रक्रिया से उसी तरह शीघ्र ही बहुत दूर चला जाएगा जैसे वह न्यायिक प्रक्रिया में अत्यधिक विलंब के कारण उस प्रक्रिया से दूर चला जाता है। सूचना आयोगों के साथ सिटिजन चार्टर को जोड़ना आरटीआई के अवक्रमण को रोकने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम होगा।

(लेखक आई.टी.आई. खड़गपुर से जुड़े हैं

ई-मेल: yashvant.ritesh@gmail.com)

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