शौचालय से निकले कुछ विचार

3 Nov 2016
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पटरी से लेकर न्यायालय की मेज तक फैली इन विषमताओं का आदर्श समाधान है शौच निपटने की कोई और व्यवस्था। पर निकट भविष्य में तो हर किसी को शौचालय मुहैया होना नामुमकिन है। कई सालों की भरसक और लगातार कोशिशों के बाद भी ऐसा होना आसान नहीं होगा, चाहे इसमें कितने ही हजार करोड़ रुपए डाल दिये जाएँ। अगर पटरी के ऊपर और आसपास लोगों का मलत्याग करना बन्द हो भी जाये तो भी पटरियों पर मल-मूत्र गिरता ही रहेगा क्योंकि इसका एक और स्रोत हैः रेलगाड़ी के भीतर बैठे यात्री।

हर रोज लगभग 225 लाख लोग हमारी रेलगाड़ियों में यात्रा करते हैं। इनमें कोई 160 लाख लोग लम्बी दूरी के यात्री होते हैं। भारतीय रेल की दस हजार से ज्यादा रेलगाड़ियाँ हर रोज चलती हैं पूरे देश भर में।

करीबन सात हजार से ज्यादा स्टेशन और 52,000 से अधिक सवारी डिब्बों में देश का एक हिस्सा दूसरे हिस्सों से परिचित होता है। इन डिब्बों में कई जबानें बोली जाती हैं, भाँति-भाँति का खाना-पीना, रहन-सहन, कपड़ा-लत्ता होता है। तरह-तरह के लोग एक-दूसरे से टकराते हैं। कोई एक लाख किलोमीटर से अधिक लम्बाई है रेल पटरियों की, यानी धरती से चाँद तक एक पंक्ति में लगा दो तो कोई एक-तिहाई रास्ता नापा जा सके।

बहुत सी जमीन भी है रेलवे के पास। 11 लाख एकड़ से ज्यादा। गोआ राज्य की कुल जमीन से भी सवाई ज्यादा। इसमें से कई हजार एकड़ तो यूँ ही खाली पड़ी रहती है। इतनी जमीन की रखवाली करना कतई आसान नहीं है। वैसे तो हमारे यहाँ सरकारी जमीन पर कब्जे होते ही रहते है, पर रेलवे की जमीन हथियाना खासा आसान होता है। ऐसी ही जमीन उन लोगों का आसरा होती है जो मुसीबत में गाँवों और छोटे शहरों को छोड़कर बड़े शहरों में पहुँचते हैं, रोजगार, सुविधा और बेहतर भविष्य की आशा में। लेकिन उन्हें वे सुविधाएँ नहीं मिल पातीं जो उनके पहले आ बसे लोगों को मिली हुई होती हैं। हमारी शहरी आबादी का ज्यादातर हिस्सा दो-चार पीढ़ी पहले गाँवों या छोटे शहरों में रहता था। हर शहर की कहानी में कई तरह के शरणार्थी आते हैं।

पुराने शरणार्थी नए शरणार्थियों को पसन्द नहीं करते हैं क्योंकि सीमित साधनों पर आबादी का दबाव बढ़ जाता है। नए शरणार्थियों को जैसी भी परिस्थिति मिले उसे स्वीकार करना पड़ता है। बड़े शहरों में रोजगार आसानी से मिलता है, सो रोटी और कपड़े का इन्तजाम तो हो जाता है। लेकिन शहरों में मकान आसानी से नहीं मिलते।

ज्यादातर नए लोगों को जैसे-तैसे करके झोपड़पट्टियों में या दूसरे तंग इलाकों में थोड़ी सी जगह मिलती है। सिर पर छत होना जरूरी होता है, घर में शौचालय के होने का सवाल बाद में आता है। वैसे भी गाँव से आये लोगों को तो खुले में शौच जाने की आदत होती है, उन्हें यह उतना अटपटा नहीं लगता। पर घनी आबादी वाले शहरों में खुली जगह मिलना आसान नहीं होता।

रेलवे की जमीन ऐसे में बहुत काम आती है। पटरियों के इर्द-गिर्द शौच निपटते लोग आम बात है। यह दृश्य शहरों के भीतर और आसपास ज्यादा दिखता है। कई जगहों पर तो लोगों के पास शौच जाने की जगह एकदम ही नहीं होती। ऐसे में रेल पटरी के ठीक ऊपर बैठने के सिवा कोई उपाय नहीं होता। रेलवे अधिकारी मानते हैं कि देश भर में कुल पटरी की जमीन का एक प्रतिशत ऐसा है जिस पर घनघोर मलत्याग होता है। कुछ लोगों ने तो भारतीय रेल को एक बहुत बड़े शौचालय की उपमा भी दी है।

एक पटरी पर चलती रेलगाड़ी में बैठे लोग खिड़की से झाँकते हुए दूसरी पटरी पर मलत्याग करते लोगों को देखते हैं। कभी-कभी तो बगल की पटरी पर चलती रेलगाड़ी के जाने तक लोग खड़े होकर अपनी लज्जा ढँक लेते हैं, कभी बैठे-बैठे ही केवल मुँह फेर लेते हैं। अगर ऐसा रोजाना करना पड़े तो लोगों को इस शर्मिन्दगी की आदत पड़ जाती है। रेलगाड़ी के यात्री भी ऐसे दृश्यों के आदी हो जाते हैं।

महिलाओं के लिये तो यह और भी अपमानजनक होता है। मलत्याग करना आखिर शरीर पर दैनिक धर्म ठहरा, सो घूँघट खींच कर बैठ जाती हैं। इन इलाकों में महिलाएँ आमतौर से सूरज उगने के पहले शौच निपटने जाती हैं या अंधेरा होने के बाद। अंधेरे में गरिमा तो थोड़ी बचती है, लेकिन जमीन पर रेंगने वाले कीड़ों और जानवरों से खतरा हमेशा रहता है।

इसके कारण एक और बड़ा खतरा खड़ा हो जाता है: रेल दुर्घटना का। पानी और मल-मूत्र में ऐसे रसायन होते हैं जो धीरे-धीरे इस्पात को गला देते हैं। इसका असर पड़ता है उन कब्जों पर जो पटरी को नीचे बिछे स्लीपर से बाँध कर रखते हैं। इन कब्जों को अगर समय-समय पर बदला न जाये तो दुर्घटना का डर बढ़ता जाता है। रेलवे को हर साल इन गले हुए कब्जों को बदलने पर 300-500 करोड़ रुपए खर्च करने पड़ते हैं।

कई और तरह के दैनिक हादसे होते हैं जिनकी चर्चा नहीं होती। पटरी के रख-रखाव का काम करने वाले रेलवे कर्मचारी मल-मूत्र और उसकी बदबू के बीच में अपना काम करते हैं। रेलवे को लगभग डेढ़ लाख सफाई कर्मचारी रखने पड़ते हैं, जिनका एक खास काम होता है। पटरी से मल-मूत्र साफ करना। लेकिन इनमें से बहुत कम को पक्का रोजगार मिलता है। ज्यादातर दिहाड़ी मजदूर होते हैं जो किसी ठेकेदार के लिये काम करते हैं। पटरी और स्लीपर से सूखा मल छुड़ाना आसान नहीं होता। उसे पानी, झाड़ू और हाथ की मेहनत ही हटा पाती है।

यह काम कुछ खास जाति और समाज के लोग करते हैं, जिन्हें आये दिन अपमान और अन्याय झेलना पड़ता है। न्यायालयों में हाथ से मैला ढोने की प्रथा पर आये दिन अभियोग चलते रहते हैं। आये दिन रेलवे अधिकारियों को न्यायालय आड़े हाथों लेता है, क्योंकि हाथ से मैला ढोने का काम करवाना गैरकानूनी है।

पटरी से लेकर न्यायालय की मेज तक फैली इन विषमताओं का आदर्श समाधान है शौच निपटने की कोई और व्यवस्था। पर निकट भविष्य में तो हर किसी को शौचालय मुहैया होना नामुमकिन है। कई सालों की भरसक और लगातार कोशिशों के बाद भी ऐसा होना आसान नहीं होगा, चाहे इसमें कितने ही हजार करोड़ रुपए डाल दिये जाएँ।

अगर पटरी के ऊपर और आसपास लोगों का मलत्याग करना बन्द हो भी जाये तो भी पटरियों पर मल-मूत्र गिरता ही रहेगा क्योंकि इसका एक और स्रोत हैः रेलगाड़ी के भीतर बैठे यात्री। वे चाहे खिड़की से बाहर झाँकते हुए खुले में शौच जाने वालों को नीची नजर से देखें, लेकिन सवारी डिब्बों के दोनों और बने शौचालयों की नालियाँ उनके ठीक नीचे खुलती हैं। खुले में पटरी पर मलत्याग तो केवल घनी आबादी वाली बस्तियों में ही होता है, जबकि रेलगाड़ी के शौचालयों के जरिए मल-मूत्र पूरे देश भर में पटरी के ऊपर गिरता है।

शौचालयों में लिखा होता है कि स्टेशन पर खड़ी गाड़ी में उसका इस्तेमाल नहीं होना चाहिए। लेकिन मल-मूत्र को त्यागने की जरूरत शौचालय पर लिखे नोटिस से नहीं चलती। लोग स्टेशन पर खड़ी गाड़ी में भी शौचालय जाते ही हैं, जिसका नतीजा नीचे गिरता है। इसे साफ करने के लिये रेलवे को ढेर सारे पानी की व्यवस्था करनी पड़ती है, स्टेशन की पटरी पर ‘एप्रन’ लगाने पड़ते हैं, जो मैले पानी को बहाकर एक निश्चित नाली के जरिए सीवर में डाल दें। हर एक प्लेटफॉर्म पर लगने वाले एप्रन की कीमत 2 करोड़ रुपए होती है। इनमें मैला बहाने के लिये अथाह पानी चाहिए होता है जिसके लिये हर कहीं रेलवे को ट्यूबवेल डालने पड़ते हैं।

तेज चलती रेलगाड़ी के नीचे हवा से मल-मूत्र पटरी के ऊपर और आसपास बिखर जाता है। हवा इतनी तेज होती है कि मल पिछले डिब्बे के नीचे चिपक जाता है। डिब्बों के रख-रखाव करने वाले कारीगरों का इस गन्दगी से सामना तो होता ही है, डिब्बों का इस्पात भी कमजोर पड़ता है। रेलगाड़ी के शौचालयों से निकला पानी धीरे-धीरे डिब्बे का निचला हिस्सा गलाता है। ऐसे डिब्बों की मरम्मत पर रेलवे का खर्चा भी ज्यादा होता है।

अगर हर रोज 160 लाख लोग लम्बी दूरी की रेलगाड़ी में सफर करते हैं और एक दिन में औसतन एक मनुष्य 200 से 400 ग्राम मल पैदा करता है, तो 20 लाख से 40 लाख किलो मल हर रोज पटरियों पर यात्रियों द्वारा गिराया जाता है। जो कोई भी रेलगाड़ी में शौच जाता है वह हाथ से मैला साफ करवाने की कुरीति को बढ़ावा तो देता ही है, पटरी और उसके कब्जों को गलाने में भी हाथ बँटाता है। क्या पता, भविष्य में होने वाली किसी रेल दुर्घटना में वह छोटा सा योगदान भी दे रहा हो।

इसका मूल कारण है डिब्बों में बने शौचालयों की नाली की बनावट। इसे बदलने की कोशिशें लगभग 40 साल से रेलवे में चल रही हैं। जैसे एक प्रस्ताव आया था कि इन नालियों का मुँह दोनों पटरियों के बीच में खोला जाय, बजाय पटरी और कब्जों के ठीक ऊपर। लेकिन यह बनावट चली नहीं। मल नाली के मोड़ में चिपककर तेज हवा से सूख जाता था। उसे साफ करना और भी मुश्किल हो जाता। नाली सीधी हो या मुड़ी हुई, स्टेशन पर खड़ी गाड़ियों के शौचालयों से निकलने वाला मल-मूत्र पटरी पर ही गिरता है। वहाँ से उठकर मक्खियाँ प्लेटफॉर्म पर खड़े लोगों पर बैठती हैं।

वैसे शौचालयों में लिखा होता है कि स्टेशन पर खड़ी गाड़ी में उसका इस्तेमाल नहीं होना चाहिए। लेकिन मल-मूत्र को त्यागने की जरूरत शौचालय पर लिखे नोटिस से नहीं चलती। लोग स्टेशन पर खड़ी गाड़ी में भी शौचालय जाते ही हैं, जिसका नतीजा नीचे गिरता है। इसे साफ करने के लिये रेलवे को ढेर सारे पानी की व्यवस्था करनी पड़ती है, स्टेशन की पटरी पर ‘एप्रन’ लगाने पड़ते हैं, जो मैले पानी को बहाकर एक निश्चित नाली के जरिए सीवर में डाल दें।

हर एक प्लेटफॉर्म पर लगने वाले एप्रन की कीमत 2 करोड़ रुपए होती है। इनमें मैला बहाने के लिये अथाह पानी चाहिए होता है जिसके लिये हर कहीं रेलवे को ट्यूबवेल डालने पड़ते हैं। पानी की किल्लत तो हमारे सभी शहरों में रहती ही है। ऐसे में स्टेशन साफ रखना बहुत कठिन होता है, जो किसी भी स्टेशन पर देखा जा सकता है।

इस सब में हम कैसे फँस गए? भारतीय रेल की समस्या दूसरे देशों में चलने वाली रेलगाड़ियों से एकदम अलग है। दूसरे देशों में लोग मलत्याग करने के बाद कागज का इस्तेमाल करते हैं, पानी का नहीं। उन देशों के रेल डिब्बों में बने शौचालयों के नीचे एक टंकी बनी होती है जिसमें मैला इकट्ठा होता है। इसे किसी मुनासिब जगह पर खाली किया जाता है, जहाँ से मैला सीवर में पहुँचता है। हवाई जहाजों में भी ऐसी ही व्यवस्था होती है। पर हमारे यहाँ पानी इस्तेमाल होता है, जिसकी वजह से मल-मूत्र के साथ ढेर सारा पानी भी शौचालय की नाली में बहाया जाता है।

भारतीय रेल ने भी ऐसे टैंक आजमाए। लेकिन उनसे केवल स्टेशन पर मैला गिरना रुका, क्योंकि इन टंकियों को चलती रेल में खोलना पड़ता था। मैला पानी फिर भी पटरी पर ही गिरता, उसके कब्जों को गलाता, हवा के साथ फैल कर डिब्बों के नीचे चिपकाता। रेलगाड़ी के डिब्बों के नीचे बहुत बड़ी टंकी लगाने की जगह नहीं होती है। फिर इतनी बड़ी टंकी को भी साफ तो करना ही पड़ता।

तमाम तरह के इंजीनियरी के समाधान रेलवे ने आजमाए लेकिन फिर भी समस्या जस-की-तस बनी रही। फिर एक समाधान निकला, लेकिन वह सिविल इंजीनियरी से नहीं, जीवविज्ञान से आया। उसके पीछे थी 20 साल की साधना, जिसे सेना के रक्षा अनुसन्धान एवं विकास संगठन के वैज्ञानिकों ने किया था। इस संगठन को डीआरडीओ भी कहते हैं। सेना को इस काम में क्यों जुटना पड़ा? जवाब है सियाचिन में तैनात सैनिकों की परेशानी के कारण।

सन 1984 में भारतीय सेना ने एक सैनिक टुकड़ी सियाचिन के हिमनद पर तैनात की थी। जमी हुई बर्फ के इस वीराने में जीवन बहुत मुश्किल होता है। इतनी ठंड में मल सड़कर गलता नहीं है, बर्फ के साथ ही जमा रहता है। मल को गलाने वाले सूक्ष्म बैक्टीरिया इतने कम तापमान पर जीवित ही नहीं रहते। यही कारण है कि दुनिया के सबसे ऊँचे पर्वत एवरेस्ट के आसपास पर्वतारोहियों के मल-मूत्र की वजह से घोर प्रदूषण हो रहा है।

सियाचिन में इससे एक और समस्या आती थी। सैनिक उसी हिमनद पर मलत्याग करते थे जो उनका एकमात्र जल स्रोत था और जहाँ की बर्फ गला कर पीने का पानी मिलता था। सेना को जरूरत थी ऐसे शौचालयों की जो इतनी मुश्किल जगह पर काम कर सकें, पर आकार में छोटे हों और इस्तेमाल में आसान। यह काम डीआरडीओ को सौंपा गया। सन 1989 में जीववैज्ञानिक लोकेंद्र सिंह इस काम में जुट गए।

ठंड में काम करने वाले तरह-तरह के जीवाणुओं के साथ वे सालों-साल प्रयोग करते रहे। उसमें अंटार्कटिका महाद्वीप की ठंड में जीने वाले बैक्टीरिया की खोज से भी मदद मिली। श्री लोकेंद्र और उनके सहयोगियों को समझ आ गया कि समाधान उन्हीं बैक्टीरिया में मिलेगा जो बिना ऑक्सीजन के जीते हैं। श्री लोकेंद्र और उनके सहयोगियों ने ऐसे कई जीवाणुओं को कई सालों तक पाला, उन्हें मुश्किल हालात में जीने लायक बनाया। कुछ वैसे ही जैसे लोग अपने पालतू जानवरों को करतब सिखाते हैं। इन जीवाणुओं को ऑक्सीजन रहित टंकियों में रख कर हिमालय के पार बसे लद्दाख प्रान्त में आजमाया गया।

कई सालों के परीक्षण और विफलताओं के बाद समझ में आया कि किस तरह के जीवाणु क्या करते हैं और उनसे काम कैसे लेना है। यह भी कि इन्हें ठीक काम करने के लिये किस तरह की टंकियाँ चाहिए। इनमें ऐसे बैक्टीरिया हैं जो पानी के इस्तेमाल से मल को अपना भोजन बना लेते हैं और अम्ल की खटाई के रूप में उसे निष्कासित करते हैं। कुछ ऐसे भी हैं जो इन तेजाबों गलाकर सिरका बना लेते हैं, और ऐसे भी जो इस सिरके को गला कर उससे पोषण लेते हैं और बचे हुए मैल को प्राकृतिक गैस बना देते हैं।

कुछेक बड़े शहरों को छोड़ दें तो हमारे बाकी सभी नगर निगम कंगाल हैं। जो थोड़ा धन होता है वह नागरिकों को पानी पहुँचाने और सड़क-पुल बनाने जैसी कोशिशों में लग जाता है, क्योंकि इन सुविधाओं की माँग बहुत भारी होती है। पीने के पानी की आपूर्ति और मैले पानी का निस्तार आमतौर से नगर निगम की एक ही संस्था करती है। केन्द्रीय सरकार में भी पेयजल और स्वच्छता का काम एक ही मंत्रालय के पास है। यहाँ तक कि संयुक्त राष्ट्र संघ में भी पानी और स्वच्छता की बात एक साथ की जाती है, एक ही संस्था में।

कुछ इसी प्रकार के बैक्टीरिया हमारे पेट में भी बसते हैं और उनके बिना हम भोजन पचा नहीं सकते। यही कारण है कि मल के साथ हमारी आँत से पाद के रूप में प्राकृतिक गैस भी निकलती है। लेकिन हमारे पेट के तापमान की तुलना सियाचिन की बर्फ से नहीं हो सकती।

कई वर्षों के परीक्षण से डीआरडीओ ने वहाँ की कठोर परिस्थिति में कारगर एक ‘बायोडाइजेस्टर’ शौचालय बना लिया था। इसके भीतर जाता है मनुष्य का मल और मूत्र, बाहर केवल पानी आता है और प्राकृतिक गैस। जिस समय इस शौचालय की रूप-रेखा तैयार हो चुकी थी उसी समय रेलवे अपने यात्री डिब्बों के शौचालय बदलने के परीक्षण कर रहा था। इसके पहले जो कुछ आजमाया गया था वह काम नहीं आ रहा था। ऐसे में डीआरडीओ के शौचालय भी लगा कर देखे गए। शुरुआती अनुभव हालांकि कड़वे ही थे।

डीआरडीओ रक्षा मंत्रालय की संस्था है और उसका काम गुप्त रहता है। रेलवे भी एक सरकारी संस्थान जरूर है, पर है एकदम सार्वजनिक। दोनों में तालमेल धीरे-धीरे बढ़ा। इस साझेदारी में उन लोगों का पत्ता कटा जो दूसरे तरह के शौचालय रेलवे को बेचकर उनके रखरखाव का ठेका भी चाहते थे।

बायोडाइजेस्टर शौचालय में उनकी मुनाफाखोरी की गुंजाइश नहीं थी, सो रेलवे के परीक्षणों में कई तरह के रोड़े डाले गए। लेकिन रेलवे में कुछ अधिकारियों को समझ आ चुका था कि उनके लिये कारगर समाधान तो यही है। सो रेलवे ने ऐसे शौचालय रेलगाड़ी के सवारी डिब्बों में लगाना शुरू किया है।

रेल के डिब्बों में काम करने के लिये डीआरडीओ के बनाए ढाँचों में कुछ फेरबदल भी की गई। खासकर सूखे कचरे को टंकी में जाने से रोकने के लिये, क्योंकि यात्रियों को पुराने शौचालयों में हर तरह की चीजें फेंकने की आदत है। इसमें बोतल और पान मसाले के प्लास्टिक से लेकर शिशुओं के पोतड़े भी आते हैं। इन्हें रोकने के लिये शौचालय के छेद के नीचे विशेष छलनी बनाई गई है।

सन 2016 के फरवरी महीने तक 10,000 से अधिक डिब्बों में 32,000 से ज्यादा शौचालयों को बायोडाइजेस्टर में बदल दिया गया है। शुरू में हर डिब्बे के चार में से दो शौचालयों को ही बदला जा रहा है क्योंकि ऐसे शौचालय लगाना आसान नहीं है। हर डिब्बे में चार शौचालय लगाने की लागत है कोई चार लाख रुपए। सारे सवारी डिब्बों में बायोडाइजेस्टर शौचालय लगाने का खर्चा आज की कीमत पर कोई 2,000 करोड़ रुपए होगा।

सभी सवारी डिब्बों में शौचालय बदलने में आठ से दस साल लग जाएँगे। डिब्बों को रेलगाड़ियों से निकालकर कारखाने में लाने से रेलवे के संचालन पर असर पड़ता है। फिर भी, रेलवे के कई अधिकारी अब इस पद्धति में पूरा विश्वास रखते हैं। धीरे-धीरे ही सही, लेकिन उन्हें भरोसा है कि रेलवे अपने डिब्बों की गन्दगी मिटा सकेगा। कुछ अधिकारी तो इस असम्भव काम को सम्भव कर दिखाने के लिये डीआरडीओ के श्री लोकेन्द्र को जादूगर पुकारते हैं।

भारत में रेल आने के 150 साल बाद शौचालय की एक व्यावहारिक रूपरेखा तैयार हुई है। शुचिता का विचार आया है। क्या ऐसा जादू हमारे शहरों और गाँवों में हो सकता है? इसे समझने के लिये पहले रेलवे पर एक करीबी नजर डालिए। भारतीय रेल अकेली सरकारी संस्था है जिसका बजट अलग से बनता है और जिसके पास स्वशासित ढाँचा है।

रेलवे बोर्ड बहुत ताकतवर संस्था है जिसका भारतीय रेल पर नियंत्रण है, जो उसे चलाती है, रेलमंत्री और कैबिनेट रेलवे को नहीं चलाते। रेलवे के पास 13 लाख कर्मचारियों की सेना है, खास इंजीनियरिंग कॉलेज हैं और इंजीनियरों की पूरी फौज भी है। पिछले 40 सालों से रेलवे में कोशिशें चल रही हैं बेहतर शौचालय बनाने की। इस कवायद में उसका साथ निभाया सेना के एक ऐसे संस्थान ने जिसके पास शोध और विकास के लिये ढेर साधन हैं।

अब जरा दृश्य बदलें। रेलवे और उसके विशाल संसार को हटाएँ और सामने रखें अपनी गरीब और थकी हुई नगरपालिकाओं को, जिनके लिये स्वच्छता और शुचिता कोई प्राथमिकता नहीं है। कुछेक बड़े शहरों को छोड़ दें तो हमारे बाकी सभी नगर निगम कंगाल हैं। जो थोड़ा धन होता है वह नागरिकों को पानी पहुँचाने और सड़क-पुल बनाने जैसी कोशिशों में लग जाता है, क्योंकि इन सुविधाओं की माँग बहुत भारी होती है।

पीने के पानी की आपूर्ति और मैले पानी का निस्तार आमतौर से नगर निगम की एक ही संस्था करती है। केन्द्रीय सरकार में भी पेयजल और स्वच्छता का काम एक ही मंत्रालय के पास है। यहाँ तक कि संयुक्त राष्ट्र संघ में भी पानी और स्वच्छता की बात एक साथ की जाती है, एक ही संस्था में।

शासन के हर स्तर पर ज्यादातर पैसा और साधन पानी की आपूर्ति में खर्च होता है, मैले पानी को साफ करने पर नहीं। राजनेताओं की रुचि भी पानी के जुगाड़ में होती है क्योंकि इससे जनता को रिझाना आसान है। हर शहर की सुविधाओं की माँग अन्त नहीं है।

जितनी पानी की आपूर्ति बढ़ती है उतना ही मैला पानी भी बढ़ता है, क्योंकि जितना भी पानी किसी शहर में इस्तेमाल होता है उसका 80 फीसदी सीवर की नाली में पहुँचता है। पर मैले पानी के निस्तार और उसकी सफाई में किसी की भी गम्भीर रुचि नहीं होती है। जब मुश्किल बहुत बढ़ जाती है तभी शहर का ध्यान मैले पानी या कचरे की ओर जाता है, लेकिन तब तक मुश्किल बूते से बाहर हो चुकी होती है।

इस विषय में अनुभव और ज्ञान रखने वाले कहते हैं कि पानी मुहैया कराने में मुनाफा भी है और व्यापार के अवसर भी। वे याद दिलाते हैं कि हमारे घरों में पानी साफ करने की मशीनों और बोतलबन्द पानी की बिक्री बेतहाशा बढ़ी है। बोतलबन्द पानी की बिक्री बेतहाशा बढ़ी है।

बोतलबन्द पानी के बाजार का मूल्य 10,000 करोड़ रुपए से ज्यादा आँका जा रहा है। पीने का पानी साफ करने वाली महंगी मशीनें बेचने वाली एक कम्पनी ने इस बाजार का मूल्य सन 2013 में 3,200 करोड़ रुपए बताया था। ये बाजार दो साल में दोगुना हो जाता है और पूरी तरह अनियमित है। पानी साफ करने की मशीनों के लिये कोई मानक तय नहीं हैं। हर कम्पनी मनमानी करने के लिये आजाद है।

आधुनिक युग में हमने बहुत ऊँची इमारतें बना ली हैं, बड़ी-बड़ी नदियों को बाँध लिया है और अन्तरिक्ष से लेकर सागर तक की गहराई नाप ली है। परिणामों की चिन्ता करना जीवन का स्वभाव नहीं है। प्राणी केवल अपने लिये अवसर तलाशते हैं। सहज ही एक तरह के जीव का कचरा दूसरे तरह के जीव का साधन बन जाता है। इसीलिये मनुष्य की बस्तियों के इर्दगिर्द सूअरों जैसे प्राणी न जाने कब से रहते आये हैं। उन्हें मनुष्य के मल में भोजन मिलता रहा है। गाय-बैल और घोड़े जैसे जीवों को फसल की ठूँठ में खाना मिलता है। उनके गोबर की खाद खेतों को उर्वर बनाती है।

जितना ज्यादा पानी इस्तेमाल होता है उतना ही ज्यादा मैला पानी सीवर की नालियों में बहता है। मैला पानी साफ करने के लिये ऐसी कोई होड़ नहीं है जैसी पीने का पानी साफ करने में या बेचने में है। जब तक पानी और मैला पानी एक ही तराजू में तुलेंगे, शुचिता का पलड़ा हल्का रहेगा, उसके साथ सौतेला व्यवहार होता ही रहेगा। इससे सेहत, पर्यावरण और जेब को जो नुकसान होता है वह अदृश्य रहता है।

इस आधुनिक युग में हमने बहुत ऊँची इमारतें बना ली हैं, बड़ी-बड़ी नदियों को बाँध लिया है और अन्तरिक्ष से लेकर सागर तक की गहराई नाप ली है। परिणामों की चिन्ता करना जीवन का स्वभाव नहीं है। प्राणी केवल अपने लिये अवसर तलाशते हैं। सहज ही एक तरह के जीव का कचरा दूसरे तरह के जीव का साधन बन जाता है। इसीलिये मनुष्य की बस्तियों के इर्दगिर्द सूअरों जैसे प्राणी न जाने कब से रहते आये हैं। उन्हें मनुष्य के मल में भोजन मिलता रहा है। गाय-बैल और घोड़े जैसे जीवों को फसल की ठूँठ में खाना मिलता है। उनके गोबर की खाद खेतों को उर्वर बनाती है।

प्रकृति के इस सीधे से सिद्धान्त को आधुनिक शहर नजरअन्दाज करते हैं। घनी आबादी वाले शहरों में मनुष्य के सिवा दूसरे प्राणियों के रहने की जगह नहीं बचती। इसलिये घनी बस्ती से निकले मल-मूत्र का प्राकृतिक संस्कार नहीं हो पाता है। इसका समाधान यही है कि मैले पानी को नदियों और तालाबों में डाल दिया जाये। आधुनिक शहर जलस्रोतों से पानी निकालते हैं और मैला पानी उनमें वापस डाल देते हैं।

यह तभी होता है जब सभी शौचालय सीवर की नालियों से जुड़े हों। दुनिया के एक बड़े हिस्से में ऐसा भी नहीं होता। ज्यादातर तो फ्लश कमोड का मैला पानी किसी पक्के या कच्चे गड्ढे में डाल दिया जाता है। जमीन के नीचे किसी अन्धे कुएँ में जाकर उसकी उर्वरता तो बेकार हो ही जाती है, भूजल भी दूषित होता है। यह प्रदूषण दिखता नहीं है। जो अदृश्य हो उसकी चिन्ता भी कम ही होती है।

सीवर के मैले पानी से होने वाला जल प्रदूषण आमतौर पर आँखों से दूर रहता है। जो दिखाई देता है वह है सड़कों और खुले इलाकों के आसपास पड़ा मल, यहाँ-वहाँ खुले में मलत्याग करने बैठे लोग। हमारी सरकारों का ध्यान खुले में मलत्याग रोकने के लिये शौचालय बनाने में ज्यादा है, उन शौचालयों से होने वाले जल प्रदूषण की ओर एकदम नहीं है।

पिछले कुछ सालों से केन्द्र सरकार भरसक कोशिश कर रही है कि पूरे देश में खुले में मलत्याग बन्द हो। इसके दो कारण हैं। जहाँ एक व्यक्ति का मल दूसरे व्यक्ति से सीधे सम्पर्क में आता है वहाँ जानलेवा बीमारियाँ बहुत तेजी से फैलती है। चूँकि लोगों को मलत्याग करने फिर वहीं जाकर बैठना पड़ता है जहाँ कोई और बैठकर गया हो, तो रोगाणुओं को नए शिकार आसानी से मिलते जाते हैं। हर नया बीमार रोगाणुओं के लिये कई और लोगों के संक्रमण का माध्यम बनता है। इनके सबसे आसान शिकार बच्चे होते हैं।

इस गन्दगी की कीमत कई रपटों और शोध ग्रंथों में बार-बार जताई जा चुकी है। संयुक्त राष्ट्र संघ की फरवरी 2013 की ही एक रपट कहती है कि हमारे देश में हर साल 15 लाख से अधिक बच्चों की मौत दस्त वाले रोगों से होती है। इन बीमारियों के रोगाणु तभी फैलते हैं जब रोगियों के मल के कण किसी-न-किसी रास्ते होता हुआ नए लोगों के पानी या भोजन में पहुँच जाते हैं।

हमारे 100 में से 45 बच्चों के शरीर का विकास ठीक से नहीं हो पाता, जिसका सबसे बड़ा कारण है मल से जुड़ी गन्दगी और निर्मल पानी की किल्लत। बच्चों का शरीर दुर्बल और नाटा रह जाता है, जैसे कि वे कुपोषण के शिकार हों। दूषित पानी से फैलने वाले रोग हर साल तकरीबन चार करोड़ लोगों को बीमार करते हैं।

यही नहीं, घनी आबादी में खुले में शौच जाना बहुत शर्म का सबब होता है। जब मलत्याग करने की हड़बड़ी हो तब लोग शहरी भीड़ से भागते हुए, एकान्त ढूँढते फिरते हैं। इससे हर कहीं, रस्ते-बा-रस्ते मल पड़ा रहता है। हमारे शहरों के कुछ हिस्से तो इतने गन्दे हैं कि वहाँ पैदल चलना घिन पैदा करता है। शहरों के ऐन बीच में कीड़ों और मक्खियों से अटे ऐसे इलाके मिलते हैं। इनके आसपास ही घनी बस्तियाँ भी होती हैं।

अब तो गाँवों में भी पहले जैसे खुले मैदान और चारागाह नहीं बचे जहाँ लोग शान्ति से शौच जा सकें। पहले गाँवों में शामिलाती जमीन इस तरह के काम के लिये छोड़ने का रिवाज था, ऐसी जमीन जो उपजाऊ न हो। ग्रामीण समाज इस जमीन की रक्षा भी करता था। वहाँ जानवरों को चरने के लिये भी छोड़ा जाता था। पर अब जमीन की होड़ में इन पर कब्जे हो गए हैं और सरकारों ने भी ऐसी जमीन भूमिहीनों को जोतने के लिये बाँटी है।

आबादी भी बढ़ी है। जहाँ अभी भी खुले में शौच जाने लायक जमीन खाली है उसे इस्तेमाल करने वाले लोग बहुत हैं। ऐसे गाँव मिलना अब कतई मुश्किल नहीं है जहाँ हर कहीं मल पड़ा मिलता है। वातावरण में मल-मूत्र की बदबू सदा ही रहती है। जहाँ पैदल चलने के लिये साफ पगडंडी तक नहीं मिलती। सड़क के किनारे ही नहीं, सड़क के ऊपर भी इतना मल पड़ा होता है कि गाड़ियों को भी चलने की जगह नहीं बचती। रोगाणुओं के लिये यही स्वर्ग होता है।

भारत सरकार के लिये यह बहुत शर्मिन्दगी की बात है। अन्तरराष्ट्रीय गोष्ठियों में इसे भारत का सबसे निन्दनीय पहलू कहा जाता है। बताया जाता है कि भारत से कहीं ज्यादा गरीब देशों ने भी इस मामले में तरक्की की है। वह भी ऐसे समय जब सरकार भरसक कोशिश कर रही है कि भारत की छवि एक शक्तिशाली, महाबली राष्ट्र की हो, जहाँ ढेर सा आर्थिक विकास हुआ है। पर सरकारी आँकड़ों के मुताबिक दस में से तीन भारतीय नागरिक खुले में ही शौच जाते हैं। सब जानते हैं कि असल में यह अंक कहीं ज्यादा है।

पूरी दुनिया में जितने लोग खुले में मलत्याग करने जाते हैं उनमें आधे से ज्यादा भारतीय हैं। इस तरह के आँकड़े आये दिन राष्ट्रीय अपमान की तरह छपते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की रपटें बताती हैं कि नेपाल, बांग्लादेश और पाकिस्तान जैसे पड़ोसी देशों में सफाई और शुचिता का काम भारत से बेहतर हो रहा है।

आजकल बार-बार यह कहा जाता है कि शौचालयों के अभाव में महिलाओं को घर से दूर जाना पड़ता है और अपराध का खतरा झेलना पड़ता है। स्त्रियों और लड़कियों को असुविधा न हो यह बात तो स्वाभाविक है। लेकिन इस तरह की बात करने वालों के सामने कुछ सवाल उठते हैं। क्या शौचालय बनाने से महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार बन्द हो जाएगा? उसका सम्बन्ध पुरुषों के आचरण से है या महिलाओं के मलत्याग करने के स्थान से? क्या घर में शौचालय बनने के बाद महिलाओं का घर से निकलना ही बन्द हो जाएगा?

हमारे जैसे बड़े और जटिल देश में यह काम आसान नहीं है। इस तरफ सरकारी कोशिशें नई नहीं हैं। केन्द्र सरकार ने ‘सेंट्रल रूरल सेनिटेशन प्रोग्राम’ सन 1986 में खोला था। इसमें कमजोर तबके के लोगों के शौचालय बनाने का पूरा खर्च सरकार उठाती थी। यह योजना कोई खास सफल नहीं रही। जनसाधारण को शौचालय बनाने और इस्तेमाल करने की जरूरत महसूस नहीं हो रही थी।

सरकार ही शौचालय की बात लगातार कर रही थी और फिर सरकार ही उन्हें बनवा भी रही थी। कोई बारह साल के बाद एक सरकारी सर्वेक्षण से पता लगा कि अनुदान राशि लोगों के लिये पर्याप्त प्रेरणा नहीं थी। शौचालय बनाने के लिये। एकान्त में सुविधा से शौच जाने की बात करना जरूरी था। सन 1999 में सरकार ने कार्यक्रम का नाम बदलकर अंग्रेजी में ‘टोटल सेनिटेशन कैम्पेन’ रख दिया, यानी सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान। महत्वाकांक्षा की कमी भारत सरकार की कमजोरी कभी नहीं रही है।

अब यह शौचालय की आपूर्ति करने वाला कार्यक्रम भर नहीं बचा था। इसका जोर था पंचायतों के जरिए लोगों को जानकारी देकर स्वच्छता के प्रति जागरूक बनाने पर, ताकि पीने के पानी और भोजन में वह रोगाणु न पहुँचे जो खुले में शौच जाने से फैलते हैं। पंचायतों के साथ भागीदारी में जनसम्पर्क और जनसंचार के लिये अलग से बजट रखा गया, ताकि जनसाधारण को शौचालय बनाने की जरूरत महसूस हो, लोग खुद से शौचालय बनाएँ। सरकारी अनुदान केवल गरीब तबकों के लिये थे।

कार्यक्रम को लोकप्रिय बनाने के लिये कई नए पहलू जोड़े गए। सरकार ने जताया कि स्वच्छता उसकी प्राथमिकता है। सन 2011 में केन्द्रीय पेयजल और स्वच्छता विभाग को मंत्रालय का दर्जा दिया गया। सन 2012-13 में इसका बजट 14,000 करोड़ रुपए से ज्यादा था। इसी दौर में ‘टोटल सेनिटेशन कैम्पेन’ का नाम बदल कर ‘निर्मल भारत अभियान’ कर दिया गया।

सन 2014 में केन्द्र में नई सरकार आने के बाद इस कार्यक्रम का नाम फिर बदला गया। अब इसे ‘स्वच्छ भारत मिशन’ कहते हैं। इन नामान्तरणों के साथ ही कई नेताओं और मंत्रियों के झाड़ू चलाते हुए फोटो छपे। एक बार फिर सरकार ने खुले में मलत्याग को पूरी तरह खत्म करने का बीड़ा उठाया, सन 2019 तक। पुराने वादों को मिला एक नया नाम, एक नई तारीख।

इन सब बदलावों के दौरान ‘निर्मल ग्राम पुरस्कार’ भी खूब चर्चित रहा। ग्राम पंचायतों को यह पुरस्कार तब दिया जाता है जब गाँव में कोई भी खुले में मलत्याग करने नहीं जाता हो। जिस ग्राम पंचायत को यह पुरस्कार मिलता है उसकी प्रसिद्धि तो होती ही है, उसे कई तरह की विकास योजनाओं में प्राथमिकता मिलती है। आशय है ग्राम पंचायतों में स्वच्छता को बढ़ावा देना।

सन 2003 से 2013 तक 28,000 से ज्यादा गाँव यह पुरस्कार पा चुके थे। केन्द्रीय पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय का कहना था कि इस अभियान में पिछले दशक में 8.7 करोड़ से ज्यादा शौचालय बने। मतलब 12.5 करोड़ शौचालय बनाने के उसके लक्ष्य का 70 प्रतिशत पूरा हो चुका था।

इन चमकदार आँकड़ों के पीछे एक तरह की बदबू थी। इसका कारण सूँघे तो सन 2011 की जनगणना तक पहुँचेंगे, जिससे पता चला कि वास्तव में केवल 5.16 करोड़ घरों में शौचालय थे। मंत्रालय के आँकड़े राज्य सरकारों द्वारा खर्च की राशि से निकले थे, जबकि जनगणना घर-घर जाकर हुई थी। इसका अर्थ साफ थाः जैसा दूसरी सरकारी योजनाओं में होता है कुछ वैसा ही हुआ था निर्मल भारत अभियान में भी। धन जिस काम पर खर्च हुआ था वह काम पूरा नहीं हुआ। शौचालय सरकारी कागजों में ज्यादा है, घरों में कम बने।

निर्मल ग्राम पुरस्कार के आँकड़ों की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। सन 2008 में एक सर्वे ने छह राज्यों के 162 ऐसे गाँवों का जायजा लिया जिन्हें कुछ समय पहले ही यह पुरस्कार मिला था। केवल छह गाँव ऐसे निकले जिनमें कोई भी खुले में मलत्याग नहीं करता था। बाकी गाँवों में एक तिहाई ऐसे थे जिनमें हर दस में से चार लोग खुले में शौच जाते थे।

कर्नाटक राज्य में हुए एक सर्वे में भी ऐसी ही परेशानियाँ दिखीं। कई जगहों पर शौचालय बनने के बाद भी लोग उनका इस्तेमाल नहीं करते मिले। योजना आयोग ने सन 2013 में एक सर्वेक्षण जारी किया जिसमें लिखा था कि 73 प्रतिशत ग्रामीण घरों से कम-से-कम एक व्यक्ति खुले में मलत्याग करने जाता है।

सन 2014 में चालू हुए स्वच्छ भारत मिशन के आँकड़े अभी आए नहीं हैं। इसमें शौचालय बनवाने में केन्द्र सरकार का हिस्सा कम किया गया है, राज्य सरकारों का हिस्सा बढ़ाया गया है। कारपोरेट जगत को यह काम उसकी सामाजिक जिम्मेदारी के तहत करने के लिये कहा गया है। राज्य सरकारों को अपने हिसाब से कार्यक्रम को ढालने की आजादी भी दी गई है। कुछ शोधकर्ताओं ने इसकी कार्यकुशलता समझने की कोशिश की है। उनकी रपटें और जाँच परिणाम यही इशारा करते हैं कि शौचालय बनाने के कार्यक्रमों की जो समस्याएँ पहले थीं वही अभी भी बनी हुई हैं।

सन 2014 में जारी हुई दो महत्त्वपूर्ण रपटें सरकारी स्वच्छता कार्यक्रमों के बारे में कुछ चिन्ताजनक तथ्य दिखलाती हैं। दोनों ही रपटें कई महीनों के शोध और परीक्षण पर आधारित हैं। एक शोध मण्डली ने गाँवों में यह पता करने के लिये सर्वेक्षण किये कि लोग शौचालय इस्तेमाल क्यों नहीं करते। पता ये चला कि अगर हरेक घर में शौचालय बन जाये तो भी खुले में मलत्याग बन्द नहीं होगा, क्योंकि बहुत से लोग शौचालय का इस्तेमाल पसन्द ही नहीं करते। वे शौचालय को एक गन्दा स्थान मानते हैं और उनके नीचे बनाए गड्ढों के भर जाने पर उन्हें साफ करवाने से डरते हैं। ऐसे बहुत से लोग हैं जिनके हैं जिनके घर में शौचालय बना हुआ है, लेकिन वे फिर भी खुले में मलत्याग करना ही स्वच्छ मानते हैं। शोधकर्ताओं का कहना है कि स्वच्छता अभियानों को लोगों का मन समझने और फिर उसमें सकारात्मक अन्तर लाने पर ध्यान देना होगा।

शौचालय बनाने भर तो कोई समाधान नहीं होगा। इस तरह के कार्यक्रमों को प्रशासनिक जामे से बाहर आकर सामाजिक रूप अपनाना होगा।

दूसरी शोध मंडली ने ओड़िशा में यह पता किया कि शौचालय बनाने से ग्रामीणों के स्वास्थ्य पर क्या असर पड़ा। उन्होंने भी यही पाया कि शौचालय बनाना और उसका इस्तेमाल दो एकदम अलग बातें हैं। यह भी केवल शौचालय के इस्तेमाल से उन बीमारियों का असर कम नहीं होता जो मल से फैलती हैं। इन बीमारियों की रोकथाम के लिये सफाई के और भी तरीके अपनाने पड़ते हैं। यानी सरकार शौचालय बनाकर भी इस समस्या से हाथ नहीं धो सकती है।

दोनों ही शोध मण्डलियों ने कोई क्रान्तिकारी प्रयोग नहीं किये हैं। केवल गाँव के लोगों से जाकर बात की है, उनसे उनका मन समझने की कोशिश की है। सन 1986 से चल रहे स्वच्छता अभियानों ने लोगों का मन टटोलने की कोशिश नहीं की, बस उन्हें गन्दा ठहराया और उनसे शौचालय का इस्तेमाल करने की बात बार-बार की। अपने ही लोगों के प्रति इस तरह की बेरुखी हमारे सरकारी तंत्र के मूल में है, चाहे कोई भी राजनीतिक दल सत्ता में हो।

शुचिता और निर्मलता पुराने, घिसे हुए शब्द हैं। ये हमारी कई भाषाओं के स्वभाव में मिले हुए हैं। आपको ऐसे लोग भी मिल सकते हैं जिनका नाम निर्मल या शुचि या शुचिता हो। इसके भावार्थ में ऊपरी सफाई भी है और भीतरी पवित्रता भी। शुचिता तन की होती है और मन की भी। भ्रष्टाचार से घबराए लोग सार्वजनिक जीवन में शुचिता की माँग करते हैं। ‘टॉयलेट’ के लिये हिन्दी में इस्तेमाल होने वाला शब्द ‘शौचालय’ आखिर शुचिता से ही निकलता है। लेकिन सरकार हो या गैरसरकारी संस्थाएँ, शौचालय की जगह सबके दिमाग में है, शुचिता की जरा कम है।

फिर हर सरकार यह बतलाती है कि उसने कितने शौचालय बनाने पर कितना धन खर्च किया है। अब तक सरकारी स्वच्छता अभियानों पर कई निष्पक्ष सर्वे और रपटें आ चुकी हैं। सभी सरकारी आँकड़ों का भुसभुसापन दिखलाती हैं।

योजना आयोग की ही एक जरा पुरानी रपट कहती है कि स्वच्छता अभियान सरकारी मानसिकता का शिकार है। एक उद्देश्य जब तय हो जाता है, तो सब कुछ उसी के इर्द-गिर्द घूमता है। लक्ष्य को पूरा हुआ दिखाने के लिये अगर सत्य की बलि देनी पड़े, तो दी जाती है। स्वच्छता कार्यक्रमों का उद्देश्य सीधा है, खुले में मलत्याग की प्रथा का अन्त।

आजकल बार-बार यह कहा जाता है कि शौचालयों के अभाव में महिलाओं को घर से दूर जाना पड़ता है और अपराध का खतरा झेलना पड़ता है। स्त्रियों और लड़कियों को असुविधा न हो यह बात तो स्वाभाविक है। लेकिन इस तरह की बात करने वालों के सामने कुछ सवाल उठते हैं। क्या शौचालय बनाने से महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार बन्द हो जाएगा? उसका सम्बन्ध पुरुषों के आचरण से है या महिलाओं के मलत्याग करने के स्थान से? क्या घर में शौचालय बनने के बाद महिलाओं का घर से निकलना ही बन्द हो जाएगा? क्या यह वांछनीय है? महिलाओं की सुरक्षा एक सामाजिक विषय है, इसका सीधा सम्बन्ध पुरुषों के व्यवहार से है, शौचालयों के स्थान से नहीं।

ऐसा नहीं है कि सरकारी अभियानों में कुछ भी अच्छा नहीं हुआ। कई लोगों को सरकारी मदद और सुविधा मिली है। कुछ गाँव सही में स्वच्छ हुए हैं। लेकिन यह भी दिखता है कि शुचिता का कार्यक्रम शौचालय बनाने की योजना बनकर रह गया है। शौचालय और शुचिता में अन्तर है।

शौचालय बनाने भर से शुचिता नहीं आती, खासकर तब जब शौचालय से मैले पानी की निकासी की व्यवस्था ठीक न हो। इसका उल्टा भी सही है। बिना शौचालय के भी शुचिता आ सकती है। अगर खुले में शौच जाने के लिये इतनी जमीन हो कि मल दूसरे लोगों के सम्पर्क में न आये और प्राकृतिक आड़ भी बनी रहे, तो इसे गन्दगी फैलाने वाली व्यवस्था नहीं कहा जा सकता।

सरकार के काम में इतनी बारीकी की जगह नहीं होती है। सरकारी स्वभाव जिस भाषा में गढ़ा जाता है वह अफसरी आदेश देने और उनका पालन करने के लिये होती है। सरकार के पास रिझाने या मन पर प्रभाव डालने वाली भाषा होती ही नहीं है। बहुत हुआ तो सरकारी भाषा में ‘जनभागीदारी’ जैसे शब्द आ जाते हैं। कार्यक्रम सरकार का ही रहता है, उसमें लोगों को भागीदारी भर देनी होती है, क्योंकि वे उन योजनाओं के ‘लाभार्थी’ और ‘हितग्राही’ होते हैं।

सरकारी व्यवहार के केन्द्र में हमेशा खुद सरकार ही होती है, लोग या उनका समाज नहीं। लोगों के सामाजिक कार्यक्रमों में सरकार की ‘भागीदारी’ के किस्से कम ही सुनने में आते हैं। फिर भी शिकायत यही की जाती है कि लोगों में सरकारी कार्यक्रमों के प्रति ‘स्वामित्व’ का भाव नहीं होता। इसी तरह के शब्द, इसी तरह की भाषा बहुत सी गैर-सरकारी संस्थाओं में भी चलती है। इसलिये ‘जनआन्दोलनों’ से लेकर ‘जनसंस्थानों’ में भी ‘जनभागीदारी’ की बात होती है। इसमें ‘जन’ केवल उपसर्ग भर रहता है, उसमें जन का मन टटोलने की कोशिश कम ही होती है।

हमारे यहाँ शुचिता की तमाम आधुनिक बातचीत अंग्रेजी से आई है। इसका सीधा अनुवाद कर दिया जाता है। इस भाषा में साधारण लोगों के अनुभव और उनकी हकीकत की जगह नहीं होती। किसी भी दूसरी भाषा से शब्द या विचार लेना अच्छा ही होता है, भाषाओं का लेन-देन तो हमेशा से चलता रहा है। लेकिन अपनाए हुए शब्द और लादे गए शब्दों में फर्क होता है। ‘साइकिल’ और ‘स्टाइल’ भी अंग्रेजी से लिये हुए शब्द हैं, लेकिन इनका मतलब ज्यादातर लोगों को आज सहज पता है, ये अपनाए हुए शब्द हैं।

ऐसा ‘सेनिटेशन’ के बारे में नहीं कह सकते हैं। यह भी अंग्रेजी का ही शब्द है। इसका भाव हिन्दी में ठीक से बतलाना या इसका अनुवाद करना कठिन है। अंग्रेजी में भी यह कोई बहुत पुराना शब्द नहीं है। इसकी व्युत्पत्ति लातिन भाषा से है और अंग्रेजी में यह फ्रांसीसी भाषा से आया है। इसका आज के अर्थ में इस्तेमाल कोई 150 साल पहले ही शुरू हुआ जब यूरोप के घनघोर प्रदूषित शहरों की सफाई की बात होने लगी। ‘सेनिटेशन’ के अर्थ और भाव में केवल सफाई और स्वच्छता ही नहीं है, स्वास्थ्य और मानसिक सन्तुलन भी है। जब किसी के व्यवहार में पागलपन झलके तो अंग्रेजी में कहा जाता है कि उसने अपनी ‘सैनिटी’ खो दी है। यह शब्द भी ‘सेनिटेशन’ के परिवार से ही है। एक पुराने शब्द ने नया भाव पकड़ा, नई समस्या से जूझने के लिये।

भारत सरकार को ‘टोटल सेनिटेशन’ का ‘निर्मल भारत’ करने में कुछ साल लगे। सन 2011 में जब इसका पूरा मंत्रालय बना, तो उसका नाम अंग्रेजी में ‘मिनिस्ट्री ऑफ ड्रिंकिंग वॉटर एंड सेनिटेशन’ रखा गया। लेकिन उसका हिन्दी अनुवाद हुआ ‘पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय’। स्वच्छता का मतलब केवल ऊपरी सफाई से हैं, ‘सेनिटेशन’ के अर्थ में नहीं, शुचिता या निर्मलता के अर्थ में नहीं।

शुचिता और निर्मलता पुराने, घिसे हुए शब्द हैं। ये हमारी कई भाषाओं के स्वभाव में मिले हुए हैं। आपको ऐसे लोग भी मिल सकते हैं जिनका नाम निर्मल या शुचि या शुचिता हो। इसके भावार्थ में ऊपरी सफाई भी है और भीतरी पवित्रता भी। शुचिता तन की होती है और मन की भी। भ्रष्टाचार से घबराए लोग सार्वजनिक जीवन में शुचिता की माँग करते हैं। ‘टॉयलेट’ के लिये हिन्दी में इस्तेमाल होने वाला शब्द ‘शौचालय’ आखिर शुचिता से ही निकलता है। लेकिन सरकार हो या गैरसरकारी संस्थाएँ, शौचालय की जगह सबके दिमाग में है, शुचिता की जरा कम है।

कुछ गैर-सरकारी संस्थाओं ने निर्मल भारत अभियान को अपनाकर कई गाँवों में बेहतर काम करके दिखाया है। इनमें ओड़िशा की संस्था ‘ग्राम विकास’ का नाम भी आता है। ग्राम विकास का काम इस इलाके में पुराना है और यहाँ के गाँवों से उसका सम्बन्ध भी रहा है। संस्था ने बीसियों गाँवों के हर घर में शौचालय का इन्तजाम किया है, उनके भीतर पानी का इन्तजाम भी। इन गाँवों में किसी को खुले में मलत्याग करना नहीं पड़ता। उनके प्रभाव वाले गाँवों में जल संचय और वितरण की व्यवस्था भी होती है।

यह केवल व्याकरण, शब्दकोष या भावार्थ की शास्त्रीय बहस भर नहीं है। हर शब्द में उसके पीछे के विचार, भाव और मूल्य भी झलकते हैं। शब्द बदल देने से या कोई और शब्द लगा देने से किसी व्यक्ति का विचार नहीं बदल जाता, व्यवहार बदलना तो बहुत दूर की बात हैं। ‘टोटल सेनिटेशन’ को ‘निर्मल भारत’ या ‘स्वच्छ भारत’ में बदलने से पूरा देश निर्मल और स्वच्छ हो जाएगा इसकी कोई जमानत नहीं है। इस सतही फेरबदल के पीछे का विचार शौचालय से निकला है, शुचिता से नहीं।

सरकारी स्वच्छता अभियान इसका सचित्र विवरण देते हैं। सरकारी मदद जिस तरह के शौचालय बनाने के लिये मिलती है उनकी रूपरेखा एक खाके से निकली हुई होती है। उनमें देश की विविधता की झलक नहीं होती, किसी भी स्थान की विशेष परिस्थिति की भी नहीं। निर्मल भारत अभियान में बने ऐसे शौचालय भी मिलते हैं जिनका मैल सोखने वाला गड्ढा किसी पानी के स्रोत से सटकर बना हो।

देखते ही आभास हो जाता है कि ऐसे शौचालय रोगाणुओं का ही प्रसार करेंगे, शुचिता का नहीं, जबकि पानी के स्रोत से शौचालय की दूरी सरकारी नियमों में निश्चित है। यह भी दिख सकता है कि शौचालय के नीचे सेप्टिक टैंक ऐसी जगह बना है जहाँ जलस्तर बहुत ऊँचा है। अगर ऐसे शौचालय का उपयोग हो तो मल पानी में तैरता नजर आता है।

बहुत सी जगह शौचालय में पानी की व्यवस्था नहीं की गई है। शौचालय बनाने का बजट तो सरकारी कार्यक्रम में है, लेकिन उसमें पानी पहुँचाने का बजट सरकार के पास है नहीं। कई जगह लोगों ने शौचालय बनवा लिये हैं लेकिन उनका उपयोग किसी साधारण कमरे या गोदाम की ही तरह करते हैं। अगर सरकार मुफ्त में चार दीवारें और एक छत बनाकर दे रही हो, तो लोगों को उसमें कोई नुकसान नहीं दिखता है।

इस कमरे के पीछे कोई विचार है, या उसका उनके जीवन से सीधा सम्बन्ध है, यह समझाना आसान नहीं होता। सरकार के लिये तो यह बहुत मुश्किल होता है। सरकारी प्रचार और प्रसार वैसे भी उबाऊ होता है, पर-उपदेशों से अटा हुआ। फिर सरकारी प्रचार करने वालों का ‘लाभार्थी’ और ‘हितग्राही’ लोगों के जीवन से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं होता।

कुछ गैर-सरकारी संस्थाओं ने निर्मल भारत अभियान को अपनाकर कई गाँवों में बेहतर काम करके दिखाया है। इनमें ओड़िशा की संस्था ‘ग्राम विकास’ का नाम भी आता है। ग्राम विकास का काम इस इलाके में पुराना है और यहाँ के गाँवों से उसका सम्बन्ध भी रहा है। संस्था ने बीसियों गाँवों के हर घर में शौचालय का इन्तजाम किया है, उनके भीतर पानी का इन्तजाम भी।

इन गाँवों में किसी को खुले में मलत्याग करना नहीं पड़ता। उनके प्रभाव वाले गाँवों में जल संचय और वितरण की व्यवस्था भी होती है। इस काम की तारीफ करने वाले भी कहते हैं कि उनकी सफलता उनके इलाके तक ही सीमित है। अगर 1,000 गाँवों में भी हो तो फिर भी ओड़िशा में तो कोई 50,000 गाँव हैं। वहाँ शुचिता का काम कैसे हो सकता है? सरकार की समस्या गैर-सरकारी संस्थाओं से कहीं ज्यादा बड़ी है।

ग्राम विकास के अच्छे शौचालय बनाने में अनुदान भी काफी लगता है। संस्था के निदेशक जो मडियथ का कहना है कि यह मानसिकता ही गलत है कि गरीब लोगों के लिये होने वाला काम सस्ता और हल्का होना चाहिए। लेकिन सरकार द्वारा ‘टोटल सेनिटेशन’ को ‘निर्मल भारत’ में बदलने का एक कारण था सरकारी अनुदान की राशि घटाना, क्योंकि उससे शुचिता का काम हो नहीं रहा था। सरकार अगर किसी एक संस्था के अच्छे काम से सीखने को राजी हो भी जाये, फिर भी, वह उसकी तरह काम करे कैसे? उसे तो जिला प्रशासन, ग्राम पंचायतों और नगर निगमों के जरिए काम करना पड़ता है।

अनुदान से बने शौचालयों की कमजोरियाँ तो अब सरकार भी मानती है। इससे एक अन्तर आया है सरकारी स्वच्छता अभियानों में। अब उनका प्रचार और प्रसार खूब जोर-शोर से होता है ताकि लोग खुद, अपने खर्चे से ही शौचालय बनाएँ और उनका रख-रखाव भी करें। इस बदलाव के पीछे कोलकाता में रहने वाले एक कृषि वैज्ञानिक का सन 1999 का एक तजुर्बा है। उनका नाम है कमल कार। वे एक गैरसरकारी संस्था के काम की समीक्षा करने के लिये बांग्लादेश के राजशाही जिले की यात्रा पर गए थे। वहाँ उन्हें चारों तरफ मल बिखरा मिला, जबकि वहाँ के गैर-सरकारी संस्था का शौचालय बनाने का कार्यक्रम चल रहा था। श्री कमल ने गाँव के लोगों को खुद ही से शौचालय बनाने की बात की। जब लोगों ने उसका कारण पूछा तो श्री कमल ने उन्हें बहुत कड़े और नाटकीय शब्दों में बताया कि घनी बस्ती में कई लोगों के खुले में मलत्याग करने से कैसे बीमारियाँ फैलती हैं। उन्होंने बार-बार कहा कि जाने-अनजाने, वे लोग एक-दूसरे का गू खा रहे थे।

उनके तीखे शब्द ग्रामीणों को तीर जैसे लगे। उनके मन में अपने व्यवहार के प्रति घिन पैदा हुई। कुछ लोगों ने तो वहीं कसम खाई कि वे शौचालय बनाएँगे और गाँव से गन्दगी दूर करेंगे। देखते-देखते पूरे गाँव ने शौचालय बना लिये और अपना व्यवहार भी बदल लिया। बिना किसी सरकारी या गैरसरकारी अनुदान के। श्री कमल कहते हैं कि उन्हें विश्वास नहीं हुआ कि गाँव के लोगों में इतनी तेजी से बदलाव आया। इसके बाद वे दूसरे काम छोड़ कर शुचिता के काम में ही लग गए। बांग्लादेश में इसी तर्ज पर बहुत तेजी से काम हुआ। श्री कमल इसे एक समुदाय को ‘ट्रिगर’ करना कहते हैं, जैसे कि किसी बन्दूक का घोड़ा दबा दिया हो। उसके बाद जैसे गोली अपना काम करती है ठीक वैसे ही समुदाय के लोग खुद शौचालय बनाते हैं और दूसरों पर दबाव डालते हैं कि वे भी ऐसा ही करें।

आगे चल के यह एक पद्धति ही बन गई। अंग्रेजी में इसका नाम पड़ा ‘कम्युनिटी लेड टोटल सेनिटेशन’, या (सीएलटीएस)। यानी सम्पूर्ण स्वच्छता का ऐसा काम जो समुदाय के लोग अपने आप ही करें। सरकार और गैर-सरकारी संस्थाएँ लोगों की आँखें खोलने का काम भर करें, ताकि अपने व्यवहार के प्रति लोग शर्म महसूस करें, गन्दगी से घिन करना सीखें। फिर वे मलत्याग करने के ऐसे तरीके अनापएँ जिनमें इज्जत भी हो और वहाँ रहने वालों की सेहत भी ठीक रहे। इस पद्धति में लोग अपना शौचालय कैसा बनाएँ यह उन्हें खुद तय करना होता है। श्री कमल का कहना है कि एक बार लोग शौचालय का इस्तेमाल करने के आदी हो जाएँ तो वे धीरे-धीरे अच्छे शौचालय भी खुद ही बना लेते हैं।

विश्व बैंक और संयुक्त राष्ट्र संघ की संस्थाओं ने सीएलटीएस पद्धति को खूब बढ़ावा दिया है। आज 50 से ज्यादा देशों में इसी तर्ज पर काम हो रहा है, खासकर अफ्रीका में। कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण के लिये श्री कमल ने साहित्य तैयार किया है। इसमें ग्रामीणों को बहुत ही नाटकीय तरीके से खुले में मलत्याग के नुकसान बताए जाते हैं। लोगों का मन झकझोरा जाता है, उनमें शर्म और घिन पैदा करने के लिये। स्वच्छता पर होने वाली अन्तरराष्ट्रीय बैठकों में सरकारी और गैर-सरकारी कार्यकर्ता खुलेआम चर्चा करते हैं कि लोगों को शर्मिन्दा करने के सबसे कारगर तरीके क्या हैं। कौन सा ‘ट्रिगर’ अचूक है।

हमारी सरकार को सीएलटीएस अपनाने में समय लगा, हालांकि सन 2003 में ही महाराष्ट्र सरकार के एक सचिव ने इसका प्रयोग किया था। इससे नानदेड़ और अहमदनगर में खुले में मलत्याग बन्द हो गया था। पश्चिम बंगाल में कोलकाता के पास कल्याणी पहला शहरी इलाका घोषित हुआ जो खुले में मलत्याग से मुक्त था। लेकिन श्री कमल यह मानते हैं कि भारत में सीएलटीएस पद्धति पर काम करना सरल नहीं है, क्योंकि सरकारी अनुदान लोगों को आलसी बनाता है। उनकी राय है कि एक बार कोई ग्रामीण समाज जाग जाये तो वह अपनी शुचिता का इन्तजाम खुद करता है, लेकिन अनुदान मिलने की स्थिति में लोग इसे सरकार का काम मानते हैं।

शुचिता के मायने कई हैं, कई पेंच भी हैं इस विचार में। स्वच्छता की बात जिस भाषा में होती है वह हमारे जीवन में शुचिता के मायने ठीक से बता नहीं पाती। मलत्याग करना शरीर का ऐसा धर्म है जिसका इशारा भी सभ्य समाज में अटपटा माना जाता है। हर रोज मलत्याग करने की जरूरत हमें याद दिलाती है कि मनुष्य भी प्रकृति के बनाए कई प्राणियों में से एक है। राजा हो या रंक, कपड़े खोल जब कोई मनुष्य मलत्याग करने बैठता है तो सभ्यता और सांस्कृतिक विकास की धारणाएँ फीकी पड़ जाती हैं।

कुछ प्रान्तीय सरकारों ने सीएलटीएस पद्धति को अपनाया है। हिमाचल प्रदेश इनमें सबसे आगे कहा जाता है। कई लोग मानते हैं कि सरकारी प्रचार तंत्र को कारगर बनाने का तरीका इसके सिवा कोई है ही नहीं। उन्हें यही सबसे कारगर तरीका लगता है गन्दगी में रहने वाले लोगों के प्रबोधन का, उनके व्यवहार को बदलने का। शर्म और घृणा से लोगों को स्वच्छता और गरिमा दिलाने वाली इस पद्धति का आजकल बहुत बोलबाला है विकास की दुनिया में। इसमें सरकार का खर्च भी ज्यादा नहीं होता।

इस पद्धति का एक और पहलू है जिसकी चर्चा कम होती है। लोगों को शौचालय बनाने और इस्तेमाल करने के लिये राजी करने के तरीके हमेशा शिष्ट और सामाजिक नहीं होते। इनकी शुरुआत ही लोगों को शर्मिन्दा करने से होती है और फिर कुछ भयानक तरीके भी इस्तेमाल होते हैं। शिक्षकों और छात्रों के दल उन जगहों पर घूमते हैं जहाँ लोग खुले में मलत्याग करने बैठते हैं। अगर कोई खुले में बैठा दिख जाय तो सीटियाँ बजाई जाती हैं, उन पर पत्थर फेंकने के किस्से भी सुनने में आते हैं। खुले में शौच जाने वालों की तस्वीरें दीवारों पर चिपका कर उन्हें बेइज्जत करने जैसे तरीके भी इसमें शामिल हैं। कक्षा में उन छात्रों का अपमान किया जाता है जिनके यहाँ शौचालय नहीं होता। ऐसा करने वाले लोगों में दूसरों के प्रति करुणा भाव रत्ती भर नहीं होता। उल्टा वे उन्हें अपराधी मानते हैं और उनके प्रति बदले का भाव रखते हैं।

लोग जहाँ खुले में मलत्याग करने के आदी हों उन जगहों पर कार्यकर्ता पहले से खड़े मिलते हैं, उन्हें रोकने के लिये। जब तक लोग शौचालय बनाने का अनुबन्ध न करें, ग्राम पंचायत पानी-बिजली काटने की धमकी तक दे देती है। एक अखबार की रपट तो यह भी बताती है कि कुछ गरीब लोगों की जमीन पर जबरदस्ती शौचालय बनाए गए, उनसे बिना पूछे। एक अधिकारी ने एक महिला का मल ले जाकर उसकी रसोई में पटक दिया। कुछ लोग जब दिशा-मैदान गए हुए थे तब पीछे से उनके घर पर ताला लगा दिया गया। जब वे चाभी लेने आये तो उन्हें पहले एक अनुबन्ध पर दस्तखत करना पड़ा कि वे शौचालय बनाएँगे। जिस स्वच्छता अभियान को मोहनदास गाँधी के नाम पर, उनके चश्मे के चिन्ह में चलाया जा रहा है, वह सामाजिक सम्बन्धों को ऐसी हिंसक आँखों से कैसे देखता है?

हर कहीं ऐसी ही जोर-जबरदस्ती हुई हो ऐसा नहीं है। न ही सीएलटीएस के अनुभव सब जगह बुरे हैं। पर यह पूछना वाजिब हैः क्या भारत को स्वच्छ और निर्मल बनाने के लिये ऐसे साधन हमें स्वीकार्य हैं? इस तरह किया काम कब तक टिकेगा? यह अभियान और इसके कार्यक्रम हमेशा नहीं चलेंगे। योजना निपटने के बाद क्या लोग वापस खुले में मलत्याग करने नहीं जाने लगेंगे, खासकर जब शौचलायों की देख-रेख ठीक न हो और उनमें पानी न हो? इस पर बातचीत नहीं हो रही है अभी, क्योंकि शौचालय बनाने की होड़ चल रही है।

सीएलटीएस के समर्थकों का कहना है कि इसमें गलती सरकारी कार्यक्रमों में है, इस पद्धति में नहीं। उनका कहना है कि ठीक से काम हो तो समुदाय उन लोगों को राजी कर सकता है जो शौचालय बनाना नहीं चाहते। आखिर खुले में मलत्याग करने से पूरे समुदाय की सेहत पर असर पड़ता है, इसलिये समुदाय को ही उन लोगों को मनाना चाहिए जिनसे यह खतरा है। लेकिन सरकारी कार्यक्रमों में यह सब आसान नहीं होता है। उनके तरीके आदेशों के सीधे पालन के लिये बनते हैं। इतनी बारीकी की जगह नहीं होती है उनमें। इसे जितनी बार भी कहा जाये कम हैः शुचिता केवल तकनीकी या इंजीनियरी का मामला नहीं है।

शुचिता के मायने कई हैं, कई पेंच भी हैं इस विचार में। स्वच्छता की बात जिस भाषा में होती है वह हमारे जीवन में शुचिता के मायने ठीक से बता नहीं पाती। मलत्याग करना शरीर का ऐसा धर्म है जिसका इशारा भी सभ्य समाज में अटपटा माना जाता है। हर रोज मलत्याग करने की जरूरत हमें याद दिलाती है कि मनुष्य भी प्रकृति के बनाए कई प्राणियों में से एक है। राजा हो या रंक, कपड़े खोल जब कोई मनुष्य मलत्याग करने बैठता है तो सभ्यता और सांस्कृतिक विकास की धारणाएँ फीकी पड़ जाती हैं।

पौराणिक कथाओं में खुद भगवान विष्णु ने वराह अवतार में सूअर का रूप धारण किया था, लेकिन सभ्य भाषा में मलत्याग के दैनिक कर्म के लिये सीधे शब्द नहीं हैं। जैसे फारसी से आया शब्द ‘पाखाना’, जिसका अर्थ है ‘पैर का घर’। या हिन्दी का ही शब्द लीजिए, ‘टट्टी’। इसका माने है कोई पर्दा या आड़ जो किसी फसल की ठूँठ, या टटिया से बनी हो। आज भी खुले में शौच जाने को कहते हैैं दिशा-मैदान जाना। ‘आब’ को ‘पेश’ करने से बना शब्द ‘पेशाब’ तो फिर भी सीधा है, लेकिन ‘लघु शंका’ और ‘दीर्घ शंका’ जैसे शब्द अर्थ कम बताते हैं, सन्देह ज्यादा पैदा करते हैं मलत्याग करने के लिये जो ‘हगना’ और ‘चिरकना’ जैसा सीधे, क्रिया-रूपी शब्द हैं उनका उपयोग पढ़े-लिखे समाज में बुरा माना जाता है। इन शब्दों के साथ घृणा जुड़ी हुई है।

घृणा एक तीव्र, सर्वव्यापी, जन्मजात भावना है। इसकी अभिव्यक्ति हम सब जानते हैं। चेहरे पर रेखाएँ खिंचती हैं, नाक-भौं सिकुड़ती हैं, मुँह के किनारे नीचे की ओर मुड़ते हैं, रक्तचाप गिरता है, मितली होने का भाव चेहरे पर आ जाता है। प्राचीन काल में भरत मुनि के रचे ग्रंथ ‘नाट्यशास्त्र’ में बताए रसों में एक है वीभत्स रस। यानी जुगुप्सा, या घृणा, या घिन। शिव इस रस के ईष्ट देव हैं। आज भी रंगमंच की शिक्षा में सिखाए जाने वाले भाव में विभत्स रस मूल है, फिर चाहे वह भरत मुनि के नाट्यशास्त्र से हो या अभिनय की किसी आधुनिक फिल्मी विधा से।

कई तरह के वैज्ञानिकों ने घृणा को समझने की कोशिश की है। अनेक शोध और सर्वेक्षणों में इस भाव का सबसे ताकतवर स्रोत हमारा मल ही निकला है। घृणा किसी-न-किसी रूप में हर मनुष्य में होती है, हालांकि इसकी अभिव्यक्ति संस्कार से जुड़ी है। हमारे यहाँ मनुष्य का मल घृणा का पात्र है पर गाय-बैल का गोबर नहीं, बल्कि इनका गोबर तो पवित्र माना गया है। कुछ समाजों में सूअर जैसे मल खाने वाले पशु को अशुद्ध और असहनीय माना है, जबकि ऐसे समाज भी हैं जो इन्हें स्वीकार करते हैं और पास रखते हैं।

ज्ञान-विज्ञान की दुनिया के कई प्रसिद्ध नामों ने घृणा पर अपने विचार रखे हैं। जीव-वैज्ञानिक चार्ल्स डार्विन ने इसे मनुष्य की छह मूल भावनाओं में गिना था। आधुनिक मनोविज्ञान के जनक सिगमंड फ्रॉएड मल के प्रति घिन को सहज भाव नहीं मानते थे। शिशुओं को अपने मल से घृणा नहीं होती, बल्कि उनमें तो अपने शरीर से निकले पदार्थों के प्रति कुतूहल और आकर्षण का भाव रहता है।

बच्चा जब बड़ा होता है तब उसे परिवार और समाज सिखलाता है कि मल घृणित वस्तु है। आजकल कुछ वैज्ञानिक इससे ठीक उल्टा मानते हैं, वे कहते हैं कि घृणा का भाव जन्मजात है। इसकी अभिव्यक्ति दो से पाँच की उम्र में शुरू होती है और इसकी कम-से-कम एक खास वजह तो है ही। यह प्रकृति का तरीका है हमें उन चीजों से दूर रखने का जिनसे हम बीमार हो सकते हैं। रोगाणुओं के सबसे ताकतवर स्रोतों में हमारा अपना मल आता है। कई बीमारियाँ मल से ही फैलती हैं।

हमारा बचाव इसी में है कि हम अपने मल से तब तक दूर रहें जब तक उसमें मौजूद रोगाणु खत्म नहीं हो जाते। उसे हमारे लिये बदबूदार बना देना प्रकृति का तरीका है हमें उससे दूर रखने का। मल से जो गन्ध आती है उसमें सड़े अंडे और गंधक का संकेत होता है। यह हर रूप में मनुष्य मात्र को अप्रिय है। शायद इसलिये न जाने कब से मनुष्य सहज ही मलत्याग करने बस्ती से थोड़ा दूर जाता है। शुचिता का बुनियादी पैमाना यही रहा है कि मनुष्य अपने मल से दूर ही रहे। मनुष्य का सबसे प्रिय मित्र कहा जाने वाला कुत्ता तो मलत्याग करने के बाद अपने पैर से जमीन खोद कर उस पर मिट्टी बिखेर देता है।

हर संस्कृति, हर समाज में यह बोध किसी-न-किसी रूप में रहा है। हर समाज में शुचिता को लेकर तरह-तरह के रिवाज रहे हैं। लोग जिन रिवाजों में बड़े होते हैं वही उन्हें शुचिता और स्वच्छता का मानक लगते हैं। दूसरे लोगों के साफ रहने के तरीके लोगों को उतने जमते नहीं हैं, क्योंकि शुचिता के व्यवहार का घृणा से गहरा सम्बन्ध है। हम जिन्हें अपना मानते हैं उन्हें साफ-सुथरा समझते हैं। जिन्हें अपना नहीं मानते, उनकी आदतें भी गन्दी ही दिखती हैं। यह मानव स्वभाव है। किसी माँ को अपने शिशु के गन्दे पोतड़ों से घिन नहीं आती और आती भी है तो वह उसे सहन करना सीख लेती है। शोध बतलाता है कि माताओं को दूसरों के शिशुओं के पोतड़े इतने साफ नहीं लगते जितने अपने शिशु के लगते हैं।

हमारी दुनिया पिछली शताब्दी में बहुत तेजी से बदली है। मनुष्य की कुल आबादी का आधे से ज्यादा हिस्सा अब शहरों में रहता है। जिन रीति-रिवाजों से लोग पहले शुचिता और पवित्रता अपनी-अपनी तरह बनाए रखते थे उनमें से कई तो आज बेतुके हो चुके हैं, या उन्हें आज की जरूरतों के हिसाब से ढालने की जरूरत है। लेकिन सामाजिक व्यवहार इतनी तेजी से बदलता नहीं है। हर वर्ग, हर समाज के लोग अपने रिवाजों में रहने की कोशिश करते हैं, क्योंकि उनका सामाजिक जीवन उन रिवाजों के इर्द-गिर्द ही बनता है।

शुचिता और घृणा का व्यवहार केवल व्यक्तिगत नहीं होता है। सामाजिकता में भी यह झलकता है। शुचिता और घृणा का सम्बन्ध सामाजिक संरचना से भी रहा है। अपने वर्ग या समाज या धर्म या जाति के लोगों को साफ मानना और दूसरों को गन्दा मानना भी मनुष्य स्वभाव का हिस्सा रहा है। जिन संस्कृतियों में मलत्याग करने के बाद गुदा को पानी से धोने का रिवाज है वे उन लोगों को गन्दा मानते हैं जो कागज से पोंछते हैं।

कागज से पोंछने वालों से अगर आप पूछें तो सुनने को मिलेगा कि पानी से धोना बहुत झंझट भरा, बेवजह और अस्वच्छ व्यवहार है। ये आदतें धार्मिक ग्रंथों और रिवाजों में भी गुंथी हुई हैं। धार्मिक संस्कार और शुचिता का सम्बन्ध इतना पुराना है कि यह कहना कठिन है कि उसका कौन सा हिस्सा धार्मिक रूढ़ि से निकला है, और कौन सा हिस्सा व्यावहारिक शुचिता से। एक धर्म के लोगों का व्यवहार भी जगह और समय के हिसाब से बदलता रहा है।
एक उदाहरण है ऐसे तीन धर्मों का जो अपनी व्युत्पत्ति हजरत इब्राहिम से मानते हैं। यहूदी, ईसाई और इस्लाम धर्म, तीनों ही अपने आप को इब्राहिमी कहते हैं। इब्राहिम का वृत्तान्त बाइबल के ‘ओल्ड टेस्टामेंट’ में मिलता है। इसके पाँचवें अध्याय में उस समय के घुमन्तू लोगों के लिये शौच जाने के नियम दिये हुए हैं, जिसमें बस्ती से दूर जाकर, जमीन में गड्ढा करके, उसमें मलत्याग करने की बात आती है। इसके बाद मल पर मिट्टी डालने का निर्देश भी है। इस्लाम में ‘वुजू’ का कायदा है, जिसमें नमाज के पहले शुद्ध होने के तरीके बतलाए गए हैं। हिन्दू रिवाजों में मलत्याग करने के बाद नहाने का वर्णन मिलता है।

कई हिन्दू और मुस्लिम समाजों में मलत्याग करने के बाद गुदा पानी से धोने का रिवाज रहा है। यह बाएँ हाथ से ही किया जाता है क्योंकि दाहिना हाथ कई ‘शुद्ध’ माने जाने वाले कामों के लिये आरक्षित होता है। हिन्दू पूजाओं में बाएँ हाथ का उपयोग बहुत सी जगह वर्जित है, जैसे तिलक कभी बाएँ हाथ से नहीं लगाया जाता, अग्नि में होम केवल दाहिने हाथ से ही दिया जाता है। कई मुस्लिम समाजों में खाने-पीने की चीज बाएँ हाथ से देना ऐब माना जाता है। धार्मिक रीति में डाली हुई बातें बहुत लम्बी चलती हैं। ये रिवाज जब बने थे तब ज्यादातर लोग गाँवों में रहते थे और शौच जाने के लिये ढेर सारी जमीन थी।

पर हमारी दुनिया पिछली शताब्दी में बहुत तेजी से बदली है। मनुष्य की कुल आबादी का आधे से ज्यादा हिस्सा अब शहरों में रहता है। जिन रीति-रिवाजों से लोग पहले शुचिता और पवित्रता अपनी-अपनी तरह बनाए रखते थे उनमें से कई तो आज बेतुके हो चुके हैं, या उन्हें आज की जरूरतों के हिसाब से ढालने की जरूरत है। लेकिन सामाजिक व्यवहार इतनी तेजी से बदलता नहीं है। हर वर्ग, हर समाज के लोग अपने रिवाजों में रहने की कोशिश करते हैं, क्योंकि उनका सामाजिक जीवन उन रिवाजों के इर्द-गिर्द ही बनता है।

चाहे अच्छे हों या बुरे, ये रिवाज कोई एक दिन में नहीं बनते। इसलिये अगर कोई आकर कहे कि आपके व्यवहार से आप ही नहीं, आपके पड़ोसियों का स्वास्थ्य भी खतरे में पड़ता है, तो लोगों का मन इतनी आसानी से बदलता नहीं है। तब तो और भी नहीं जब उन्हें ये बातें समझाने वाले व्यक्ति का उनके जीवन से कोई लेना-देना हो ही नहीं, जिसका उनसे एकमात्र सम्बन्ध उनके मलत्याग करने की जगह से हो।

ऐसा भी देखने में आता है कि लोगों को यह समझ नहीं आता कि जिन सरकारी अफसरों और सम्भ्रान्त लोगों को उनकी दूसरी समस्याओं से कोई मतलब नहीं होता, वे उनके लिये शौचालय बनाने की इतनी चिन्ता क्यों करते हैं। अगर लोग बदल भी जाएँ तो क्या केवल खुले में शौच जाना रुकने से शुचिता आ जाएगी? क्या शौचालय बनाना और इस्तेमाल करना ही सम्पूर्ण समाधान है? अगर हर किसी के पास सीवर का शौचालय होगा तो हमारे जलस्रोतों का क्या होगा?

सरकारी स्वच्छता अभियानों में आग्रह शर्म का है, विवेक का नहीं। हमारी सरकार ही नहीं, पढ़े-लिखे समाज को अपने देश के उन लोगों की वजह से शर्म आती है जो खुले में शौच जाते हैं। अपनी नदियों और तालाबों को सीवर बना डालने में कोई शर्म नहीं आती। हमारी सरकारें जिन शहरों में बैठती हैं उनका पानी दूर के गाँवों से छीनकर लाया जाता है। जब अपने जलस्रोतों की जरूरत कम हो जाती है तो उन्हें साफ करना एक थोथा आदर्श बनकर रह जाता है, जो ‘गंगा एक्शन प्लान’ जैसे सुनने में अच्छे पर वास्तव में एकदम बेअसर कार्यक्रमों में तब्दील हो जाता है। इस नजरिए से देखें तो सीवर से जुड़े शौचालय पर्यावरण के प्रदूषण के सबसे खतरनाक स्रोत हैं।

शुचिता का विचार सीधा-सरल नहीं है। इसे समझना हो तो किसी सफाई कर्मचारी से पूछें, जिसे अपने हाथ से दूसरों का मल-मूत्र साफ करना पड़ता है। हमारे कई शहरों में आज भी हाथ से मैला साफ करवाया जाता है, चाहे वह भारतीय रेल हो जिसमें पटरियों को साफ करने के लिये सफाई कर्मचारी रखे जाते हैं, या सूखे शौचालय वाली शहरी बस्तियाँ हों। यह काम कुछ खास जाति के लोगों से ही करवाया जाता है। रुकी हुई सीवर की नालियाँ खोलने के लिये भी इन्हीं जातियों के सफाई कर्मचारी उनके भीतर डुबकी लगाते हैं। ऐसा करते हुए हर साल कई कर्मचारियों की जान जाती है। सीवर की सफाई के लिये लोगों की बलि चढ़ा दी जाती है।

यह है घृणा का राजनीतिशास्त्र।

यह आलेख 'जल थल मल' से लिया गया है। किताब खरीदने के लिये यहाँ सम्पर्क करें


मूल्य - तीन सौ रुपए
प्रकाशक - गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान, 221 दीन दयाल उपाध्याय मार्ग, नई दिल्ली 110002


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