सड़ रहा है पवित्र गांधारी तालाब का जल

12 Apr 2011
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महाराजा परीक्षित द्वारा स्थापित परीक्षितगढ़ की अब यदि कोई पहचान है तो वह है गांधारी तालाब। इसके दर्शन करने पर्यटक-श्रृद्धालु विदेशों तक से आते हैं। इस विशाल ताल में उतरने के लिए चारों ओर सीढ़ियां बनी हैं। ताल के दक्षिण में पशुओ के जल पीने के लिए एक ढलान दार घाट भी बना हुआ है, जिसे गऊ घाट भी कहते हैं। यद्यपि जीर्णोद्धार में यह समाप्त हो गया है। परन्तु नाम आज भी गऊ घाट ही पुकारा जाता है। यहां बैठकर प्रकृति का आनन्द लेने के लिए चारो कोनों पर चार अष्टकोणीय चबुतरे बने हैं जिन्हें बुर्जी कहा जाता है। दो बुर्जियों पर भक्तों ने छतरियों का निर्माण करा दिया हैं एक शिवमन्दिर एवं हनुमान मन्दिर भी है। हनुमान मन्दिर में ही भगवान राम दरबार एवं दुर्गादेवी की प्रतिमा स्थापित है। तालाब सहित समस्त परिसर लगभग 6 से 7 एकड़ में विस्तृत है। किसने निर्मित कराया गांधारी तालाब? क्या है इसका इतिहास? अन्य इतिहास की भांति इसका इतिहास भी अज्ञात है। किसी पुराण आदि में इसके संबंध में कोई लेख प्राप्त नहीं होता लेकिन जनश्रुतियांे के अनुसार इसका निर्माण दुर्योधन की माता गांधारी ने कराया था। एक समय था जब राजा-महाराजा-महारानियां एवं सेठ साहुकार मोक्ष एवं स्वर्ग की कामना हेतु तालाब-कुएं आदि जल स्रोतों का निर्माण कराते थे। आज से लगभग 40-50 वर्ष पूर्व तक लोग जंगलों एवं रास्तों के किनारे नल (हैण्डपम्प) लगवाते थे। मेलों और पर्वों पर प्याऊ लगाकर जल दान करते थे परन्तु आज तो पापी लोग उन नलों को ही चुरा कर ले जाते हैं इसीलिए उक्त प्रचलन बन्द हो गया है।

गांधारी ने भी तालाब बनवाने का विचार किया। विचार-विमर्श हुआ तथ वर्तमान परीक्षितगढ़ के तपोवन में तालाब बनाने का निश्चय किया गया। इस तपोवन में तत्कालीन महान ऋषियों के आश्रम थे। यहीं पर एक प्राचीन प्राकृतिक सरोवर था जिसका जल कभी नहीं सूखता था एवं आज भी नहीं सूखता है। कहा जाता है कि इस स्थल पर प्रागैतिहासिक (रामायण) काल में गार्गी ऋषि का आश्रम था। गार्गी ऋषि उस काल की महान तपस्वी, विद्धान एवं विदुषी महिला ऋषि थीं। ये वही गार्गी थीं जिन्होंने महाराजा जनक की सभा में ब्रह्मऋषि याज्ञवलक्य से ब्रह्मविद्या में शास्त्रार्थ किया था। ऋषि मण्डली में यह तालाब अत्यधिक पवित्र समझा जाता था। धर्मार्थी दूर-दूर से आकर यहां स्नान करते थे। गांधारी भी अपने परिवार सहित यहां स्नान हेतु आती थी। वह इस तालाब एवं तपोवन से बहुत प्रभावित थी।

इस स्थान की महत्ता एवं पवित्रता को देखते हुए ही गांधारी ने यहां तालाब एवं मन्दिर निर्माण का निश्चय किया। गांधारी ने सोचा कि अपने सन्यास काल में भी यहीं तपस्या करेंगे। तालाब एवं मन्दिर का निर्माण कराकर सुरंग द्वारा इसे हस्तिनापुर से सम्बद्ध कर दिया गया। इसका कारण सामरिक तथा समय की परम्परा के अनुसार भी था। बाद में परीक्षित ने इसे सुरंगों द्वारा ही गोपेश्वर मन्दिर एवं श्रृंग ऋषि आश्रम से भी सम्बद्ध कर दिया। यह आवश्यक नहीं कि मनुष्य का सोचा हुआ सदैव पूर्ण की हो। जिस तालाब का निर्माण गांधारी ने अपने अन्तिय आश्रय/आश्रम के लिए कराया वही उसे अन्त में प्राप्त नहीं हो सका। महाभारत के अनुसार युद्ध के 15 वर्ष पश्चात् गांधारी एवं धृतराष्ट्र हस्तिनापुर त्याग कर तपस्या हेतु कुरूक्षेत्र चले गये। उनके साथ संजय, कुन्ती तथा विदुर भी थे। कुछ समय पश्चात् जब युधिष्ठिर उनसे मिलने गये तो विदुर ने परकाया प्रवेश द्वारा अपने प्राण युधिष्ठिर में समाहित कर दिये और स्वयं परलोक चले गये। शेष चारों गांधारी, कुन्ती, धृतराष्ट्र एवं संजय हरिद्वार चले गये जहां गांधारी, कुन्ती एवं धृतराष्ट्र वन में आग लग जाने के कारण दावानल में जल कर मर गये और संजय बच कर हिमालय पर तपस्या हेतु चले गये।

इस प्रकार गांधारी का गांधारी पर स्थायी निवास का स्वप्न साकार नहीं को सका। कहा जाता है कि तालाब की स्थापना के समय देश के सभी प्रमुख 68 तीर्थों का जल तालाब में डाला गया था। समय व्यतीत होता रहा। तालाब एवं मन्दिर आदि ध्वस्त हो गये। कलियुग आ गया। अनेक राजवंशों का उत्थान-पतन होते-होते ई. सन. 1748 के लगभग परीक्षितगढ़ का राजा बागी सरदार जैत सिंह बन गया। अधिकार एवं शक्ति में जैत सिंह के पश्चात् इनके सेनापति खेमकरण शर्मा का स्थान था। खेमकरण शर्मा बाल ब्रह्मचारी एवं अविवाहित था तथा इसकी एक फुआ जैत सिंह की पुरोहिताइन थी जोकि विधवा एवं सन्तानहीन थी। फुआ ने वृद्धावस्था जान कर अपनी सम्पत्ति खेमकरण को देने का निश्चय किया परन्तु खेमकरण ने कहा कि उसकी स्वयं की सम्पत्ति का कोई वारिस नहीं है फिर वह इसका क्या करेगा? विचार-विमर्श करके दोनों ने अपने पैसे से सन् 1789 के लगभग इस गांधारी तालाब का पुनर्निर्माण कराया। पुनर्निर्माण की खुदाई के समय भूमि से एक प्राचीन शिवलिंग निकल आया जो कि जलाभिषेक के द्वारा काफी घिसा हुआ था। उसे उखाड़ने का प्रयत्न किया गया परन्तु सफलता नहीं मिली।

अत्यधिक गहराई तक खोदने पर भी उसका आधार अथवा अन्तिम छोर प्राप्त नहीं हुआ तब उसी के ऊपर वर्तमान शिव मन्दिर का निर्माण करा दिया गया और शिवलिंग को खण्डित एवं पूजा के अयोग्य जानकर दूसरा नया शिवलिंग स्थापित कर दिया गया। तब से आज तक यह शिवलिंग घिसते-घिसते नाम मात्र का शेष रह गया है। मन्दिर के समीप ही उसी काल का एक कुआं है जो गिरते जल स्तर के कारण सूख गया है। आज से लगभग 40 वर्ष पूर्व तक बरसात में तालाब का पानी मेरठ रोड़ तक को पार करके कस्बे में आ जाता था तथा लगभग 10 वर्ष पूर्व तक बरसात मे मन्दिर में जल भरने के कारण लगभग 6-7 माह दोनों शिवलिंग जल में डूबे रहते थे परन्तु अब तो गांधारी तालाब ही पूर्ण-रूपेण नहीं भर पाता है।

मन्दिर के समीप ही अनगढ़ पत्थर के दो छोटे-बड़े नन्दी बने हैं। सन् 1975 तक प्रतिवर्ष दोनों अपना स्थान परिवर्तन करते रहते थे अर्थात छोटे के स्थान पर बड़ा एवं बड़े के स्थान पर छोटा आ जाता था लेकिन अब यह क्रम अनिश्चित हो गया है। सम्भवतः कुछ वर्षों में समाप्त ही हो जायेगा।

गांधारी परिसर में कदम्ब के कुछ प्राचीन वृक्ष थे, जिनमें से कुछ तो सूख कर समाप्त हो चुके हैं तथा कुछ बचे हैं। इनमें दो विशेष महत्व के हैं। कहा जाता है कि इन वृक्षों का रोपण मथुरा से लाकर भगवान कृष्ण ने स्वयं अपने हाथों से किया था। हनुमान मन्दिर में स्थापित दक्षिणाभिमुखी हनुमान प्रतिमा अत्यधिक चमत्कारी मानी जाती है। यह प्रस्तर प्रतिमा अंगूठे से दबाने पर दब जाती है। अर्थात जिस स्थान पर भी अंगूठे से दबाते हैं वहां अंगूठे के निशान का गड़ढ़ा बन जाता है जो कुछ देर पश्चात् स्वयं समतल हो जाता है। इस टूटे-फूटे कमरे नुमा मन्दिर का पुनर्निर्माण विजय पाल सर्राफ ने अपने सहयोगियों के साथ कराया था परन्तु स्वप्न में हनुमान जी द्वारा अपनी प्रतिमा को न छेड़ने के आदेश के कारण यह काफी समय तक अधूरा पड़ा रहा। उसके पश्चात् मुख्य मन्दिर की उत्तरी एवं दक्षिणी दीवार निकालकर मन्दिर का निर्माण सुभाष चन्द सर्राफ ने तीन भागों में कराया। इस प्रकार हनुमान जी की प्रतिमा अपने मूल स्थान पर ही प्रतिष्ठित रह गई। इसी मन्दिर में 15 दिसम्बर 2005 को मूलतः चंदौसी (मुरादाबाद) निवासी सुधीर कुमार एवं विमल कुमार विस्नोई ने दुर्गा देवी की प्रतिमा की स्थापना कराई।

कुछ नगरवासी भक्ति-भावना एवं ऐतिहासिकता के कारण समय-समय पर इसका जीर्णोद्धार कराते रहते हैं तो कुछ इसे निजी स्वार्थवश नष्ट करने एवं हानि पहुंचाने को प्रयत्नशील रहते हैं। खेमकरण शर्मा ने इसके रख-रखाव हेतु लगभग 22 एकड़ जमीन दी थी। परन्तु अब मात्र परिसर ही शेष बचा है। गत वर्ष तक इसकी देखभाल गांधारी तीर्थ विकास समिति कर रही थी, लेकिन वर्तमान में समिति इससे अलग है। समिति एवं तात्कालीन ब्लाक प्रमुख सरजीत कुमार के कारण ही इसका विकास सम्भव हो पाया। यद्यपि महाभारत सर्किट योजना में गांधारी तालाब को भी शामिल कर लिया गया परन्तु इस पर अतिक्रमण आज भी जारी है। अगर हालात ऐसे ही रहे तो आने वाले 30 से 40 वर्षों में इसका अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा।

महाभारत के विनाशक युद्ध के पश्चात् गांधारी तालाब पर कौरव-पाण्डव वंश के अनेक वीरों का एकादशाह श्राद्ध (पिण्डदान) करके स्वर्गगमन की कामना की गई थी। उसी परम्परा के निर्वाह स्वरूप आज भी यहां पिण्डदान आदि कर्म होता है। बहुत से पर्यटक भी यहां पिण्डदान कराते हैं। मान्यता है कि इसमें पिण्डदान एवं स्नान से सभी 68 तीर्थों का फल प्राप्त हो जाता है।

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