सहभागिता से ही होगा जल संरक्षण

16 Mar 2016
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राजस्थान में जल संरक्षणसंयुक्त राष्ट्र संघ वर्ष 1992 से ही विश्वव्यापी जल संकट की समस्या के निदान हेतु जल से सम्बन्धित हर सूक्ष्म से वृहत स्तर के पहलुओं पर विचार करता आया है तथा प्रतिवर्ष समूचे विश्व में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा घोषित जल विषयक बिन्दु पर विश्व जल दिवस, 22 मार्च से विचार मंथन एवं तत्सम्बन्धित कार्रवाई की जाती रही है। वर्ष 2013 को भारत सरकार ने भी जल संरक्षण वर्ष घोषित किया है।

इस सम्पूर्ण जगत में चाहे वह पेड़-पौधे हों, मनुष्य हो, सूक्ष्म या विशाल जीव हों, सभी को निरन्तर तेल की तरह ईंधन के रूप में ऊर्जा प्रदान करने वाला तत्त्व जल है। वस्तुतः जल को जीवन की संज्ञा यथार्थ में ही दी गई है। जल सृष्टि का मूल है और जल ही ब्रह्म है। वर्तमान 21वीं शताब्दी में मानव प्रकृति के इस अनमोल उपहार ‘जल’ की निरन्तर होती जा रही कमी को देखकर न केवल चिन्तित वरन भयाक्रान्त है। निरन्तर बढ़ती हुई विश्व की जनसंख्या की आवश्यकताओं की परिपूर्ति के लिये विश्व भर में जल की माँग भी निरन्तर बढ़ती गई है, फलतः बेहद मूल्यवान भूजल का दोहन मानव करता जा रहा है। यह एक विडम्बना ही है कि प्रकृति के जल रूपी उपहार का मानव अन्धाधुन्ध दोहन एवं प्रदूषण कर रहा है।

जल का अद्भुत वितरण


प्रकृति में जल वितरण की अद्भुत प्रक्रिया है। सम्पूर्ण विश्व में जल का लगभग दो तिहाई भाग समुद्र में और एक तिहाई भाग पृथ्वी पर उपस्थित है। पृथ्वी पर उपस्थित शुद्ध जल का लगभग दो तिहाई भाग बर्फ और हिमनद के रूप में तथा शेष एक तिहाई भाग पानी के रूप में है। यदि हम सतह पर उपलब्ध जल के उपयोग के हिसाब से देखें, तो लगभग दो तिहाई जल कृषि क्षेत्र में तथा एक तिहाई उद्योग व अन्य घरेलू कार्यों में प्रयुक्त होता है। वर्तमान में लगभग दो तिहाई जनसंख्या अपनी घरेलू आवश्यकताओं के लिये भूजल का प्रयोग करती है। विश्व में पानी के वितरण का प्रतिशत इस प्रकार है -

विश्व में जल का प्रतिशत

स्रोत

प्रतिशत

समुद्र

97.24

बर्फ हिमनद

2.14

भूजल

0.16

शुद्ध जल झील

0.009

अन्तररदेशीय सागर

0.008

जमीनी नमी

0.005

वातावरणीय नमी

0.001

नदी जल

0.0001

कुल जल

100.00

 

भारत में यदि वर्षा के जल की स्थिति को देखें तो, कुल वर्षाजल का लगभग दो तिहाई भाग बहकर समुद्र में चला जाता है। तथा लगभग एक तिहाई जल मृदा द्वारा सोख लिया जाता है या झील, पोखर, तालाबों आदि में संग्रहित हो जाता है। भारत में नदी प्रवाह के हिसाब से लगभग दो तिहाई प्रवाह क्षेत्र गंगा-ब्रह्मपुत्र और मेघना तथा इनकी सहायक नदियों के अन्तर्गत तथा शेष एक तिहाई देश की अन्य नदियों के अन्तर्गत आता है। यदि देश में बाढ़ग्रस्त क्षेत्र पर दृष्टि डालें तो बाढ़ग्रस्त क्षेत्र का लगभग दो तिहाई भाग उपर्युक्त तीनों नदियों और इनकी सहायक नदियों के अन्तर्गत आता है। हमारे शरीर का भी लगभग दो तिहाई भाग जल तथा एक तिहाई भाग ठोस है। व्यवहार में विश्व की कुल जलापूर्ति का केवल 0.03 प्रतिशत भाग ही मानव के दैनिक उपयोग के लिये आसानी से उपलब्ध है।

अनियमित वर्षा एवं विषम स्थिति


सरकारी आँकड़ों के अनुसार भारत में प्रतिवर्ष 1100 मिलीमीटर वर्षा होती है। इससे 4000 अरब घनफुट पानी प्राप्त होता है। भारत में होने वाली वर्षा स्थानिक एवं कालिक आधार पर वृहत रूप से परिवर्तनीय है। जहाँ देश में एक ओर चेरापूँजी के निकट मासिनराम नामक स्थल पर विश्व की सर्वाधिक वर्षा होती है, वहीं दूसरी ओर राजस्थान में काफी कम वर्षा होती है। तमिलनाडु, जहाँ वर्षा अक्टूबर एवं नवम्बर माह के दौरान उत्तर-पूर्वी मानसून के प्रभाव के कारण होती है, को छोड़कर शेष भारत में होने वाली अधिकांश वर्षा जून से सितम्बर माह के मध्य दक्षिणी-पश्चिमी मानसून के प्रभाव के कारण होती है। भारत में वर्षा के क्षेत्र में अधिक परिवर्तन, असमान ऋतु वितरण एवं असमान भौगोलिक वितरण पाया जाता है। हमारे देश में वर्षा अनिश्चित और असमान होती है, जिसमें आधे से अधिक पानी वाष्पीकरण के कारण तथा नदियों के द्वारा बहकर समुद्र में चला जाता है।

वर्ष 1951 में प्रति व्यक्ति जल की उपलब्धता भारत में जहाँ 5,177 घनमीटर थी, वहीं बढ़ती जनसंख्या के कारण वर्ष 2001 में घटकर केवल 1820 घनमीटर ही रह गई है। जल वैज्ञानिकों का अनुमान है कि जनसंख्या वृद्धि और विकास की गति के चलते जल उपलब्धता सन 2025 में प्रति व्यक्ति लगभग 1341 घनमीटर और सन 2050 में और घटकर मात्र लगभग 1140 घनमीटर ही रह जाएगी ।

गहराते जल संकट के कारण


जल की समस्या किसी देश विशेष की नहीं वरन विश्वव्यापी है। विकासशील देश ही नहीं वरन विकसित देश भी इस समस्या से अछूते नहीं हैं। हमारे देश में जल संकट के निम्नांकित सम्भावित कारण हैं।

1. जनसंख्या में अत्यधिक वृद्धि।
2. वृक्षों की अन्धाधुन्ध कटाई।
3. बढ़ता औद्योगिकीकरण।
4. कम होता वर्षा का परिमाण।
5. गाँवों से पलायन और फैलता शहरीकरण।
6. आधुनिकतावादी प्रवत्ति में वृद्धि।
7. जल के प्रति संवदेनहीनता।
8. पारम्परिक जल संग्रहण तकनीकों की उपेक्षा।
9. भूजल पर बढ़ती निर्भरता एवं अत्यधिक दोहन।
10. कृषि में बढ़ता जल का उपयोग।
11. अनुचित जल प्रबन्धन।
13. युवावर्ग में जल संरक्षण के ज्ञान का अभाव। 14. जल शिक्षा का अभाव।

विभिन्न क्षेत्रों में जल की कुल आवश्यकता को निम्न सारणी में दर्शाया गया है:-

विभिन्न क्षेत्रों में जल की कुल आवश्यकता (बीसीएम)

क्षेत्र

जल की माँग

 

1990

2000

2010

2025

2050

सिंचाई

437

541

688

910

1072

पेयजल

32

42

56

73

102

औद्योगिक

-

8

12

23

63

ऊर्जा

-

2

5

15

130

अन्य

33

41

52

72

80

योग

502

634

813

193

1447

 

देश में भूजल के अतिदोहित राज्य


देश के पंजाब, दिल्ली, राजस्थान, हरियाणा, तमिलनाडु, कर्नाटक, पांडिचेरी एवं आन्ध्र प्रदेश राज्यों में भूजल का अत्याधिक दोहन किया जाता है।

जल संरक्षण की आवश्यकता क्यों?


गुलाब सागरकिसी भी वस्तु के संरक्षण की बात तब उत्पन्न होती है जब उसकी कमी होनी शुरू हो जाती है। इसी प्रकार जल संरक्षण की आवश्यकता भी निम्न तीन कारणों, यथा - शुद्ध पेयजल में कमी, जल प्रदूषण तथा बाढ़ ग्रस्तता से उत्पन्न हुई है। यही कारण है कि आज पूरे विश्व में जल वैज्ञानिकों की सबसे बड़ी चिन्ता ‘जल संरक्षण’ की ही है। जनसंख्या वृद्धि की तो ऐसी विकट स्थिति हो चुकी है कि हमारे देश के प्रत्येक प्रदेश की जनसंख्या विश्व के देशों के बराबर हो चुकी है।

जल की समस्या के निदान में जन सहकारिता एवं सहभागिता - प्रभावी कदम


आज आवश्यकता इस बात की है कि हमें प्रत्येक मनुष्य को ‘जल-संरक्षण अभियान’ से जोड़ना होगा। आज हम जिस प्रकार विश्व स्तर पर ‘एड्स’ नाम की बीमारी के लिये अरबों डालर खर्च करके विश्व को जगाने में लगे हैं, उसी तरह यह भी जरूरी है कि पूरे विश्व में ‘जल संरक्षण की अनिवार्यता’ को मुद्दा बनाकर, महाअभियान चलाया जाये। हमें विश्व स्तर पर और विशेष रूप से भारत में, प्राथमिक और माध्यमिक स्तर की शिक्षा तथा महाविद्यालयी शिक्षा में ‘जल संरक्षण’ को अनिवार्य विषय के रूप में आगामी पीढ़ी को पढ़ाना होगा, तभी विकास का सपना साकार हो सकेगा।

यह समय की पुरजोर माँग है कि उपलब्ध पानी को अधिक-से-अधिक संचित, प्रबन्धित और संरक्षित किया जाये जिससे देशवासियों के आर्थिक, सामाजिक और स्वास्थ्य स्तर को ऊपर उठाया जा सके। इसलिये यह जरूरी है कि सरकार के दायरे से बाहर निकलकर सामुदायिक प्रयासों से जल को संरक्षित और संचित किया जाये।

पुरातन परम्परा


जल संरक्षणभारत में सदियों से जल संचयन और प्रबन्धन की समृद्ध परम्परा रही है। गाँवों में सहभागिता जल संचयन को लेकर बहुत ही सफल रही है। लोग बिना व्यक्तिगत स्वार्थ के, साथ मिलकर तालाब, झालरा, पोखर, ताल, बावड़ी, कुआँ, ठोकरी और गठिया की सफाई करते थे। वर्षा ऋतु में ये भर जाते थे, जिससे गाँव वालों के लिये नहाने-धोने और सिंचाई के लिये पर्याप्त जल मिल जाता था। परन्तु यह परम्परा धीरे-धीरे समाप्त होती जा रही है। गाँवों में भी शहरों में फैली बुराइयाँ पैर पसार रही हैं। जिससे सहकारिता और सहभागिता की भावना पहले जैसी नहीं रही है। लोगों के दिमाग में यह बात घर कर गई है कि प्रबन्धन और वितरण का काम उनका नहीं, बल्कि सरकार का है, यानि सोच भी केन्द्रीकृत और व्यवस्था भी केन्द्रीकृत हो गई है। आज देश का जल परिदृश्य भू-तल और भूजल संसाधनों के अविवेकपूर्ण प्रबन्धन का शिकार हो गया है। इस सम्बन्ध में समय रहते उचित कदम उठाना ही श्रेयस्कर रहेगा ।

जल संरक्षण में युवा वर्ग की सहभागिता जरूरी


जैसा कि वर्णित किया जा चुका है कि हमारा जल तंत्र संकटग्रस्त अवस्था में पहुँच चुका है और पृथ्वी पर विकास एवं निरोगी जीवन हेतु शुद्ध जलापूर्ति बनाये रखने के लिये जल संरक्षण अति आवश्यक है। जल का संरक्षण केवल नियम बनाकर, कानून बनाकर, विधि से नहीं किया जा सकता है। इसके लिये लोगों में जल चेतना जागृत करना आवश्यक है। भविष्य में जल संकट का सामना हमारी युवा पीढ़ी को करना है, क्योंकि कल वे ही इसके उपभोक्ता होंगे। आज का युवक, कल का वैज्ञानिक, समाजसेवी, कृषक, उद्योगपति, शासक, गृहस्थी, राजनेता, चिकित्सक एवं अभियन्ता है। यदि युवक में जल के संरक्षण और इसके महत्त्व के प्रति जागरुकता हो तो वह कल किसी भी पद पर जाकर इसका सदुपयोग करेगा। इसके अलावा युवाओं में ऊर्जा अधिक है तथा वे किसी भी चीज को जल्दी ग्रहण कर लेते हैं। तात्पर्य यह है कि युवक को अपनी कीमती जलरूपी धरोहर के बारे में अवगत कराया जाय। जल संरक्षण को सामाजिक आन्दोलन के स्तर पर चलाया जाय और इसमें युवकों की भागीदारी निश्चित की जाय, तभी इस गम्भीर समस्या का कुछ समाधान निकल सकता है, अन्यथा भविष्य बड़ा विकट हो जाएगा। यदि युवा जागृत है तो राष्ट्र जागृत है। इसीलिये युवाओं की इस अभियान में सहभागिता आवश्यक है।

मैग्सेसे पुरस्कार से अलंकृत प्रसिद्ध समाजसेवी ‘वाटरमैन’ नाम से प्रसिद्ध राजेन्द्र सिंह ने राजस्थान के पाँच सर्वाधिक मरुस्थलीय जिलों में सामाजिक आन्दोलन चलाकर परम्परागत जल कृषि को पुनर्जीवित करने के लिये अथक प्रयास किये हैं। राजेन्द्र सिंह ने भी इस महान कार्य में युवकों को साथ लेकर ही यह कार्य पूरा किया है। उन्होंने प्रत्येक गाँव से पाँच-पाँच व्यक्तियों का चुनाव करके बाँध बनाए। इस प्रकार से युवकों को लेकर उन्होंने संरक्षित वर्षाजल के उपयोग की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित किया ।

अतः जल की उपलब्धता को बनाए रखने में तथा इसके संचयन में युवा मानस को घरेलू तथा सामुदायिक स्तर पर जल संचयन हेतु अभिप्रेरित कर सकते हैं। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में यह नितान्त आवश्यक है कि जल संरक्षण का विकास बड़े पैमाने पर करना होगा तथा इसको सामाजिक आन्दोलन में परिवर्तित करके इसमें युवाओं की सहभागिता बढ़ानी होगी।

जन सहभागिता से हुए जल संरक्षण कार्यों के कुछ प्रेरणास्पद दृष्टान्त


देश के कई भागों में जल सहभागिता के माध्यम से हुए जल संरक्षण के सफल परिणाम प्राप्त हुए हैं। इनका विवेचन निम्नवत हैं -

राजस्थान
जल संरक्षणराजस्थान के अलवर जिले के गोपालपुरा गाँव में भौगोलिक स्थिति खेती के लिये अनुकूल नहीं थी तथा पानी का अभाव था। सन 1985 में ‘तरुण भारत संघ’ नामक स्वैच्छिक संस्था ने गाँव वालों को ‘जोहड़’ (नालों के जल प्रवाह के आर-पार कच्चा बाँध) बनाने के लिये प्रेरित किया। कच्चे बाँध की मिट्टी कटकर जलाशय को पाट न दे, इसके लिये जोहड़ के किनारे वृक्ष लगाए गए। यह प्रयोग इतना सफल रहा कि आज राजस्थान के 500 से अधिक गाँवों के भूजल स्तर में वृद्धि हुई।

राजस्थान में ही जोधपुर से कोई 80 किमी. दूर 25 गाँवों में वर्षा जल संग्रह के लिये लगभग 2000 परम्परागत टाँके बनाए गए हैं। ‘ग्रामीण विज्ञान विकास समिति’ नामक स्वैच्छिक संस्था के प्रयासों से क्रियान्वित इस योजना में हर घर की छत के पानी को नालियों के द्वारा पानी टांके में संचित किया जाता है। टांके की दीवारों पर चूना और फिटकरी का लेप होता है। इस प्रकार गाँव वालों के पीने के लिये अगले 4-5 महीनों तक शुद्ध स्वच्छ जल उपलब्ध रहता है।

राजस्थान के समस्याग्रस्त तीन जिलों, यथा-चुरू, हनुमानगढ़ एवं झुझुनू के निवासियों के स्वास्थ्य एवं जीवन स्तर को सुधारने हेतु एक वृहत परियोजना - ‘आपणी योजना’ के नाम से वर्ष 1994 में आरम्भ की गई। इस कल्याणकारी राजस्थान एकीकृत जल वितरण, स्वच्छता एवं स्वास्थ्य शिक्षा परियोजना का वित्तीय भार संयुक्त रूप से राजस्थान सरकार एवं जर्मनी सरकार द्वारा वहन किया गया। इस परियोजना का प्रमुख उद्देश्य जन समुदाय को सुरक्षित पेयजल एवं स्वच्छता सुविधा उपलब्ध करवाकर उनके स्वास्थ्य में सुधार लाना रखा गया। इस कार्य हेतु सहकारिता और जन सहभागिता हेतु सभी गाँवों में जलापूर्ति, जल संरक्षण, जल उपयोग के नियमित भुगतान, स्वास्थ्य शिक्षा एवं स्वच्छता के उपायों के बारे में व्यवस्था करने का दायित्त्व भी इन समितियों को सौंपा गया। इस परियोजना में जल स्वच्छता और स्वास्थ्य शिक्षा की गतिविधियों में महिलाओं की पर्याप्त भागीदारी रखी गई।

यह वृहत परियोजना सम्पूर्ण राजस्थान राज्य में अनूठा उदाहरण है कि ग्रामीण क्षेत्रों में सार्वजनिक जल वितरण प्रणाली पर शुल्क स्वयं समुदाय द्वारा वसूला जा रहा है। इसके साथ ही जन सहभागिता ने भी यह सिद्ध कर दिया है कि लोग पानी का विवेकपूर्ण उपयोग कर रहे हैं, जो कि केन्द्रीय मापदण्डों से भी बहुत कम है।

इस परियोजना में महिलाओं (जल प्रबन्धक) को समय पर जलापूर्ति होने से उनके समय एवं ऊर्जा में बचत हुई है। अतः महिलाएँ खाली समय का सदुपयोग धनोपार्जन में कर रही हैं।

महाराष्ट्र:
अहमदनगर जिले के रालेगण सिद्धी गाँव में गाँधीवादी समाज सुधारक अन्ना हजारे के परम्परागत जल-प्रबन्धन के सफल प्रयोग ने उस गाँव की काया पलट दी है। अर्द्धशुष्क पठारी क्षेत्र में स्थित यह गाँव आज से 25 वर्ष पूर्व पूरी तरह बर्बाद था। सिंचाई के अभाव में कुछ नहीं पैदा होता था, लोग व्यसनों में फँसे थे। आज रालेगण सिद्धी आदर्श गाँव है। किसान वर्षा में तीन फसलें लेते हैं। पशुओं को वर्ष भर हरा चारा उपलब्ध है। सड़कों के सहारे वृक्षावलि, स्कूल जाते बच्चे, पूर्णतः व्यसन मुक्त समुदाय और सुविधायुक्त घर-कुल मिलाकर ऐसा चमत्कार हुआ है, जिसे देखने और उनसे सीखने देश-विदेश से लोग आते ही रहते हैं।

अन्ना हजारे ने लोगों को परम्परागत जल-प्रबन्धन के बारे में समझाया। उनकी सलाह मानकर गाँव वालों ने तालाब खोदे, ढालों के जल प्रवाह को छोटे-छोटे बाँधों से रोका, जगह-जगह वृक्षारोपण किया, सीढ़ीदार खेतों में पानी को मेढ़ों से रोका, पुराने कुओं को आबाद किया तथा शनैः शनैः गाँव समृद्ध हो गया, जहाँ अकाल की आशंकाएँ अब कल्पना हैं।

उत्तराखण्ड
उत्तराखण्ड जल संस्थान ने इस दिशा में सराहनीय प्रयास किये हैं। जल की बर्बादी के प्रति जागरूक करने की दिशा में संस्थान ने एक पत्रक द्वारा बताया है कि यदि किसी नल से प्रति सेकेंड ‘एक बूँद’ जल टपकता रहे, तो एक दिन में 3.4 लीटर और एक महीने में 716 लीटर जल बर्बाद हो जाएगा । निःसन्देह शहरों, गाँवों, कस्बों के घर-घर में यदि ‘टपकते हुए नलों’ की ही देखभाल हम करना सीख लें, तो लाखों घनलीटर शुद्ध पानी को बचा सकते हैं।

आवश्यकता है जन जागरण की


जल प्रबन्धन ‘स्वयं का, स्वयं के लिये’ एक ऐसा कारगर प्रयास है, जिसे करने से लोग अकाल जैसी स्थितियों से सदा के लिये मुक्त हो सकते हैं। पीने के पानी और पशुओं के लिये चारे की समस्या का समाधान स्थायी रूप से हो सकता है। पानी जो जीवनदायक संसाधन है, वस्तुतः समुदाय की सम्पत्ति है। इसके लिये सामुदायिक प्रबन्धन की आवश्यकता है।

जल प्रबन्धन की व्यूह रचना विशेषतौर पर निम्न बिन्दुओं पर केन्द्रित होनी चाहिए -

1. वर्षा ऋतु में धरातल पर प्रवाहित जल की अधिकाधिक व्यवस्था।
2. जल संचय हेतु परम्परागत विधियों को पुनर्जीवित करना।
3. गिरते भूजल स्तर को रोकने/ऊँचा करने की कृत्रिम विधियों से जलापूर्ति।

इन उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए प्रत्येक गाँव के जल प्रबन्धन के लिये निम्न कार्य किये जाने अपेक्षित हैं।

1. वर्षा ऋतु में नालों के जल की स्वाभाविक प्रवाह दिशा के आर-पार मिट्टी के बन्धों (जोहड़) का निर्माण तथा उन पर वृक्षारोपण।
2. गाँव के तालाबों की खुदाई, ताकि उनमें अतिरिक्त जल संचय क्षमता हो सके। जहाँ तालाब नहीं है, वहाँ नए तालाबों का निर्माण।
3. जहाँ आवश्यक हो वहाँ चेकडैम्स बनाना।
4. खेतों में सिंचाई के लिये पक्की नालियाँ या पीवीसी पाइप की व्यवस्था ।
5. पीने के पानी के लिये परम्परागत टाँकों का निर्माण ।
6. बोरिंग, नलकूप तथा जेटपम्प आदि पर नियंत्रण।

कैसे करें जल का संरक्षण?


जल संरक्षणवस्तुतः प्रकृति ने वर्षाजल के रूप में हमारे द्वारा उपभोग किये गए जल की प्रतिपूर्ति का स्वाभाविक प्रबन्ध कर रखा है। खारे समुद्र से भाप बनकर उड़ने वाला जल वर्षा के रूप में शुद्ध होकर हमें मिलता है। निश्चय ही वर्षा प्रकृति द्वारा मानव को दिया जल का प्रथम उपहार है, जिससे नदियाँ, तालाब आदि जल ग्रहण करते हैं। वर्षा के बाद द्वितीय स्रोत भूजल है, जिसकी पूर्ति भी वर्षाजल से ही होती है।

आज समय की पुरजोर माँग है कि हमें जल विज्ञानियों द्वारा बताए गए तरीकों के अनुसार वर्षा जल संचयन करके उसे मनुष्य और मवेशियों के लिये उपयोग करने की दिशा में आवश्यक एवं प्रभावी कदम उठाने होंगे। वर्षाजल संचयन से भूजल का पुनर्भरण (रिचार्ज) भी जुड़ा हुआ है। वर्षाजल को व्यर्थ गँवाना देश के लिये अपूर्णीय क्षति होगी।

भूजल पुनर्भरण में इंजेक्शन कुएँ


विगत कुछेक वर्षों में यह तकनीक बहुत प्रभावी सिद्ध हुई है। इसके अन्तर्गत सभी घरों की छतों के पानी को नालियों/पाइपों के माध्यम से एक गहरे, संकरे कुएँ में पहुँचाया जाता है, जहाँ से वह सीधा भूजल के स्रोतों में मिलकर प्रभावी ढंग से जलापूर्ति करता है।

इस तकनीक का उपयोग देश के कई भागों, यथा-मेहसाना (गुजरात), अमरावती (महाराष्ट्र), कोलार (कर्नाटक), देवास (मध्य प्रदेश) में सफलतापूर्वक किया गया है जिससे भूजल स्तर में वृद्धि हुई है।

घरेलू स्तर पर जल संरक्षण के सरल उपाय


यदि जल के जागरूक उपभोक्ता मात्र अपनी आदतों में परिवर्तन कर लें तो प्रत्येक व्यक्ति एक दिन में अपने दैनिक जीवन के क्रियाकलापों में लगभग 200 लीटर जल की बचत कर सकता है। उदाहरण के तौर पर स्नान करते समय ‘बाल्टी’ में जल लेकर ‘शावर या टब’ की तुलना में जल की बचत की जा सकती है। प्रातःकाल ब्रश करते समय, शौचालय में फ्लश में, रसोई के जल को बागवानी में, स्कूटर, कार धोने में, लाॅन को पानी देने में तथा बर्तन साफ करने आदि कार्यों में जल का विवेकपूर्ण उपयोग करके जल की बचत की जा सकती है। इसी प्रकार कुछ स्वार्थी लोग पाइप में सीधे मोटर लगाकर, पाइप लाइन को तोड़कर राष्ट्रीय सम्पदा का नुकसान करते हैं। अतः ऐसे लोगों को दंड दिया जाना चाहिए।

प्रत्येक घर की छत पर वर्षाजल के भण्डारण के लिये एक या दो टंकी बनाई जानी चाहिए और इन्हें मजबूत जाली या फिल्टर कपड़े से ढँक दिया जाये तो हर घर में जल संरक्षण की व्यवस्था हो सकती है।

प्रायः यह देखा गया है कि महंगे पानी के प्रति लापरवाही के कारण सार्वजनिक पार्कों, स्कूलों, अस्पतालों, मन्दिरों आदि में लगी नल की टोटियाँ खुली या टूटी रहती हैं, जिससे अनजाने में हजारों लीटर जल बेकार हो जाता है। अतः प्रत्येक 3 माह पश्चात टोटियों के वासर बदलने की आदत डालनी चाहिए। विद्यालयों, महाविद्यालयों के पाठ्यक्रम में जल शिक्षा को सम्मिलित किया जाना चाहिए।

सिंचाई में जल का संरक्षण


यह देखा गया है कि सिंचाई कार्यों में लगभग भूजल का 85 प्रतिशत उपयोग/अपव्यय होता है। अतः क्षेत्रवार कृषि जलवायुवीय स्थितियों के हिसाब से फसलों का चयन करना चाहिए। कृषि में जल का अपव्यय रोकने हेतु फव्वारा तथा बूँद-बूँद सिंचाई का प्रयोग करना चाहिए।

छत से बरसाती जल का संग्रहण


जल सरंक्षण के क्षेत्र में यह एक प्रभावी कदम है तथा अनादि काल से चली आ रही हमारी परम्परा भी है। इसके लाभ को निम्न चार्ट में दर्शाया गया है।

अतः जल को यदि हम आगामी सदी तक संरक्षित करना चाहते हैं तो इसमें हम सभी को सहकारिता और जन सहभागिता से ही कार्य करना होगा क्योंकि जल संरक्षण की जिम्मेदारी सरकार की ही नहीं वरन हम सभी की है इसीलिये कहा गया है ‘जल है तो कल’ है, नहीं तो विकट संकट है।

सम्पर्क करें
डाॅ. डी.डी. ओझा, गुरू कृपा, ब्रह्मपुरी, हजारी चबूतरा, जोधपुर-342001 (राजस्थान), मो.नं. 09414478564

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