शहरी नियोजन: ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य

जब भी स्मार्ट शहर यानी बुद्धिमत्ता के साथ बनाए गए सुनियोजित शहर की बात की जाती है तो प्राचीन काल की कई नगरी हमारे ध्यान में आती हैं। अंग्रेजों के आने के बाद भी कई शहर सुनियोजित ढंग से बसाए गए और स्मार्ट सिटी परियोजना के तहत भी इसे आगे बढ़ाया जा रहा है। मध्यकाल के स्मार्ट शहरों के बारे में बात कम ही होती है, जबकि वास्तव में वे शहर ही स्मार्ट सिटी की अवधारणा के सबसे करीब आते हैं। भारत में फतेहपुर सीकरी, पुड्डुचेरी और जयपुर आदि ऐसे ही शहर हैं।

अतीत साक्षी है कि भारत में शहर और गाँवों का नियोजन कितना व्यवस्थित होता था। शहर और ग्रामों के व्यवस्थित नियोजन के ही कारण भारत विकास के चरमोत्कर्ष तक पहुँच सका था। नियोजकों ने मस्तिष्क में इन समस्त बातों का भरपूर ध्यान रखा था कि शहर और गाँवों के मध्य सन्तुलन बना रहे। अव्यवस्थित विकास से यह व्यवस्था चरमरा न उठे। संस्कृत साहित्य में इन सभी बातों के पर्याप्त स्रोत उपलब्ध हैं। इस अध्याय में उन बिन्दुओं पर चर्चा की जाएगी।

नियोजन की अवधारणा


शहर और गाँवों के नियोजन के सम्बन्ध में चिन्तकों ने भरपूर चिन्तन किया था और इस बात का ध्यान रखा था कि विकास के सन्दर्भ में गाँव और शहरों के मध्य समन्वय बना रहे। इस हेतु उन्होंने उस समय की राजनीति, सामाजिक एवं आर्थिक परिस्थितियों को ध्यान में रखा था। चिन्तकों के ध्यान में यह विषय गम्भीरता से बैठा हुआ था कि मनुष्य का सर्वांगीण विकास तब तक सम्भव नहीं है जब तक कि उसका सामाजिक और आर्थिक विकास न हो। इसलिए चिन्तकों ने नियोजन को राजधर्म माना। इसलिए ही शासकों ने ग्रामीण और शहरी विकास के माध्यम से नागरिकों को बेहतर जीवन प्रदान करने के प्रयास किए। इस सम्बन्ध में उन्होंने यातायात, जनसंख्या एवं आवासीय व्यवस्थाओं पर अत्यधिक बल दिया। आधुनिक समय की तरह शहरी और ग्रामीण समस्याओं का सामना प्राचीन काल के नागरिकों को नहीं करना पड़ता था। नियोजन में तत्कालीन आवश्यकताओं को दृष्टिगत रखकर विकास का प्रारूप तैयार किया जाता था। राज्यों के पास एक कार्यक्रम होता था जिसके माध्यम से वे शहर और गाँवों में जनसंख्या स्थापना के कार्यों को अंजाम देते थे। मोहनजोदड़ो हड़प्पा, कालीबंगा एवं लोथल के खण्डहर इस बात के स्पष्ट प्रमाण हैं कि उस समय का नियोजन कितना स्पष्ट हुआ करता था। रामायण, महाभारत, अर्थशास्त्र एवं मनुस्मृति में वर्णित शहरों के वर्णन से उनके नियोजन, विकास एवं भव्यता का आँकलन सहजता से ही किया जा सकता है। उस समय के शहरों अयोध्या, किष्किंधा, लंका, पाटलिपुत्र, मगध, वैशाली, काशी, द्वारिका, हस्तिनापुर, इंद्रप्रस्थ आदि के वर्णन से इस बात के प्रमाण मिल जाते हैं।

कौटिल्य लिखते हैं कि, राज्य की सीमा पर अंतफल नामक दुर्ग रक्षण के संरक्षण में एक दुर्ग की भी स्थापना करें। जनपद की सीमा पर अंतफल की अध्यक्षता में ही आधारभूत स्थानों का भी निर्माण करें। उनके भीतरी भागों की रक्षा व्याघ, शबरी, पुलिंद्र, चाण्डाल आदि वनचर जातियों के लोग करें। राजा को चाहिए कि ऋत्विक, आचार्य पुरोहित तथा श्रोत्रिय आदि ब्राह्मणों के लिए भूमिदान करें किन्तु उनसे कर आदि न लें और उस भूमि को वापिस भी न ले। इसी प्रकार विभागीय अध्यक्षों, संख्यायकों (लिपिकों), गोपों (दस-दस गाँवों के अधिकारियों), वैद्यों, अश्वशिक्षकों और जंघाकारियों (दूर देश में जीविकोपार्जन करने वाले लोगों) आदि अपने अधिकारियों, कर्मचारियों और प्रजाजनों के लिए भी राजा भूमि दान करें। किन्तु इस प्रकार पाई हुई जमीन को बेचने या गिरवी रखने के लिए वर्जित कर दें। कौटिल्य का मानना है कि सामाजिक सरोकारों की पूर्ति या तो राज्य कर या फिर समस्त समाज स्वयं करे, कोई भी इसमें से बचने का प्रयास करे तो समाज उसका प्रतिकार करे। राजा को चाहिए कि वह आकर (खान) से उत्पन्न सोना-चाँदी आदि के विक्रय-स्थान, चंदन आदि उत्तम काष्ठ के बाजार हाथियों के जंगल, पशुओं की वृद्धि के स्थान, आयात-निर्यात के स्थान, जल-थल के कार्य और बड़े-बड़े बाजारों या बड़ी-बड़ी मण्डियों की भी व्यवस्था करें। ऐसा करके राजा गाँवों की अर्थव्यवस्था में प्रभारी भूमिका निभा सकता है।

शहरी नियोजन


प्राचीन भारत में शहरी नियोजन की व्यवस्था भी अद्भुत थी। प्रस्तुत अध्ययन में जो वर्णन किया जा रहा है, उससे यह प्रतीत होता है कि उस समय का नियोजन कितना उच्च स्तर का था। रामायणकार लिखते हैं कि अयोध्या के चारों ओर गहरी खाई खुदी थी, जिसमें प्रवेश करना या जिसे लाँघना अत्यन्त कठिन था। वह नगरी दूसरों के लिए सर्वथा दुर्गम एवं दुर्जेय थी। घोड़े, हाथी, गाय-बैल, ऊँट तथा गधे आदि उपयोगी वस्तुओं से वह पूरी भरी-पूरी थी। यानी यह नगर भी था और सुरक्षा की दृष्टि से किले का भी आकार लिए हुए थी। इस प्रकार का समन्वय विरले ही मिलता है। आगे लिखते हैं कि ‘‘क्या तुम्हारे सभी दुर्ग (किले) धन-धान्य, अस्त्र-शस्त्र, जल, यंत्र, शिल्पी तथा धनुर्धर सैनिकों से भरे-पूरे रहते हैं। प्राचीन भारत में नगर नियोजन कुछ मूलभूत नियमों पर आधारित था जैसे कि- मुख्य मार्गों का नियमित विकास, शहर का उपविभाजन तथा सड़कों की चौड़ाई निर्धारित करना। शहर में मंदिर, मार्ग, पैदलपथ, बाजार, बाग-बगीचे एवं मनोरंजन के विभिन्न स्थान निर्धारित थे तथा नगर में व्यवस्थित प्रवाह प्रणाली स्थापित करने के लिए परिनियम निर्धारित किए गए थे। इसके अतिरिक्त अग्नि प्रज्वलन के कारण एवं उसके शमन पर भी व्यापक रूप से विचार किया गया था। शहर को राजधानी के रूप में विकसित करने में राजा का प्रसाद केन्द्र बिन्दु था। मनु ने सुझाया कि राजा को अपनी राजधानी इस प्रकार से बनानी चाहिए जो कि चंदनाकृति, धाकृति, जलाकृति, वृक्षाकृति, पर्वताकृति हो, इन मानव-निर्मित दुर्ग में से किसी भी एक प्रकार के दुर्ग को राजा को संरक्षित कर लेना चाहिए।

कौटिल्य नगर नियोजन की अनेकानेक अवधारणाएँ प्रस्तुत करते हैं। नगर के सुदृढ़ भूमि भाग में राजभवनों का निर्माण कराना चाहिए। साथ ही यह भी ध्यान रखना चाहिए कि यह भूमि चारों वर्णों की आजीविका के लिए उपयोगी हो। गृह भूमि के बीच से उत्तर की ओर नवें हिस्से में अंतःपुर के पूर्वोत्तर भाग में आचार्य, पुरोहित के भवन, यज्ञशाला, जलाशय और मंत्रियों के भवन बनवाए जाएं। अंतःपुर के पूर्व दक्षिण भाग में महानस (रसोईघर), हस्तशाला और कोष्ठागार हों। उसके आगे पूरब दिशा में इत्र, तेल, पुष्पहार, अन्न, घी, तेल की दुकानें और प्रधान कारीगरों एवं क्षत्रियों के निवास स्थान होने चाहिए। दक्षिण-पूरब में भंडारागार, राजकीय पदार्थों के आय-व्यय का स्थान और सोने-चाँदी की दुकानें होनी चाहिए। उससे आगे दक्षिण दिशा में नगराध्यक्ष, धान्याध्यक्ष, व्यापाराध्यक्ष, खदानों तथा कारखानों के निरीक्षक, सेनाध्यक्ष, भोजनालय, शराब एवं मांस की दुकानें, वेश्या, नट और वैश्य आदि के निवास स्थान होने चाहिए।

पश्चिम-दक्षिण भाग में ऊँटों एवं गधों के गुप्ति स्थान (तबेले) तथा उनके व्यापार के लिए एक अस्थाई घर बनवाया जाए। पश्चिम-उत्तर की ओर रथ तथा पालकी आदि सवारियों के रखने के स्थान होने चाहिए। उसके आगे पश्चिम दिशा में ही ऊन, सूत, बाँस और चमड़े का काम करने वाले, हथियार और अंक म्यान बनाने वाले और शूद्र लोगों को बसाया जाना चाहिए। उत्तर-पश्चिम में राजकीय पदार्थों को बेचने-खरीदने का बाजार और औषधालय होने चाहिए। उत्तर-पूरब में कोष-गृह और गाय-बैल तथा घोड़ों के स्थान बनवाने चाहिए। उसके आगे, उत्तर दिशा की ओर नगर देवता, कुल देवता, लुहार, मनिहार और ब्राह्मणों के स्थान बनवाए जाएँ। नगर के ओर-छोर जहाँ खाली जगह छूटी है, धोबी, दर्जी, जुलाहे और विदेशी व्यापारियों को बसाया जाए।

प्रमुख प्राचीन शहर


रामायणकार ने अपनी अमरकृति रामायण में अनेकानेक शहरों का वर्णन किया है, जैसे अयोध्या, मिथिला, किष्किंधा, लंका आदि। इन शहरों का वास्तु एवं नगर नियोजन की व्यवस्थितता पढ़कर वैभव और समृद्धि तथा जीवन स्तर की उच्चता का आकलन होता है। इसी प्रकार से महाभारतकार ने महाभारत में भी मथुरा, द्वारिका, इंद्रप्रस्थ, हस्तिनापुर, मगध आदि नगरों का बहुत ही रोचक एवं मनोरम वर्णन किया है, जिससे उस समय के मनुष्यों की सुरुचि का आभास होता है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र और मनुस्मृति में नगरों का तो नामोल्लेख नहीं है किन्तु नगर नियोजन किस प्रकार का होना चाहिए इस पर बहुत ही विस्तार से चर्चा की है। साथ ही नगर नियोजन की विषयवस्तु को बहुत ही वैज्ञानिक पद्धति से समझाने का प्रयास किया गया है। अपवाह प्रणाली पर भी ध्यान केन्द्रित किया गया है तथा सामाजिक जीवन में आमोद-प्रमोद एवं स्वास्थ्य के संसाधनों पर भी विस्तार से चर्चा की है। कौटिल्य ने अवश्य ही अपने अर्थशास्त्र में पाटलिपुत्र और अन्य नगरों के नियोजन का स्पष्ट वर्णन नहीं किया किन्तु उन्होंने रूपरेखा जरूर प्रस्तुत की है। डाॅ. पृथ्वीकुमार अग्रवाल ने अपनी सुप्रसिद्ध पुस्तक प्राचीन भारतीय कला एवं वास्तु में अवश्य अध्याय चार और अध्याय पाँच में नगर नियोजन पर विस्तृत प्रकाश डाला है। द्वारका के जो सेटेलाइट से चित्र उपलब्ध हो रहे हैं वे भी उसकी भव्यता का परिचय देते हैं। अवंतिका, काशी एवं अन्य नगरों का भी वर्णन प्राचीन संस्कृत साहित्य में बहुतायत से उपलब्ध है और वह भी उनकी भव्यता पर पर्याप्त प्रकाश डालता है।

अयोध्या


रामायणकार ने रामायण में अयोध्या का वर्णन कुछ यूँ किया है- वह शोभाशालिनी महापुरी बारह योजन लम्बी और तीन योजना चौड़ी थी। बाहर के जनपदों में जाने का जो विशाल राजमार्ग था वह उभयपार्श्व में विविध वृक्षावलियों से विभूषित होने के कारण स्पष्टतया अन्य मार्गों से विभक्त जान पड़ता था। यह राजमार्ग अयोध्या की शोभा में चार चाँद लगाने वाला था। इस राजमार्ग पर खिले हुए फूल एवं जल का भरपूर मात्रा में छिड़काव किया जाता था। अयोध्या की तुलना इंद्र की अमरावती से की जा सकती है। अयोध्या के चारों ओर बड़े-बड़े किवाड़ और फाटकों से इसको सुरक्षित किया गया था। अंदर अलग-अलग बाजारों का नियोजन था। वह पुरी सभी प्रकार से शोभायमान थी। वहाँ गगनचुम्बी अट्टालिकाएँ थीं, जिनके ऊपर ध्वज फहराते थे। सैकड़ों तोपों से वह पुरी व्याप्त थी। लम्बाई और चौड़ाई की दृष्टि से बहुत ही विशाल थी तथा साखू के वनों से वह चारों ओर से घिरी हुई थी। इसके अतिरिक्त यह चारों ओर से गहरी खाइयों से घिरी थी जिसके कारण यह अनुलंघनीय थी। विभिन्न करदाता सामंत उसकी सुरक्षा सुनिश्चित किए रहते थे। व्यापार की दृष्टि से वह विभिन्न देशों के व्यापारियों का स्वागत करती थी। अयोध्या के नगर नियोजन में भी महल को केन्द्र में रखकर समस्त भवनों का विकास किया गया था।

लंका


लंका के विषय में भी यह वर्णन उपलब्ध है कि इस निर्माण को दानव शिरोमणि ने विश्वकर्मा से कराया था। बाद में यह कुबेर के आधिपत्य में रही तदोपरांत यह पुनः दानवों के शासन में आ गई और रावण ने अपनी रक्ष संस्कृति के प्रचार-प्रसार का केन्द्र बनाया। सुरक्षा की दृष्टि से भी यह सर्वाधिक उपयुक्त स्थान था। रामायणकार ने रामायण में इसकी अद्भुत सुंदरता का वर्णन कुछ इस प्रकार किया है- लंका के चारों ओर गहरी खाइयाँ खुदी हुई थीं। उनमें उप्पल और पद्म आदि कई प्रजातियों के कमल खिले हुए थे। लंका की चारदीवारी सोने की थी तथा पर्वत के समान ऊँचे और शरद-ऋतु के बादलों के समान श्वेत भवनों से भरी हुई थी। सुंदरता में वह नगरी आकाश में विचरने वाली नगरी की भाँति प्रतीत होती थी। सुंदरता में उसकी तुलना कैलाश पर्वत पर बसी हुई कुबेर की नगरी अलकापुरी से की जा सकती थी। इसमें अनेकानेक बाग-बगीचे उपवनों की रचना की गई थी। अशोक वाटिका जैसी विशाल वाटिका लंका की शोभा में चार चाँद लगाती थी। यहाँ पर भी रावण का महल केन्द्र में था और उसके चारों ओर अन्य प्रासादों का निर्माण किया गया था।

द्वारिका


मथुरा नगरी भी अपने समय के श्रेष्ठ नगरियों में से एक थी किन्तु परिस्थितियोंवश श्रीकृष्ण जी को उसका त्याग करना पड़ा। इसलिए उन्होंने विश्वकर्मा से एक सर्वश्रेष्ठ नगरी जिसमें जीवन से सम्बन्धित समस्त वस्तुएँ उपलब्ध हों निर्माण करने को कहा तथा उसकी सुरक्षा को भी ध्यान में रखने का आग्रह किया। विश्वकर्मा ने इन सब बातों का ध्यान रखकर द्वारिका नगरी का निर्माण किया। महाभारतकार महाभारत के ही अंश श्री हरिवंश पुराण में द्वारिकापुरी का वर्णन कुछ इस प्रकार करते हैं- सर्वप्रथम विश्वकर्मा ने द्वारकापुरी का मानसिक निर्माण किया। (मानचित्र निर्माण कर श्रीकृष्ण की स्वीकृति हेतु प्रस्तुत किया) बाद में उसका वास्तविक रूप तैयार किया। विश्वकर्मा ने द्वारिका के निर्माण में अपने समस्त कौशल का प्रयोग करके उसे अमरावती से भी श्रेष्ठ बना दिया। इसका निर्माण 12 योजन लम्बाई एवं 8 योजन चौड़ाई (264 मील, 96 मील) में हुआ था। इसके पूर्व में खेतपर्वत, पश्चिम में सुरक्षा, उत्तर में वेणुभत्त तथा दक्षिण में लतादेष्टा पर्वत इसकी सुरक्षा को उपस्थित थे। ये समस्त पर्वत गहन वनों से आच्छादित थे जो कि इसकी खूबसूरती और सुरक्षा को और बढ़ाने वाले थे। इसमें 50 द्वार थे। इस प्रकार से यह विशालता के साथ-साथ खूबसूरती में भी बेमिसाल थी।

पाटलिपुत्र


भारत की संस्कृति और सभ्यता के प्रचार-प्रसार में जितना योगदान एक लेखक के रूप में मेगास्थनीज ने किया है, इतना सम्भवतः अन्य किसी ने नहीं किया होगा। भारत में उसने जितना भी समय बिताया उसमें से अधिकांश पाटलिपुत्र में बताया। सम्भवतः जितनी व्यापक समझ वह बना पाया इतना अन्य कोई नहीं। पाटलिपुत्र के विस्तार के विषय में लिखते हैं कि यह गंगा के किनारे बसी हुई थी। इसकी लम्बाई 9 मील एवं चौ. 2 मील थी। चारों ओर खाइयाँ थीं। शहर के 64 द्वार थे और चहारदीवारी को 570 खूबसूरत मीनारों से सुसज्जित किया गया था। चंद्रगुप्त का महल अद्भुत घर था। ग्रीस लेखकों ने उसकी बहुत तारीफ की है। महल के साथ ही खूबसूरत पार्क था जो उसकी सुंदरता में चार चाँद लगा देता था। महल में छायादार वृक्षों की कतारें थीं जो कि आपस में गुँथी हुई थीं। ये वृक्ष सम्पूर्ण भारत और उससे बाहर से भी थे। इस कारण यहाँ एक अद्भुत नजारा प्रस्तुत हो गया था। इन वृक्षों पर अनेकानेक प्रकार के पक्षी चहकते रहते थे और एक-दूसरे स्थान पर पूरी स्वतंत्रता से उड़ान भर सकते थे। महल में खूबसूरत तालाब भी था जिसमें खूबसूरत मछलियाँ थीं। मछलियों का तालाब में किलोल करना एक अद्भुत नजारा प्रस्तुत करता था।

नगर की सफाई और नागरिकों के कर्तव्य


नगर और गाँवों की साफ-सफाई के लिए नागरिकों में जागरुकता अनिवार्य है। यह ठीक है कि ये समस्त कार्य किसी भी सभ्य समाज में राज्य के ही नियन्त्रण में सम्भव हों तो स्पर्धा उचित है, किन्तु राज्य अपनी भूमिका तब तक ठीक प्रकार से निर्वहन नहीं कर सकता जब तक समाज उसमें अपनी सक्रिय भूमिका नहीं निर्वहन करता। कौटिल्य इसका पालन सख्ती से कराने की वकालत करते हैं चाहे इसके लिए दंड ही क्यों न देना पड़े।

सीकरी में जल निकासी और जलापूर्ति का बेहद चौंकाने वाला और अद्भुत प्रबंध है। पहाड़ी के ऊपर बसे परिसरों और महलों में पानी की कमी न हो, इसके लिए सीकरी के दोनों ओर बावली बनाई गई और बेहद उम्दा प्रणाली से पानी ऊपर तक भेजा गया। स्मार्ट शहर की अवधारणा के अनुसार इसमें सभी तबकों का ख्याल रखा गया। शिल्प को बढ़ावा देने के लिए रेशम, ऊन और सूती कपड़ों, कालीन तथा दरी के लिए कारखाने खुलवाए गए।

कौटिल्य इस सम्बन्ध में विस्तार से वर्णन करते हैं कि नागरिकों को अपने कर्तव्यों का पालन किस प्रकार से करना चाहिए। कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में पूरा एक अध्याय ही नागरिकों के कार्य के नाम से दिया है। वे इसमें राज्य और नागरिकों के कार्य का स्पष्ट रूप से वर्णन करते हैं। जैसे कि समाहर्ता (अधीक्षक) की भाँति नागरिक अधिकारी भी नगर के प्रबंध की चिन्ता करे, धर्मशाला प्रबंधक को चाहिए कि वह धूर्त, पाखण्डी मुसाफिरों को गोप की अनुमति से ही टिकाए, किन्तु जिन तपस्वियों या श्रोत्रियों को वह स्वयं जानता है, उन्हें अपनी जिम्मेदारी पर भी टिका सकता है। इसी तरह, जान पहचान के कारीगरों को व्यवसाई अपने यहाँ ठहरा सकता था किन्तु देश काल के विपरीत आचरण करने वाले व्यक्ति की सूचना तुरंत नागरिक को देनी होती थी। यह व्यवस्था थी कि मध्य-माँस बेचने वाले, होटल वाले और वेश्याएं अपने-अपने परिचितों को अपने घर ठहरा सकते हैं किन्तु यदि कोई अपनी हैसियत से अधिक खर्चे तो उसकी सूचना तुरंत स्थानिक को दी जावे। इसी तरह कौटिल्य ने कहा कि गलियों तथा बाजारों में और चौराहों, नगर के प्रधान द्वारों, खजानों कोष्ठागारों, गजशालाओं और अश्वशालाओं में पानी से भरे हुए एक हजार घड़ों का हर समय प्रबंध रहना चाहिए। वहीं सड़क पर मिट्टी या कूड़ा-करकट डालने वाले व्यक्ति को पण का आठवाँ हिस्सा (1/8 पण) दण्ड दिया जाना चाहिए। जो व्यक्ति गाड़ी, कीचड़ या पानी से सड़क को रोके उसे 1/4 पण दण्ड दिया जाना चाहिए। जो व्यक्ति राजमार्ग को इस प्रकार गंदा करे या रोके उसे दुगुना दण्ड दिया जाना चाहिए।

मध्य/आधुनिक काल में शहरी नियोजन


उपर्युक्त अध्ययन के आधार पर यह ध्यान में आता है कि भारत में पर्याप्त लम्बे समय तक प्राचीन स्थापत्य कला का प्रभाव रहा और यह कला प्रायः भारत के परिवेश के अनुरूप ही विकसित हुई तथा इस पर संस्कृत एवं संस्कृति का प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है, किन्तु 12वीं सदी ने विदेशी आक्रांताओं के आक्रमण में तेजी आने के बाद इसमें परिवर्तन आने प्रारम्भ हुए। ये परिवर्तन उत्तर से दक्षिण और पश्चिम से पूर्व तक स्पष्ट रूप से देखे जा सकते हैं। यह वह कालखंड है जिसमें संस्कृति और सम्यतागत स्थापत्य कला का विकास तेजी से हुआ है।

मध्यकाल में अधिकांशतः भारतवर्ष में मुगलवंश का शासन रहा। इस दौरान नगरों की प्रमुख विशिष्टता उनके अंदर महल, किलों एवं इबादतगाहों आदि ईमारतों के रूप में दिखती है। मुगलकाल के स्थापत्य ने दैनंदिन जीवन के स्थापत्य को प्रायः प्रभावित नहीं किया। जन सामान्य के आवास परम्परागत दृष्टिकोण से निर्माण करने का अभ्यास रहा। किले, इबादतगाह, सुरंग महल आदि पर मुगल स्थापत्य कला का प्रभाव स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। ध्यान से देखने पर यह भी समझ में आता है कि इस काल में जो किले और महल बने हैं उन पर निर्माण सामग्री और स्थापत्य को छोड़कर शेष स्वरूप भारतीय भवन निर्माण कला वाला ही रहा है। यथा- दिल्ली का किला, आगरा स्थित सिकंदरा तथा फतेहपुर सीकरी आदि-आदि। हाँ, यह अवश्य परिलक्षित होता है कि जो स्मारक इन्होंने अपने सम्बन्धियों की यादगार में निर्मित करवाए, जरूर मुगल स्थापत्य कला के बेजोड़ नमूने प्रतीत होते हैं और स्थापत्य पर भी मुस्लिम कारीगरों की छाप दिखती है यथा-आगरा स्थित एतमाउद्दौला, सिकंदरा स्थित मरियम टांम्ब, दिल्ली स्थित सफदरजंग का मकबरा, हुमायुं का मकबरा आदि-आदि।

जब भी स्मार्ट शहर यानी बुद्धिमत्ता के साथ बनाए गए सुनियोजित शहर की बात की जाती है तो प्राचीन काल की कई नगरी हमारे ध्यान में आती हैं। अंग्रेजों के आने के बाद भी कई शहर सुनियोजित ढंग से बसाए गए और स्मार्ट सिटी परियोजना के तहत भी इसे आगे बढ़ाया जा रहा है। मध्यकाल के स्मार्ट शहरों के बारे में बात कम ही होती है, जबकि वास्तव में वे शहर ही स्मार्ट सिटी की अवधारणा के सबसे करीब आते हैं। भारत में फतेहपुर सीकरी, पुड्डुचेरी और जयपुर आदि ऐसे ही शहर हैं। आगे हम इन शहरों के बारे में एक-एक कर देखेंगे।

फतेहपुर सीकरी


सीकरी भारत में मध्यकाल का पहला सुनियोजित या स्मार्ट शहर था। इसकी बुनियाद 1571 में अरावली पर्वत श्रेणी के ऊपरी हिस्से में एक बड़ी झील के किनारे रखी गई थी। शहर को बसाने का काम बाबर के पौत्र अकबर ने किया, जिन्होंने अपनी राजधानी आगरा से हटाकर सीकरी बनाई और 13 साल तक यहीं से राज काज किया। वास्तव में यह मुगलों का पहला स्मार्ट शहर है। इसमें ढलवां पहाड़ियों पर तीन मुख्य परिसर बनाए गए। सबसे ऊपरी परिसर में जामा मस्जिद, बुलंद दरवाजा और शेख सलीच चिश्ती की दरगाह है। बीच के परिसर में शाही दरबार, रनिवास, शाही बाजार और मीना बाजार आदि बने। सबसे निचले परिसर में अनूप तालाब, पंचमहल, ख्वाबगाह बनाए गए। तीनों परिसर उत्तर से दक्षिण दिशा में इस तरह बनाए गए कि उनका मुँह पूर्व अथवा उत्तर की ओर ही है। तीनों सीध में इस तरह बनाए गए कि गर्मी से बचाने के लिए उनके बीच पर्याप्त जगह है। इसके साथ ही यहाँ इमारतें बनाने के लिए लाल पत्थर का इस्तेमाल हुआ, जो ठंडा रहता है। सीकरी की इमारतों में मुगल स्थापत्य से अधिक भारतीय स्थापत्य का प्रभाव दिखता है और छज्जों, झरोखों तथा छतरियों वाली कुछ इमारतें तो मंदिर जैसी दिखती हैं।

सीकरी में जल निकासी और जलापूर्ति का बेहद चौंकाने वाला और अद्भुत प्रबंध है। पहाड़ी के ऊपर बसे परिसरों और महलों में पानी की कमी न हो, इसके लिए सीकरी के दोनों ओर बावली बनाई गई और बेहद उम्दा प्रणाली से पानी ऊपर तक भेजा गया। स्मार्ट शहर की अवधारणा के अनुसार इसमें सभी तबकों का ख्याल रखा गया। शिल्प को बढ़ावा देने के लिए रेशम, ऊन और सूती कपड़ों, कालीन तथा दरी के लिए कारखाने खुलवाए गए। सोने, चाँदी, जेवरात, चमड़े लकड़ी के शिल्पकारों के साथ ही इत्र बनाने के कारखाने भी सीकरी में खोले गए, जिससे पड़ोस के शहर आगरा के साथ यह व्यापार का केन्द्र बना।

पुड्डुचेरी


सुदूर दक्षिण में पुड्डुचेरी मध्यकाल में दूसरा स्मार्ट भारतीय शहर है। इसे फ्रांसीसी उपनिवेश के प्रमुख शहर के तौर पर 1674 में बसाया गया था। इसे फ्रांस तथा भारत की स्थापत्य कला का मेल बताया जाता है। लेकिन वास्तव में इस शहर का मूल नक्शा फ्रांसीसियों से भी पहले हाॅलैंड से आए डच व्यापारियों और शासकों ने तैयार किया, जो आज भी बरकरार है। इस शहर का नक्शा तैयार करने वाले डच वास्तुकार जैकब वर्बरगोम्स ने इसे आयताकार ब्लाकों में बाँटा, जिनके बीच में सीधी सड़कें थीं और ये सड़कें समकोण पर एक दूसरे को काटती हुई चौराहे बनाती थीं। चूँकि डच व्यापारी थे, इसलिए वे इस शहर को व्यापार का प्रमुख केन्द्र बनाना चाहते थे। इसीलिए उन्होंने शहर में प्रत्येक व्यावसायिक समुदाय के रहने के क्षेत्र सुनिश्चित किए। शहर इतना सुनियोजित था कि प्रत्येक जाति और व्यवसाय की गलियाँ तय थीं यानी बुनकरों, व्यापारियों, किसानों, दस्तकारों और ब्राह्मणों की अलग-अलग गलियाँ थीं। इतना ही नहीं वहाँ श्वेत समुदाय और अश्वेत अर्थात भारतीय समुदाय के रहने के स्थान भी अलग-अलग थे।

जयपुर


गुलाबी नगरी के नाम से मशहूर जयपुर भी करीब 300 साल पहले बसाया गया स्मार्ट शहर है। इसकी बुनियाद 1727 में महाराजा सवाई सिंह द्वितीय ने रखी थी। उनकी राजधानी आमेर में थी, लेकिन बहुत ऊँचाई पर बसे होने के कारण वहाँ आवागमन में परेशानी होती थी और पानी की किल्लत से जूझना पड़ता था। इसीलिए उन्होंने 11 किलोमीटर दूर जयपुर को बसाया। वास्तव में जयपुर पूरी तरह भारतीय शैली वाला पहला ऐसा शहर है, जिसका बाकायदा नक्शा बनाया गया। शहर की डिजाइन का जिम्मा विद्वान बंगाली ब्राह्मण विद्याधर भट्टाचार्य को सौंपा गया। भट्टाचार्य ने हिंदू रीति के अनुसार भवन निर्माण के नियम तय करने वाले प्राचीनतम ग्रंथ ‘शिल्प शास्त्र’ के आधार पर इस शहर का खाका तैयार किया। उन्होंने शहर को 9 आयताकार ब्लाॅकों में बाँटा, जिनमें 7 ब्लाॅक सामान्य जनता के लिए और बाकी 2 ब्लाॅक महल तथा प्रशासनिक इमारतों के लिए रखे गए। सुरक्षा की दृष्टि से पूरे शहर को ऊँची दीवारों से घेरा गया और 7 प्रवेश द्वार बनाए गए। शिल्प शास्त्र और वास्तुकला के नियमों के अनुसार शहर में सड़कें और चौक बने। मुख्य सड़कों के अलावा प्रत्येक ब्लाॅक में भी सड़कों का जाल बुन दिया गया। खास बात है कि उस समय भी जयपुर में प्रत्येक सड़क खूब चौड़ी बनाई गई थी ताकि भविष्य में भी आवागमन में दिक्कत न हो। विभिन्न प्रकार के बाज़ार भी जयपुर में बसाए गए। वास्तु का इतना अधिक ध्यान रखा गया है कि आज भी जयपुर की सभी सड़कों और बाजारों का रुख पूर्व से पश्चिम तथा उत्तर से दक्षिण है। दुनिया के शायद किसी भी शहर में बाजार इतने व्यवस्थित नहीं दिखेंगे, जितने जयपुर में हैं। यहाँ झालानियों का रास्ता, ठठेरों का रास्ता, खजाने वालों का रास्ता, हल्दियों का रास्ता, जौहरी बाजार, त्रिपालिया बाजार आदि पारम्परिक बाजारों का ही संकेत करते हैं, जो शहर को बसाते वक्त बनाए गए थे।

सन्दर्भ
1. कौटिल्य अर्थशास्त्र, 2/1/4, चौखंबा प्रकाशन
2. कौ. अर्थशास्त्र, 2/1/5, चौखंबा प्रकाशन
3. वा.रा. बालकांड, 5/13, गीताप्रेस, गोरखपुर
4. वा.रा. अयोध्याकांड, 100/53, गीताप्रेस गोरखपुर
5. महा. सभापर्व, 31/74, 38/30, गीता प्रेस गोरखपुर
6. मनुस्मृति, 7/70
7. कौ. अर्थशास्त्र, दुर्गनिवेशः 2/4/3-1-2-3-9, पृ.-91-93, चौखंबा प्रकाशन
8. वा.रा.-सुंदरकांड, 19-23
9. हरिवंशपुराण, 58वां अध्याय 45-50
10. नरायण सिंह समोता India as described by Megasthomas, Delhi 1978 पृ.- 61-62
11. कौ. अर्थशास्त्र, 2/35/3, चौखंबा प्रकाशन

लेखक अटल बिहारी वाजपेयी हिंदी विश्वविद्यालय, भोपाल (म.प्र.) के समाज विज्ञान संकाय में के अधिष्ठाता हैं। समाजशास्त्रीय सेमिनारों में इनकी सक्रिय उपस्थिति रही है। ईमेल: pawan_sharma1967@yahoo.co.in

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