सिमटती नदियाँ, संकट में मानव सभ्यता


बहुत पुरानी बात है, हमारे देश में एक नदी थी सिंधु। इस नदी की घाटी में खुदाई हुई तो मोहन जोदड़ों नाम का शहर मिला, ऐसा शहर जो बताता था कि हमारे पूर्वजों के पूर्वज बेहद सभ्य व सुसंस्कृत थे और नदियों से उनका शरीर-श्वांस का रिश्ता था। नदियों के किनारे समाज विकसित हुआ, बस्ती, खेती, मिट्टी व अनाज का प्रयोग, अग्नि का इस्तेमाल के अन्वेषण हुए।

मन्दिर व तीर्थ नदी के किनारे बसे, ज्ञान व आध्यात्म का पाठ इन्हीं नदियों की लहरों के साथ दुनिया भर में फैला। कह सकते हैं कि भारत की सांस्कृतिक व भावात्मक एकता का सम्वेत स्वर इन नदियों से ही उभरता है। इंसान मशीनों की खोज करता रहा, अपने सुख-सुविधाओं व कम समय में ज्यादा काम की जुगत तलाशता रहा और इसी आपाधापी में सरस्वती जैसी नदी गुम हो गई। गंगा व यमुना पर अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया।

बीते चार दशकों के दौरान समाज व सरकार ने कई परिभाषाएँ, मापदण्ड, योजनाएँ गढ़ीं कि नदियों को बचाया जाये, लेकिन विडम्बना है कि उतनी ही तेजी से पावनता और पानी नदियों से लुप्त होता रहा।

हमारे देश में 13 बड़े, 45 मध्यम और 55 लघु जलग्रहण क्षेत्र हैं। जलग्रहण क्षेत्र उस सम्पूर्ण इलाके को कहा जाता है, जहाँ से पानी बहकर नदियों में आता है। इसमें हिमखण्ड, सहायक नदियाँ, नाले आदि शामिल होते हैं।

जिन नदियों का जलग्रहण क्षेत्र 20 हजार वर्ग किलोमीटर से बड़ा होता है, उन्हें बड़ा-नदी जलग्रहण क्षेत्र कहते हैं। 20 हजार से दो हजार वर्ग किलोमीटर वाले को मध्यम, दो हजार से कम वाले को लघु जल ग्रहण क्षेत्र कहा जाता है। इस मापदण्ड के अनुसार गंगा, सिंधु, गोदावरी, कृष्णा, ब्रह्मपुत्र, नर्मदा, तापी, कावेरी, पेन्नार, माही, ब्राह्मणी, महानदी और साबरमति बड़े जल ग्रहण क्षेत्र वाली नदियाँ हैं। इनमें से तीन नदियाँ - गंगा, सिंधु और ब्रह्मपुत्र हिमालय के हिमखण्डों के पिघलने से अवतरित होती हैं। इन सदानीरा नदियों को ‘हिमालयी नदी’ कहा जाता है। शेष दस को पठारी नदी कहते हैं, जो मूलतः वर्षा पर निर्भर होती हैं।

यह आँकड़ा वैसे बड़ा लुभावना लगता है कि देश का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 32.80 लाख वर्ग किलोमीटर है, जबकि सभी नदियों का सम्मिलित जलग्रहण क्षेत्र 30.50 लाख वर्ग किलोमीटर है। भारतीय नदियों के मार्ग से हर साल 1645 घन किलोलीटर पानी बहता है जो सारी दुनिया की कुल नदियों का 4.445 प्रतिशत है। आँकड़ों के आधार पर हम पानी के मामले में पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा समृद्ध हैं, लेकिन चिन्ता का विषय यह है कि पूरे पानी का कोई 85 फीसदी बारिश के तीन महीनों में समुद्र की ओर बह जाता है और नदियाँ सूखी रह जाती हैं।

नदियों के सामने खड़े हो रहे संकट ने मानवता के लिये भी चेतावनी का बिगुल बजा दिया है, जाहिर है कि बगैर जल के जीवन की कल्पना सम्भव नहीं है। हमारी नदियों के सामने मूलरूप से तीन तरह के संकट हैं - पानी की कमी, मिट्टी का आधिक्य और प्रदूषण।

धरती के तापमान में हो रही बढ़ोत्तरी के चलते मौसम में बदलाव हो रहा है और इसी का परिणाम है कि या तो बारिश अनियमित हो रही है या फिर बेहद कम। मानसून के तीन महीनों में बमुश्किल चालीस दिन पानी बरसना या फिर एक सप्ताह में ही अन्धाधुन्ध बारिश हो जाना या फिर बेहद कम बरसना, ये सभी परिस्थितियाँ नदियों के लिये अस्तित्व का संकट पैदा कर रही हैं।

बड़ी नदियों में ब्रह्मपुत्र, गंगा, महानदी और ब्राह्मणी के रास्तों में पानी खूब बरसता है और इनमें न्यूनतम बहाव 4.7 लाख घनमीटर प्रति वर्गकिलोमीटर होता है। वहीं कृष्णा, सिंधु, तापी, नर्मदा और गोदावरी का पथ कम वर्षा वाला है सो इसमें जल बहाव 2.6 लाख घनमीटर प्रति वर्गकिलोमीटर ही रहता है। कावेरी, पेन्नार, माही और साबरमति में तो बहाव 0.6 लाख घनमीटर ही रह जाता है। सिंचाई व अन्य कार्यों के लिये नदियों के अधिक दोहन, बाँध आदि के कारण नदियों के प्राकृतिक स्वरूपों के साथ भी छेड़छाड़ हुई व इसके चलते नदियों में पानी कम हो रहा है।

नदियाँ अपने साथ अपने रास्ते की मिट्टी, चट्टानों के टुकड़े व बहुत सा खनिज बहाकर लाती हैं। पहाड़ी व नदियों के मार्ग पर अन्धाधुन्ध जंगल कटाई, खनन, पहाड़ों को काटने, विस्फोटकों के इस्तेमाल आदि के चलते थोड़ी सी बारिश में ही बहुत सा मलबा बहकर नदियों में गिर जाता है।

परिणामस्वरूप नदियाँ उथली हो रही हैं, उनके रास्ते बदल रहे हैं और थोड़ा सा पानी आने पर ही वे बाढ़ का रूप ले लेती हैं। यह भी खतरनाक है कि सरकार व समाज इन्तजार करता है कि नदी सूखे व हम उसकी छोड़ी हुई जमीन पर कब्जा कर लें। इससे नदियों के पाट संकरे हो रहे हैं उसके करीब बसावट बढ़ने से प्रदूषण की मात्रा बढ़ रही है।


नदियों के सामने खड़े हो रहे संकट ने मानवता के लिये भी चेतावनी का बिगुल बजा दिया है, जाहिर है कि बगैर जल के जीवन की कल्पना सम्भव नहीं है। हमारी नदियों के सामने मूलरूप से तीन तरह के संकट हैं - पानी की कमी, मिट्टी का आधिक्य और प्रदूषण। धरती के तापमान में हो रही बढ़ोत्तरी के चलते मौसम में बदलाव हो रहा है और इसी का परिणाम है कि या तो बारिश अनियमित हो रही है या फिर बेहद कम। मानसून के तीन महीनों में बमुश्किल चालीस दिन पानी बरसना या फिर एक सप्ताह में ही अन्धाधुन्ध बारिश हो जाना या फिर बेहद कम बरसना, ये सभी परिस्थितियाँ नदियों के लिये अस्तित्व का संकट पैदा कर रही हैं।

आधुनिक युग में नदियों को सबसे बड़ा खतरा प्रदूषण से है। कल-कारखानों की निकासी, घरों की गन्दगी, खेतों में मिलाए जा रहे रासायनिक दवा व खादों का हिस्सा, भूमि कटाव, और भी कई ऐसे कारक हैं जो नदी के जल को जहर बना रहे हैं। अनुमान है कि जितने जल का उपयोग किया जाता है, उसके मात्र 20 प्रतिशत की ही खपत होती है, शेष 80 फीसदी सारा कचरा समेटे बाहर आ जाता है। यही अपशिष्ट या माल-जल कहा जाता है, जो नदियों का दुश्मन है। भले ही हम कारखानों को दोषी बताएँ, लेकिन नदियों की गन्दगी का तीन चौथाई हिस्सा घरेलू मल-जल ही है।

आज देश की 70 फीसदी नदियाँ प्रदूषित हैं और मरने के कगार पर हैं। इनमें गुजरात की अमलाखेड़ी, साबरमती और खारी, हरियाणा की मारकंडा, मप्र की खान, उप्र की काली और हिण्डन, आन्ध्र की मुंसी, दिल्ली में यमुना और महाराष्ट्र की भीमा मिलाकर 10 नदियाँ सबसे ज्यादा प्रदूषित हैं।

हालत यह है कि देश की 27 नदियाँ नदी के मानक में भी रखने लायक नहीं बची हैं। वैसे गंगा हो या यमुना, गोमती, नर्मदा, ताप्ती, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी, महानदी, ब्रह्मपुत्र, झेलम, सतलुज, चेनाब, रावी, व्यास, पार्वती, हरदा, कोसी, गंडगोला, मसैहा, वरुणा, बेतवा, ढौंक, डेकन, डागरा, रमजान, दामोदर, सुवर्णरेखा, सरयू, रामगंगा, गौला, सरसिया, पुनपुन, बूढ़ी गंडक, गंडक, कमला, सोन एवं भगीरथी या फिर इनकी सहायक, कमोेबेश सभी प्रदूषित हैं और अपने अस्तित्व के लिये जूझ रही हैं।

दरअसल पिछले 50 बरसों में अनियंत्रित विकास और औद्योगीकरण के कारण प्रकृति के तरल स्नेह को संसाधन के रूप में देखा जाने लगा, श्रद्धा-भावना का लोप हुआ और उपभोग की वृत्ति बढ़ती चली गई। चूँकि नदी से जंगल, पहाड़, किनारे, वन्य जीव, पक्षी और जन-जीवन गहरे तक जुड़ा है, इसलिये जब नदी पर संकट आया, तब उससे जुड़े सभी सजीव-निर्जीव प्रभावित हुए बिना न रहे और उनके अस्तित्व पर भी संकट मँडराने लगा। असल में जैसे-जैसे सभ्यता का विस्तार हुआ, प्रदूषण ने नदियों के अस्तित्व को ही संकट में डाल दिया।

राष्ट्रीय पर्यावरण संस्थान, नागपुर की एक रपट बताती है कि गंगा, यमुना, नर्मदा, गोदावरी, कावेरी सहित देश की 14 प्रमुख नदियों में देश का 85 प्रतिशत पानी प्रवाहित होता है। ये नदियाँ इतनी बुरी तरह प्रदूषित हो चुकी हैं कि देश की 66 फीसदी बीमारियों का कारण इनका जहरीला जल है। इस कारण से हर साल 600 करोड़ रुपए के बराबर सात करोड़ तीस लाख मानव दिवसों की हानि होती है।

अभी तो देश में नदियों की सफाई नारों के शोर और आँकड़ों के बोझ में दम तोड़ती रही हैं। बड़ी नदियों में जाकर मिलने वाली हिण्डन व केन जैसी नदियों का तो अस्तित्व ही संकट में है तो यमुना कहीं लुप्त हो जाती है व किसी गन्दे नाले के मिलने से जीवित दिखने लगती है। सोन, जोहिला, नर्मदा के उद्गम स्थल अमरकंटक से ही नदियों के दमन की शुरुआत हो जाती है तो कही नदियों को जोड़ने व नहर से उन्हें जिन्दा करने के प्रयास हो रहे हैं। नदी में जहर केवल पानी को ही नहीं मार रहा है, उस पर आश्रित जैव संसार पर भी खतरा होता है। नदी में मिलने वाली मछली केवल राजस्व या आय का जरिया मात्र नहीं है, यह जल प्रदूषण दूर करने में भी सहायक होती हैं।

जल ही जीवन का आधार है, लेकिन भारत की अधिकांश नदियाँ शहरों के करोड़ों लीटर जल-मल व कारखानों से निकले जहर को ढोने वाले नाले का रूप ले चुकी हैं। नदियों में शव बहा देने, नदियों के प्राकृतिक प्रवाह को रोकने या उसकी दिशा बदलने से हमारे देश की असली ताकत, हमारे समृद्ध जल-संसाधन नदियों का अस्तित्व खतरे में आ गया है।

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