सिंधु जल समझौता रद्द हो गया तो

29 Sep 2016
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प्रधानमंत्री द्वारा सिंधु जल समझौते पर समीक्षा बैठक बुलाने का अर्थ है कि सरकार पाकिस्तान को मिलने वाले पानी को रोकने की दिशा में गम्भीरता से विचार कर रही है। हालाँकि बैठक के बाद कुछ कहा नहीं गया। कहा जा भी नहीं सकता था। कोई कदम उठाने से पहले उसके सारे पहलुओं पर गहराई से विचार करना आवश्यक है ताकि एक बार आगे बढ़ने पर पीछे न हटना पड़े। लेकिन कुछ ही दिनों पहले इस सम्बन्ध में विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता विकास स्वरूप का बयान आया था। प्रवक्ता विकास स्वरूप से जब पूछा गया कि क्या हिन्दुस्तान सिंधु जल समझौते को खारिज करने की सम्भावना पर विचार कर रहा है तो उनका जवाब था, आपसी विश्वास और सहयोग से कोई समझौता चलता है। वैसे इस समझौते में भी साख की खास अहमियत है। स्वरूप ने कहा- इस समझौते की प्रस्तावना में ही साफ लिखा है कि ये सद्भावना पर काम करेगा। जब उनसे अपने बयान को स्पष्ट करने को कहा गया तो उन्होंने कहा कि कूटनीति में कई बातें पूरी तरह से साफ-साफ नहीं कही जाती हैं। किन्तु उनका यह कहना कि हिन्दुस्तान का रुख संकेत देता है कि उसने अपने सारे विकल्प खुले रखे हैं अपने आप बता रहा था कि सरकार की सोच किस दिशा में जा रही है।

प्रधानमंत्री की समीक्षा बैठक उसी दिशा का कदम है। इस समय कुछ छद्म उदारवादी तत्वों को छोड़ दें तो पूरे हिन्दुस्तान में पाकिस्तान को पूरी शक्ति से सबक सिखाने का वातावरण है और यह स्वाभाविक है। इस सबक सिखाने के कदमों में 56 वर्ष पुराने सिंधु जल समझौते को रद्द करने का विचार भी शामिल है। वास्तव में इस समय ऐसे लोगों की बड़ी संख्या है जो सिंधु जल समझौते को रद्द करके पाकिस्तान को पानी के बिना छटपटाने के लिये मजबूर करने का तर्क दे रहे हैं। तो यहाँ दो प्रश्न पैदा होते हैं। एक, क्या हिन्दुस्तान वाकई एकपक्षीय तरीके से इस समझौता को रद्द कर सकता है? क्या इससे पाकिस्तान यकीनन परेशानियों से घिर जायेगा?

विश्व बैंक की मध्यस्थता से 19 सितम्बर, 1960 को हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के बीच सिंधु जल समझौता हुआ था। इस पर हिन्दुस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान ने हस्ताक्षर किये थे। इसके मुताबिक, सतलज, व्यास और रावी का अधिकतर पानी हिन्दुस्तान के हिस्से में रखा गया जबकि सिंधु, झेलम और चेनाब का पाकिस्तान के हिस्से गया। युद्धों और तनावों के बावजूद यह समझौता कायम रहा। इसे दुनिया का सीमा पार जल बँटवारे में सहयोग का एक मॉडल तक कहा गया है। संधी में सिंधु, झेलम और चेनाब को पश्चिमी नदियाँ तथा सतलज, व्यास एवं रावी को पूर्वी नदियाँ कहा गया है। हिन्दुस्तान को पूर्वी नदियों के पानी का अपने अनुसार उपयोग करने का पूरा अधिकार दिया गया है। लेकिन पश्चिमी नदियों के पानी का भी वह उपयोग कर सकता है लेकिन संधि के अनुसार। वह घरेलू उपयोग के साथ जल विद्युत परियोजनाएँ एवं सिंचाई के लिये भी उपयोग कर सकता है। संधि के क्रियान्वयन के लिये स्थाई सिंधु आयोग बना जिसमें दोनों देशों के आयुक्त है जो समय-समय पर मिलते रहते हैं। इनकी निर्धारित बैठकें आज तक कभी रद्द नहीं हुईं।

यह पाकिस्तान के लिये कैसे मारक साबित हो सकता है उसे समझने के लिये ज्यादा दिमाग लगाने की आवश्यकता नहीं है। सिंधु एवं शेष पाँच नदियाँ पाकिस्तान के बड़े हिस्से की प्यास बुझाती हैं, करीब ढाई करोड़ एकड़ की सिंचाई होती है, पन बिजली परियोजनाएँ चल रही हैं सो अलग। वस्तुतः पाकिस्तान के कुल भूभाग का 65 प्रतिशत हिस्सा जिसमें पूरा पंजाब आ जाता है सिंधु बेसिन का इलाका है। इसने यहाँ विशाल नहर सिंचाई प्रणाली खड़ी की है। इसमें तीन बड़े बाँध एवं कई छोटे-छोटे बाँध हैं। यह कई करोड़ लोगों के पीने के पानी का भी स्रोत है। तो पानी रोकने का क्या परिणाम होगा यह बताने की आवश्यकता नहीं है। पीने के पानी की किल्लत, सिंचाई की समस्या और बिजली, जो पाकिस्तान में वैसे ही कम है। तो पाकिस्तान में हाहाकार मच सकता है। पाकिस्तानी अखबार ट्रिब्यून ने पिछले दिनों कहा था कि सिंधु के पानी के बगैर देश का एक हिस्सा रेगिस्तान बन जाएगा। यह सच है। इससे बिना युद्ध के पाकिस्तान को बर्बाद किया जा सकता है।

कोई भी तटस्थ प्रेक्षक यह स्वीकार करेगा कि यह संधि अगर सफल है तो हिन्दुस्तान के सहयोगात्मक रवैए के कारण। सच तो यह है हिन्दुस्तान को पश्चिमी नदियों के जितने उपयोग का अधिकार संधि से हासिल है उतना भी नहीं किया गया। अगर हमने संधि के अनुसार इसका उपयोग ही आरम्भ कर दिया तो पाकिस्तान के लिये परेशानी खड़ी हो जाएगी। उदाहरण के लिये यह संधि हिन्दुस्तान को 36 लाख एकड़ फीट जल भण्डार के निर्माण का अधिकार देता है। हिन्दुस्तान ने यह भण्डार बनाया ही नहीं है। हिन्दुस्तान को 7 लाख एकड़ भूमि के सिंचित क्षेत्र के कृषि जनित उपयोग की भी अनुमति है। इसमें कहा गया है कि जब तक जल भण्डार विकसित नहीं होता तब तक भी 2.7 लाख एकड़ भूमि में सिंचाई की जा सकती है 5 लाख एकड़ फीट पानी छोड़ा जा सकता है। हिन्दुस्तान ने ऐसा किया नहीं है।

यह उदारता भरा कदम था जिसे पाकिस्तान कभी स्वीकारता ही नहीं। हिन्दुस्तान काफी नुकसान उठाकर इसका पालन कर रहा है। हालाँकि तब भी पाकिस्तान का आरोप है कि हम उसे पूरा पानी नहीं देते। इसके तहत हिन्दुस्तान अपनी छह नदियों का 80 प्रतिशत से ज्यादा पानी पाकिस्तान को देता है। हिन्दुस्तान के हिस्से आता है केवल 19.48 प्रतिशत पानी। पानी होते हुए भी वहाँ जितनी जल विद्युत परियोजनाएँ चल सकती हैं उतनी नहीं चल रहीं। इस संधि को खत्म करने की माँग हिन्दुस्तान में कई बार उठ चुकी है। 2005 में इंटरनेशनल वॉटर मैनेजमेंट इंस्टीट्यूट और टाटा वॉटर पॉलिसी प्रोग्राम ने व्यापक अध्ययन के बाद इसे खत्म करने की माँग की थी। इनकी रिपोर्ट के मुताबिक संधि के चलते जम्मू-कश्मीर को हर साल 60 हजार करोड़ रुपये से ज्यादा का नुकसान हो रहा है। अकूत जल संसाधन होने के बावजूद इस संधि के चलते घाटी को बिजली नहीं मिल पा रही है।

अगर पं. नेहरू ने इस पर हस्ताक्षर किया तो उसके पीछे उद्देश्य यही था कि धीरे-धीरे दोनों देशों को जिस ढंग से प्रकृति ने एक बनाया है उनमें सहयोग और सहकार विकसित होगा। किन्तु ऐसा हुआ नहीं। पाकिस्तान हिन्दुस्तान के लिये ऐसी टेढ़ी दुम है कि वह सीधी होती ही नहीं। तो फिर हमारे पास विकल्प क्या है? कई लोग किन्तु परन्तु के साथ यह साबित करने की कोशिश कर रहे हैं कि एक तो यह समझौता रद्द करना आसान नहीं है और दूसरे इससे हमको भी क्षति होगी। वास्तव में हिन्दुस्तान चाहे तो इस समझौते की प्रस्तावना और कुछ बिन्दुओं को आधार बनाकर अपना हाथ खींच सकता है। हम ऊपरी भाग पर हैं और पानी रोकने की हमारी क्षमता है।

हालाँकि इसमें कठिनाई आएगी, क्योंकि नदी की धारा एकाएक नहीं रोकी जा सकती। उसके लिये तैयारी करनी होगी। यह भी सही है कि हिन्दुस्तान द्वारा समझौता रद्द करने के बाद पाकिस्तान अन्तरराष्ट्रीय न्यायाधिकरण में जाएगा। वो जाए, फैसला हमारे खिलाफ आएगा तो हम देखेंगे। जब भी हम ऐसा कोई कदम उठाते हैं तो उसके कुछ प्रतिकूल परिणाम भी आते हैं और उसके लिये हमें तैयार रहना चाहिए। किन्तु एक बार संधि रद्द करने की घोषणा करें फिर आगे जो समस्याएँ आएँगी उनके अनुसार कदम उठाए जाएँगे। कम से कम इस बात का कोई तुक नहीं है कि जो देश अपनी पूरी दुष्टता के साथ हमें अंग-भंग करने पर लम्बे समय से उतारू है, उसकी हम लगातार प्यास बुझाते रहें। हालाँकि बिना समझौता रद्द किये भी संधि के अनुसार हम पश्चिमी नदियों के जल का संधि के अनुसार उपयोग करना आरम्भ कर दें उससे भी पाकिस्तान के सामने संकट खड़ा हो जाएगा। हमें हर तरीके से उसकी गर्दन दबानी है और यह एक महत्त्वपूर्ण अस्त्र हमारे हाथों हैं। वैसे पाकिस्तान पहले भी कम पानी देने के आरोप के साथ न्यायाधिकरण जा चुका है और उसे कुछ हाथ नहीं लगा।
 

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