सिंधु जल संधि में भारतीय हितों की अनदेखी

सिंधु नदी बेसिन
सिंधु नदी बेसिन


भारत और पाकिस्तान के बीच सिंधु जल संधि को लेकर छिड़ा विवाद सुलझता नहीं दिख रहा है। भारत ने स्पष्ट तौर पर कहा था कि इस संधि को जारी रखने के लिये आपसी विश्वास और सहयोग अहम है। यह जल संधि भारत और पाकिस्तान के बीच दो बड़े युद्धों और खराब रिश्तों के बीच भी बनी रही है।

विशेषज्ञ इस बात पर एकमत नहीं हैं कि सिंधु नदी समझौते को तोड़ देना चाहिए या नहीं। बड़ा विवाद पानी के हिस्से और पानी पर दावेदारी को लेकर है। इसके सही अनुपात पर कई विशेषज्ञ सहमत नहीं हैं। सिंधु जल संधि एक असन्तुलित निर्णय पर आधारित समझौता है। इसमें भारतवर्ष के हितों की प्रकट अनदेखी हुई है। हालांकि इस समझौते पर पहुँचने के लिये 5-6 वर्ष का समय लगा।

फिर भी लगता है कि भारत को जिस तैयारी के साथ अपने पक्ष की पैरवी करनी चाहिए थी, उतनी तैयारी के बिना ही कुछ दबावों में यह समझौता किया गया। नदी जल बँटवारे का आधार उस नदी-जल-तंत्र पर पानी के लिये निर्भरता ही युक्ति सम्मत आधार हो सकता है। इसके लिये निर्भर पक्षों के उस नदी तंत्र पर निर्भर क्षेत्रों का क्षेत्रफल, निर्भर पक्षों की आबादी और दोनों पक्षों की भविष्य की जरूरतों को आधार बनाया जा सकता है। इसके आलावा निर्भर पक्षों के क्षेत्र में वर्षा की मात्रा को भी देखा जा सकता है। यही मानवतावादी दृष्टिकोण की माँग भी है।

इन आधारों पर सिंधु-जल-संधि को परखने पर स्पष्ट हो जाता है कि भारत के पक्ष के साथ न्याय नहीं हुआ है। इस समझौते के लिये विश्व बैंक ने मध्यस्थ की भूमिका निभाई थी। लगता है कि विश्व-बैंक ने भी अनावश्यक दबाव का भारत पर प्रयोग करके न्यायपूर्ण निर्णय की भावना की अनदेखी की।

भारत पर आसन्न अन्न संकट और अविकसित सिंचाई-संजाल को शीघ्र विकसित करने का दबाव भी शायद काम कर रहा हो। यह वही दौर था जब दलाईलामा तिब्बत से भागकर भारत में शरणार्थी बन चुके थे। इस कारण चीन के साथ सम्बन्धों में तनाव सतह पर आने लगा था। इस स्थिति में हो सकता है कि भारत अपने दूसरे पड़ोसी पाकिस्तान के साथ सम्बन्धों में तनाव न बढ़ने देने के दबाव में भी हो, जिसके चलते एक ऐसे समझौते के लिये जल्दबाजी दिखाई गई, जिसमें भारत के दीर्घकालीन हितों की अनदेखी हुई।

सिंधु-जल-तंत्र की छह नदियों, तीन पूर्वी- रावी, व्यास और सतलुज व तीन पश्चिमी-सिंध, झेलम और चेनाब में कुल औसत वार्षिक जल बहाव की मात्रा 20700.6 करोड़ घन मीटर है। सिंधु-जल-संधि में इसमें से 80.52 प्रतिशत पानी पाकिस्तान को और भारत के हिस्से 19.48 प्रतिशत पानी दिया गया।

इस आधार पर पाकिस्तान को 16700.2 करोड़ घनमीटर पानी और भारत को 4000.4 करोड़ घन मीटर पानी दिया गया। अब हम पाकिस्तान और भारत के सिंधु-जल-तंत्र पर निर्भर क्षेत्रों के क्षेत्रफल के आधार पर पानी की हिस्सेदारी के अनुपात का आकलन करने का प्रयास करते हैं। पूरे पाकिस्तान की निर्भरता सिंधु-जल-तंत्र पर ही है।

पाकिस्तान का क्षेत्रफल 7,96,095 वर्ग किलोमीटर है। इसके मुकाबले भारतवर्ष के सिंधु-जल-तंत्र पर निर्भर क्षेत्र; जम्मू-कश्मीर, 1,01,487 वर्ग किलोमीटर (इसमें केवल भारतीय स्वतंत्र कश्मीर का क्षेत्रफल ही लिया गया है); हिमाचल प्रदेश 55,673 वर्ग किलोमीटर, हरियाणा 44,212 वर्ग किलोमीटर, पंजाब 50,362 वर्ग किलोमीटर, राजस्थान 3,42,239 वर्ग किलोमीटर है। इनका कुल क्षेत्रफल 5,93,973 वर्ग किलोमीटर हुआ। क्षेत्रफल के हिसाब से, पाकिस्तान के मुकाबले इन क्षेत्रों का क्षेत्रफल 74 प्रतिशत है। अत: सिंधु-जल-तंत्र के पानी का बँटवारा 100 अनुपात 74 के हिसाब से होना चाहिए।

यदि पाकिस्तान में कम बारिश वाला क्षेत्र ज्यादा माना जाये तो 14 अंकों की छूट देने के बाद भी बँटवारे का अनुपात 100 अनुपात 60 होना चाहिए। यानी 5 और 3 का अनुपात। इसका अर्थ यह हुआ कि 62.5 प्रतिशत पाकिस्तान का हिस्सा और 37.5 प्रतिशत भारत का हिस्सा होना चाहिए। अत: पाकिस्तान को 12900.5 करोड़ घनमीटर और भारत वर्ष के हिस्से 7700.7 करोड़ घन मीटर पानी मिलना चाहिए।

अब यदि आबादी के आधार पर बँटवारा करना हो तो 2013 में पाकिस्तान की आबादी 18 करोड़ 20 लाख थी और भारत के सिंधु-जल-तंत्र क्षेत्र की आबादी 14 करोड़ 15 लाख थी। (जनसंख्या 2011) इस हिसाब से 18 अनुपात 14 से बँटवारा करें तो पाकिस्तान के हिस्से लगभग 11,600 करोड़ घन मीटर पानी और भारत के हिस्से 9000 करोड़ घन मीटर पानी आता है। इसे दरकिनार करते हुए यदि क्षेत्रफल आधारित बँटवारे को ही आधार माना जाये, तो भी 3700 करोड़ घनमीटर पानी प्रतिवर्ष का दावा तो हमें करना ही चाहिए। हमारे हरियाणा, पंजाब और राजस्थान क्षेत्र पानी की कमी से जूझ रहे हैं।

भूजल के अत्यधिक दोहन से स्थिति दिनों दिन खराब होती जा रही है। भूजल 200 फीट तक नीचे चला गया है। अत: न्याय का पूरा ध्यान रखते हुए हमें सिंधु-जल-संधि की समीक्षा करनी ही चाहिए। भले ही विश्व बैंक को ही मध्यस्थ बनाकर न्यायपूर्ण समाधान किया जाये। यह कोई पाकिस्तान विरोधी कार्यवाही नहीं होगी बल्कि भारत-पाकिस्तान दोनों को ही अपने जल संसाधनों का समग्र समुचित सदुपयोग करने का मार्ग प्रशस्त करने वाला कार्य होगा।

 

 

 

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