शिप्रा तट सभ्यताओं की जननी रहा है

प्राचीन सभ्यताएँ नदी-तटों पर ही पनपीं। शिप्रातट भी इसका अपवाद नहीं है। उज्जैन और महिदपुर में उत्खनन किये गये। महिदपुर उत्खनन से ताम्राश्मीय सभ्यता (2100 ई.पू.) से ई.पू. छठी सदी के महानपद युग तक के अवशेष प्राप्त हुए हैं। उज्जैन के गढ़कालिका क्षेत्र के उत्खनन से पूर्व मौर्यकालीन और मौर्यकालीन तथा परवर्ती सभ्यताओं के अवशेष प्राप्त हुए हैं। यहाँ से मणि बनाने के कारखाने की साम्रगी भी मिली है। यहाँ से रोम पद्धति के मृद्भाण्ड और मुद्राएँ भी प्राप्त हुई हैं। इससे प्रतीत होता है कि उज्जैन व्यवसाय का बड़ा केन्द्र था। यहाँ भड़ौच महेश्वर नर्मदा के मार्ग से पश्चिमी देशों से व्यापार होता था। उत्तर-दक्षिण, पूर्व-पश्चिम का यह व्यावसायिक केन्द्र था। महाकवि कालिदास ने उस समृद्धि को अपने मेघदूत में रेखांकित किया है-

हारांस्तारांस्तरलगुटिकान्कोटिशः शङ्खशुक्तिः
शष्पस्यामान्यमरकतमणीनुन्मयूखप्ररोहान्।
दृष्ट्वा यस्यां विपणिरचितान्विद्रुमाणां च भङ्गान्
संलक्ष्यन्ते सलिलनिधयस्तोयमात्रावशेषाः।।


इसे मालवी में यों कहा गया है-

असल मोती संख ने सीपां देखोगा तम कतरह हार।
रंग दरोब सा पन्ना का उगती किरणाँ का नग भार।।
प्रतिकलपा का इन बाजार में मूँगा का टुकड़ा का ढेर।
एसो लागे सागर में बी खाली पाणी रह ग्यो फेर।।


इस क्षेत्र के निम्न और समुन्नत समाज का रेखांकन शूद्रक के पद्मप्राभृतक भाण और मृच्छाटिक नाटक में सजीव प्रतीत होता है। गाणिका बाजार, सामाजिक-धार्मिक विसंगतियाँ, पाखंड, जुआघर के खिलाड़ी, चोरी, न्यायालय पर धाँधली व दबाव बहुत कुछ है उसमें।

यही नहीं एक दूसरा दृश्य भी है मेघदूत में। यहां के घोड़े सूरज के घोड़ों से स्पर्धा करते हैं। मदजल बहाते हाँथी पर्वतों जैसे हैं और यहां के योद्धावारण में रावण के सामने भी डटे रह सकते हैं। जिनके तन पर रावण की खड्ग चन्द्रहास के निशान से वीरता के अलंकार बन रहे हैं।

होड़ कर सूरज घोड़ा से घोड़ा या पत्ता सा श्याम।
थारा जेसा मद बरसावे परबत जेसा हाथी नाम।।
रावण को बी करे सामनो पड़े काम वी जोधा खास।
वी गेणा की गरज सारि दे खड़ग घाव सेलाणी पास।।


पुरातत्व कहता है कि संसार की सबसे प्राचीन पक्की सड़क उज्जैन में शिप्रातट पर थी। शायद यहीं से उदयन और वासवदत्ता गजारूढ़ होकर भाग गये थे। प्रद्योत की प्रिय दुहिता राजकुमारी वासवदत्ता। जिसकी कहानियों, नाटकों, काव्यों, कलाओं से भरापूरा है प्राचीन भारतीय साहित्य।

राजा प्रद्योत की डावड़ी याँ से लइग्यो ऊ बछाराज।
जंगल थो याँ ताड़ झाड़ को, सोना जैसो उनको राज।।
वेंडई ने थाँबो नुफाड़ी न्हाटो याँ नलगिरी गजराज।
और पामणा बतइ रामवे याँ का जानकार को काजा।


शिप्रा तट पर राजा प्रद्योत के समय उज्जैन वर्तमान गढ़कालिका क्षेत्र में बसी हुई थी। वहां शिप्रा का तटबन्ध बनाया गया था। जिसके अवशेष प्राप्त हुए थे। इससे शिप्रा का पानी नगर में आने से रुकता था और तट कटते नहीं थे। शीशम के लट्ठों की श्रृंखला में मिट्टी भर कर यह तटबन्ध बनाया था। इस क्षेत्र से मणियों के साथ ही मुद्राएं, सिक्के प्राचीन से करागाल तक के प्राप्त होते हैं। उजनियि या उजेनी लिखे सिक्के भी यहां से प्राप्त हुए हैं। यहाँ रोमन सिक्के व पात्रखण्ड भी प्राप्त होते हैं। जिससे प्रतीत होता है। कि रोम से भी इस क्षेत्र का सम्बन्ध था। मौर्य, शक, सातवाहन और परवर्तीकाल की भी प्रचुर पुरा सामग्री इस क्षेत्र से प्राप्त हुई है। नागवंश, मालवगण, परमार (उदयदेव या नरवर्म देव), अकबर आदि के भी सिक्के यहाँ से प्राप्त हुए है। रथी मदन का सिक्का अशोकीय ब्राह्मा में है। ईस्वी पूर्व की ब्राह्मी लेखों के सिक्के, आहत सिक्के और बाद के निरन्तर मिलते सिक्कों से स्पष्ट है कि शिप्रा का यह तट व्यवसाय का केन्द्र सदा बना रहा है।

राजा प्रद्योत जैसे महत्वपूर्ण राजा के बाद उज्जयिनी में राजकुमार मौर्य अशोक पश्चिमी भारत का राज्यपाल बनकर शिप्रा तटवर्ती उज्जैन में ही रहा। यहीं से उसके पुत्र-पुत्री महेंन्द्र और संघमित्रा लंका जाकर बौद्ध धर्म का प्रचार किया। फिर विक्रम संवत् का प्रवर्तक शकारि राजा विक्रमादित्य रहा, जिसकी वीरता, दान, साहस, विवेक और न्याय प्रेम की कहानियों से पूरा भारत अभिभूत है। वह साहित्य और लोक में एक समान लोकप्रिय है। कहते हैं भर्तृहरि इसका ही अग्रज है। भर्तृहरि भी विद्या के क्षेत्र में लोकप्रिय है। तो लोक में भी उसका चरित बड़ा प्रसिद्ध है। भर्तृहरि के काव्य, व्याकरण, दर्शन के ग्रन्थ तो उपलब्ध होते ही हैं, उसके चरित को व्यक्त करते लोकनाट्यों की भी खूब प्रस्तुतियाँ होती हैं। लोक में योगी और राजा के रूप में भर्तृहरि की विशेष ख्याति है। शूद्रक भी उज्जैन का राजा बताया जाता है। उसने उज्जैन सम्बन्धी पद्मप्रभृतक भाण औऱ मृच्छकटिक नाटक रचा। सातवीं शती के हर्ष विक्रमादित्य ने उज्जैन में नाट्यवार्तिक की ही रचना नहीं की अपितु रत्नावली, प्रियदर्शिका आदि नाटिकाएँ भी रचीं। परमार राजा मुंज कवि, योद्धा और विजेता था। उसके बारे में कहा जाता है कि उसके बाद सरस्वती निराश्रित हो गयी-

गते मुंजे यशः पुंजे निरालम्बा सरस्वती।

मुंज का भतीजा भोज भारतीय वायुमंडल में व्याप्त महत्वपूर्ण व्यक्तित्व है। यह महान् दाता, साधक, कर्मठ, ज्ञानी, कविराज, विविध विषयक अनेक मानक ग्रन्थों का रचयिता, विद्वानों का आश्रयदाता और विजेता के साथ ही इतिहाससिद्ध और लोकप्रिय चरित का धनी रहा। वह अपने समय के सभी सम्प्रदायों के प्रति सद्भाव रखता था। मुंज, भोज सहित परवर्ती परमार नृपों के समय शिप्रा क्षेत्र ही नहीं पूरा मालवा और बाहर का क्षेत्र सुन्दर मन्दिरों, मूर्तियों से अलंकृत हो गया। मालवा में आज बहुधा स्थापत्य और मू्र्तियाँ परमारकालीन ही हैं। यहां तक कि वर्तमान भर्तृहरि गुफा भी परमारकालीन स्थापत्य की ही गवाही देती है। परवर्ती काल में रामचन्द्र बाबा शेणवी ने अठारहवीं शती के पूर्वार्ध में शिप्रा तट पर महाकाल के वर्तमान मन्दिर सहित विभिन्न मंदिर और रामघाट, नृसिंह घाट आदि भी बनवाये थे। राणा हम्मीर, जयसिंह सिद्धराज आदि ने उज्जैन की धार्मिक यात्राएं की थीं। और जयपुर के राजा जयसिंह ने उज्जैन में न केवल जयसिंहपुरा बसाया अपितु वहां शिप्रातट पर ज्योतिष् की वेधशाला बनवायी थी जो आज तक गणना में सक्रिय है। शिप्रातट पर जहां महर्षि सान्दीपानि का आश्रम है वहीं यहाँ भर्तृहरि की साधनाभूमि भी है। यही जदरूप की भी तपोभूमि रही, जिससे मिलने बादशाह जहाँगीर कालियादाह महल से नाव मे बैठकर शिप्रा के जलमार्ग से गया था। शिप्रातटवर्ती उज्जयिनी भारत के प्रसिद्ध तीर्थों में से एक है। यहाँ शिप्रा नदी होने से इसकी तीर्थता में वृद्धि हुई है। इसके ही तट पर विभिन्न घाट हैं, जिनपर, तीर्थ पुरोहितों द्वारा तीर्थ सम्बन्धी सभी कर्मकाण्ड करवाये जाते हैं। इन पंडितों के कारण इस क्षेत्र का तीर्थत्व सार्थक होता है। बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक महाकाल शिप्रातट पर उज्जैन में ही है। शिप्रातट पर ही मंगलनाथ का वह मंदिर है, जिसके बारे में कहा जाता है कि वह मंगलग्रह से सर्वाधिक निकट का है। यहीं सुल्तानों के समय का प्रायः छः सौ वर्ष पुराना कालियादह नामक ऐतिहासिक पुरातात्विक महल है। जहां अकबर के समय शिप्रा की एक शाखा में विभिन्न कुण्डों आदि का मनहर निर्माण करवाया गया था। यह एक महत्वपूर्ण पर्यटन स्थल अपनी अव्यवस्था के कारण उदास है।

शिप्रा तट पर ही उज्जैन में विभिन्न पर्वों पर मेले आकस्मिक जुट जाते हैं। पंचकोसी चलित मेला है। जो वैशाख में होती है। श्रावण मास तो पूरा उत्सव ही रहता है। सोमवती, शनैश्चरी, मंगलवाटी अमावस्या के साथ ही ग्रहण पर भी आकस्मिक धार्मिक मेले जुट जाते हैं। कार्तिक पूर्णिमा का ऐसा मेला भी लगता है। इसी प्रकार प्रति बारहवें वर्ष सिंह राशि में गुरू के आने पर सिंहस्थ कुम्भ का मेला वैशाख में लगता है। यह देश भर में होने वाले चार कुम्भ मेलों में से एक है जो विशाल धार्मिक मेला होता है। महात्मा बुद्ध के समकालीन महाकात्यायन ने शिप्रा तट से ही बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार किया। इनके लिए ही उज्जैन में प्रद्योत ने कांचन तालवन लगवाया था। कांचन महाकात्यायन का नाम था। उन्हीं दिनों थेरी इसिदासी ने गाथाएँ रची थीं। यहीं कालकाचार्य और क्षपणक जैसे जैन संत विक्रमादित्य के समय हुए। शिप्रातट पर नाथ और कौल परम्परा के प्रवर्तक मत्सयेन्द्रनाथ की भी समाधि है। शिप्रातट साधकों की भूमि है, जहाँ आज भी देशभर के साधक आते रहते हैं। यहां के सिद्धनाथ और रामघाट पर पितरों का तर्पण किया जाता है। उज्जैन में भारत के विभिन्न तीर्थों का समन्वय है। यहां गंगा जैसी शिप्रा है, वटों में सिद्धवट है, प्रयाग जैसी त्रिवेणी है, ज्योतिर्लिंग महाकाल है, भगवान श्रीकृष्ण की विद्यास्थली होने से वैष्णव भूमि है, बौद्धों और जैनों की तपोभूमि है, यह सिद्ध और साधकों की भूमि है। शिप्रा पर घाट तो अनेक हैं परन्तु रामघाट उनमें सर्वाधिक लोकप्रिय और प्रसिद्ध है। एक भजन में कहा गया है-

बाबा महाकाल की नगरी म्हाने प्यारी लागे
या सुहानी लागे, म्हाने प्यारो प्यारो सिप्राजी को पाणी लागे।।
रामघाट गुरूदत्त अखाड़ा दोनों के दरम्यान।
आओ मिलकर संगी साथी खूब करो अस्नान।
ऊपर संतों की मड़ैया घणी प्यारी लागे, वा सुहानी लागे।
म्हाने प्यारो को सिप्राजी को पाणी लागे।


उज्जैन के देश प्रसिद्ध हिन्दी कवि डॉ. शिवमंगल सिंह सुमन कहते हैं-

मैं शिप्रा सा तरल सरल बहता हूँ।

संस्कृत के मनस्वी कवि श्रीनिवास रथ अपने श्लोक में शिव, शिप्रा, चम्बल और उसके द्वारा यमुना, गंगा और गंगासागर तक की सिप्रा यात्रा को समेट लेते हैं-

शिप्रा सदाशिव ललाट सुधाकरांशु-स्निग्धा पुनात्यखिल मालव भू विभागान्।
चर्मण्वती सहचरी यमुना प्रसंगा गंगामुखेन पवतेSम्बुधिवारिराशिम्।।


विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर शिप्रा नदी के तटवर्ती महाकाल मंदिर की सान्ध्य आरती की अनूगूँज अपनी इस कविता में सुनते सुनाते हैं-

दूरे बहु दूरे
स्वप्नलोक उज्जयिनी पुरे
खूंजिते गेछिन कबे शिप्रा नदी पारे....
महाकाल मन्दिर मांझे
तखन गम्भीर मन्द्रे
सन्ध्यारति बाजे।।


इस प्रकार मालवा की यह शिप्रा नदी आकार में चाहे छोटी हो परन्तु प्रकार में देश की प्रसिद्ध महत्वपूर्ण नदियों में से एक है। इसके तट पर युगयुगीन विभिन्न सभ्यताओं, सम्प्रदायों का विकास होता रहा। तभी तो हम यह कह सकते हैं-

नदी पवित्रा सपराजी है उज्जैनी की प्यारी।
तीरथवासी सब माने के तीन लोक से न्यारी।
छोटी हे पण नाम बड़ो ने सब आत्मा के तारी।
सब पुराण यूँ केवे के या सब नद्यां से भारी।।


परन्तु सर्वप्रसिद्ध इस नदी की आज दुर्दशा है। यह सूखे से पीड़ित है, प्रदूषण से परेशान है, आज उसकी सहायक नदियाँ लुप्त हो गई हैं। वह अब असहाय है। इसीलिए तो अब कहना पड़ता है-

लाज नी आवे लोगाँ के भी, खींच्यो सगलो जल को सार।
तार-तार पाणी का कपड़ा, सिपरा माता करे पुकार।।

महाकाल की सेवा करती, जनम सुदार्यों यूं के लोग।
नदी कदी बूड़ी नी होवे, लाग्यो पण सूखा को रोग।।

सिपरा का दरसन जात्री के, देवे घणो जीव संतोस।
पण सूखी देखी के वी तो, देवे इनके विनके दोस।।

मालवा धरती में उज्जेनी, उज्जेनी में सिपरा स्नान।
दरसन करना महाकाल का, ई तो हे मालव का मान।।

 

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