सिर्फ पानी नहीं है पानी

पानी शुरू से ही हमारी संस्कृति और संस्कार का हिस्सा रहा है। लेकिन समय के साथ-साथ हम इसे भूलते जा रहे हैं। इसका दुष्परिणाम यह हो रहा है कि हमें आज पानी के संकट से जूझना पड़ रहा है। कमोबेश यह स्थिति पूरी दुनिया के सामने मुँह बाए खड़ी है। यदि हमें संकट से उबरना है तो पानी को आदर देना सीखना होगा। सरकार का मुँह ताकने के बजाय इसको बचाने की शुरुआत हर व्यक्ति के स्तर पर निजी जीवन से करनी होगी।

पानी का हमारे जीवन से रिश्ता जन्म से शुरू होकर मृत्युपर्यन्त तक चलता है। हमारे तमाम संस्कारों में पानी की पूजनीय उपस्थिति रहती है। चाहे वह अर्पण के रूप में हो या फिर तर्पण के रूप में। चाहे आचमन के रूप में हो या फिर अभिषेक के रूप में। किसी भी पूजा से पहले कलश स्थापना की बात हो या कलश यात्रा की। इस कलश में समस्त नदियों के जल को साक्षी भाव से आमंत्रित किया जाता है।

हमारी संस्कृति की यह विशेषता रही है कि हमारे पूर्वजों ने कर्मों को पाप और पुण्य के बन्धन से बाँधकर रखा। इसी कड़ी में प्यासे को पानी पिलाना सदियों से पुण्य का काम माना जाता रहा है। इसके लिये जगह-जगह प्याऊ भी लगवाये गये, जहाँ मुफ्त में पानी मिलता था। आज यह पौशालाएँ अतीत की बात बनती जा रही हैं। जो थोड़ी-बहुत कहीं बची हुई हैं, वहाँ यह अपने अस्तित्व को बचाने के लिये खासा संघर्ष कर रही हैं। पानी तो आज भी मिल जाता है, लेकिन प्याऊ पर नहीं, बोतल में बन्द मिनरल वाटर के रूप में, लेकिन फ्री में नहीं, कीमत चुकाकर।

इधर एक तरफ पानी का इस्तेमाल करने वाली जनसंख्या बेतहाशा बढ़ रही है, तो दूसरी तरफ पानी के स्रोत कम होते जा रहे हैं। इस कमी के मूल में अगर कोई सबसे ज्यादा जिम्मेदार है, तो वह हम इंसान ही हैं। हम अपने स्वार्थ के लिये प्रकृति का किसी भी हद तक दोहन कर लेने से नहीं हिचकते हैं और फिर उसे मरने के लिये उसके हाल पर छोड़ देते हैं। यही हाल पानी का भी हुआ है। पानी आज धीरे-धीरे मर रहा है। इससे पहले कि यह पूरी तरह मर जाये हमें चेतना होगा। अपने स्वार्थ के घोड़े की लगाम को कसना होगा। सरकार की ओर ताकते रहने की बजाय हमें अपने-अपने स्तर पर पानी को बचाने की कोशिशें करनी होंगी। बूँद-बूँद से ही सागर भरता है। भगीरथ तो गंगा को धरती पर ले आये थे, लेकिन गंगा समेत पानी के तमाम स्रोतों को बचाना अब हमारा काम है।

मैं पानी को बचाने के लिये सरकारी स्तर पर क्या हो रहा है और उसके क्या परिणाम सामने आ रहे हैं; इस बहस में नहीं पड़ूँगा। मैं एक बात पूरे जोर से कहना चाहूँगा कि हमें अपने देश में पानी को बचाने के संस्कारों को फिर से जीवित करना होगा। इसे एक आन्दोलन की शक्ल देनी होगी, लेकिन साथ ही अपनी जिम्मेदारी को समझते हुए पानी को बचाने के लिये निजी प्रयासों को अपनाना और जारी रखना होगा।

अपने पूर्वजों द्वारा पानी को बचाने के लिये सिखाये गये तरीकों के साथ-साथ सामान्य ज्ञान और पानी का आदर करना सीखना होगा। तभी हम अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिये पानी को बचा पाएँगे। वरना पानी की किल्लत कहीं तीसरे विश्व युद्ध का कारण न बन जाए, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। इसलिये पानी को बचाने की मुहिम हमें आज और अभी से करनी होगी और इसके लिये पहल अपने से करनी होगी। अपने रोजमर्रा के जीवन से करनी होगी।

दिन का आरम्भ सुबह उठने से होता है और यहीं से पानी के इस्तेमाल की भी शुरुआत हो जाती है। सुबह उठने के बाद सबसे पहला काम लघुशंका के लिये बाथरूम जाना होता है। लघुशंका के बाद फ्लश का बटन दबा दिया और उसके साथ ही पन्द्रह लीटर पानी की बर्बादी। हमें अपने शौचालयों की बनावट में परिवर्तन करना होगा।

हमें ऐसे शौचालय बनाने होंगे, जिसमें दो तरह के बटन लगे हों। एक-एक लीटर पानी बहाने वाला दूसरा, पन्द्रह लीटर वाला। इस तरह शौचालय में जो उपकरण लगे हैं उनके डिजाइन में परिवर्तन करके हम काफी पानी बचा सकते हैं। इसी तरह शौच के बाद हम दाँत धोते हैं। दाँत धोते समय हम नल को खुला छोड़ देते हैं, जिसमें काफी पानी बर्बाद होता है। इसे बचाया जा सकता है। फिर हम फव्वारे के नीचे खड़े होकर स्नान करते हैं।

स्नान में इस्तेमाल होने वाले फव्वारे में काफी पानी बर्बाद होता है। हमारा जो दैनन्दिन जीवन है पानी का, उसे बचाने के लिये हमें अपने आपसे शुरुआत करनी होगी। हमें यह काम सुबह उठने के साथ ही करना होगा और ऐसा तभी होगा जब पानी को लेकर हमारे मन में यह सम्मान आये कि पानी ने हमें बनाया है। बनाने वाले को बचाने का भाव जब हमारे मन में पैदा होगा, तब पानी बचेगा। पहला काम भाव का है और दूसरा काम निजी जिन्दगी में व्यवहार का। इसके बाद तीसरा काम संस्कार का है।

जिस जगह हम रहते हैं, जो हमारा घर है, वहाँ जो पानी बरसता है वह मिट्टी को काटकर बहा ले जाता है। इस तरह जहाँ से मिट्टी कटकर बह जाती है वहाँ अकाल आ जाता है और जहाँ ये मिट्टी जमती है वहाँ बाढ़ आ जाती है। ये तीसरी बात जल-दर्शन की है कि अगर हमें भारत को बाढ़ और अकाल से मुक्त करना है तो हमें जहाँ पानी बरसता है और दौड़कर बह जाता है उसे धीमे चलना सिखाना होगा और जब पानी धीमे चलने लगे, तो उसे धरती के पेट में बैठाना होगा।

इसके बाद जब पानी की जरूरत हो तो अनुशासित होकर उसका उपयोग करना और जब भी बुरा वक्त आये तो उस पानी को निकालकर उसका उपयोग करना। ये पानी के हमारे संस्कार हैं। व्यवहार से जल का दर्शन और जल-दर्शन के बाद संस्कार। जब जीवन में पानी के प्रति हमारे भाव, व्यवहार, दर्शन हमारे संस्कार बनने लगते हैं, तो फिर पानी बचाने का काम शुरू होता है।

पानी बचाने का काम सबसे पहले हम अपनी छत से शुरू करें। अपने घर से शुरू करें, फिर अपने मोहल्ले से शुरू करें। पहले अपनी छत का, आँगन का पानी बचाने का काम शुरू करें। अपनी गली-मोहल्ले का पानी बचाने का काम शुरू करें। इसके बाद अपने जो नाले हैं उनका खयाल करें। अच्छे पानी में गन्दे नाले न मिलें, उसको बचाने के लिये छोटे-छोटे चेकडैम, एनीकट बनाएँ।

वर्षाजल से धरती का पेट पानी से भरकर झरनों को पुनर्जीवित करें। झरनों के पुनर्जीवन से नदी बहने लगेगी। इन सब चीजों को यह सोचकर बनाया जाना चाहिए कि हम वर्षाजल का वाष्पीकरण न होनें दें। उस पानी से धरती का पेट भरें और जब धरती का पेट पानी से भर जाएगा, तो जीवन चलाने के लिये एक तरह से आनन्द और समृद्धि का रास्ता खुल जाएगा।

हमें यदि पानी के झगड़ों से बचना है, तो हमें अपनी नदियों के पानी को रोकने की बजाय नदियों के पेट को पानी से भरकर नदियों को पुनर्जीवित करना है। यदि हमने यह काम नहीं किया तो जिस तरह पानी को लेकर सीरिया, जॉर्डन, फिलिस्तीन, सूडान और दक्षिण सूडान में युद्ध हो रहा है, वैसे ही आने वाले समय में पानी को लेकर भारत में भी युद्ध हो सकता है। अभी भारत में केवल आपसी झगड़े हैं, जैसे कावेरी का है, सतलुज-यमुना-व्यास का है, कृष्णा का है। इन झगड़ों को निपटाया जा सकता है, लेकिन जब युद्ध होगा तो सिर्फ बर्बादी का रास्ता खुलेगा। इसलिये हम पानी से प्यार करना शुरू करें।

पानी के प्रति सम्मान रखना शुरू करें और ऐसा करते समय जो पाँच बिन्दु बनते हैं, उनमें पहला यह है कि पानी को तीन तरीके से हमारे यहाँ रोका जाता था। ताल-झाल-पाल। ताल- जहाँ प्राकृतिक ढलान होती है वहाँ सब तरह का पानी बहकर आता है उसको रोकना और ताल बनाना। झाल- एक स्तर तक नदी में, नालों में तथा नहरों में पानी को रोकना जिससे वह पानी रिचार्ज हो जाए और आस-पास के कुओं में पानी रहे और पानी के साथ मिट्टी बहकर न जाए वो होती है- झाल और जहाँ तक पाल की बात है, तो पाल तो सौ तरह की होती हैं। खेतों की होती हैं, नालों की होती हैं। तो पाल बनाकर पानी को रोकना।

इन तीनों पद्धतियों से भारत में कन्याकुमारी से लेकर कश्मीर तक जल बचाने का काम होता था, लेकिन उस काम को हम लोग भूल गये। आज हमें फिर एक बार भारतीय आस्था में जल संरक्षण का काम शुरू करना होगा। आज धरती को बुखार चढ़ रहा है। मौसम का मिजाज बदल रहा है, उसे ठीक करने के लिये पर्यावरणीय चेतना जगाना और जल साक्षरता का अभियान चलाना बहुत जरूरी है। यही एक तरीका है जिससे जल को बचाना सम्भव हो सकता है।

हमारे जीवन में जल को बचाने की पंचविधि हैं। उसमें सबसे पहले है कि अपने निजी जीवन में जल बचाने का भाव पैदा करना। इस भाव के बिना हम बहुत छोटे-छोटे स्तर पर कितना पानी बर्बाद कर देते हैं, इसका हमें अन्दाजा ही नहीं है। जैसे, सुबह उठते ही बाथरूम में पानी को बर्बाद करना। आधा गिलास पानी पीना है तो भी गिलास पूरा भर लेना। इसी तरह बाल धोने से लेकर कपड़े धोने और गाड़ी धोने तक हम कितने तरीके से पानी बर्बाद करते हैं, जिसे हम बचा सकते हैं।

यह तो निजी जीवन में पानी बचाने की बात हुई। दूसरा परिवार के स्तर पर देखें। घर-परिवार का जो भी घर है, आँगन है, छत है, खेत है उसमें पानी को बचाना। इसके बाद आते हैं पड़ोसी, जिसे हम मोहल्ला कहते हैं। उसमें गलियों और नालियों का पानी बचाना। गन्दे और साफ पानी को अलग-अलग करना। चौथा काम नालों, नहरों और झरनों को पुनर्जीवित करने और उनके प्रवाह को बढ़ाने का है। आज हमारे ज्यादातर झरने सूख रहे हैं। उन्हें सूखने से बचाने के लिये हरियाली का इन्तजाम करना पड़ेगा। पाँचवाँ काम नदियों का है।

नदी को उद्गम से लेकर संगम तक जल बचाने की विधियों का उपयोग करना। इसमें सैकड़ों तरह की विधियाँ हैं। जैसे वृक्षारोपण, बाँध एनीकट बनाकर उसे रिचार्ज करके नदी के जल को प्रवाह देना। इन पाँच तरीकों से हम जल-संरक्षण कर सकते हैं और इससे बेपानीदार होता भारत पानीदार बन जाएगा। ध्यान रखना होगा कि पानी धरती के ऊपर न बहे, बल्कि धरती के पेट में जाए। जब धरती का पेट पानी से भरेगा, तो मनुष्य का पेट भरेगा।

आज भारत में जवानी, किसानी और पानी पर संकट है। पिछले चार सालों में हमने इसके समाधान के लिये बड़े-बड़े सपने देखे, लेकिन हम समाधान में नहीं जुटे, इसलिये पानी मिट्टी को काटता हुआ बहकर जा रहा है। जवानी गाँव छोड़कर शहर और शहर छोड़कर विदेश जाने की लालसा में जुटी है और किसान उसके उत्पादन की लागत का ठीक मूल्य नहीं मिलने के कारण किसानी छोड़ रहा है। ये तीनों संकट पानी के साथ जुड़े हुए हैं।

किसान को पहले बिना लागत खेती के लिये पानी मिल जाता था। जवान को गाँव की हरियाली, बड़े-बूढ़ों का प्यार और खेती की पैदा, पानी के प्यार से बाँधे रखती थी, इसलिये वह अपने मूल से उजड़ता नहीं था। आज पानी, किसानी और जवानी का पलायन वैसे तो पूरी दुनिया के लिये सबसे बड़ा संकट है, पर भारत के लिये खास। आओ हम सब मिलकर एक हों और पानी का संरक्षण व अनुशासित उपयोग करके समाधान में जुटें।

(लेखक जाने-माने पर्यावरणविद हैं)

 

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