समाधान हेतु उपयुक्त जल नीति

9 Mar 2010
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चूँकि जल का स्वभाव ही स्थलाकृति के अनुरूप अपना आकार बदल लेना तथा ऊपर से नीचे की ओर बहना है इसलिए उसके स्वभाव के विपरीत उसपर नियंत्रण कायम करना आंशिक तौर पर ही संभव हो पाता है। ऐसी स्थिति में वर्चस्वशाली व्यक्ति अथवा समूह जल पर इस प्रकार नियंत्रण स्थापित करते हैं कि उसका लाभ तो उन्हें मिले लेकिन नुकसान दूसरों को झेलना पड़े। उदाहरणस्वरूप जलस्रोत के समीप ऊपर की ओर रहने वाले लोग पानी की कमी के दिनों में तो उसका अधिकाधिक उपयोग खुद कर लेते हैं लेकिन बाढ़ की स्थिति में पानी नीचे छोड़ देते हैं।

ऐसी स्थिति पूरी तरह अनैतिक है और सामाजिक तनाव को जन्म देती है। इसका सर्वोत्तम उपाय पानी के उपयोग की ऐसी व्यवस्था करना है, जिससे प्रवहमान जलस्रोत को कम से कम बाधित किया जाय और ऊपरी क्षेत्र के लोग उसका आवश्यकतानुसार उपयोग भी कर लें। जल के दुरुपयोग का हतोत्साहित किया जाना चाहिए और दुरुपयोग करने वालों के खिलाफ दंड की व्यवस्था की जानी चाहिए।

पइन इस क्षेत्र में प्रवहमान जल के सदुपयोग की सर्वोतम उदाहरण हैं। अधिकांश पइनें नदी-नालों में बाढ़ आने की स्थिति में चालू होती हैं और बाढ़ समाप्त होने पर बंद हो जाती है। इससे ऊपरी क्षेत्र के लोगों को अतिरिक्त जल का लाभ मिल जाता है और निचले क्षेत्र के लोग उसके नुकसान से बच जाते हैं। इस अतिरिक्त जल को आहरों में संचित करके सुविधा के अनुरूप उसका उपयोग इस क्षेत्र के लोग लंबे समय से करते आ रहे हैं। इसे जारी ही नहीं रखा जाना चाहिए, अधिकाधिक प्रोत्साहित भी किया जाना चाहिए।

अनेक पइनों के मुहाने अपने उद्गमस्थल पर स्थित नदी-नालों की तली से ऊँचे होते हैं। ऐसी स्थिति में जलस्तर को ऊचा उठाने के लिए मुहाने के ठीक नीचे बहाव में अवरोध पैदा करना आवश्यक हो जाता है। यह स्थिति उपरोक्त उदाहरण जितनी अच्छी तो नहीं है लेकिन इन पइनों का चालू रहना भी उनके द्वारा लाभान्वित होने वाले लोगों के लिहाज से आवश्यक है। इस स्थिति में नदी-नाले में ऐसा अवरोध खड़ा किया जाना चाहिए जो उसके प्रवाह को आंशिक व अस्थायी तौर पर ही रोके।

स्थायी बाँध वाली पइनें और नहरें प्रवाहमान भूपृष्ठीय जल के सिंचाई हेतु उपयोग के बुरे उदाहरण हैं तथापि इनका निर्माण अगर हो चुका है तो उनमें जलप्रवाह जारी रखते हुए भी ऐसी व्यवस्था की जानी चाहिए कि उससे नीचे स्थित लोगों को भी पानी नियमित रूप से मिलता रहे, साथ ही गाद की सफाई भी होती रहे।

अतिरिक्त जल को नदी में वापस करने वाली निकासी पइनों के निर्माण को भी प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।

प्रायः सभी नदियों का अपना स्वनिर्मित जलक्षेत्र तथा ढाल क्षेत्र होता है जो सरितानिर्माण की भौगोलिक प्रक्रिया से विकसित होता है। छोटी नदियाँ बड़ी नदियों में जल छोड़ती है। वह जल समुद्र तक जाता है। अतः किसी नदी के जल का प्रयोग उस नदी की घाटी के साथ उस नदी के जल को ग्रहण करनेवाली बड़ी नदी घाटी अथवा उसके आसपास के मैदान में होना चाहिए इसके लिए ढाल का सिद्धांत प्राकृतिक रूप से अनुकूल ही नहीं, सुस्पष्ट तथा परंपरा से पोषित भी है। ढाल के विपरीत कृत्रिम उपाय अनेक जटिलताओं को पैदा करते हैं।

छोटे नदी-नाले पर भी यथासंभव यही नियम लागू किया जाना चाहिए ऐसे नदी-नालों का अतिरिक्त जल कई बार डूब क्षेत्र को जन्म देता है। मगध में पटना के आसपास का जल्ला क्षेत्र तथा मोकामा-बड़हिया टाल इसके स्पष्ट उदाहरण हैं। ऐसे क्षेत्रों में जलजमाव से मुक्ति के बजाय बडे़-बडे़ तालाब बनाकर उसमें पानी को लंबे दिनों तक संग्रहित करने तथा उनमें मछली, महाझींगा तथा अन्य जलजीवों-जलोद्भिजों का उत्पादन करना लाभप्रद होगा।

जिन स्थानों पर प्रवाहमान जल (नदी-नालों) का नियमित रूप से पहुँच पाना संभव नहीं होता वहाँ आहर-तालाब आदि के जरिए जल के संग्रह की व्यवस्था की जाती है। यह प्रकृति के अनुकूल है। पेड़-पौधे, चट्टानें, पहाड़, ऊँची जमीन आदि द्वारा जल के प्रवाह में कदम-कदम पर बाधा खड़ी की जाती है और उसे अपनी राह बदलने के लिए मजबूर किया जाता है। छोटे-छोटे गड्ढ़ो से लेकर बड़ी-बड़ी झीलों तक में प्रवाहमान जल संग्रहित होता भी है। लेकिन इन प्राकृतिक जल संग्रह स्थलों का आधार इनके आकार के अनुरूप अधिकाधिक दृढ़ तथा स्थायी होता है। इसके विपरीत की स्थिति प्रायः विनाशकारी होती है। इसे ध्यान में रखते हुए जलसंग्रह की कृत्रिम संरचनाओं का आकार छोटा होना ही श्रेयस्कर है।

नदियों-नालों के जलग्रहण क्षेत्र में भी चेक डैम के निर्माण को तो प्रोत्साहित किया जाना चाहिए लेकिन उनका आकार ऐसा नहीं होना चाहिए कि उनके टूट जाने पर संबंधित नदी-नालों का जलस्तर सामान्य से दो फीट से ज्यादा ऊँचा उठे और वह भी पाँच-छः घंटों तक ही हो।

जल संग्रह की ऐसी संरचनाओं के जलग्रहण क्षेत्र में प्रायः ऐसी फसलों की खेती की जाती रही है जिन्हें पानी की कम जरूरत होती है। फलतः अधिशेष जल नीचे स्थित जल-संग्रह संरचना में संग्रहित हो जाता है। स्वार्थ तथा नासमझीवश अनेक क्षेत्रों में इस व्यवस्था को तोड़ा जा रहा है। ऐसी प्रवृत्ति को हतोत्साहित किया जाना चाहिए।

इसी प्रकार की नासमझी ढेर सारे लोग आहर, टाल आदि जलसंग्रह संरचना के डूब क्षेत्र में फसल उगाकर कर रहे हैं। ऐसे लोग पानी के अधिक संग्रह का विरोध करते हैं ऐसी प्रवृत्ति का भी विरोध किया जाना चाहिए ।

संग्रहित जल का ऊपरी तल हमेशा एक होता है। उसे नीचे तो आसानी से किया जा सकता है लेकिन ऊपर उठाना कठिन है। इसे ध्यान में रखकर सिंचाई का प्राथमिकता क्रम क्रमशः ऊँचे से निचले खेतों की ओर होना चाहिए।

सिंचाई के मामले में परंपरा से यह व्यवस्था रही है कि जो लोग सार्वजनिक स्रोत से अपने खेत के लिए पानी ला रहे हैं उन्हें अपने नीचे के खेतों में पानी जाने के लिए जगह देनी होगी। इसे अवश्य जारी रखा जाना चाहिए।

आहर जैसे जलभंडार को एक निश्चित तिथि को (यथा कार्तिक पूर्णिमा) खाली कर देने की व्यवस्था परंपरा से प्रचलन में रही है ताकि जलभंडार स्थित खेत के मालिक उसमें रबी फसल, लगा सकें। इसके स्थान पर पानी को अधिक दिनों तक संग्रहित किया जाना चाहिए और डूब क्षेत्र में स्थित खेत के मालिकों के लिए प्रर्याप्त क्षतिपूर्ति की व्यवस्था की जानी चाहिए मछली पालन अथवा सिंघाड़ा (पानीफल) जैसी डूब क्षेत्र आधारित फसल उगाने का अधिकार देने के रूप में भी उनके लिए क्षतिपूर्ति की व्यवस्था संभव है।

वाष्पीकरण जलभंडारों में भंडारित जल के ह्रास का एक प्रमुख जरिया है। इनमें कमी लाने के लिए जलभंडारों को गहरा बनाया जाना चाहिए छिछले व फैले जलभंडारों से वाष्पीकरण अधिक होता है।

नहर-पइन जैसी प्रवहमान जलापूर्ति व्यवस्थाएँ तथा आहर-पोखर जैसे जल भंडार नियमित देखरेख की माँग करते हैं। इनकी हर साल सफाई-उड़ाही तथा टूट-फूट की तत्काल मरम्मत आवश्यक होती है। इस हेतु परंपरा से ‘गोवाम’ तथा ‘गोहार’ की व्यवस्था रही है। लेकिन सरकार पर निर्भरता के कारण इसमें क्रमशः ह्रास होता गया है। जनता को चाहिए कि वह पहलकदमी अपने हाथ में ले और इस व्यवस्था को मजबूत करे। ‘गोवाम’ के आह्वान के लिए गाँवों द्वारा अपने प्रतिनिधि का चुनाव किया जाना चाहिए ‘गोहार’ चूँकि आपातकालीन व्यवस्था है इसलिए इसके आह्वान का हक सभी का होना चाहिए।

अनेक स्थानों पर आहर-पइन की जमीन की सरकार द्वारा व्यक्तिगत बंदोबस्ती कर दी गई है । अनेक स्थानों पर इनपर लोगों द्वारा अवैध कब्जा कर लिया गया है। ऐसी जमीनों की बंदोवस्ती तत्काल रद्द कराई जानी चाहिए और उन्हें अवैध कब्जे से मुक्त कराया जाना चाहिए ।

भूपृष्ठीय जलस्रोतों के प्रति उदासीनता-उपेक्षा का एक बड़ा कारण भूगर्भीय जलस्रोतों का बढ़ता उपयोग है। जानकार लोगों को चाहिए कि वे आम लोगों के दिमाग में यह बात बिठाने का लगातार प्रयास करें कि भूगर्भीय जल भूपृष्ठीय जल का बहुत महँगा और उपयोग से लगातार कम होते जाने वाला विकल्प है। इसीलिए इसका उपयोग बहुत सोच-समझ कर किए जाने की जरूरत है। इसका अनियंत्रित उपयोग दीर्घकालिक हितों के सर्वथा प्रतिकूल है।

तथापि भूमिगत जल के दोहन पर पूरी तरह रोक लगा पाना संभव नहीं है। इस स्थिति में भूगर्भीय जल का उपयोग इस प्रकार से और उसी सीमा तक होना चाहिए कि जल का स्तर नहीं गिरे। अगर भूगर्भीय जल का स्तर गिरता है तो ऐसे इलाके में भूगर्भीय जल के दोहन पर तत्काल नियंत्रणकारी व्यवस्था लागू की जानी और उसके उपयोग को प्राथमिकता के आधार पर सीमित किया जाना चाहिए।

भूगर्भीय जल समेत समस्त जलस्रोतों के उपयोग का प्राथमिकता क्रम इस प्रकार होगा- खाना-पीना, नहाना-धोना, साफ-सफाई, गैर-औद्योगिक खेती तथा पशुपालन, उद्योग, पानी आधारित उद्योग।

भूगर्भीय जल का पुनः संभरण (Recharge) उसके उपयोग की अनिवार्य शर्त होनी चाहिए अर्थात्, जो व्यक्ति अथवा संस्थान भूगर्भीय जल का जितना उपयोग अपने कार्यों में करता है, उसे कम से कम उतने जल का पुनः संभरण करना होगा अथवा समुचित मुआवजा देना होगा। सक्षम अभिकरण द्वारा इस राशि का उपयोग भूगर्भीय जल के पुनः संभरण तथा अन्य स्थायी विकल्पों के निर्माण में ही होना चाहिए अन्य जलस्रोतों के व्यावसायिक उपयोग पर भी इसी तरह से मुआवजा लिया जा चाहिए। इसके लिए सरकार के स्तर पर अथॉरिटी बनाई जा सकती है।

किसी भी व्यक्ति अथवा संस्थान के द्वारा जल के उपयोग की सीमा तय की जानी और उसका अतिक्रमण करने पर उसे दंडित करने का प्रावधान किया जाना चाहिए। प्राथमिकता क्रम के उल्लंघन पर अवश्य दंडित किया जाना चाहिए।

भूगर्भीय जल के उपयोग के मामले में एक बड़ा खतरा उसके प्रदूषित होने पर उससे होने वाले नुकसान का है। ऐसा प्रदूषण प्राकृतिक भी हो सकता है और मानवजानित भी। जैसे जल में आर्सेनिक, फ्लोरीन अथवा अन्य खनिजों की तथा कीटनाशकों, रसायनों आदि की घातक मात्रा मौजूद हो सकती है। अतएव किसी भी नए जलस्रोत के उपयोग के पूर्व उसके जल का वैज्ञानिक परीक्षण कराया जाना चाहिए। पुराने जलस्रोतों का भी समय-समय पर परीक्षण कराया जाना चाहिए।

जलस्रोतों के प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण अनियंत्रित औद्योगीकरण तथा योजनाविहीन शहरीकरण है। इनसे भारी मात्रा में प्रदूषित जल निकलता है और जलस्रोतों में मिल जाता है। जलस्रोतों में इनके मिलने के पूर्व इनका शुद्धिकरण अनिवार्य किया जाना चाहिए और उसका खर्च संबंधित इकाइयों द्वारा ही वहन किया जाना चाहिए। इसकी अवहेलना करने वालों के लिए दंडकारी प्रावधान होने चाहिए। भूगर्भीय जल के संभरण हेतु शहरी मकानों के नक्शे पास होने के समय उसमें खुली जमीन एवं सोख्ता गडढ़ा बनाना अनिवार्य होना चाहिए। इस गड्ढे में वर्षा जल को डालने हेतु प्रेरणा/प्रोत्साहन होना चाहिए।

शहरी एवं ग्रामीण दोनों स्तरों पर घरेलू व्यर्थजल के शुद्धिकरण का सबसे प्रभावी उपाय उन्हें सोख्ता गड्ढों में डालना है। इससे प्रदूषण से भी मुक्ति मिलती है और भूगर्भीय जल का पुनः संभरण भी होता है। अतएव घर-घर में इसके उपयोग को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए घनी तथा गरीब बस्तियों में सामुदायिक सोख्तों का निर्माण किया जाना चाहिए।

देहाती लोगों की अपेक्षा शहरी लोग जल का उपयोग-दुरुपयोग अधिक करते हैं। इन्हें जल के कम उपयोग वाले उपकरण तथा विधियाँ अपनाने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए। बागवानी का शौक रखने वाले लोगों को पौधों की सिंचाई के लिए स्वच्छ जल के बजाय घरेलू व्यर्थ जल का प्रयोग हेतु प्रेरित किया जाना चाहिए।

प्लास्टिक भूगर्भीय जल के पुनः संभरण में एक बड़ी बाधा के रूप में उभरा है। अतएव प्लास्टिक मिट्टी युक्त या कचरे का उपयोग खुली जगहों के भराव में नहीं किया जाना चाहिए। जलस्रोतों में प्लास्टिक व इसकी थैलियाँ डालना दंडनीय घोषित किया जाना चाहिए।

मगध क्षेत्र के अनेक इलाके पेयजल का गंभीर संकट झेल रहे हैं। ऐसे इलाकों में वर्षा जल के संग्रह को बढ़ावा दिया जाना चाहिए, आहर-पोखर आदि जलभंडारों में पानी को अधिकाधिक दिनों तक सुरक्षित रखना चाहिए तथा गरमा फसलों को पूर्णतः प्रतिबंधित किया जाना चाहिए, जब तक कि उस क्षेत्र के जल स्तर में पर्याप्त सुधारन आ जाए।

लगभग सभी शहरों में जलसंकट अधिकाधिक गंभीर होता जा रहा है। ऐसे स्थानों पर घर-घर में वर्षा जल को छत पर इकट्ठा करने और बड़े-बड़े पक्के हॉज बनाकर संग्रहित करने के लिए सबको प्रेरित किया जाना चाहिए। खारे भूगर्भीय जल वाले क्षेत्रों में तो यह पेयजल का भी (शुद्धिकरण के पश्चात्) अच्छा विकल्प साबित होगा।

जिन शहरों के समीप कोई पहाड़-पहाड़ी हो, वहाँ पहाड़ पर ही वर्षा जल का संग्रह तालाब या झील के रूप में किया जाना चाहिए। इससे समीपस्थ क्षेत्रों में जलापूर्ति तथा भूगर्भीय जल का स्तर बनाए रखने में मदद मिलेगी।

न तो प्राकृतिक जल बिक्री योग्य संपत्ति है न प्राकृतिक जलस्रोत। उन्हें बिक्री योग्य घोषित करना आम जनता के जीने के अधिकार का स्पष्ट हनन है।वृक्ष वर्षा जल को आकर्षित करने, भूपृष्ठीय जल के प्रवाह को नियंत्रित करने तथा भूगर्भीय जल का पुनः संभरण करने में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। अतः हर व्यक्ति को प्रेरित किया जाना चाहिए कि वह हवा के लिए एक तथा पानी के लिए पाँच वृक्ष अवश्य लगाए।

जाहिर है, इतने सारे नियम-नीतियों, इतने सारे प्रावधानों का अनुपालन-अनुरक्षण किसी व्यक्ति अथवा छोटे समूह के स्तर पर संभव नहीं है।

इसके लिए समाज को पहलकदमी अपने हाथ में लेना होगा। इसके लिए अपने स्तर पर संभव कार्य समाज को खुद करना होगा, सबके अधिकारों-कर्तव्यों का निर्धारण करना होगा, सरकार तथा स्थानीय निकायों से सहयोग करना होगा, उनके गलत कदमों का विरोध करना होगा तथा आवश्यक नए नियम-कानूनों के निर्माण के लिए उनपर दबाव बनाना होगा।

स्पष्ट है कि यह लक्ष्य आसान नहीं है लेकिन संगठित शक्ति के लिए कुछ असंभव भी नहीं है। आइए मिलकर जोर लगाएँ।

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