सन्दर्भ : भूमि अधिग्रहण संशोधन बिल-2015

12 Mar 2015
0 mins read
bhumi adhigrahan
bhumi adhigrahan

भूमि संशोधनों में कितना है दम


लोकसभा में विपक्ष ने 52 संशोधन सुझाए थे। वे सभी गिर गए। सरकार, नौ सुधार ले लाई। नौ घण्टे चली लम्बी चर्चा के बाद वे सभी अपना लिए गए। दो उपनियम और जुड़े। मतों की बाजीगरी में अल्पमत को हारना ही था; वह हार गया। बहुमत विजयी रहा। किन्तु क्या देश जीता या जीत फिर भी किसी एक वर्ग, पार्टी, गठबन्धन या सत्ता की ही हुई? यह समझने के लिए तो हमें समझना 52 जमा 9 यानी सभी 61 संशोधनों को ही होगा। किन्तु माध्यम और आपके समय की सीमा को देखते हुए अगर लोकसभा द्वारा मंजूर संशोधनों पर ही गौर करें तो ही काफी जवाब मिल जाएगा। आइए, गौर करें :

1. “प्राइवेट पार्टनरशिप प्रोजेक्ट के तहत् आने वाली सामाजिक ढाँचागत परियोजनाएँ अब छूट वाली श्रेणी में नहीं रहेंगी।

भूमि अर्जन, पुनर्वासन एवं पुनर्व्यवस्थापन में उचित प्रतिकार और पारदर्शिता अधिकार कानून - 2013 ने निजी कम्पनियों द्वारा भूमि अधिग्रहण में 80 प्रतिशत भूमि मालिकों की सहमति तथा प्राइवेट पार्टनरशिप प्रोजेक्ट (पीपीपी) यानी सरकार और निजी साझेदारी से निर्मित अथवा संचालित होने वाली ढाँचागत परियोजनाओं के मामले में 70 प्रतिशत भूमि मालिकों की सहमति का प्रावधान रखा था। मोदी सरकार द्वारा दिसम्बर, 2014 में लाए संशोधनों ने पाँच श्रेणियाँ बनाईं, जिन्हें भूमि मालिक से सहमति लिए बगैर भूमि अधिग्रहण की छूट होगी: रक्षा, ग्रामीण ढाँचागत निर्माण, लोगों की क्षमता के भीतर कीमत वाले रिहायशी मकान, औद्योगिक तथा पीपीपी श्रेणी की परियोजनाएँ।

इस पृष्ठभूमि के आइने में देखें, तो लोकसभा द्वारा अपनाए प्रथम संशोधन का मतलब है कि अब पीपीपी श्रेणी के तहत आने वाली स्कूल, अस्पताल, सड़क, नहर आदि सामाजिक विकास की ढाँचागत परियोजनाएँ हेतु भूमि अधिग्रहण हेतु अब भूमि मालिक की सहमति लेनी होगी।

ध्यान रहे कि इसका एक मतलब यह भी है कि पीपीपी श्रेणी की अन्य सभी परियोजनाएँ अभी भी किसानों की सहमति के बगैर ज़मीन ले सकेंगी।

2. आदिवासी भूमि के अधिग्रहण हेतु पंचायत की सहमति जरूरी होगी।

जाहिर है कि इस संशोधन का मकसद यह सुनिश्चित करना है कि आदिवासियों की मर्जी के बगैर ज़मीन न ली जा सके। आजकल पंचायतें जिस तरह राजनैतिक दल की बन्धक और भ्रष्टाचार की नर्सरी बनती जा रही हैं, उनसे पंचायतों की निष्पक्षता सवालों के घेरे में पहले से है ही। ऐसे में यह प्रावधान पंच-प्रधानों की दलाली और बढ़ाएगा। यूँ तो जमीन जिसकी है, सहमति उसकी ली जानी चाहिए, न कि पंचायतों की। फिर भी यदि सरकार संवैधानिक ढाँचागत इकाई को ही प्रमुखता देना चाहती है तो वह गौर करे कि ग्रामसभा, ग्रामीणों की प्रतिनिधि सभा है, न कि पंचायत। अतः पंचायत के साथ-साथ ग्रामसभा सदस्यों की सहमति लेना भी जरूरी बनाया जाए।

3. खेतिहर मजदूर के परिवार के एक सदस्य को नौकरी देना आवश्यक होगा।

खेतिहर मजदूर वह होता है, जो दूसरे की ज़मीन पर खेती कार्य में मज़दूरी करता है। यदि इस संशोधन का आशय यह है कि अधिग्रहित की जाने वाली भूमि पर काम करने वाले मज़दूर के परिवार के एक सदस्य को नौकरी देना आवश्यक होगा, तो यह अन्तिम जन की चिन्ता करने का काम है। यूँ इसकी सराहना तो होनी चाहिए, किन्तु कोई किसी के खेत पर मज़दूरी करता है, यह सिद्ध करना ही मुश्किल होगा। यदि सिद्ध हो भी गया और खेतिहर मज़दूर को नौकरी मिल भी गई तो इससे उसका क्या लाभ होगा, जिस किसान की ज़मीन गई?

इस प्रश्न के पीछे छिपा पहलू काफी नकारात्मक नतीजे लाने वाला है। जैसे ही भू-मालिक किसानों को पता चलेगा कि ज़मीन जाने पर नौकरी उनकी बजाय खेतिहर मज़दूर को मिलेगी, वे इस भावी भय से आशंकित होकर अपनी ज़मीन को दूसरों को किराये/ठेके/मज़दूरी पर देना ही बन्द कर देंगे। अभी ही कितने की किसान अपनी ज़मीन को लगातार कई वर्षों तक एक परिवार को किराए पर सिर्फ इसलिए नहीं देते, कि कहीं सरकार कोई ऐसा नियम ले आई कि ज़मीन उसकी होगी, जो खुद उस पर खेती करेगा, तो ज़मीन उनके हाथ से चली जाएगी।

यदि इस संशोधन में खेतिहर मज़दूर से मतलब भू़-मालिक किसान है, तो सरकार समझे कि किसान, मज़दूर नहीं होता वह अपनी खेती का खुद मालिक होता है। वह भाषा बदले। खेतिहर मज़दूर की जगह ऐसा लिखे कि भूमि मालिक तथा अपनी आजीविका के लिए उस भूमि पर निर्भर खेतिहर मज़दूर के परिवार के एक सदस्य को नौकरी देना आवश्यक है।

यहाँ यह स्पष्टता भी आवश्यक है कि नौकरी किसे मिलेगी, इसका चयन करना परिवार का अधिकार होगा। नौकरी, अभ्यर्थी की शिक्षा और हुनर के अनुरूप दिया जाएगा। यह भी सुनिश्चित होना चाहिए कि जिस परियोजना के लिए ज़मीन ली जाएगी, नौकरी उसी परियोजना में दी जाएगी। वैसा सम्भव न होने पर लिखा जाए कि उसके निवास स्थान के जिले की परिधि के भीतर ही दी जाएगी। अभ्यर्थी की इच्छा हो, तो ही उसे ज़िले के बाहर नौकरी दी जाएगी। नौकरी ठेका आधारित हो अथवा स्थाई? यह सवाल भी काफी दिक्कतें पैदा करने वाला है। स्पष्ट करना यह भी जरूरी होगा कि जिस परिवार में सभी अनपढ़ होंगे, उन्हें मिलने वाली नौकरियाँ क्या होंगी?

4. सरकार, सरकारी निकाय तथा निगमों के लिए भूमि अधिग्रहण कर सकती है।

यह संशोधन का मन्तव्य प्रशंसनीय है। इसमें भाषा सुधारकर और स्पष्ट करना चाहिए कि सरकार को सिर्फ और सिर्फ सरकारी निकाय तथा शासकीय निगमों के लिए ही ज़मीन का अधिग्रहण करने के लिए अधिकार होगा।

5. दिक्कत अथवा शिकायत होने पर किसानों को जिला स्तर पर ही अपील करने का अधिकार होगा।

ऊपरी तौर पर देखें तो चौथा संशोधन उचित मालूम होता है, किन्तु ये संशोधन यह सुनिश्चित नहीं करता कि भूमि मालिक को उसकी मर्जी के बगैर ज़मीन न देने की स्वतन्त्रता होगी। सोचिए, क्या चौथा संशोधन पहले से कलेक्टरेट, दीवानी और तहसील के चक्कर लगा रहे ग्रामीणों का एक चक्कर और बढ़ाने वाला ही साबित नहीं होगा? ज़मीन, गाँव का प्राण होती है। क्या इस संशोधन से गाँव के प्राण, जिला प्रशासन की कृपा के अधीन नहीं हो जाएँगे?

मेरा तो मानना है कि चौथा संशोधन, 70/80 प्रतिशत भूमि मालिकों से सहमति लिए बगैर ज़मीन अधिग्रहण न करने वाले मूल प्रावधान का विकल्प नहीं हो सकता। यह संशोधन, पहले से दलाली और भ्रष्टाचार का अड्डा बने जिला कलेक्टरेट को और भ्रष्ट होने का आधार नहीं दे देगा? यह गाँव को और बेचारा बनाएगा। इस संशोधन को हटाकर भू-मालिकों की सहमति वाले प्रावधान को लाया जाए।

6. भूमि मालिक की शिकायत/अपील की सुनवाई हेतु व्यवस्था बनाई जाएगी, ताकि बिना परेशानी उसका निपटारा हो सके।

चौथा संशोधन हटाकर सहमति के मूल प्रावधान को लाने के पश्चात् पाँचवें संशोधन का कोई मायने नहीं रह जाएगा।

7. पूर्व संशोधन में लिखे गये ’प्राइवेट एन्टेटी’ शब्द को बदलकर ’प्राइवेट एंटरप्राइजेज’ किया गया है।

‘प्राइवेट एन्टेटी’ शब्द निजी के दायरे को निजी कम्पनियों से बढ़ाकर अन्य कारपोरेट उद्देश्य तथा गैर-लाभकारी संगठनों द्वारा संचालित परियोजनाओं को भी शामिल करता है। इसे सुधारकर वापस ‘प्राइवेट एंटरप्राइजेज’ यानी निजी उद्यमों तक सीमित करना अच्छा है।

8. औद्योगिक गलियारे के लिए रेलवे लाइन और राजमार्गों के दोनों ओर एक-एक किलोमीटर के दायरे में मौजूद भूमि का ही अधिग्रहण किया जाएगा।

सरसरी निगाह में यह संशोधन उचित मालूम होता है, किन्तु यह उचित है नहीं। गौर करें कि हाल के वर्षों में हमारी सरकारों ने क्या किया है। गंगा एक्सप्रेस वे, यमुना एक्सप्रेस वे से लेकर दिल्ली-मुम्बई औद्योगिक काॅरीडोर तक के प्रयास इस बात का स्पष्ट प्रमाण हैं कि सरकारों को जहाँ-जहाँ उद्योग स्थापित करने हुए, वे वहाँ-वहाँ पहले राजमार्ग अथवा एक्सप्रेस वे ले गए। अतः यह सीमा रेखा सीमित होकर भी असीमित है। सरकार तो सामाजिक ढाँचागत विकास के नाम पर जब चाहेगी, जहाँ चाहेगी। कहीं भी राजमार्ग और रेलवे लाइन बनाएगी और फिर वहाँ उद्योग को ले जाएगी।

अतः आठवें संशोधन को उचित बनाने के लिए रेलवे लाइन और राजमार्गों के स्थान पर “भूमि अर्जन, पुनर्वासन एवं पुनर्व्यवस्थापन में उचित प्रतिकार और पारदर्शिता अधिकार कानून बनने की तारीख से पूर्व मौजूद रेलवे लाइन और राजमार्गों’’ लिखना होगा। अलबत्ता, तो पहले से मौजूद राजमार्गों और रेलव लाइनों के एक किलोमीटर के दायरे में ही इतनी ज़मीन मौजूद है कि अगली एक सदी तक उद्योगों के लिए अतिरिक्त ज़मीन की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। फिर भी यदि भविष्य में और जरूरत हुई तो इसके लिए यह लिखा जा सकता है कि अगले पाँच दशक बाद इस संशोधन पर पुनर्विचार करना अच्छा होगा।

इसमें यह स्पष्ट करना जरूरी और बेहतर होगा कि रेलवे लाइन और राजमार्गों के दोनों ओर एक किलोमीटर के दायरे में आने वाली किस भूमि का अधिग्रहण किया जा सकेगा और किस भूमि का अधिग्रहण नहीं किया जा सकेगा। मसलन, नदियों में प्रदूषण मुक्ति के मद्देनज़र, यह माँग कई वर्षों से उठ रही है कि नदी भूमि से कम-से-कम पाँच किलोमीटर की दूरी में किसी भी नई औद्योगिक इकाई को लगाने की इजाज़त न दी जाए। पुरानी इकाइयाँ धीरे-धीरे वहाँ से विस्थापित की जाएँ।

औद्योगिक विभाग को राष्ट्रीय स्तर पर यह सीमा रेखा बनाने की जरूरत ज्यादा है कि किस उत्पाद और कितने उत्पादन लक्ष्य के लिए अधिकतम कितनी ज़मीन का अधिग्रहण किया जा सकता है? असली सीमा रेखा इसी से बनेगी। पूरी तरह विचारकर ऐसी कई और सीमाएँ बनाने की जरूरत है।

9. औद्योगिक गलियारे की भूमि पर सीलिंग यानी उच्चतम मूल्य देने का प्रावधान होगा।

इस संशोधन की सराहना करें, किन्तु स्पष्ट कर लें कि उच्चतम मूल्य का मतलब क्या है और इसका निर्धारण कैसे होगा?

 

 

उपनियम


1. एक उपनियम के मुताबिक, सरकारी परियोजनाओं के लिए किसानों की बहुफसली ज़मीन नहीं ली जाएगी।

गौरतलब है कि बहुफसली ज़मीन का मतलब, कम-से-कम दो फसली ज़मीन होता है। एक फसली ज़मीन आम तौर पर बंजर, ऊसर, टांड अथवा बीहड़ श्रेणी की मानी जाती है।

झारखण्ड, बुन्देलखण्ड, राजस्थान और गुजरात से लेकर देश के कई हिस्सों में इलाके-के-इलाके ऐसे हैं, जहाँ पूरी-की-पूरी ज़मीन एक फसली ही है। ऐसे इलाके में यदि किसी अधिग्रहण में किन्ही ग्रामवासियों की पूरी-की-पूरी ज़मीन ही चली जाती है, तो वह क्या करेगा? जाहिर है कि आप कहेंगे कि उसके परिवार के एक सदस्य को नौकरी तो मिलेगी ही, मुआवजा भी मिलेगा। मुआवजा राशि से कोई कारोबार करेगा। आपका उत्तर उचित है। किन्तु ग्रेटर नोएडा, नोएडा, लोनी से लेकर पश्चिम में पंजाब और पूर्व में झारखण्ड तक के अनुभव उचित नहीं हैं। दादा की बनाई ज़मीन का मोल पोता नहीं जानता। एक साथ आए पैसे को सम्भालना सभी के बस का नहीं होता। इस अचानक आए पैसे ने देश के कई इलाकों को ऐय्याशी, अपराध, बेरोजगारी अथवा निकम्मेपन की गिरफ्त में लिया है।

गौर करने की बात है कि गाँव की परम्परागत कारीगर जातियों के लोग आमतौर पर खेती योग्य भूमि के मालिक नहीं हैं। खेती योग्य भूमि के मालिक का असल हुनर खेती ही है। खेत खो जाने पर वह क्या करेगा? मोदी जी ने मनरेगा का मज़ाक उड़ाया। वह भूल गए कि अधिग्रहण में किसान के पास एक विकल्प तो यह बचेगा कि वह दूर कहीं जाकर मनरेगा की मज़दूरी करे।

वह यह भी भूल गए कि भूमि जाने पर भू-मालिक का सिर्फ अपनी ज़मीन से पलायन नहीं होता; रिश्ते-नाते, संस्कृति और परिवेश से भी पलायन होता है। ग्रामीण को अपने से ज्यादा अपने रिश्ते-नाते और खेती का संबल होता है। नए इलाके में जाकर ये सभी संबल फिर से खड़े करना अपने आप में एक चुनौती होती है। बिहारी, पंजाबी और मारवाड़ी इस चुनौती का सामना करने के लिए मशहूर रहे हैं। इन तीनों ने ही देश और दुनिया के हर कोने में जाकर ऐसी चुनौतियों पर विजय पाई है। यही इन तीनों की तरक्की का मूल कारण भी है। किन्तु अभी आम ग्रामीणों के लिए ये चुनौतियाँ खड़े करने का काम आपात स्थितियों में ही होना चाहिए।यहाँ बागीचों को लेकर एक महत्वपूर्ण चिन्ता पर गौर करना भी जरूरी है।

बागवानी में आने वाली कई फसलें साल में एक ही फसल देती हैं; तो क्या उनका अधिग्रहण हो सकेगा? अभी-अभी देश ने बागवानी की तरफ कदम बढ़ाए हैं। अभी-अभी देश के कुपोषित आबादी की पहुंच फलों तक होनी शुरू ही हुई है। राष्ट्रीय बागवानी मिशन के सहयोग से भारत में ऐसी बहुत सी भूमि बागवानी की अनुपम मिसाल बनकर उभरी है।

समझना होगा कि बागवानी सिर्फ फल ही नहीं देती, किसान को समृद्धि, सेहत और वायुमण्डल कोे ढेर सारी आॅक्सीजन देती है। मेरा मानना है कि बागवानी की ज़मीन को बहुफसली की श्रेणी में रखकर अधिग्रहण से मुक्ति सुनिश्चित किया जाए। बागवानी भूमि का अलग से रिकाॅर्ड रखने की भी जरूरत है।

2. बंजर ज़मीन का अलग से रिकाॅर्ड रखा जाएगा। यह अच्छा विचार है। किन्तु इसके साथ सावधानी और शर्त जरूरी है। पहली, यह कि सरकार बंजर ज़मीन का रिकाॅर्ड तो रखे, लेकिन उसका अधिग्रहण तभी करे, जब उसकी जरूरत हो। दूसरा, यह तय करना चाहिए कि प्राथमिक तौर पर बड़ी काश्तकारी वाले इलाकों की बंजर ज़मीनों का ही अधिग्रहण किया जाएगा। बुन्देलखण्ड, उत्तराखण्ड सरीखे इलाके देश की आबोहवा की दृष्टि से अति महत्वपूर्ण पर्यावरणीय टापू हैं। ऐसे इलाकों में किस प्रकार की परियोजना के लिए भूमि अधिग्रहण हो और किस प्रकार की परियोजना के लिए न हो, यह सुनिश्चित करना जरूरी है।

सरकार का काम व्यापारी मुनाफ़ा कमाना अथवा प्राॅपटी डीलर की भाँति कमीशन कमाना नहीं है। फिर भी सरकारी विकास प्रााधिकरण किसान ने औने-पौने दामों में ज़मीनें खरीदते हैं और उन्हें अत्यन्त महंगे दामों में हम नागरिकों को बेचते हैं। किसी भी श्रेणी के मकानों अथवा भूखण्डों का आकलन कर लीजिए, विकास प्राधिकरण यही कर रहे हैं। इसे रोकने के लिए जरूरी है कि भूमि जिस दाम पर भूमि मालिक से ली जाए, उस राशि पर बैंक दर से ब्याज तथा उस भूमि को विकसित करने के लिये किए निर्माण आदि कार्य की वास्तविक लागत को सार्वजनिक किया जाए। ज़मीन अथवा उस पर निर्मित इमारत का बिक्री मूल्य वही हो, जो वास्तविक लागत मूल्य है।

गौर करने की एक बात यह है कि केन्द्र और राज्य.. दोनों स्तर पर बंजर, ऊसर, टांड और बीहड़ भूमि के विकास का कार्य किया जा रहा है। कोई भी बंजर ज़मीन, तीन साल के समय में उपजाऊ बनाई जा सकती है। एक फसली को दो फसली बनाने में भी अधिकतम यही समय लगता है। अतः एक सरकार यह भी सुनिश्चित करे कि जो-जो भूमि, बंजर तथा एक फसली से क्रमशः उपजाऊ तथा दो फसली अथवा बागवानी में तब्दील होती जाएगी, उसेे रिकाॅर्ड से बाहर किया जाता रहेगा।

उक्त संशोधनों और उस पर इस टिप्पणी का लब्बोलुआब जो हो, एक बात का सुकून शायद सभी को होगा कि जन्तर-मन्तर की ज़मीन से शुरू हुई बहस थोड़ी सार्थक हुई है। इसके बहाने किसानों की चिन्ता के कुछ अन्य पहलू भी लोकसभा और नीतिकारों के सामने आए हैं। भूमि संशोधन बिल पर राज्यसभा में मत विभाजन से पहले सरकार द्वारा आगे कुछ और संशोधन पेश करने के संकेत मिले हैं। दुआ कीजिए कि बिल के ज़मीन के उतरने से पहले केन्द्र और राज्यों की सरकारें ज़मीनी हो जाएँ।

 

 

 

 

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading