संभावनाओं के क्षितिज और क्षितिज पर कानून के बादल

save water
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हाशिए पर बैठे समाज और कुछ सामान्य लोगों की बात कहने के पहले पानी के परिदृश्य पर मौजूद विसंगतियों और खामियों को एक बार जल्दी से याद कर लें जो बुद्धिजीवियों की संगोष्ठियों में अक्सर कही और सुनी जाती हैं। ये विसंगतियां और खामियां पानी के कुप्रबंध, पानी के बंटवारे से जुड़े विवादों, मेरा पानी तेरा पानी के अंतहीन खेल, भ्रमित प्राथमिकताओं या किसी हद तक दिशाहीनता, मौसम बदलाव के कुप्रभाव, जलनीति या संविधान में स्थान पाने की जद्दोजहद करते प्रावधान, कानूनों में मानवीय चेहरे की तलाश या सामानता तथा न्यायोचित बंटवारे के खोजते आयाम हैं।इस अध्याय में हम उजली संभावनाओं के क्षितिज तलाशेंगे और उन उजली कहानियों की बानगी देखेंगे जो हाशिए पर बैठे लोगों तथा समाज की उम्मीद जगाती हैं और आश्वस्त करती हैं कि सोच बदलकर जल कष्ट को न्यूनतम जल आपूर्ति की कारगर संभावना में बदला जा सकता है।

इसी बात को जहन में रखकर लेखक ने अब तक कही बातों और विचारों को स्वरूप देने का प्रयास किया है। यह स्वरूप किसी सिद्धांत की तर्ज पर नहीं है वरन उन विचारों की तरह है जिन्हें तराशे जाने के लिए किसी अच्छे शिल्पकार की तलाश है। जिसे समाज की मंजूरी और बुद्धिजीवियों, लोकसेवकों, प्रबंधकों और सरकार के समर्थन की जरूरत है।

उस विश्वास की जरूरत है जो कठिनाइयों के महासागर में लाइटहाउस की तरह काम करे और नए विचारों की बयार को पनपने और परिणाम दिखाने का अवसर प्रदान करे।

इस पृष्ठभूमि में देश के कुछ भागों में समाज सेवा को अपने जीवन का उद्देश्य मानने वाले सामान्य लोगों की उपलब्धियों की कहानी कही गई है जिन्होंने समाज के देशज ज्ञान और मार्गदर्शन से वे परिणाम हासिल किए हैं जो गर्व और ईर्ष्या की मिलीजुली मिसाल हैं।

हाशिए पर बैठे समाज और कुछ सामान्य लोगों की बात कहने के पहले पानी के परिदृश्य पर मौजूद विसंगतियों और खामियों को एक बार जल्दी से याद कर लें जो बुद्धिजीवियों की संगोष्ठियों में अक्सर कही और सुनी जाती हैं। ये विसंगतियां और खामियां पानी के कुप्रबंध, पानी के बंटवारे से जुड़े विवादों, मेरा पानी तेरा पानी के अंतहीन खेल, भ्रमित प्राथमिकताओं या किसी हद तक दिशाहीनता, मौसम बदलाव के कुप्रभाव, जलनीति या संविधान में स्थान पाने की जद्दोजहद करते प्रावधान, कानूनों में मानवीय चेहरे की तलाश या सामानता तथा न्यायोचित बंटवारे के खोजते आयाम हैं। इन्हीं आयामों में सभी जीवधारियों और हमारी धरती का कल छिपा है। पूरे देश और संसार को इसी कल की चिंता है।

देश और दुनिया के सामने दो किस्म के उदाहरण हैं। पहला उदाहरण आधुनिकता के पथ पर तेजी से आगे बढ़ता जल संसाधनों के विकास का मॉडल हैं यह विकास सतही जल और भूजल के उपयोग या दोहन की बुनियाद पर आधारित है।

इस मॉडल का चेहरा उजली उपलब्धियों के साथ-साथ ऊपर के पैराग्राफ में कही विसंगतियों और खामियों के आईने में देखना इसलिए उचित है कि वह चेहरा संसाधनों की प्रगति के फायदों के अलावा समाज और सरकार को कल की संभावित विकृतियों का भान भी कराता है।

गौरतलब है कि इन सभी विकृतियों, विसंगतियों और खामियों की पिछले अध्यायों में काफी चर्चा की जा चुकी है इसलिए उनको दुहराने की जगह दूसरे किस्म के सीमित उदाहरणों की बात की जाए। दूसरे किस्म के उदाहरण सरकार की कार्यप्रणाली के उलट, समाज के बागडोर हाथ में लेने की अवधारणा पर आधारित हैं।

इन उदाहरणों के अंतर्गत अन्ना हजारे ने रालेगांव सिद्धी (महाराष्ट्र) में सूखा प्रवण एवं 450 मिलीमीटर बरसात वाले पहाड़ी गांव में वाटरशेड अवधारणा पर समाज के साथ काम कर पानी की इतनी उपलब्धता जुटा दी कि बिना साइड इफेक्ट के, लोगों के लिए खेती करना फायदे का सौदा बन गया है।

राजेन्द्र सिंह ने अलवर और करौली जिले के कम वर्षा वाले चट्टानी इलाके में सूखी नदियों को जिंदा कर दिया और इलाके को दोफसली सिंचित इलाके में बदल दिया। ये परिणाम प्रशासकीय सरकारी अधिकारियों, जनप्रतिनिधियों, स्वयंसेवी संस्थाओं, आईआईटी के विद्वानों और कृषि वैज्ञानिकों के ध्यान में हैं। ये लोग राजेन्द्र सिंह की सफलता की चर्चा भी करते हैं, पर उस रास्ते पर चलने और समाज आश्रित मॉडल को मुख्यधारा में लाने से वे सभी कतराते प्रतीत होते हैं।

संभावनाओं की कहानी अन्ना हजारे और राजेन्द्र सिंह या पीआर मिश्रा पर खत्म नहीं होती। कुछ और लोग हैं जो अपनी शैली में देश की जनता और जिम्मेदार लोगों से बरसों से चर्चा कर रहे हैं।

1990 के दशक में सेंटर फार साइंस एंड इन्वायरमेंट, नई दिल्ली के अनिल अग्रवाल द्वारा प्रकाशित हरे भरे ग्रामों की ओर का उल्लेख आवश्यक है। इस छोटी-सी किताब ने प्राकृतिक संसाधनों, पर्यावरण और ग्रामीण खुशहाली के रिश्ते को नई परिभाषा दी थी। अनिल अग्रवाल आज भले ही हमारे बीच नहीं हैं पर उनके मिशन को सेंटर फार साइंस एंड इन्वायरमेंट, नई दिल्ली की सुनीता नारायण आगे ले जाने का अनवरत प्रयास कर रही हैं। सेंटर फार साइंस एंड इन्वायरमेंट, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित बूंदों की संस्कृति, पानी को हर व्यक्ति का सरोकार बनाने वाली किताबों और पर्यावरण पर योगदान किसी परिचय का मोहताज नहीं है। देश-विदेश में उनके योगदान को सराहा और सम्मानित किया जाता है, पर सरकार के कार्यक्रमों में वह फिलासफी मुख्य धारा से कोसों दूर है।

गांधी शांति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली के अनुपम मिश्र दूसरे किस्म के साधक हैं। वे, आज भी खरे हैं तालाब, राजस्थान की रजत बूंदे जैसी कालजयी पुस्तकों और पानी पर लिखे जा रहे लेखों की मदद से परंपरागत जल प्रणालियों की कहानी और उसकी सार्थकता को बार-बार देश के सामने लाने के धीर गंभीर यज्ञ में लगे हैं। उनके इस काम से मीडिया, जनप्रतिनिधि, पानी के प्रबंध और योजनाकारों सहित सब परिचित हैं। सरकारें उनके काम की बड़ाई करती हैं और उन्हें सम्मान देती हैं। देश विदेश में उनके योगदान का जिक्र होता है और सराहा जाता है, पर सरकार के कार्यक्रमों में उनके द्वारा बताई राह और फिलासफी मुख्य धारा में नहीं है।

सेंटर फार साइंस एंड इन्वायरमेंट, नई दिल्ली के अनिल अग्रवाल द्वारा प्रकाशित हरे भरे ग्रामों की ओर में राजस्थान के उदयपुर के पास के एक छोटे से गांव सीड़ का उल्लेख है। यह गांव सन 1971 में राजस्थान के ग्राम दान अधिनियम के अंतर्गत पंजीकृत हुआ था।

यह अधिनियम देश के सबसे पहला अधिनियम है जो ग्राम सभा को कानूनी और कार्यकारी अधिकार देता है। यह अधिनियम विनोबा भावे से प्रेरित होकर बना था। इस अधिनियम के अंतर्गत ग्राम को अधिकार होता है कि वह अपने को ग्रामदान गांव घोषित कर दे। मान्यता प्राप्त होने के बाद गांव की ग्रामसभा को अपने इलाके के भीतर के प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंध का अधिकार मिल जाता है जिसके कारण ग्रामसभा को न्याय करने, दंड देने और मुकदमा चलाने का अधिकार मिल जाता है। ग्रामदान गांव होने के कारण सीड़ की ग्रामसभा का, गांव की सीमा में आने वाली पूरी जमीन पर नियंत्रण है।

इसमें सरकारी जमीन और सभी सार्वजनिक संरचनाएं सम्मिलित हैं। गांव के सभी बालिग इसके सदस्य हैं। ग्रामसभा ने सार्वजनिक भूमि के संरक्षण के लिए स्पष्ट नियम बना रखे हैं।

सत्वहीन अरावली में यह भूमि, हरियाली का जीता जागता नखलिस्तान है। अभूतपूर्व सूखे में भी इसके पर्यावरण पर विपरीत प्रभाव देखने में नहीं आता।

सीड़ ग्राम का अनुभव स्पष्ट करता है कि गांधीजी की ग्राम गणतंत्र की पर्यावरण आधारित अवधारणा, गांव की अर्थव्यवस्था को नया जीवन दे सकती है। अनिल अग्रवाल कहते हैं कि जब हर ग्राम में एक सक्रिय सामुदायिक मंच होगा जिसका अपने पर्यावरण, उसके प्रबंध और हिस्सेदारी तय करने पर पूरा नियंत्रण होगा तभी सार्वजनिक संसाधनों का विकास और सुधार किया जा सकता है। अनिल अग्रवाल आगे कहते हैं कि ग्राम गणतंत्र की अवधारणा का कोई विकल्प नहीं है। उपरोक्त विवरण से जाहिर है कि इस गांव में प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंध की बागडोर सरकार के बजाए समाज के हाथ में है।

इस गांव की कहानी बताती है कि समस्या का हल वही बेहतर तरीके से कर सकता है जिसके हित, फायदे-नुकसान समस्या के हल से जुड़े हैं।

राजेन्द्र सिंह के प्रयासों से राजस्थान के अलवर और करौली जिलों में सत नदियां जिंदा हो चुकी हैं। छह एवं सात सितंबर 2008 को महेश्वरा नदी के पुनर्जन्म पर करोली जिले के खिजुरा गांव में जल कुंभ मनाया गया था। इस कार्यक्रम में 80 ग्राम सभाओं ने भाग लिया था। यह गांव केलादेवी से 18 किलोमीटर दूर, सपोटरा की डांग में बसा गूर्जर बहुल इलाका है। यहां से लगभग 8 किलोमीटर दूर से चंबल बहती है। राजीव गांधी फ़ाउंडेशन के प्रोग्राम कोआर्डिनेटर कुलदीप सिंह बताते हैं कि गर्मी में इस इलाके का तापमान 46 डिग्री सेंटीग्रेड तक और सर्दी में तापमान का 2 डिग्री तक पहुंचना आम बात है।

बरसात का मौसम 15 जून से सितंबर की शुरुआत तक और कुल बरसात 550 से 650 मिलीमीटर होती है। बरसात अनियमित है और उसका वितरण असमान हैं ठंड में बरसात सामान्यतः नहीं होती। उनके अनुसार इस इलाके में ऊंट, बकरी, गाय, भैंस, हिरन, बारहसिंघा, सुअर, लकड़बग्घा और नीलगाय बहुतायत से पाए जाते हैं।

गांव के लोग बताते हैं कि इस इलाके की महेश्वरा नदी बरसों से सूखी थी। लगभग 17 सालों के प्रयास के बाद अब नदी बारहमासी हो गई है। इन 17 बरसों में 80 गांवों के लोगों ने इस नदी के आसपास 387 जल संरचनाएं बनाई हैं।

ये संरचनाएं मुख्यतः पोखर, जोहड़, एनीकट हैं जो विंध्यन सेंड स्टोन एवं कहीं-कहीं शैल की परत पर बनी हैं। इलाके में मिट्टी की परत का लगभग अभाव है। यह इलाका रणथंभौर अभ्यारण्य का हिस्सा है पर वृक्षों एवं हरियाली के नाम पर देशी बबूल और कहीं-कहीं घास देखी जाती थी।

समाज के प्रयास से हरियाली लौट आई है, महेश्वरा नदी सदानीरा हो गई है और खरीफ में बासमती चावल और बाजरा बोया जाता है। रबी में गेहूं की फसल ली जाती है। लोगों को बासमती चावल से प्रति बीघा 9000 रुपयों की आय होने लगी है। महेश्वरा नदी के जिंदा होने से-

1. नदी में जलचरों तथा पानी में पैदा होने वाली वनस्पतियों के सुखी जीवन के लिए आधारभूत न्यूनतम जल प्रवाह सुनिश्चित हुआ है।
2. गरीब लोगों की रोजी रोटी सुनिश्चित हुई है।
3. किनारे पर रहने वाले लोगों की सिंचाई जरूरतें पूरी हुई हैं।
4. नदी का पानी प्रदूषण मुक्त रहा है और उसकी गुणवत्ता जीवनदायिनी है।
5. जल प्रवाह में सिल्ट की मात्रा न्यूनतम स्तर तक आ गई है।

अलवर के एक छोटे से गांव ‘देव का देवरा’ में 10 जून, 2000 को अरवरी नदी की संसद का पहला सत्र लगाया गया। इस बैठक में अरवरी नदी के किनारे बसे 70 गांवों के लोग सम्मिलित हुए। इन लोगों ने सूखे की स्थिति के विभिन्न पहलुओं पर अपने नजरिए से गंभीर विचार विमर्श किया।

उन्हें लगा कि पानी और हरियाली बचाने का काम पूरी तरह सरकार या नौकरशाही के जिम्मे नहीं छोड़ा जा सकता। इसलिए उन्होंने इस काम का जिम्मा अपने हाथ में लेने का फैसला लिया। उन्होंने यह भी फैसला लिया कि आगे से जंगल से केवल सूखी लकड़ी ही बीनकर लाई जाएगी। कुल्हाड़ी लेकर जंगल जाने वाले पर जुर्माना लगाने का भी फैसला हुआ। जंगल कटते देखने वाले और उसकी शिकायत नहीं करने वालों पर भी दंड की राशि तय की गई। जुर्माना नहीं देने वालों पर सबसे अधिक दंड तय किया गया।

अरवरी संसद की कहानी पानी, समाज और सरकार के रिश्तों के कुछ महत्वपूर्ण पहलुओं पर रोशनी डालती है; इसलिए उसका लेखा जोखा अगले अध्याय में पाठकों में पेश किया जा रहा है।

राजेन्द्र सिंह के साथ काम करने वले समाज ने अलवर और करौली जिलों में रूपारेल, अरवरी, जहाजवाली, सरसा, भगाणी-तिलदेह, महेश्वरा और साबी (कुल सात) नदियों को जिंदा कर सिद्ध किया है कि नदी तंत्र हकीकत में जीवंत पर्यावरण के चलते समाज की जीवन रेखा भी है। कुछ लोग लेखक की इस टीप से सहमत हो सकते हैं कि पानी और समाज का सीधा-सीधा मेल परिणाम देने में अधिक कारगर हो सकता है।

बरसात के पानी को सहेजने और रीचार्ज करने के लिए कुएं अधिक सक्षम थे। उसने सन् 2002 में काकोला गांव के सभी कुओं को नहर के माध्यम से इस प्रकार जोड़ा कि बरसात का सारा-का-सारा पानी उनमें एकत्रित हो सके। उस इलाके की धारवाड़ युग की चट्टानों में मौजूद प्यासे एक्वीफरों ने पानी सहेजने के लिए अपनी झोली फैला दी और बरसात से होने वाली पानी की पूर्ति के कारण पाताल पहुंचा भूजल स्तर ऊपर उठने लगा।इसी कड़ी में कर्नाटक के साधारण किसान बासप्पा की कहानी बहुत दिलचस्प है। पुणे-बेंगलुरु राजमार्ग पर हवेरी जिले के ककोला गांव में इस साधारण किसान ने कुओं को रीचार्ज करने का देशज तरीका अपनाकर 500 से 600 फुट से अधिक गहरे उतरे भूजल स्तर को 100 फुट पर ला दिया। इस गांव के 45 साल के चनवासप्पा शिवप्पा कोम्बाली नाम के साधारण किसान के प्रयासों से सन 1980 से जल संकट भोग रहे गांव के 116 कुएं जिंदा हो गए, किसानों का हौसला लौट आया और जिंदा हुए कुओं से फिर सिंचाई शुरू हो गई। जीवन एक बार फिर पटरी पर आ गया। लोग बरसात की बूंदों की हिफाजत करते हैं, उन्हें सहेजते हैं, जल कष्ट की चिंता नहीं करते।

बासप्पा की कहानी दिलचस्प है। उसने सात साल पहले कालाघटगी तालुक के सोरासेट्ईकोप्पा गांव में आयोजित ग्रीन फ़ेस्टिवल में भाग लिया था। इस कार्यक्रम के दौरान उसे रेन वाटर हार्वेस्टिंग की जानकारी मिली। इस कार्यक्रम के आयोजकों ने फार्म पौंड की श्रृंखला को आपस में जोड़ने की वकालत की थी। बासप्पा ने इस विचार को काकोला की हकीकत के मद्देनजर अपने देशज अंदाज में देखा और फार्म पौंड को आपस में जोड़ने की फिलासफी को अपने नजरिए से आंका। बासप्पा के सोच ने उसे नई दिशा दी और उसने गांव के सारे कुओं को नहरों से जोड़ने के बारे में निर्णय लिया।

उसकी नजर में एक कुएं की पानी सहेजने की क्षमता दस फार्म पौंड के बराबर थी अर्थात बरसात के पानी को सहेजने और रीचार्ज करने के लिए कुएं अधिक सक्षम थे। उसने सन् 2002 में काकोला गांव के सभी कुओं को नहर के माध्यम से इस प्रकार जोड़ा कि बरसात का सारा-का-सारा पानी उनमें एकत्रित हो सके। उस इलाके की धारवाड़ युग की चट्टानों में मौजूद प्यासे एक्वीफरों ने पानी सहेजने के लिए अपनी झोली फैला दी और बरसात से होने वाली पानी की पूर्ति के कारण पाताल पहुंचा भूजल स्तर ऊपर उठने लगा। भूजल दोहन और प्राकृतिक पूर्ति का समीकरण, पूर्ति के पक्ष में होने के कारण हर साल पाताली पानी का स्तर ऊपर उठा और धीरे-धीरे हालात सुधर गए।

गौरतलब है कि कुछ साल पहले तक काकोला गांव में पानी की उपलब्धता अच्छी थी। लोग पान की खेती करते थे। सन 1980 के शुरुआती दिनों में कुछ कंपनियों ने गांव के लोगों को पान के उत्पादन के लिए आकर्षक कीमतें देने का प्रस्ताव किया।

बेहतर कीमतों के लालच में लोगों ने पान की पैदावार लेना शुरू किया। शुरू-शुरू में किसानों को अच्छी कीमतें मिलीं पर पानी की खपत बढ़ने के कारण, यह दौर खत्म होने लगा। कुएं सूखने लगे। तब लोगों ने नलकूपों का उपयोग शुरू किया पर नलकूपों ने भी लंबे समय तक साथ नहीं दिया। भूजल धीरे-धीरे पाताल में पहुंच गया, पान की खेती की बर्बादी के साथ-साथ किसानों की आर्थिक और सामाजिक स्थिति खराब होने लगी।

इसी दौर में बासप्पा ने बरसात की हर बूंद को सहेजने का काम करने का बीड़ा उठाया और अपने इरादे के बारे में लोगों को बताया तथा साथ देने के लिए कहा। गांव के लोगों ने उन्हें निराश किया। लोगों को उनके मंतव्य पर भरोसा ही नहीं था। इस प्रारंभिक असफलता ने बासप्पा को दुखी तो किया पर वे निराश नहीं हुए और कुदाली उठाकर बरसात के पानी को कुओं में डालने के लिए नहरें बनाने के काम में जुट गए। कुछ काम खुद किया तो कुछ काम खुद के पैसे से मजदूरों से कराया।

इस दौर में सरकार या समाज से उन्हें कोई मदद नहीं मिली पर बासप्पा अपनी कुदाल की मदद से बदलाव की नई इबारत लिखते रहे।

सन् 2002 की बरसात में रन ऑफ न नहरों के नेटवर्क की सहायता से आपस में जुड़े कुओं को ऊपर तक भर दिया। गांव की जियोलॉजी ने रीचार्ज की माकूल परिस्थितियों को पैदा किया। बरसात के बाद परिणाम सामने आए। इस परिणाम के बाद बासप्पा ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। पूरा गांव इस जल सत्याग्रही के साथ जुड़ गया और जल संचय की मुहिम को श्रमदान की आहुतियों से नवाजा गया। गांव के सारे कुएं, नहरों के नेटवर्क से जुड़ गए। भूजल स्तर धीरे-धीरे लगभग 400 फुट ऊपर उठकर 100 से 120 फुट पर आ गया। लगभग 400 एकड़ जमीन की सिंचाई बहाल हो गई। इस पूरे काम को गांव के लोगों ने अपने श्रम और पैसे से पूरा किया।

काकोला के सरपंच बीरप्पा अधिनावार बताते हैं कि भूजल उपलब्धता बढ़ने के कारण गांव के लगभग 800 परिवारों को फायदा हुआ है। यह कहानी पानी और समाज के रिश्ते की कहानी है। इस कहानी में सरकार या सरकारी अमले की भूमिका या दखलंदाजी नहीं है। तकनीक, कायदे कानून, पैसा और श्रम गांव वालों का ही है।

बासप्पा की कहानी का तकनीकी पक्ष बहुत महत्वपूर्ण है। काकोला में सफलता उस गांव की जमीन के नीचे मिलने वाली आग्नेय और उनके गुणधर्मों से मिलती-जुलती अन्य चट्टानों के कारण है। जमीन के नीचे पाई जाने वाली इन चट्टानों में पानी सहेजने के गुण प्राकृतिक रूप से मौजूद थे। इन्हीं गुणों के कारण सन 1980 के पहले आवश्यकतानुसार पानी मिलता था।

पान की खेती के लिए जब पानी का दोहन बढ़ा तो वह पूर्ति की तुलना में अधिक हो गया। इसीलिए संकट की शुरुआत हुई और पानी 500 फुट नीचे चला गया। तकनीकी भाषा में सामान्य प्राकृतिक रीचार्ज और भूजल दोहन का संतुलन बिगड़ा जिसके कारण सामान्य बरसात द्वारा होने वाला रीचार्ज कम पड़ने लगा और एक्वीफर आधे-अधूरे भरने लगे पर जब कुओं को आपस में जुड़कर एक्वीफर में अधिक पानी पहुंचाया तो अधिक मात्रा में रीचार्ज हुआ और मांग की तुलना में अधिक पूर्ति होने के कारण भूजल स्तर में बढ़ोतरी दर्ज हुई। यही कहानी का तकनीकी पक्ष है जिसे समाज की सहज बुद्धि ने अपनाकर समस्या का हल खोज निकाला।

केरल के पेरूमेट्टी पंचायत और हिन्दुस्तान कोका कोला बेवरिज प्राइवेट लिमिटेड की कहानी तो दिए और तूफान की लड़ाई की कहानी से बढ़कर है। इस कहानी में परिणाम कुछ भी रहा हो पर पानी से जुड़े वे मुद्दे देश के सामने यक्षप्रश्न बनकर पेश हुए हैं जिनका समाधान जल परिदृश्य को प्रभावित करता है, समाधान की मांग करता है और कार्यपालिका तथा विधायिका से स्थायी हल की मांग करता है। कहानी की खास-खास बातें और मुख्य घटनाएं निम्नानुसार हैं-

1. हिन्दुस्तान कोका कोला बेवरिज प्राइवेट लिमिटेड ने 8 अक्टूबर 1999 को प्लाचीमाड़ा गांव में बाटलिंग प्लांट स्थापित करने के लिए पेरूमेट्टी पंचायत को दरख्वास्त दी।
2. पेरूमेट्टी पंचायत ने 27 जनवरी सन् 2000 को हिन्दुस्तान कोका कोला बेवरिज प्राइवेट लिमिटेड को प्लाचीमाड़ा गांव में फैक्टरी लगाने और 2600 हार्सपावर की बिजली का मोटरपंप लगाने की अनुमति दी।
3. कोका कोला फैक्टरी लगने के कारण पंचायत को 4.65 लाख बिल्डिंग का टैक्स, तीस हजार लाइसेंस की फीस और 1.5 लाख प्रोफेशनल टैक्स के रूप में मिले।
4. कोका कोला फैक्टरी लगने के कारण 150 लोगों को स्थायी नौकरी और लगभग 250 लोगों को अस्थायी मजदूरी मिली।
5. सन् 2002 के शुरुआती दिनों में प्लाचीमाड़ा गांव के लोगों को पानी की गुणवत्ता में अंतर अनुभव हुआ।
6. बाद के रासायनिक परीक्षणों में पता चला कि पानी में कैडमियम की मात्रा सुरक्षित सीमा से काफी अधिक है। बीबीसी की जांच में कैडमियम की मात्रा एक किलोग्राम पानी में 100 मिलीग्राम पाई गई। केरल राज्य के प्रदूषण मंडल ने प्लाचीमाड़ा के पानी के नमूनों की जांच जनवरी, अगस्त और सितंबर में की। जांच में भिन्नता पाई गई और कैडमियम की मात्रा क्रमशः शून्य, 201.8 मिलीग्राम प्रति किलोग्राम एवं 36.5 मिलीग्राम प्रति किलोग्राम और कोका कोला की जांच में कैडमियम की मात्रा सुरक्षित सीमा में पाई गई।
7. सन् 2002 के शुरुआती दिनों में पानी की गुणवत्ता की खराबी के कारण प्लाचीमाड़ा के गांव वालों ने 22 अप्रैल 2002 को कोका कोला फैक्टरी के विरुद्ध प्रदर्शन किया।
8. सात अप्रैल 2003 को पेरूमेट्टी पंचायत ने लोगों की शिकायत के आधार पर हिन्दुस्तान कोका कोला बेवरिज प्राइवेट लिमिटेड को दी अनुमति निरस्त कर दी और नौ अप्रैल को कंपनी को नोटिस जारी किया।
9. बाईस अप्रैल 2003 को हिन्दुस्तान कोका कोला बेवरिज प्राइवेट लिमिटेड ने केरल हाईकोर्ट में पेरूमेट्टी पंचायत के नोटिस के विरुद्ध पिटीशन दायर की।
10. 6 मई 2003 को सुनवाई के लिए हिन्दुस्तान कोका कोला बेवरिज प्राइवेट लिमिटेड के प्रतिनिधि पेरूमेट्टी पंचायत के सामने पेश हुए। पंचायत ने अपने फैसले को यथावत रखा।
11. सोलह मई 2003 को केरल हाईकोर्ट ने पंचायत के फैसले पर रोक लगा दी और कोका कोला फैक्टरी को राज्य सरकार के स्थानीय प्रशासन विभाग के समक्ष पिटीशन पेश करने को कहा। कोका कोला ने 22 मई 2003 को स्थानीय प्रशासन विभाग के समक्ष पिटीशन दायर की। स्थानीय प्रशासन विभाग ने दोनों पक्षों को सुना और 13 अक्टूबर 2003 के अपने आदेश में कोका कोला का पक्ष लिया और पंचायत के आदेश पर प्रश्नचिन्ह लगाया और उसे एक्सपर्ट कमेटी गठित करने का आदेश दिया। पंचायत ने स्थानीय प्रशासन विभाग के आदेश के विरूद्ध केरल हाईकोर्ट में अपील की।
12. केरल हाईकोर्ट ने पंचायत के हक में फैसला दिया पर कोका कोला ने उच्चतम न्यायालय में फैसले के विरुद्ध अपील की। तकनीकी नुक्ते के कारण उच्चतम न्यायालय में पंचायत की हार हुई।

इस प्रकरण में केरल राज्य के सरकारी विभागों की टिप्पणियां (डाउन टू अर्थ, दिसंबर 15, 2003, पेज 15 से 18) उल्लेखनीय हैं। राज्य के भूमिगत जल विभाग के आंकड़ों के अनुसार अप्रैल 2002 और मई 2003 के बीच प्लाचीमाड़ा गांव के 19 में से 11 कुओं के जल स्तर में बहुत अधिक गिरावट देखी गई है। यह गिरावट क्षेत्रीय स्तर पर भी मौजूद है। इस गिरावट के बावजूद विभाग ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। केरल राज्य के प्रदूषण मंडल के मुखिया का मानना है कि इस मामले का संबंध भूजल विभाग से है। भूजल विभाग की नवंबर 2002 की रिपोर्ट के अनुसार कुओं का पानी में कुल घुलित लवणों की मात्रा में बढ़ोतरी पाई गई है। इस पूरे प्रकरण में पंचायत सरपंच ए. कृष्णन की टीप उल्लेखनीय है। वे कहते है कि चूंकि पंचायत ने कंपनी को लाइसेंस प्रदान किया है इसलिए उसे कंपनी से जानकारी मांगने का पूरा-पूरा हक है।

केरल राज्य के प्लाचीमाड़ा गांव की कहानी में समाज और सरकार आमने सामने हैं। स्थानीय प्रशासन विभाग के फैसले से लगता है कि सरकार की नियत कंपनी को मदद करने की है। पंचायत अपने आर्थिक लाभ और समाज नौकरी और रोजगार के अवसर का त्याग कर पानी के लिए एकजुट खड़ा है। यह कहानी पानी, समाज और सरकार के समीकरण को बखान करती है।

छत्तीसगढ़ में शिवनाथ नदी के 23.5 किलोमीटर की लंबाई में उपलब्ध पानी को लीज पर देने की कहानी तत्कालीन मध्य प्रदेश औद्योगिक केन्द्र विकास निगम और रेडियस वाटर लिमिटेड के बीच हुए समझौते के बाद शुरू हुई। यह कहानी सरकारी फैसले को समाज द्वारा नकारने की कहानी है जो समाज की जरूरतों और अपेक्षाओं तथा सरकारी नीतियों के बीच की खाई को दर्शाती है। यह समझौता दुर्ग जिले में स्थित जिले में स्थित बोरई औद्योगिक क्षेत्र में प्रस्तावित इकाइयों को पानी की नियमित जलापूर्ति के लिए किया गया था। इस फैसले के अनुसार रेडियस वाटर लिमिटेड (निजी कंपनी) अपनी पूंजी लगाकर पानी को जमा करने के लिए आवश्यक निर्माण कार्य करेगी।

निर्माण कार्यों में अपनी विशेषज्ञता का उपयोग करेगी, जलपूर्ति संयंत्र का संचालन और प्रबंध करेगी। पानी का संरक्षण कर उसकी आपूर्ति सुनिश्चित करेगी। यह काम बनाओ, संभालों, संचालित करो और अंत में ट्रांसफर करो (Boot Build Operate, Own and Transfer) समझौते के आधार पर किया गया था। इस समझौते के बिन्दु 5.3 के अनुसार राज्य सरकार को रेडियस वाटर लिमिटेड से प्रतिदिन चार मिलियन लीटर पानी खरीदना और उसकी लागत का भुगतान अनिर्वाय था।

अनुबंध में लिखी शर्तों के कारण, पानी की कम खरीदी की हालत में सरकार को 40 लाख लीटर पानी की कीमत का ही भुगतान करना था। इस अनुबंध के लागू होने के बाद कंपनी ने नदी के किनारे रहने वाले लोगों को पानी का उपयोग करने से वंचित कर दिया। गौरतलब है कि अनुबंध में कहीं भी यह प्रावधान नहीं है कि कंपनी गांव के लोगों को पानी लेने या उपयोग में लेने के अधिकार से वंचित कर सकती है। अनुबंध में साफ उल्लेख है कि बैराज के नीचे की ओर पानी नियमित रूप से उपलब्ध होगा।

उल्लेखनीय है कि अनुबंध के बाद रेडियस वाटर लिमिटेड ने नदी के 23.5 किलोमीटर लंबे नदी पथ (जलक्षेत्र) के पानी पर अपनी मिल्कियत कायम कर समाज को पानी लेने से वंचित कर दिया था।

शिवनाथ नदी की कहानी का कानूनी पक्ष जानना दिलचस्प है। छत्तीसगढ़ राज्य की जलनीति का पैरा 4.2 (2) जल संसाधनों के विकास में निजी निवेश का स्वागत करता है और पैरा 4.3 (3) तो औद्योगिक इलाकों में पानी के वितरण एवं इंतज़ाम के लिए निजी क्षेत्र के स्वागत के लिए पलक पांवड़े बिछाए नजर आता है।

पानी से समाज की अपेक्षाएं, पानी पर नियंत्रण, प्रबंध और नियम कायदों के बारे में गांवों के लोगों का अभिमत प्राप्त किया गया था। इस अध्ययन के सीमित परिणामों से पता चलता है कि पानी के मामले में समाज को अपने द्वारा नियंत्रित नियम कायदों के अधीन, पंचायत के स्थान पर, प्रजातांत्रिक ढांचे अर्थात वाटरशेड कमेटी और उसी गांव की ग्राम सभा पर अधिक विश्वास है।

गौरतलब है कि पानी का स्वामित्व राज्य के जल संसाधन विभाग का है जबकि अनुबंध सरकार के एक निगम ने किया है। अनुबंध की दूसरी खास बात यह है कि अनुबंध के पहले जल संसाधन विभाग (पानी के अधिकृत विभाग) की सहमति नहीं ली गई और प्रक्रियाओं का पालन नहीं किया गया।

खैर सिविल सोसाइटी, एन.जी.ओ. और एक्टिविस्टों के विरोध के कारण कम्पनी से समझौता रद्द हो गया है पर वह लोगों के मन में एक टीस छोड़ गया है। यह टीस कहीं न कहीं सरकार के समाज के प्रति असंवेदनशील व्यवहार और गैरजवाबदारी की भावना का इजहार करती है।

मध्य प्रदेश में सन 1999 में जल संसाधनों के स्वामित्व एवं प्रबंध के अधिकारों पर सरकार, पंचायत, ग्राम सभा या वाटरशेड कमेटी के नियंत्रण पर अभिमत जानने के लिए एक अध्ययन हुआ था। यह अध्ययन ग्रामीण विकास विभाग ने कराया था। इस अध्ययन में उन कतिपय गांवों को सम्मिलित किया गया था जहां जन सहभाग आधारित जलग्रहण विकास कार्यक्रम चल रहा था या पूरा हो चुका था।

इन गांवों में अभिमत एकत्रित करने के लिए स्वयंसेवी संस्थाओं का उपयोग किया गया था और पहले से तैयार प्रपत्रों में किसानों, खेतिहर मजदूरों, शिक्षित, अशिक्षित, गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन करने वाले एवं ग्रामीण उद्यमियों इत्यादि के अभिमत को जाना गया था।

उत्तर देने वाले लोगों में सामान्य, पिछड़ी जाति, अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जन जाति की महिलाओं एवं पुरुषों को सम्मिलित किया गया था। उत्तर देने वालों में वे लोग भी सम्मिलित थे जो विभिन्न कारणों से पलायन करते हैं।

इस अध्ययन में लोगों से गांव में पानी की उपलब्धता की स्थिति, वर्तमान जलनीति की विसंगतियों, भूजल उपयोग के नियम कायदे, प्राथमिकताएं, भूजल दोहन के नियंत्रण में सरकार, पंचायत, ग्रामसभा या वाटरशेड कमेटी के अधिकार, अनियंत्रित जल दोहन व्यवस्था पर समाज के नियंत्रण में समाज की भूमिका और समाज नियंत्रित जल प्रबंध हेतु नीति का विकास इत्यादि पर अभिमत प्राप्त किया गया था।

इस अध्ययन के परिणाम चौंकाने वाले थे। लोगों ने साफ तौर पर पानी पर पंचायत के स्थान पर ग्रामसभा को महत्व देने और समाज के नियंत्रण की वकालत की थी। लेखक को इस अध्ययन से जुड़ने का अवसर मिला था।

पानी से समाज की अपेक्षाएं, पानी पर नियंत्रण, प्रबंध और नियम कायदों के बारे में गांवों के लोगों का अभिमत प्राप्त किया गया था। इस अध्ययन के सीमित परिणामों से पता चलता है कि पानी के मामले में समाज को अपने द्वारा नियंत्रित नियम कायदों के अधीन, पंचायत के स्थान पर, प्रजातांत्रिक ढांचे अर्थात वाटरशेड कमेटी और उसी गांव की ग्राम सभा पर अधिक विश्वास है।

सुखेमाजरी की कहानी के दो अध्याय हैं। पहले अध्याय में इसे सफलता की कहानी के रूप में बरसों सराहा गया था क्योंकि उस दौरान समाज के हाथ में व्यवस्था और फैसलों की बागडोर थी तथा सरकार की भूमिका सहयोगी की थी।

दूसरा अध्याय उस समय सामने आया जब इलाके पर जंगल के कानून ने बागडोर संभाली। जंगल के कानून के बागडोर संभालते ही सुखोमाजरी के लोगों द्वारा स्थापित सामाजिक नियंत्रण एवं लाभों के बंटवारे की व्यवस्था ने दम तोड़ दिया और समाज की उपेक्षा के कारण प्राकृतिक संसाधनों का हाल बदहाल होने लगा।

बदली व्यवस्था और लादे प्रावधानों के कारण लोगों का सुख-चैन और आमदनी का जरिया तिरोहित हो गया। सुखोमाजरी की कहानी पीआर मिश्रा की कहानी नहीं है। वह कहानी है समाज और प्राकृतिक संसाधनों के संबंधों के उत्थान और पतन की। उनको सहेजने और बर्बाद करने की। संभावनाओं के सूरज के उदय या अस्त की कहानी। देश के कानून के बादलों के असर की कहानी है।

मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले का बेलावाड़ा विस्थापित गांव है। सन्1976 में केसला ब्लाक में ताकू के पास सेंट्रल प्रूफ रेंज की स्थापना हुई। सेंट्रल प्रुफ रेंज की स्थापना के कारण प्रभावित इलाके के निवासियों को अन्यत्र बसाया गया। इस बसाहट का एक ठिकाना बेलावाड़ा गांव है। इस गांव में सेंट्रल प्रूफ रेंज के कुछ विस्थापित बसाए गए थे। इन विस्थापितों को तत्कालीन दरों से मुआवजा एवं अनुदान दिय गया था। उन्हें जमीन भी दी गई थी और वे उस जमीन पर काबिज भी हुए थे।

सन् 1996 के आंकड़ों के अनुसार बेलावाड़ा गांव की आबादी 327 थी। बेलावाड़ा गांव का कुल रकबा लगभग 600 हेक्टेयर है। इसमें से लगभग 382 हेक्टेयर जमीन सरकारी है। लगभग 36 प्रतिशत जमीन की मिल्कियत निजी हाथों में है। इस गांव में 1996 के पहले कोदों, कुटकी, मक्का और सोयाबीन की खेती होती थी और औसत उत्पादन लगभग पांच क्विंटल प्रति हेक्टेयर था। सरकार ने इस गांव में एक डैम बनाया था। इस डैम से लगभग 8.6 हेक्टेयर जमीन की सिंचाई होती थी। बाकी सारी जमीन असिंचित थी।

आंकड़े बताते हैं कि 1996 के पहले गांव की लगभग 37 हेक्टेयर जमीन पर ही खेती हो पाती थी। गांव में रोजगार के अवसर नहीं के बराबर थे और लगभग सारे लोग आसपास के शहरों में मजदूरी करने जाते थे। बेलावाड़ा की यह तस्वीर पुनर्वास और सिंचाई विभाग द्वारा बनाए बांध के फायदे मिलने के बाद की है। शायद यह तस्वीर सिद्ध करती है कि एकमुश्त अनुदान आधारित कानून व्यवस्था से भारत में विस्थापित परिवारों का विस्थापन सही तरीके से नहीं हो पाता है।

सन् 1996 से 2001 के बीच बेलावाड़ा में मध्य प्रदेश सरकार ने जन सहभाग पर आधारित वाटरशेड कार्यक्रम संचालित कराया। इस गांव में लगभग 48.35 हेक्टेयर में पानी और मिट्टी के संरक्षण का, 5.82 हेक्टेयर में जंगल लगाने और 3.98 हेक्टेयर में घास लगाई गई।

उपचार के दौरान 14 स्थानों पर मिट्टी के कच्चे बांध बनाए गए। कुल मिलाकर लगभग 27 प्रतिशत जमीन पर प्राकृतिक संसाधनों को बेहतर बनाने के लिए काम किया गया। ये काम पूरे होने के बाद 56 परिवारों ने खेती के काम को जीवनयापन का मुख्य जरिया बनाया।

गांव में खेती का रकबा 37 हेक्टेयर से बढ़कर 113.7 हेक्टेयर हो गया। इसमें से लगभग 100 हेक्टेयर में सिंचाई होने लगी। उपचार के बाद उत्पादन 143 क्विंटल से बढ़कर 565 क्विंटल हो गया।

यह कहानी पानी और समाज के अंतरंग जुड़ाव की कहानी है। इस कहानी में सरकार हाशिए पर और समाज मुख्यधारा में है। गांव में हुआ बदलाव, पानी और समाज के रिश्ते का असर दिखाता है और बताता है कि गांव के लोगों को अनुदान के स्थान पर समृद्ध प्राकृतिक परिवेश देने के बेहतर परिणाम मिलते हैं। समाज द्वारा बनाए कायदे-कानूनों की मदद से आए बदलाव की यह कहानी विभिन्न सरकारी गैर सरकारी परियोजनाओं के विस्थापितों के पुनर्वास का बेहतर मॉडल भी प्रस्तुत करती है।

इन सारे उदाहरणों से केवल एक ही बात उभरती है कि जल संकट से उबरने के लिए अभी भी संभावनाओं के आसमान में उम्मीद का सूरज मौजूद है, वह अभी भी रोशनी बिखेर सकता है। पर क्या इन उदाहरणों में अपनाई गई कार्यशैली को देश का संविधान या कानून मान्यता देता है? आइए इसी बिंदु पर अर्थात पानी पर समाज के मालिकाना हक और अपनी जरूरतों के अनुसार उसकी व्यवस्था करने के अधिकार पर देश के संविधान और कानून में उपलब्ध प्रावधानों को देखने और समझने का प्रयास किया जाए, क्योंकि संभावना के क्षितिज पर यही संवैधानिक एवं कानूनी प्रावधान ही उनके अच्छे बुरे असर का अहसास कराते हैं।

1. भारत की जलनीति (2002) की प्रस्तावना में पानी को आधारभूत मानवीय आवश्यकता और बहुमूल्य राष्ट्रीय पूंजी (नेशनल असेट) कहा गया है। इस उल्लेख के आधार पर कहा जा सकता है कि भारत में पानी जीवन का आधार नहीं वरन महज जीवन की आवश्यकता है। इसके अलावा वह समाज की नहीं सरकार की संपत्ति है। इसलिए समाज, उपयोगकर्ताओं की भीड़ का हिस्सा है। इस उल्लेख के आधार पर कहा जा सकता है कि समाज, पानी को अपनी संपत्ति नहीं कह सकता। सरकारी संपत्ति (पानी) का उपयोग करने या उसक संचय के लिए संरचना बनाने या उसका बंटवारा करने का उसे अधिकार नहीं है। उसे इन कामों को करने के पहले पानी के मालिक अर्थात सरकार या प्रकारांतर से जल संसाधन विभाग से अनुमति लेनी होगी।

2. राष्ट्रीय दृष्टिबोध के अनुसार जल संसाधनों की प्लानिंग, उनका विकास और उनका प्रबंध करने की आवश्यकता है, जिसे समन्वित एवं पर्यावरणी आधार पर सामाजिक और आर्थिक पक्ष को ध्यान में रखकर करना है। इस उल्लेख के आधार पर यह कहा जा सकता है कि भारत में जल संसाधनों की प्लानिंग, उनका विकास और उनका प्रबंध राष्ट्रीय दृष्टिबोध के अनुसार करने की आवश्यकता है अर्थात उसे स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार नहीं किया जा सकता। ऐसा करते समय सामाजिक और आर्थिक पक्ष को ध्यान में रखना होगा। जब पानी से जुड़े सभी काम आर्थिक पक्ष को ध्यान में रखकर किए जाएंगे तब समाज के हितों का क्या होगा?

3. संविधान के 73वें एवं 74वें संशोधन के बाद पानी के प्रबंध का अधिकार पंचायतों और नगरपालिकाओं के हाथ में आ गया है। मोटे तौर पर उपर्युक्त दोनों संस्थाएं अप्रत्यक्ष प्रजातांत्रिक तरीके से काम करती हैं।

उपर्युक्त विवरण से जाहिर है कि अन्ना हजारे, राजेन्द्र सिंह, पीआर मिश्रा या बासप्पा या अन्य किसी भी समाजसेवी के द्वारा समाज की रहनुमाई में किया उपर्युक्त सारा काम गैर कानूनी है। मौजूदा कानूनों के अंतर्गत सरकार और संबंधित सरकारी अमले द्वारा उसे मान्यता नहीं दी जा सकती।

उस काम को करने वालों के विरुद्ध कानूनी कार्यवाही की आवश्यकता है। वे पानी के मालिक नहीं हैं। वे पानी के प्रबंध का काम अपने स्तर पर और अपने तरीके से नहीं कर सकते। वे सरकार को उसकी जिम्मेदारी से बेदखल नहीं कर सकते। यदि उन्हें प्रबंध या संचालन की जिम्मेदारी संभालना है तो उन्हें निजी क्षेत्र की तर्ज पर आगे आना होगा। सरकार से अनुबंध करना होगा। पानी का व्यापार करना होगा और बाद में व्यवस्था को सरकार के हाथ में सौंप कर दूसरे अनुबंध की तैयारी करनी होगी।

दूसरे शब्दों में समाज को बिना अनुबंध और बिना अनुमति के भारत में काम करने का हक नहीं है। इस देश में पानी और सरकार एक हैं और समाज गैर की हैसियत रखता है। यही उजली संभावनाओं का क्षितिज है जिस पर देश के कानून के बादलों का राज्य है।

इसी हकीकत के चलते समाज हाशिये पर है और उसके द्वारा जल संकट से राहत दिलाने वाले प्रयासों, प्रयोग या राह दिखाने वाली पहल को कानूनी मान्यता नहीं है।

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