पर्वतीय इलाकों में बारिश का पानी प्रबन्धन के अभाव में व्यर्थ बह जाता है। अगर इसके संचय का इन्तजाम कर लिया जाए तो मैदान में जल अभाव की समस्या खत्म की जा सकती है।
ठंड का मौसम आ गया है। महीने भर पहले तक पहाड़ में हुई बारिश का ज्यादातर पानी बहकर मैदानी इलाकों को डुबोते हुए समुद्र में जा मिला है। इसके बावजूद पहाड़ी इलाकों में पानी अब भी खूब है। जब तक जाड़ा रहेगा, पानी की खास किल्लत महसूस नहीं होगी, लेकिन जैसे ही बरसात शुरू होगी, पानी की किल्लत को लेकर देश के उन हिस्सों से तनाव की खबरें स्वाभाविक तौर पर आएँगी, जहाँ पानी की कमी होगी। वैसे भी देश के पश्चिमी हिस्से को छोड़ दें तो बाकी इलाकों में बारिश पाँच से पन्द्रह फीसद तक कम हुई है। इसलिये होली बीतते ही पानी का सवाल उठ खड़ा होगा। ऐसे में सवाल तो यह उठना चाहिए कि हिमालयी राज्यों में बारिश के दौरान मिलने वाली अथाह जलराशि का उचित प्रबन्धन वक्त रहते आखिर क्यों नहीं किया जाना चाहिए?
पर्वतीय इलाकों को बरसात के 3-4 महीनों में अथाह जल राशि वर्षा के रूप में प्राप्त होती है, परन्तु उचित प्रबन्धन के अभाव में न सिर्फ यह बहुमूल्य पानी बिना उपयोग के व्यर्थ बह जाता है, वरन इसके कारण पर्वतीय इलाकों में बादल फटना, पहाड़ धँसना आदि प्राकृतिक आपदाओं का सामना स्थानीय लोगों को करना पड़ता है। मैदानी इलाकों में भी इसके चलते लोगों को व्यापक दुष्परिणाम झेलने पड़ते हैं। यह कितनी बड़ी उलटबांसी है कि पहाड़ी इलाकों में भारी बारिश होने के बावजूद पीने और रोजाना के अन्य दूसरे कामों के लिये स्थानीय निवासियों को कई-कई किलोमीटर तक पहाड़ों पर चढ़ना-उतरना पड़ता है। हिमालयी राज्यों में पानी के लिये महिलाओं व छोटे-छोटे बच्चों को हर थोड़ी दूर मेहनत करते-भागते देखा जा सकता है। इन पंक्तियों के लेखक को 1980-1981 की बात याद है, जब वह 4-5 वर्ष का था। तब उसकी बड़ी बहन 7-8 वर्ष की थी। तब उत्तराखण्ड के टिहरी में पानी लेने के लिये उन बच्चों को कभी ‘एक धारा’ कभी ‘तीन धारा’ जाना पड़ता था। इस हालात में कम-से-कम पहाड़ के ऊपरी इलाकों में ज्यादा बदलाव नहीं आ पाया है। आज भी देश के पर्वतीय क्षेत्रों में पानी लाने के लिये कितनी मेहनत करनी पड़ती है, यह मैदानी व महानगरों में रहने वाले नहीं समझ सकते।
पहाड़ों में दो तरह से जल प्राप्त होता है, एक वर्षा द्वारा व दूसरा ग्लेशियरों और प्राकृतिक झरनों द्वारा। चिन्ता की बात यह है कि जल के दोनों माध्यमों से प्राप्त जल का उपयोग राज्यों के विकास में नहीं हो पाता है। पर्वतीय राज्यों में वर्षा से प्राप्त जल बहुत तेजी से पहाड़ी से नीचे की ओर आता है, जिसकी निकासी के लिये प्राकृतिक रूप से बहुत सारी नदियों जैसी जल संरचनाएँ बन गई हैं, जो वर्षाजल का संग्रहण कर क्षेत्र की निकटतम मुख्य नदियों तक इस जल को ले जाती हैं।
इन बरसाती नदियों या सहायक जलधाराओं में सिर्फ बरसात के दिनों में ही भारी मात्रा में जल आता है। बाकी पूरे साल ये सभी जल संरचनाएँ सूखी रहती हैं। बारिश के दिनों में जल के साथ ही बड़ी मात्रा में मिट्टी, पत्थर, वृक्ष, झाड़ियाँ इत्यादि अपने साथ बहा लाती हैं जिसके चलते तराई एवं मैदानी इलाकों की नदियों के तल में गाद भर जाने से और नदियाँ उथली हो जाती हैं, जिससे उनकी जल संवहन क्षमता कम हो जाती है। जब बरसात में वेग के साथ बड़ी मात्रा में जल प्रवाह आता है तो ये अपने साथ-साथ उर्वर भूमि भी बहा ले जाता है। यह अथाह जलराशि गाँव में बाढ़ का कारण बनता है। कहीं-कहीं नदियों के पाट कई-कई किमी तक चौड़े हो जाते हैं। यदि इन बरसाती नदियों की घाटियों, कम ढालदार स्थान व तराई में उचित दूरी पर चेक डैम, बैराज का निर्माण रोजगार गारंटी योजना के माध्यम से किया जाए तो इन बरसाती नदियों में बारिश के दौरान बहुत सारे छोटे-बड़े जलाशय विकसित हो जाएँगे। बरसात में जब इन नदियों में वर्षाजल बहकर आएगा तो उससे पहला जलाशय फिर दूसरा व इसी तरह क्रमशः सभी जलाशय भर जाएँगे। उसके बाद अवशेष वर्षाजल मुख्य नदी में मिल जाएगा, जिसकी वजह से मैदानी इलाकों में प्रतिवर्ष आने वाली बाढ़ में कमी आएगी, क्योंकि मुख्य नदी में तुलनात्मक रूप से कम जल पहुँचेगा।
नतीजतन मुख्य नदियों में रेत, मिट्टी व गाद भी कम जाएगी व उसके साफ-सफाई में होने वाले खर्च में भी कमी आएगी। इन सभी जलाशयों के कारण भूजल स्तर भी ऊपर उठेगा व निकटवर्ती गाँवों और कस्बों को पीने के लिये व अन्य दैनिक आवश्यकताओं के लिये, मवेशियों के लिये व सिंचाई के लिये अधिक जल उपलब्ध होगा। इन जलाशयों का उपयोग मत्स्य पालन के लिये भी किया जा सकता है। शिक्षित बेरोजगारों को छोटी-छोटी सहकारी समितियाँ बनाकर इस प्रकार के जलाशयों में मत्स्य पालन को प्रोत्साहित किया जा सकता है, जिससे स्थानीय लोगों के लिये रोजगार के नए अवसर भी उपलब्ध होंगे।
पर्वतीय क्षेत्रों में प्राकृतिक रूप से बहुत सारे जलस्रोत हैं, जिनका प्राकृतिक लवणयुक्त शुद्ध जल बड़ी मात्रा में बेकार ही बह जाता है, क्योंकि बहुत से जलस्रोत निर्जन स्थानों पर होने के कारण इनका बहुमूल्य जल तो बिल्कुल भी उपयोग नहीं हो पाता है और कुछ जलस्रोतों का जल केवल कुछ प्रतिशत ही उपयोग स्थानीय लोगों के द्वारा हो पाता है। ऐसे जलस्रोतों को चिन्हित कर उनसे प्राप्त जल को पैककर बेचा जा सकता है। बोतलबन्द पानी का बाजार प्रतिवर्ष लगभग 12 हजार करोड़ रुपये का है और यह 2018 तक बढ़कर लगभग 16 हजार करोड़ तक होने का अनुमान है। प्राकृतिक झरनों व ग्लेशियरों से प्राप्त प्राकृतिक लवणयुक्त शुद्ध जल की माँग उच्च सम्भ्रान्त वर्ग में बहुत तेजी से बढ़ रही है। इसके लिये देश के महानगरों, पाँच सितारा होटलों, एयरपोर्ट पर बहुत बड़ा बाजार उपलब्ध है, जिससे पर्वतीय राज्यों को बहुत बड़ी राशि राजस्व के रूप में हासिल हो सकती है। इन प्राकृतिक झरनों व ग्लेशियरों से प्राप्त बोतल बन्द प्राकृतिक लवणयुक्त शुद्ध जल को बेचकर प्रतिवर्ष भारी धनराशि राजस्व के रूप में प्राप्त की जा सकती है, जिसका उपयोग पर्वतीय इलाकों में विभिन्न नदियों के कैचमेंट एरिया में वृक्षारोपण पर व्यय किया जाना उचित होगा। इससे ग्लोबल वार्मिंग के दुष्प्रभावों को भी कम किया जा सकेगा और भू-क्षरण में कमी होगी। पहाड़ में पानी के प्रबन्धन से मैदान में जल की समस्या खत्म की जा सकती है।
(लेखक उत्तराखण्ड भाजपा कार्यकारिणी के सदस्य हैं)
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