संग्रहित जल का उपयोग एवं वितरण

Irrigation
Irrigation
जब जलापूर्ति कम हो और पौधों की जलावश्यकता को पूर्णरूपेण पूरी नहीं कर सकते हैं तब पौधों की रक्षात्मक क्रिया प्रणाली लागू होती है और उपभोगिक उपयोग को कम एवं सामान्यतः उपज को कम करती है। अधिकांश लघु अवधि वाली फसलों में ऊपरी मृदा सतह की गुड़ाई में केशिका नलिकाओं में टूटन के कारण मृदा सतह पर जल की आपूर्ति में कमी होने से वाष्पन कम होता है। खरपतवारों द्वारा वाष्पोत्सर्जन में होने वाले जल ह्रास को नियंत्रित करने के लिए खरपतवार नियंत्रण आवश्यक है। खेत में फसल लगाने और सिंचाई करने के लिए फसलों की जलावश्यकता का आकलन करना बहुत जरूरी होता है। फसल की सामान्य बढ़वार और उपज के लिए आवश्यक जल की मात्रा जिसका स्रोत कोई भी हो (वर्षा अथवा सिंचाई या दोनों ही) जलावश्यकता कहलाती है। इसमें सम्मिलित होती है - फसल क्षेत्र से होने वाले वाष्पन में जल की हानि, पौधों द्वारा वाष्पोत्सर्जन एवं उनकी उपापचयी (मेटाबोलिक) क्रियाओं में उपयोग आने वाला जल, सिंचाई जल के अनुप्रयोग में जल ह्रास (जल वहन पद्धति में जल का रिसाव/टपकना, खेत पर असमान वितरण, फसल जड़ क्षेत्र के नीचे अंतःस्रवण और खेत की सीमा पर होने वाले सतही अपवाह के कारण बेकार होना), जो कि मितव्ययिता के रूप में अपरिहार्य होता है और विशिष्ट प्रयोजनों हेतु उपयोग में आने वाला जल (भूमि की तैयारी, धान की खेती के लिए जल भराव, लवणों का निक्षालन, आदि)

जल उपयोग का आकलन


आवश्यक जल की पूर्ण आपूर्ति जब सिंचाई द्वारा की जाती है, सिंचाई आवश्यकता ही जल आवश्यकता होती है। मुख्य रूप से पौधों को जल की आवश्यकता भूमि से होने वाले वाष्पन (E) या फसल क्षेत्र में जल सतह से और पौधों के पूर्ण समूह द्वारा अवरोधित वर्षण, वाष्पोत्सर्जन (T) और उपापचयी जरूरतें (Wm), सम्मिलित रूप से उपभोगिक जल उपयोग (CU) के नाम से जाना जाता है।
CU = E + T + Wm

क्योंकि पौधों की उपरोक्त प्रक्रिया में बहुत कम (1% से कम) मात्रा में जल का उपभोग होता है, उपभोग जल उपयोग और वाष्पन-वाष्पोत्सर्जन को लगभग समान माना जाता है। प्रायः जलावश्यकता को सतह पर जल की मिलीमीटर या सेंटीमीटर से गहराई के रूप में समझा जाता है।

स्थूल रूप से सिंचाई की मांग, कुल जल की वह मात्रा है जिसे भू-सतह पर उपयोग करना जरूरी होता है, ताकि यह सुनिश्चित हो जाए कि पर्याप्त मात्रा में जलभूमि में प्रवेश हो और जड़ क्षेत्र की मृदा में शोषित रहकर हर सिंचाई अवधि में वास्तविक आवश्यकता की पूर्ति करे। सिंचाई की कोई भी पद्धति 100 प्रतिशत दक्ष नहीं होती।

शुद्धसिंचाई की मांग जल की वह मात्रा है जो मृदा के प्रभावी जड़ क्षेत्र में मृदा नमी के स्तर को क्षेत्र क्षमता (फील्ड कैपेसिटी) तक ले आए। यह क्षेत्र क्षमता और मृदा में सिंचाई के पूर्व नमी की मात्रा के बीच का अंतर होता है। क्षेत्र क्षमता - उष्मक शुष्क भार के आधार पर मृदा में नमी की वह मात्रा होती है जब मृदा पूर्णतया जल से संतृप्त हो तथा फालतू (गुरुत्व) जल का नीचे की ओर रिसाव बंद हो गया हो। यह स्थिति संतृप्तावस्था के 48 से 72 घंटे बाद आ जाती है।

फसल की जलावश्यकता को प्रभावित करने वाले कारक


फसलों की जलावश्यकता एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में भिन्न होती है। फसल की जलावश्यकता को प्रभावित करने वाले मुख्य कारकों का विवरण निम्नांकित है:

जलवायवीय कारक


वर्षण, सौर विकिरण, ताप, आपेक्षिक आर्द्रता, हवा का वेग एवं इसकी उग्रता फसल के आसापस गर्म एवं शुष्क हवा), वाष्पन-वाष्पोत्सर्जन को प्रभावित करते हैं। उच्चतर ताप, हवा की गति एवं सौर विकिरण फसल की जल मांग में वृद्धि करते हैं, जबकि उच्च आर्द्रता, वाष्पन-वाष्पोत्सर्जन को कम करती है। हवा व जल का क्षैतिज चलन वाष्पन - वाष्पोत्सर्जन में वृद्धि करती है। वाष्पन-वाष्पोत्सर्जन ग्रीष्म काल में अधिक होता है, क्योंकि इस अवधि में भू-सतह पर जाड़े की अपेक्षा अधिक सौर ऊर्जा प्राप्त होती है। वर्षण वाष्पन-वाष्पोत्सर्जन को उस अवसर तक प्रभावित करता है तब तक कि वह मृदा सतह तक पहुंचे और फसल के पौधों की जलापूर्ति करे। जलापूर्ति असीमित होने की दशा में वाष्पोत्सजर्जन विभव दर (अधिकतम) पर होता है। इसी प्रकार वाष्पन की विभव दर पर होता है जब मृदा सतह पर जल की उपलब्धता सीमित नहीं होती। पौधों के पास जल की अधिकतम मात्रा होने की स्थिति में वाष्पोत्सर्जन दर के साथ विभव दर स्वतः प्रवृत तुल्यात्मक रूप से बढ़ जाती है। वनस्पतिविहीन भूमि में सिंचाई अथवा वर्षा होने के तुरंत पश्चात वाष्पन अधिक होता है और वह एक या दो दिन बाद तेजी से कम हो जाता है। सिंचाई अथवा वर्षा के कुछ दिन बाद तक वाष्पोत्सर्जन सामान्य दर पर होता है। इसलिए वाष्पन-वाष्पोत्सर्जन वर्षण की अधिक बारंबारता और वर्षण की मात्रा के साथ अधिक हो जाता है।

असिंचित क्षेत्रों में फसल की जलावश्यकता की पूर्ति मुख्य रूप से वर्षा द्वारा होती है और उपभोगिक उपयोग या वाष्पन-वाष्पोत्सर्जन, वर्षा की मात्रा और बारम्बारता पर निर्भर होता है। दूसरी ओर सिंचित क्षेत्रों में वर्षा फसलों को सीधे जलापूर्ति करने के अतिरिक्त सिंचाई के लिए उपलब्ध जल की मात्रा निश्चित करती है।

फसल उगाने का समय एवं वृद्धि की अवस्था


फसल उगाने का समय पौधों द्वारा जल के मौसमी उपयोग को विशेष रूप से प्रभावित करता है और फसल की जलावश्यकता का निर्धारण करने में बोआई और फसल पकाई के वास्तविक आंकड़े महत्वपूर्ण होते हैं। फसल वृद्धि की अवस्था इसकी उपभोगिक उपयोग दर पर मान्य प्रभाव होता है। यह विशेष रूप से वार्षिक फसलों के लिए सार्थक होता है जिनकी वस्तुतः स्पष्ट रूप से वृद्धि की तीन अवस्थाएं होती हैं। ये हैं :

i. पौधों का अभ्युदय और संपूर्ण वानस्पतिक आच्छादन विकास जिस अवधि में उपभोगिक उपयोग दर में कम मान से तेजी से वृद्धि होती है अपनी अधिकतम दर के समीप पहुँचती है;
ii. अधिकतम वानस्पतिक आच्छादन का समय-इस अवधि में उपभोगिक उपभोग दर अधिकतम अथवा उसके समीप हो सकती है, यदि प्रचुर मात्रा में नमी उपलब्ध हो; और
iii. फसल का पकना - जहां अधिकांश फसलों के लिए उपभोगिक दर का कम होना प्रारम्भ होता है।

फसल की विशिष्टताएं


फसलों की प्रजातियों में जल मार्ग भिन्न होती है, क्योंकि उनकी बढ़वार प्रकृति, आच्छादन विकास, पर्ण क्षेत्रफल घातांक, फसल सघनता, समयावधि और वर्ष का समय जब बढ़वार होती है, में भिन्नता होती है। जितनी लंबी फसल अवधि होगी उतनी ही ऊंची जल मांग भी होगी। फसलों की श्रेष्ठ बढ़वार अवधि में अन्य बढ़वार अवधियों की अपेक्षा अधिक जलावश्यकता होती है। अधिक तेज गति से बढ़ने वाली फसलों के साथ तेजी से पर्णीय एवं जड़ों के विकास में वाष्पन-वाष्पोत्सर्जन दर अधिक ऊंची होती है। अधिक विस्तृत आच्छादन वाष्पोत्सर्जन दर बढ़ाता है, मृदा सतह से वाष्पन कम होता है और सौर विकिरण का अधिक मात्रा में पुनःवर्तन होता है। फसल अच्छादन की प्रतिशतता में वृद्धि के साथ ही वाष्पन-वाष्पोत्सर्जन में वृद्धि होती है और जब फसल आच्छादन भू-सतह का 50% होता है, वाष्पन-वाष्पोत्सर्जन अपनी अधिकतम दर पर पहुंच जाता है। फसल सघनता वाष्पन वाष्पोत्सर्जन में उसी रूप में प्रभाव डालता है, जैसे कि फसल आच्छादन वाष्पन-वाष्पोत्स्जन को प्रभावित करता है। पौधों की कम संख्या के साथ वाष्पन-वाष्पोत्सर्जन कम होता है। कम ऊंचाई वाली फसलों की अपेक्षा लंबी फसलों में सौर विकिरण का अधिक अपरोध होता है व अधिक वाष्पन-वाष्पोत्सर्जन होता है। गहरी जड़ों वाली फसलें अधिक गहरी मृदा परतों से अधिक जल खींचती हैं।

मृदा विशिष्टताएं


मृद कारक जैसे जलीय संचालकता और जल शोषण क्षमता जल मांग को प्रभावित करती है। उच्च मृदा नमी स्तर अवस्था में अच्छे (बारीक) गठन वाली मृदाओं की अपेक्षा मोटे गठन वाली मृदाओं की जलीय चालकता अधिक होती है। इसलिए मोटे गठन वाली मृदाओं में अधिक वाष्पन होता है। मृदा सतह पर फसल अवशेष; हल्के रंग की और खुरदरी मृदा सतह (मेड़ें और कुंडें) सौर ऊर्जा को अधिक मात्रा में परावर्तित कर वाष्पन वाष्पोत्सर्जन को कम करती हैं।

कर्षण कारक


जिन क्षेत्रों में मृदा नमी का मुख्य स्रोत सिंचाई है, उसकी मात्रा एवं मौसम में उपलब्ध आपूर्ति दोनों ही उपभोग को प्रभावित करते हैं। जहां जल प्रचुर मात्रा में और सस्ता है, किसानों की प्रवृत्ति आवश्यकता से अधिक सिंचाई करने की होती है। यदि मृदा सतह बारम्बार गीली होने पर और उसके परिणामस्वरूप वाष्पन अधिक हो तो सम्मिलित रूप में वाष्पन एवं वाष्पोत्सर्जन और उपभोगिक उपयोगी बढ़ सकता है। इष्टतम मृदा नमी की अवस्था में अधिक जल का उपभोग कर फसलों की उपज औसत की अपेक्षा अधिक हो सकती है।

जब जलापूर्ति कम हो और पौधों की जलावश्यकता को पूर्णरूपेण पूरी नहीं कर सकते हैं तब पौधों की रक्षात्मक क्रिया प्रणाली लागू होती है और उपभोगिक उपयोग को कम एवं सामान्यतः उपज को कम करती है। अधिकांश लघु अवधि वाली फसलों में ऊपरी मृदा सतह की गुड़ाई में केशिका नलिकाओं में टूटन के कारण मृदा सतह पर जल की आपूर्ति में कमी होने से वाष्पन कम होता है। खरपतवारों द्वारा वाष्पोत्सर्जन में होने वाले जल ह्रास को नियंत्रित करने के लिए खरपतवार नियंत्रण आवश्यक है। उर्वरक अनुप्रयोग से जैविक पदार्थ का अधिक उत्पादन तथा जड़ पद्धति का अधिक एवं गहराई तक विकास होने के कारण वाष्पन-वाष्पोत्सर्जन अधिक होता है।

जल उत्तोलन (वाटर लिफ्टिंग) पद्धतियां : परम्परागत एवं आधुनिक


सिंचाई हेतु उपलब्ध जल जब खेत की सतह से नीचे गहराई में हो तब उसे खेत के तल तक उठाने की आवश्यकता होती है। नलकूप और नदियों तथा नालों से जल को ऊपर उठाना प्रायः सामान्य है और यह लिफ्ट सिंचाई के उदाहरण हैं। विभिन्न उपकरणों को प्रयोग में लाने के लिए उपयोग में लाई जाने वाली शक्ति के प्रकार पर आधारित जल उठाने वाले उपकरणों को निम्नांकित चार वर्गों में बांट जा सकता है । ये है :

i. मानवीय शक्ति चालित उपकरण;
ii. पशु शक्ति चालित उपकरण;
iii. यांत्रिक शक्ति चालित उपकरण; और
iv. अन्य शक्ति के स्रोतों (हवा एवं सौर ऊर्जा) द्वारा चालित उपकरण।

मानवीय एवं पशु शक्ति चालित उपकरणों को परंपरागत जल उठाने वाले उपकरण एवं अन्य को आधुनिक उपकरणों के नामों से जाना जाता है।

परंपरागत जल उत्तोलन पद्धतियां


कलछी (स्कूप)


यह जल उत्तोलन की एक प्राचीन विधि है। सिंचाई के लिए कम गहराई से जल उठाने हेतु साधारण बेलचा की तरह के स्कूप का उपयोग किया जाता है। इस उद्देश्य की पूर्ति केवल एक आदमी की आवश्यकता होती है।

झूलती टोकरी (बेडी)


इस सिंचाई उपकरण में एक छोटी नावनुमा टोकरी में चारों कोनों पर चार रस्सियां जुड़ी होती हैं। आमने सामने दो-दो आदमी खड़े होकर रस्सी का छोर पकड़ते हुए टोकरी को अपने बीच झुलाते हैं। टोकरी को जल से भरने के लिए जल स्रोत (निकट के नाले अथवा छोटी जल संग्रहण संरचना) में लटकाया जाता है और उसे भरकर ऊपर उठाकर नजदीक की वहन नाली अथवा सीधे खेत में उंड़ेल दिया जाता है। इसी प्रक्रिया को लगातार करते हुए छोटी-छोटी जोतों की सिंचाई की जाती है। इस उपकरण के द्वारा एक मीटर से अधिक गहराई वाले जल स्रोत से प्रायः जल नहीं उठाया जाता है। इस विधि से लगभग 3600-5000 लीटर प्रतिघंटा की दर से जल को ऊपर उठाया जा सकता है।

ढेंकली


इस उपकरण का प्रयोग प्रायः उथले कुओं, जलधाराओं तथा तालाबों से जल उठाने के लिए किया जाता है। इस उपकरण में लकड़ी की एक लम्बी बल्ली (खम्भे की तरह की) होती है, जिसे उत्तोलक की भांति किसी खड़ी छड़ (अर्गला) या अन्य सहारे पर लगाई जाती है। उत्तोलक के छोटे सिरे पर एक बड़े पत्थर अथवा रेती भरे थैले के रूप में बोझ बांध दिया जाता है। यह बोझ उत्तोलक के लंबे सिरे से लगी हुई छड़ या रस्सी से लटकी बाल्टी के लिए प्रति संतुलन/प्रतिभार का कार्य करता है। बाल्टी प्रायः धातु की बनी होती है। इस उपकरण को चलाने के लिए एक व्यक्ति रस्सी को नीचे की ओर छोड़ता है, जिससे बाल्टी में जल भर जाए। रस्सी को छोड़ने पर बल्ली में लगे बोझ के कारण बाल्टी अपने आप ऊपर उठ जाती है और ऊपर तक आ जाती है। प्रतिभार लगभग 1 से 3 मीटर के बीच ऊपर उठ सकता है।

रस्सा और डोल


राजस्थान में इस पद्धति को साधारणतया चरस के नाम से जाना जाता है। यह गहरे खुले उत्खनित कुओं से जल उठाने के लिए पशुशक्ति चालित उपकरणों में सबसे अधिक प्रचलित एवं उपयोग में लाए जाने वाला उपकरण है। चरस चमड़े या जस्तेदार लोहे की चादर का बना हुआ एक बड़ा थैला या बड़ा डोल होता है जिसकी क्षमता 180-225 लीटर तक होती है। इस डोल के ऊपरी हिस्से को मजबूत तार के छल्ले द्वारा मजबूत लम्बी रस्सा (लाव) के एक किनारे से बांध देते हैं। यह रस्सा कुएं के सिरे पर एक घिरनी (जिसे चरखी या भमण भी कहते हैं), जो एक विशेष प्रकार के मोटी लकड़ी से बने ढांचे (जिसका ऊपरी हिस्सा कुएं के किनारे से दूर कुएं की ओर झुका होता है, ताकि डोल कुएं में उतरते व ऊपर चढ़ते समय दीवार से न टकराए) पर लगी होती है, उसके ऊपर से डोल को कुएं में ले जाती है और उसका दूसरा सिर एक जोड़ी बैलों के जुए से जुड़ा रहता है। जब दोनों बैल ढालू (5-10 डिग्री) भूमि (फेरा) पर नीचे की ओर जाते हैं तो डोल कुएं में से जल लेकर ऊपर की ओर उठता है। इस उपकरण को चलाने के लिए एक ऊंट का भी उपयोग किया जाता है। कहीं-कहीं दो बैल जोड़ियां भी उपयोग में लाई जाती हैं, जिसमें एक जोड़ी ऊपर की ओर चलती है, जबकि दूसरी जोड़ी नीचे की ओर जाते हुए डोल को ऊपर खींचती है। जैसे ही डोल कुएं के सबसे ऊपरी छोर पर पहुँचता है, वहां खड़ा हुआ आदमी इसे झुकाकर उलटते हुए एक मांद में खाली कर देता है, जहां से वहन नाली द्वारा सिंचाई के लिए उपयोग में लाया जाता है। यह उपकरण लगभग 30 मीटर या अधिक ऊंचाई तक जल उठाने के लिए उपयुक्त है।

इस उपकरण में स्वतः खाली होने वाले डोल या सुंडिया चरस उपयोग में लिया जाता है, जिसमें डोल को खाली करने के लिए लगने वाली एक आदमी की मजदूरी अथवा श्रम की बचत होती है। इस प्रकार के निचले भाग में चमड़े की नली (टोंटी) लगी होती है। डोल का ऊपरी भाग पूर्व में वर्णित मजबूत भारी रस्से से बंधा होता है जो घिरनी के ऊपर से जाती है और डोल की नली के निचले सिरे पर एक मजबूत पतली रस्सी बंधी होती है। यह रस्सी मांद के सिरे पर लगे बेलन के ऊपर से गुजरती है। दोनों रस्सियों को एक साथ जोड़कर बैलों के जुए से बांध देते हैं। इन रस्सियों की लम्बाई इतनी रखी जाती है कि जब-जब चरस कुएं से बाहर आता है तो उसकी नली मुड़कर दोहरी हो जाती है और जल अपने आप मांद में उलट जाता है।

रहट (पर्शियन व्हील)


रहट में एक बड़े ड्रम के दोनों ओर से होती हुई एक चेन या मोटी रस्सी कुएं के भीतर जल तक जाती है। इस चेन के साथ डोलचियां लगी होती हैं। विशेष आकार में बनी ये डोलचियां प्रायः जस्ता चढ़े लोहे की चादर से बनी होती हैं, लेकिन अनेक क्षेत्रों में मिट्टी की बनी डोलचियां भी उपयोग में लाई जाती हैं। ड्रम की धुरी से ऊर्ध्वाधर गियर तक एक क्षैतिज छड़ लगी होती है। इस ऊर्ध्वाधार गियर के दांत एक बड़े क्षैतिज पहिए के दांतों के साथ फंसे होते हैं। बड़े वाले पहिए की छड़ से एक लंबी क्षैतिज बल्ली जुड़ी होती है, जिसके साथ पशु (बैल अथवा भैंसे) बांधे जाते हैं।

रहट को चलाए जाने पर ड्रम घूमता है जिससे चेन के निचले सिरे पर लगी डोलचियां जल से भर कर ऊपर की ओर उठती हैं और उनके पीछे वाली डोलचियां उनकी जगह लेती हैं और इसी प्रकार क्रम चलता रहता है। ड्रम के ऊपर से भरी डोलचियों के गुजरने पर उनका जल एक मांद में गिरता रहता है जहां से किसी वहन नाली द्वारा खेत तक पहुंच कर सिंचाई हेतु उपयोग में लिया जाता है। रहट में एक रैचेट लगा होता है जो भरी हुई डोलचियों की लड़ी के कारण पहीए और बल्ली का पीछे की ओर जाना रोकता है।

इस विधि का उपयोग जल को लगभग 10 मीटर ऊपर उठाने के लिए किया जा सकता है, लेकिन जल की गहराई 7.5 मीटर से अधिक होने पर इसकी कार्यक्षमता बहुत कम हो जाती है। जल की गहराई बढ़ने के साथ ही डोलचियों की संख्या बढ़ती है और अधिक संख्या में जल भरी डोलचियों के कारण भार बढ़ जाता है, जिसका सीधा असर पशुओं पर होता है। डोलचियों की क्षमता प्रायः 7-14 लीटर तक होती है। रहट से औसतन 10000 लीटर प्रतिघंटा निकाला जा सकता है (लगभग 9 मी. गहराई से)। इसको चलाने के लिए एक आदमी व एक जोड़ी बैलों अथवा भैसों की आवश्यकता होती है। कई स्थानों में जहां जल की गहराई कम (5 मीटर तक) होती है, एक ही शाफ्ट पर दो ड्रम लगाकर डोलचियों की संख्या बढ़ाई जा सकती है। जब काम रोका जाता है तो डोलचियों में भरा जल पेंदे में एक छोटे छिद्र के द्वारा धीरे-धीरे खाली हो जाता है।

यांत्रिक शक्ति चालित उपकरण


यांत्रिक शक्ति चालित जल उठाने वाले उपकरणों को, जो पम्प्स के रूप में प्रमाणित हैं उन्हें विद्युत मोटर या इंजन से प्रचालित किए जाते हैं। इनके उपयोग को बृहद लिफ्ट सिंचाई परियोजनाओं में प्रमुखता मिली है। पम्प एक मशीन होती है जिसे जब जल प्रणाली में प्रस्थापित किया जाता है, बाह्य स्रोत से जल में जल प्रणाली के द्वारा ऊर्जा स्थांतरित करती है। जल को ऊपर उठाने के लिए निम्नांकित सिद्धांत प्रयुक्त होते हैं:

i. वायुमंडलीय दाब;
ii. अपकेंद्री बल;
iii.धनात्मक विस्थापन; और
iv. विशिष्ट घनत्व में अंतर के कारण द्रव के स्तम्भों की गति।

अनेक प्रकार के पम्पस उपलब्ध हैं, जिनमें इन उपरोक्त सिद्धातों में से एक या अधिक का समावेश होता है।

1. विस्थापन

प्रत्यांगामी पंप घूर्णी पंप

लिफ्ट या सक्शन पंप फोर्स पंप एकल एवं द्विक क्रिया

2. अपकेंद्री पंप

विसारक टाइप पंप वॉल्यूट टाइप पंप

 

3. टरबाइन पंप

गहरे कुएं के टरबाइन पंप (ऊर्ध्वाधर टरबाइन पंप) निमज्जक पंप

 

4. नोदक पंप

अक्षीय प्रवा पंप मिश्रित प्रवाह पंप पेंचदार पंप

 

5. एयर लिफ्ट पंप

 

 

 



सिंचाई अथवा अन्य उपयोगों हेतु उपर्युक्त प्रकार के पंपों का उपयोग किया जा सकता है। सिंचाई के प्रयोजन हेतु विस्थापन पंपों तथा अपकेंद्री पंपों का प्रयोग व्यापक रूप से किया जाता है।

जल वितरण एवं सिंचाई पद्धतियां


जल वहन प्रणाली


यह बात बहुत कम समझी जाती है कि फसलोत्पादन हेतु जल संसाधन बहुत दुर्लभ और बहुत कीमती है। यह भी ध्यान देने की बात है कि जितना जल फसल में दिया जाता है उसका एक प्रतिशत से भी कम लाभकर होता है। उपलब्ध जल संसाधनों से अधिकतम लाभ प्राप्ति के लिए अधिकतम विकास, यथोचित वितरण और प्रभावी उपयोग पर बल दिया जाना अतिआवश्यक है।

मुख्य जल स्रोत प्रायः सींची जाने वाली भूमि से दूर होते हैं। स्रोत से उस स्थान पर जहां फसलों द्वारा जल का उपयोग करना है उसके वहन में बहुत बड़ी मात्रा में जल की हानि होती है। यह अनुमान लगाया गया है कि बड़ जलाशयों से सिंचाई के लिए छोड़े जाने वाले का बड़ी मुश्किल से 20% से 40% जल ही फसलोत्पादन हेतु उपलब्ध होता है और शेष जल रिसकर, वाष्पन में या बहकर नष्ट हो जाता है। सिंचाई आयोग (1972) के अनुसार उत्तरी भारत के जलोढ़ मैदानी क्षेत्रों में लगभग 45% जल वहन करने में नष्ट हो जाता है (17% मुख्य शाखा नहर से, 4% वितरण नहर तथा 20% गूलों से)। इसके अतिरिक्त खेत की सिंचाई नालियों में अलग से काफी मात्रा में जल नष्ट होता है। अतः उचित रीति से अभिकल्पित जल वितरण प्रभावी सिंचाई को सरल एवं दक्ष बनाएगी।

फार्म में संचाई वितरण स्रोत से अथवा आपूर्ति स्थल से विभिन्न खेतों तक जल वहन करती है। फार्म में वहन प्रणाली की अभिकल्पना इस प्रकार होनी चाहिए जिसमें हर खेत तक जल वहन करने में जल का न्यूनतम ह्रास हो और किसी प्रकार का अपरदन न हो। फार्म सिंचाई वितरण पद्धतियां सतही सिंचाई विधियों के लिए दो भागों में वर्गीकृत की जा सकती हैं: (i) सतही नालियों द्वारा जल वहन, (ii) अवभूमि बंद नालियों (पाइप) द्वारा जल वहन। सतही नालियों या खुली नालियों को कच्ची अथवा पक्की दोनों तरह से बनाई जाती हैं।

सिंचाई की विधियां


खेत तक जल पहुंच जाने के बाद दूसरा महत्वपूर्ण कार्य होता है उसका समुचित उपयोग। खेत में सिंचाई का जल देने की रीति को सामान्यतया “सिंचाई विधि” के रूप में प्रमाणित किया जाता है। प्रभावी सिंचाई विधियों को निम्नांकित सिद्धातों की अनुपालना करनी चाहिए :

i. पूरे क्षेत्र में फसल की आवश्यकतानुसार जल का वितरण एक सा होना चाहिए;
ii. दिए जाने वाले जल का अधिकांश भाग पौधों के उपयोग हेतु जड़ क्षेत्र में भंडारित रहना चाहिए;
iii. फसल की बढ़वार अनुकूल रूप से प्रभावित होनी चाहिए;
iv. मृदा अपरदन नगण्य होना चाहिए; और
v. उपयोग में लाई जाने वाली विधि आर्थिक दृष्टि से सुदृढ़ एवं फार्म के लिए अनुकूल होनी चाहिए।

मुख्य रूप से पृष्ठीय सिंचाई, बौछार सिंचाई, रिसाव या बूंदिया सिंचाई और अधोभूमि सिंचाई विधियां व्यवहार में लाई जाती हैं। सिंचाई के तरीके के चुनाव पर निम्नांकित कारकों का प्रभाव पड़ता है :

i. भूमि की विशिष्टताएं - स्थलाकृतिक अवस्था अंतःस्यंदन, भूमि में जल स्तर, लवणीयता, मृदा संरचना आदि।
ii. फसल की विशिष्टताएं - सघनता, जड़ विकास, पौधों की बढ़वार का प्रकार।
iii. जल उपलब्धता एवं गुणवत्ता - उपलब्ध्ता के साधन, मात्रा, गुणवत्ता।
iv. मौसमी परिस्थितियां - शुष्कता अथवा आर्द्रता।
v. आर्थिक कारण - संस्थान पर खर्च, प्रचालन में खर्च।

पृष्ठीय सिंचाई


पृष्ठीय सिंचाई विधि में जल सीधे खेत के ऊपरी भाग में बहने वाली नाली से खेत के कुछ भाग में अथवा पूरे खेत में दिया जाता है। जल मृदा को प्लावित करता है और खेत पर परत के रूप में आगे बढ़ता है। खेत में जल का वितरण पट्टियों, द्रोणियों, कुंडों या नालियों द्वारा किया जाता है। खेत में जल वितरण के लिए अपनाई जाने वाली पद्धति पर आधारित पृष्ठीय सिंचाई को अनियंत्रित आप्लावन एवं नियंत्रित आप्लावन विधियों में बांटा जा सकता है।

अनियंत्रित आप्लावन विधि


यह सबसे आदिम और पृष्ठीय सिंचाई की सभी विधियों में सबसे कम नियंत्रित विधि है। इस विधि में खेत के ऊपरी भाग में जल छोड़ा जाता है और क्षेत्र की प्राकृतिक स्थलाकृतिक के अनुसार पूरे खेत में फैलने दिया जाता है। इस विधि में जल का असमान वितरण होता है और खेत का कुछ भाग जलाक्रांत हो जाता है जो कुछ भाग सूखा रह जाता है जिसके फलस्वरूप फसल वृद्धि का आकार भी असमान हो जाता है।

नियंत्रित आप्लावन विधि


खेत को समतल या प्रवणित कर नालियों और डोलों (कम ऊंचाई वाली मेड़े) के द्वारा अनुभाजित किया जाता है। हर प्रखंड में जल को अगुआ किया जाता है। विभिन्न नियंत्रित आप्लावन विधियों का नामकरण खेत को विभाजित करने वाली प्रणाली पर आधारित है। विभिन्न विधियों का विवरण निम्नांकित है :

नकवार (बॉर्डर स्ट्रिप) सिंचाई :


इस विधि में खेत को छोटी मेड़ों द्वारा पट्टियों में बांट दिया जाता है। इसके लिए खेत में पट्टी के नीचे की ओर उपयुक्त ढाल दिया जाता है जो विभिन्न मृदाओं में भिन्न होता है (भारी-चिकनी 0.1 से 0.25, दुमट 0.15 से 0.40, हल्की रेतीली 0.2 से 0.6 प्रतिशत। खेत में जल को सबसे ऊंचे स्थान से जल की उपलब्धता के अनुरूप एक या अधिक पट्टियों में आने दिया जाता है, जो एक पतली परत के रूप में पट्टियों में बहता है तथा जल का बहाव मेड़ों द्वारा नियंत्रित रहता है। पट्टी की चौड़ाई जल के बहाव, प्रतिशत ढाल व भूमि की बनावट के अनुसार तीन से पंद्रह मीटर तक चौड़ी रखी जाती है। संकरी पट्टियां जल के एकसार वितरण में अधिक सहयोगी होती हैं। पट्टी की लम्बाई ढाल व बनावट के अनुसार भिन्न प्रकार की भूमियों में भिन्न होती है (चिकनी 150-250 मी. दुमट -90-150 मी. बलुई 60-90 मी.)। खेत में पट्टी के आखिरी किनारे तक जल पहुंचाने के कुछ मिनट पूर्व ही जलापूर्ति बंद कर दी जाती है जो कि पट्टी की चौड़ाई, धारा का आकार, भूमि ढाल और मृदा के प्रकार पर आधारित होती है।

नकवार सिंचाई विधि से सघन बोई जाने वाली फसलों (जैसे गेहूं, जौ, चना, गन्ना दालें आदि) को सींचा जा सकता है। धान के लिए यह विधि अनुपयक्त है। इस विधि को ऐसी मृदाओं में अपनाई जाती है जो गहराई एवं स्थलाकृतिक अवस्थाओं के कारण भूमि का उचित लागत से समतलीकरण संभव होता है। जिन मृदाओं की अंतर्ग्रहण दरें मध्यम होती है उनमें यह विधि उपयुक्त हती है। अधिक बलुई एवं बहुत भारी मृत्तिकाओं को इस विधि से सींचना अनुपयुक्त रहता है क्योंकि उनमें गहरे अंतःस्रवण या पृष्ठ अपवाह द्वारा जल की अधिक क्षति होती है। नकवार सिंचाई विधि के मुख्य रूप से निम्नांकित लाभ है :

i. आसानी से किसी भी साधारण यंत्र द्वारा जैसे कि हाथ का यंत्र फावड़ा, बैल चालित रिजर या बंड फोरमर या ट्रैक्टर चालित तवेदार मेड़कारी (डिस्क रिजर) आदि से मेड़ें बनाई जा सकती हैं।
ii. इस सिंचाई विधि में मानव श्रम कम लगता है;
iii. जल का वितरण एक सा होता है। जल वितरण एवं जल अनुप्रयोग दक्षता अधिक रहती है;
iv. अधिक मात्रा में निस्सरण (नहर/नलकूपों) की अवस्था में भी सिंचाई अच्छी प्रकार कर सकते हैं; और
v. भूमि (कृषि योग्य) की बर्बादी कम होती है तथा जल निकास की समुचित व्यवस्था हो सकती है (निचले भाग में अधिक भराव को मेड़ तोड़कर जल को निकास नालियों में बहाया जा सकता है)।

क्यारी या चौकेबार द्रोणी सिंचाई :


यह विशेषकर समतल भूमियों में सिंचाई की सर्वाधिक प्रचलित विधि है। सिद्धांत रूप में अन्य सभी सिंचाई की विधियों की अपेक्षा यह विधि सरल है। इस विधि में खेत को इस प्रकार तैयार किया जाता है कि वह या तो समतल हो जाए अथवा लंबाई में मंद रूप से ढलवां हो जाए। इस तरीके में खेत को छोटी मेड़ों से घिरे आयताकार अथवा वर्गाकार खंडों में (क्यारियों) विभाजित कर दिया जाता है, जिन्हें चौकेबार द्रोणी (चैक बेसिन) कहते हैं। क्यारियों के चारों ओर लगाई जाने वाली मेड़ की ऊंचाई क्यारी में भरे जाने वाले जल की मात्रा पर निर्भर होती है। खेत के ऊपरी किनारे से बहने वाली नाली (पूर्ति नाली) से जल क्रमवार क्यारियों में भर दिया जाता है। अगर खेत एकदम समतल हो तो खेत के बीच से भी नाली निकाली जा सकती है जो दोनों ओर की क्यारियों को सींचती है।

यह तरीका बहुत हल्की अथवा बहुत भारी मृदाओं के लिए विशेष रूप से उपयोगी है जिसमें कि अंतःस्यंदन की गति बहुत अधिक या बहुत कम होती है। बहुत भारी मृदा में जहां जल बहुत कठिनाई से शोषित होता है वहां क्यारी में जल भर दिया जाता है जिससे कि धीरे-धीरे रिस सके। हल्की मृदाओं में आवश्यक मात्रा में जल एक सा फैलाया जा सकता है। एक से वितरण हेतु आवश्यक है कि या तो आपूर्ति जलधारा अधिक हो अथवा क्यरियों का आकार छोटा हो जिससे कम से कम समय में क्यारियां भर जाए। सब्जियों के लिए छोटे व धान के लिए बड़े आकार की क्यारियां बनाई जाती हैं। प्रायः क्यारियों का आकार जल की मात्रा, मिट्टी का प्रकार एवं भूमि के ढाल पर निर्भर करता है। रेतीली भूमि में लवणों के निक्षालन या नीचे रिसाव के लिए इस विधि को अपनाना उपयोग रहता है। उबड़-खाबड़ क्षेत्रों में क्यारियों की मेड़ें समोच्च रेखा के साथ बनाना उपयुक्त रहता है। बगीचों में पेड़ों की सिंचाई के लिए वर्गाकार या गोलाकार द्रोणियां/प्याले बनाने चाहिए जिन्हें नाली द्वारा जोड़ दिया जाता है।

इस विधि में क्यारियों की मेड़ें अंतःकर्षण फसल कटाई आदि क्रियाओं तथा पशु अथवा ट्रैक्टर चालित उपकरणों के उपयोग में बाधक होती है। मेड़ें बनाने में धन व श्रम लगता है। जल निकास की उचित व्यवस्था करना कठिन होता है।

कुंड सिंचाई :


ऐसी फसलों हेतु जिन्हें दूर-दूर पंक्तियों में बोते हैं तथा जिनमें बोआई के समय अथवा बाद में डोल बनानी पड़ती है, यह विधि उपयुक्त है। दो पंक्तियों के बीच कुंड में जल छोटी धाराओं में सीधे नीचे की ओर बहाया जाता है जो रिसाव द्वारा मेड़ों में पहुंच जाता है। वर्षा या सिंचाई के जल से होने वाले अपरदन को नियंत्रित करने के लिए कुंडों को समोच्च रेखा के साथ बनाना चाहिए। कुंड में कितना जल कितने समय तक दिया जाना चाहिए यह पौधों के जड़ क्षेत्र में जल कमी व अंतःस्यंदन दर पर निर्भर होता है। कूंडों का अनुप्रस्थ काट पर्याप्त होना चाहिए ताकि उसकी पूरी लंबाई में जल का एक समान वितरण होने के लिए उसमें आवश्यक जल प्रवाहित हो सके। भिन्न परिस्थितियों में भिन्न प्रकार की कुंड प्रयोग में लाई जाती है। ये मुख्यतः – ढालू कुंड समतल कुंड समोच्च कुंड, रमिक कुंड और वलयित कुंड।

इस विधि में खर्च (श्रम पर) अधिक होता है किंतु यह अन्य दो विधियों की अपेक्षा अधिक प्रभावी है। कुंडों का आकार, मृदा का प्रकार, भूमि ढाल, सिंचाई की गहराई, फसल की प्रकृति एवं कर्षण क्रियाओं हेतु उपलब्ध उपकरण पर आधारित। कुंड की लंबाई प्रायः सिंचाई की गहराई में वृद्धि, मृदा की बारीकी और कुछ सीमा तक भूमि ढाल के साथ बढ़ती है। कुंडों की लंबाई बलुई मृदाओं में 60-90 मीटर और दुमट-मृत्तिका मृदाओं में 120-300 मीटर तक रखी जाती है। कुंडों में सिंचाई धारा का प्रवाह 0.5-2.5 लीटर प्रति सेकेंड के बीच में होना चाहिए।

बौछार सिंचाई (स्प्रिंकलर सिंचाई)


इस विधि में जल को पाइपों में अधिक दाब के साथ ले जाकर स्वचालित बौछार यंत्रों की मदद से फसल के ऊपर बौछार या वर्षा की तरह छिड़का जाता है। बौछार की दर इस तरह से नियंत्रित की जाती है कि जल की मात्रा मृदा में अंतःस्यंदन दर से अधिक न हो। यह बौछार छोटे रंध्रों या टोंटियों (फुआरक) के माध्यम से दाब के अंतर्गत जल प्रवाह द्वारा उत्पन्न की जाती है। ऐसा दाब प्रायः पंपिंग द्वारा उत्पन्न होता है। टोंटियों के आकार, राइजरों (सतह के ऊपर कुछ ऊंचाई तक पाइप जिनमें फुहारक लगे होते हैं) की ऊंचाई, प्रचालन दाबों और बौछार यंत्र की दूरी का उपयुक्त चयन करके जल उस दर पर एक समान ढंग से दिया जा सकता है, जो मृदा की अंर्तग्रहण दर पर आधारित हो ताकि अपवाह का नियंत्रण हो सके और भूमि व फसलों को हानि न हो। बौछार सिंचाई प्राय: सभी फसलों (धान एवं गन्ने के अलावा) और अधिकांश मृदाओं (भारी मृत्तिका के अलावा) में उपयोग की जा सकती है। यह विधि निम्नांकित अवस्थाओं में अधिक उपयोगी है :

i. बलुई मृदा और मृदाएं जिनकी अंतःस्यंदन दर अधिक हो;
ii. बहुत उथली मृदाएं, ढालू और ऊंची नीची स्थलाकृति जिन पर बिना समतलीकरण के पृष्ठीय तरीकों से सिंचाई न हो सके;
iii. क्षेत्र जिनमें कीमती/नकदी फसलों का उत्पादन करना हो;
iv. क्षेत्र जहां जल की तथा श्रमिकों की कमी हो;
v. सिंचाई के साथ यदि पोषक तत्व, फफूंदनाशी, खरपतवारनाशी आदि का भी छिड़काव करना है।

पृष्ठीय सिंचाई की तुलना में बौछारी सिंचाई के लाभ


i. गहरे अंतःस्रवण में जल हानि का पूर्ण रूप से परिहार हो जाने से जल का समुचित उपयोग होता है;
ii. नालियों या मेड़ों को बनाने और उनके अनुरक्षण करने की आवश्यकता नहीं होती तथा जल वहन प्रणाली में होने वाले जल का ह्रास भी नहीं होता;iii. नियंत्रित जल उपयोग होने से अनुप्रयोग दक्षता में वृद्धि होती है:
iv. जलाभाव क्षेत्रों के सिंचित क्षेत्र में वृद्धि;
v. भूमि समतलीकरण प्रायः जरूरी नहीं होता; और
vi. सिंचाई जल के साथ उर्वरक और कीटनाशियों आदि का उपयोग आसानी से कर सकते हैं।

पृष्ठीय सिंचाई की तुलना में बौछारी सिंचाई की हानियां


i. प्रारंभिक अवस्था में उपकरण खरीदने में अधिक खर्च और मूल्य में वार्षिक कमी का अधिक होना;
ii. बौछारी उपकरण के प्रतिष्ठान और प्रचालन में तकनीकी कुशलता का उच्च स्तर
iii. सिंचाई जल रेत और अन्य गाद से अपेक्षाकृत मुक्त ना आवश्यक होता है ताकि बौछार छिद्र बंद न हो;
iv. तीव्र वायुगति होने की अवस्थाओं में अनुप्रयोग दक्षता का प्रभावित होना, और जल का पर्याप्त दाब पर होना आवश्यक होता है।

बौछार सिंचाई प्रणालियां साधारणतया स्थाई, अर्धस्थाई और सहज में वहनीय, वर्गों में विभाजित की सकती हैं। स्थाई प्रणाली में पाइप स्थाई रूप से लगे होते हैं। प्रायः पाइप मृदा दाब दिए जाते हैं और वे भूपरिष्करण क्रियाओं में बाधक नहीं बनते। इस प्रकार की प्रणाली की लागत अधिक होती है। स्थाई प्रणाली का उपयोग फल के बागों तथा पौधशालाओं में किया जाता है। अर्धस्थाई प्रणाली में मुख्य व अवमुख्य पाइप लाइनें मृदा में दबी रहती हैं तथा पार्श्विक पाइप और फुहारक राइजर्स के साथ वहनीय होते हैं। यह प्रणाली वहां उपयोग में लाई जाती है, जहां एक ही क्षेत्र प्रतिवर्ष सींचा जाना हो। यद्यपि इनकी स्थापना लागत कम होती है, किंतु श्रम तथा अनुरक्षक खर्चे अधिक होते हैं।

वहनीय प्रणालियां वे होती हैं जहां दोनों मुख्य और पार्श्विक पाइप लाइनें अन्य उपकरणों सहित वहनीय होती है। प्रारंभिक अवस्था में लागत कम होती है किंतु श्रम एवं अनुरक्षण खर्चे अधिक होते हैं। इस प्रणाली में, पाइप लाइनों और फुहारकों पर न्यूनतम स्थाई लागत में बड़ा क्षेत्र सिंचित किया जा सकता है।

बौछार सिंचाई प्रणाली का चयन मुख्य रूप से निर्भर है :

i. फसल की जलावश्यकता;
ii. अधिकतम जल अनुप्रयोग दक्षता की संभावना;
iii. सार्थक लाभ-लागत अनुपातः
iv. मृदा गठन, विशेष रूप से बहुत अधिक सरंध्र प्रकृति वाली मृदा;
v. जल बचत की दृष्टि से अन्य प्रणालियों की तुलना में इस प्रणाली की श्रेष्ठता हो और
vi. उपलब्ध जल की लागत एवं पर्याप्तता।

किसी प्रणाली के चयन का मुख्य उद्देश्य प्रयोग में लाए जाने वाले जल की मात्रा से अधिक उत्पादन के साथ ही अधिक कमाई होनी चाहिए।

फुहार या बूंदिया सिंचाई (ड्रिप-सिंचाई)


यह नई विकसित सिंचाई की प्रणाली है जिसे बूंदिया सिंचाई या टपकने की विधि की सिंचाई प्रणाली कहते हैं। इसका विकास इजरायल में हुआ और आज अनेक देशों में प्रचलित है तथा इसको अधिक प्रभावी बनाने हेतु अनुसंधानकर्ता कार्यरत हैं।

शुष्क एवं अर्धशुष्क क्षेत्रों में जहां जल की दुर्लभता होता है, यह विधि बहुत उपयुक्त है। इस विधि में ट्यूब तथा उसमें बने छिद्रों से जल प्रत्येक पौधे की जड़ के पास बूंद-बूंद करके रिसता है जिससे की पौधों के सक्रिय जड़ क्षेत्र में जल संतृप्तावस्था तय क्षेत्रीय क्षमता के बीच बना रहता है। इससे न तो पौधे को जल की कमी महसूस होती है और न ही जल का व्यर्थ खर्च होता है क्योंकि पौधे का केवल जड़ क्षेत्र ही नम रहता है तथा शेष मृदा सूखी रहती है। प्रतिदिन होने वाले उपभोग-संबंधी उपयोग या मृदा जल में हुई कमी के बराबर नपी तुली मात्रा में जल दिया जाता है। फसल उत्पादन की अवधि में मृदा जल को क्षेत्रीय क्षमता के अनुरूप बनाए रखा जा सकता है। गहरे अंतःस्रवण में होने वाले जल ह्रास को पूर्णरुपेण बचाया और वाष्पन में होने वाले ह्रास को कम किया जा सकता है।

जल का अनुप्रयोग एवं जल वहन करने करने वाली पाइप प्रणालियों की अभिकल्पना उसी क्षेत्र की फसलों के प्रकार, स्थलाकृति और मौसमी अवस्थाओं के अनुरूप करने की जरूरत होती है।

जल आपूर्ति हेतु हैड (उचित जलदाब हेतु जल स्रोत की सतह से ऊंचाई) मुख्य पाइप लाइन, पार्शिवक नलिकाएं तथा उत्सर्जक या टपकने वाला यंत्र बूंदिया सिंचाई के बुनियादी उपकरण हैं। पाइप प्रणाली में प्रवाहित जल को नियंत्रण वाल्व से नियंत्रित किया जाता है और उर्वरकों का उपयोग जलस्रोत पर किया जा सकता है। क्योंकि उत्सर्जक से जल बहुत छोटे छिद्रों के द्वारा निकलता है अतः पाइप प्रणाली में जल वितरण के पूर्व ही छान दिया जाता है।

सघन रूप से बोई जाने वाली फसलों में उत्सर्जक 1 मीटर या अधिक अंतराल पर लगाए जाते हैं। पार्श्विक नलिकाओं के बीच की दूरी फसल या पौधों की पंक्ति से पंक्ति के बीच की दूरी पर निर्भर होती है। यह नजदीक में बोई जान वाली फसलों में 50 से.मी. तक व फल के पौधों में 6 मीटर या अधिक दूरी पर लगाए जाते हैं। पार्श्विक नलिकाओं या उत्सर्जक लाइनें 1 से 1.25 ,. मी. व्यास की लचीले पी.वी.सी. की होती है। पार्शिवक नलिकाओं के खेत में बदलने वाली दूरी के अनुसार व्यवस्थित की जाती हैं। ये नलिकाएं लगभग 50 मीटर लंबी हो सकती है। मुख्य आपूर्ति लाइन को खेत की केंद्रीय लाइन के साथ और पार्शिवक नलिकाएं मुख्य लाइन के दोनों ओर लगाई जा सकती है। उत्सजर्क चंचु (नोजल) से जल टपकता है जिसकी दर बहुत कम 2 से 10 लीटर प्रतिघंटा) होती है जो इनके आकार प्रकार और उपलब्ध दाब पर निर्भर होता है।

बूंदिया सिंचाई प्रणाली के लाभ


i. इस प्रणाली को शुष्क क्षेत्रों में जहां जल की कमी होती है तथा बहुधा खारा होता है लाभदायी रूप से उपयोग में लिया जा सकता है।
ii. इस प्रणाली में खारे (लवणीय) जल को भी सुरक्षित रूप से उपयोग किया जा सकता है ;
iii. उर्वरकों आदि का उपयोग भी सिंचाई जल के साथ हो सकता है;
iv. सूखा उन्मुख क्षेत्रों में जहां जल कम तथा कीमती होता है, उच्च जल अनुप्रयोग दक्षता प्राप्त की जा सकती है (50-75 प्रतिशत बचत);
v. बहुत सरंध्र और अति अपारगम्य मृदाओं में भी उपयोग में लाई जा सकती है;
vi. पौधों की इष्टतम बढ़वार, अच्छा बीज या फल का जमाव और समय से पूर्व परिपक्वता सुनिश्चित होती है क्योंकि मृदा में उपयुक्त जलवायु एवं पौष्टिक तत्वों की उपलब्धता सुरक्षित रहती है;
vii. भूमि समतलीकरण में अधिक लागत लगाने की आवश्यकता नहीं होती;
viii. बौछार प्रणाली से भी कम खर्च होता है;
ix. खरपतार वृद्धि स्वतः नियंत्रित हो जाती है;
x. श्रम की बचत; और
xi. उर्वरक की बचत।

बूंदिया सिंचाई प्रणाली की सीमाएं


i. प्रारंभिक अवस्थापन में अधिक लागत है लेकिन जल की बचत को देखें तो बौछार विधि की अपेक्षा सस्ती है;
ii. यह प्रणाली केवल उन क्षेत्रों में लाभदायक है जिनमें जल की कमी और महँगा होता है और विशेष रूप से शुष्क क्षेत्रों में जहां अधिक कीमती फसलों एवं फलों का उत्पादन किया जाता है;
iii. इसमें बराबर अनुरक्षण की आवश्यकता होती है।हाल ही के वर्षों में जल अनुप्रयोग दक्षता में सुधार हेतु किए गए सतत प्रयासों के फलस्वरूप अनेक रुपांतरित बूंदिया सिंचाई का विकास किया गया है। इनमें से कुछ हैं :

i. सतही ट्रिकल सिंचाई
ii. अधोसतही ट्रिकल सिंचाई
iii. लो हैड बबलर सिंचाई
iv. माइक्रोस्प्रे सिंचाई
v. मिकेनिकल मूव सिंचाई, और
vi. पल्स सिंचाई।

जल देने की नवीन विधियां


जिन क्षेत्रों में जल कम और महंगा है तथा जल की बचत और आर्थिक लाभ प्राप्ति ही मुख्य ध्येय है, कुछ नवीन विधियां भी परीक्षण के अंतर्गत हैं। ये विधियां वनीकरण एवं फलोत्पादन के लिए लाभदायी सिद्ध हुई है, विशेष रूप से उन सूखा संभाव्य क्षेत्रों में जहां पौधे जीवित नहीं रह पाते तथा उनका प्रारंभिक संस्थापन अच्छा नहीं हो पाता है। इन पद्धतियों में व्यावहारिक रूप से अंतःस्रवण एवं वाष्पन में जल का ह्रास होता। इन पद्धतियों में श्रम का आधिक्य होता है किंतु मान्य रूप में जल की बचत होती है।

सरंध्र कटोरा सिंचाई


इस प्रणाली में 500 मि. लीटर क्षमता वाले मिट्टी के सरंध्र कटोरे (प्याले) रोपित पौधों के एक किनारे पर मृदा में गाड़ दिए जाते हैं। हर पौधे के लिए एक अलग प्याला होता है। मौसमी परिवर्तन के आधार पर इन प्यालों को 4-6 दिन के अंतराल पर जल से भर दिए जाते हैं। मृदा आर्द्रता तनाव के कारण इन सरंध्र कटोरों के बाहर जल का रिसाव होता है और जड़ क्षेत्र में पौधे के समीप वाली मृदा को नम करते हैं। प्रायः इस विधि का उपयोग अधिक दूरी पर बोई जाने वाली सब्जियों, फलों और वनीय पौधों की सिंचाई करने के लिए किया जाता है।

मटका सिंचाई


पार्यः दूर-दूर लगाई जाने वाली सब्जी की फसलें और फल के पौधों को इस पद्धति से सींचा जाता है। 2-3 लीटर या अधिक क्षमता वाले मिट्टी के मटके जड़ क्षेत्र के पास मृदा में गाड़ दिए जाते हैं। सरंध्र मटके के पेंदे में एक छोटा छिद्र होता है। मटके के चारों ओर से बाहर जल रिसाव होता है और छिद्र से टपकता भी है, जड़ क्षेत्र के पास मृदा को नम कर देता है। इन मटकों को आवश्यकतानुसार अथवा पूरा खाली हो जाने के पूर्व ही भर दिए जाते हैं। कुछ परीक्षणों में इन्हें मृदा में गाड़ा नहीं जाता बल्कि पेड़ के पास दो ईंट या पत्थर के टुकड़े रख कर उन पर इन मटकों को रख दिया जाता है पेंदे में छिद्र कर एक सूत की रस्सी लगा दी जाती है, जिसके द्वारा जल टपकता है और मृदा को नम करता है। इसी प्रकार कुछ जगहों पर फलों के पेड़ों के पास मटकों के स्थान पर 5-15 लीटर के टिन के डिब्बे भी उपयोग में लाते हैं। इन टिन के डब्बों के बीच एक छिद्र कर अथवा उसके ऊपरी किनारे से एक बहुत कम व्यास वाली नलिका (मरीजों को ड्रिप चढ़ाने में काम आने वाली नलिका) लगाकर साइफन के सिद्धांत के अनुरूप पौधों के पास की मृदा को सींचा जाता है।

अवमृदा सिंचाई


अवमृदा सिंचाई में जड़ क्षेत्र में लगभग 20-25 से.मी. भूसतह के नीचे जल देने की प्रक्रिया सन्निहित होती है।

यह प्रणाली मुख्य रूप से फल एवं वनीय अथवा अन्य पेड़ों को जल देने हेतु ही प्रयोग में ली जाती है। इस सिंचाई पद्धति में बहुत अधिक मात्रा में जल, उर्वरक अथवा कीटनाशकों की बचत के साथ ही पौधों की बढ़वार में स्पष्ट रूप से वृद्धि होती है। इस विधि में जो उपकरण उपयोग में लिया जाता है उसे अवमृदा इंजैक्टर कहते हैं। यह पैरों के दबाव से चलाया जाने वाला चिकित्सा संबंधी पिचकारी (इंजक्शन सिरिज) का विस्तारित प्रारूप है। इस उपकरण में 20 लीटर क्षमता वाले पात्र जरीकेन) जिसे प्रर्वतक की पीठ पर या किसी हाथ से चलने वाली गाड़ी पर ढोया जाता है, के द्वारा पौधों की जलापूर्ति की जाती है। इसका उपयोग बहुत सरल होता है। अवमृदा इंजैक्टर की लंबी और मोटी नोकदार सुई (अंदर से पोली) जिसके निचले आधे हिस्से में छिद्र होते हैं, पेड़ अथवा पौधे के पास 45 डिग्री के कोण पर रख कर हाथों के बल से भूमि में एक ही झटके से धकेल अथवा घुसा दी जाती है। इसके पैडल को पांव के दाब से धीरे धीरे दबाया जाता है। इससे पिस्टन चलता है और एक लीटर जल को लगभग 20-25 से.मी. गहराई पर जो कि इसके अधिकतम उपयोग हेतु आदर्श गहराई है, बाहर निकाल देता है जो पेड़ के जड़ क्षेत्र को नम कर देता है।

इस प्रणाली में वाष्पन द्वारा होने वाली जल की हानि पूर्णरूपेण अवरोधित हो जाती है। यह जड़ों को गहराई में जाने हेतु प्रोत्साहित करता है। जिससे आगे आने वाले सूखे के विरूद्ध सुरक्षा मिलती है। इस उपकरण का उपयोग मृदा में उर्वरक एवं कीटनाशी आदि के अनुप्रयोग में भी किया जाता है। इसके अतिरिक्त खरपतवार की वृद्धि अवरोधित रहती है क्योंकि सतह पर नमी नहीं होती। इस प्रणाली का प्रचलन फल एवं वनीय पौधों के प्रारंभिक प्रभावी अवस्थापन हेतु बढ़ रहा है।

सिंचाई विधि के चयन को प्रभावित करने वाले कारक


उचित रीति से चयनित एवं अभिकल्पित सिंचाई विधि सींचे जाने वाले क्षेत्र के सारे हिस्सों में आकांक्षित दर से जल की आवश्यक मात्रा देती है और मृदा को भी किसी प्रकार की हानि नहीं करती तथा जल का भी अधिक ह्रास नहीं होता है। अतः किसी विशेष क्षेत्र के लिए उपयुक्त सिंचाई विधि का चयन एवं उसकी अभिकल्पना (उपरोक्त वांछित उद्देश्यों की पूर्ति हेतु) के विशेष विवरण निम्नांकित कारकों पर निर्भर होता है।

मृदा


मृदा गठन, सतह पर पपड़ी का जमना, मृदा में दरारें पड़ना, अंतःस्यंदन विशिष्टताएं, अवमृदा में अपेक्षाकृत अपारगम्य परतें। परतों की प्रकृति एवं गहराई, यदि कोई हो, संभावित जड़ क्षेत्र की जल संचयन क्षमता, भूमि ढाल की तीव्रता एवं प्रकृति, खेत की लम्बाई और आकार, सतही, एवं अवमृदा में लवणों की प्रकृति एवं मात्रा।

स्थलाकृति


क्षेत्र के संभरण स्रोत तथा उनकी ऊंचाई, दृश्यभूमि के लक्षण (बाड़, भवन, सड़कें आदि), खेत की सीमाएं जल निकास का ढंग एवं निर्गम, सतह की स्थलाकृतिक दशाएं।

जल


जल आपूर्ति की प्रकृति (सतत और बारी से), स्रोत (पम्प या नहरी); दिए जाने वाले जल की धारा का आकार सिंचाई जल की गुणवत्ता, वर्षा की प्रकृति और मात्रा, जल आपूर्ति की आधिक्यता अथवा कमी।

जलवायु


वर्षा, वाष्पन, आर्द्रता, वायु का वेग, सौर विकिरण आदि।

फसलें


फसलों की प्रकृति, विभिन्न फसलों के अंतर्गत क्षेत्र, पौधों की जड़ीय विशिष्टताएं, अधिकतम गहराई और सिंचाई का समय, मृदा जल की आधिक्यता के प्रति फसलों की सहिष्णुता, आवश्यक कर्षण क्रियाएं।

सामान्य


दृष्टिकोण, प्रबंधन कौशल, किसान के आर्थिक संसाधन, उपयोग में लिए जाने वाले खेती के उपकरणों की प्रकृति, उपलब्धता एवं श्रम की लागत, अनुरक्षण, सुविधाएं और सिंचाई उपकरणों की लागत, ऊर्जा आपूर्ति की उपलब्धता।

जहां तक संभव हो, सिंचाई विधि को केवल उच्चस्तर की जल अनुप्रयोग दक्षता ही प्रदान नहीं करनी चाहिए बल्कि आर्थिक सुदृढ़ता, स्थिर मृदा उत्पादकता और वर्तमान में खेत की दशाओं में व्यापक रूप से अपनाई जाने की योग्यता भी सुनिश्चित करे।

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