संरक्षण और बहाली की बाट जोहते वेटलैंड

विश्व आर्द्रभूमि दिवस, 2 फरवरी 2016 पर विशेष



. वेटलैंड, अंग्रेजी भाषा का शब्द है। उसका शाब्दिक अर्थ है आर्द्रभूमि। प्रकृति ने दुनिया की लगभग 12750 लाख हेक्टेयर से अधिक ज़मीन को वेटलैंड नवाजे हैं।

मूल स्वरूप में वे जैवविविधता से परिपूर्ण होते हैं। उनसे होने वाली सालाना आमदनी लगभग 15 ट्रिलियन अमेरिकन डालर है। विशेषज्ञों ने उन्हें चार श्रेणियों यथा ऊँचाई पर स्थित झीलों, प्राकृतिक तथा मानव निर्मित दलदली जमीन, तालाबों और मैंग्रोव में वर्गीकृत किया है।

गौरतलब है कि पूरी दुनिया की आर्द्रभूमियों की लगातार बिगड़ती हालत को ध्यान में रख अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर आयोजित रामसर सम्मेलन में उनकी सेहत बहाली पर फैसला लिया गया। सबसे पहले उनकी सर्वमान्य परिभाषा तय की गई है।

इस परिभाषा के अनुसार वेटलैंड में दलदली और पानी (साफ, कसैला, खारा इत्यादि) में डूबी सभी प्रकार की भूमियाँ सम्मिलित हैं। इसलिये अब, अविरल नदी, झील, समुद्र तट के पास स्थित कम गहरी साफ पानी की झील, समुद्र तटीय वनस्पतियाँ (मैंग्रोव), कोयला निर्माणी झीलें जैसे प्राकृतिक और तालाब, जलमग्न भूमि, सिंचित खेत, सीवर फार्म जैसी मानव निर्मित संरचनाओं को वेटलैंड कहा जाता है।

जैवविविधता डायरेक्टरी ऑफ एशियन वेटलैंड के अनुसार भारत में वेटलैंड का कुल रकबा, लगभग 582 लाख हेक्टेयर है। यह रकबा, देश के कुल रकबे का लगभग 3 प्रतिशत है।

भारत में 19 प्रकार की दलदली या आर्द्रभूमि/नम भूमि पाई जाती है। इसमें तटीय इलाकों में पाये जाने वाले मैंग्रोव, उच्च भूमि पर स्थित झीलें, दलदली जमीन, जलमार्ग (नदी) और तालाब सम्मिलित हैं।

महत्त्वपूर्ण झीलों में हिमाचल प्रदेश का चन्द्रा ताल और पोंग डेम झील, ओडिसा की चिल्का, आन्ध्र प्रदेश की कोलेरु, मणिपुर की लोकटक, त्रिपुरा की रुद्रसागर, जम्मू-कश्मीर की वूलर और सुरिनसर-मंसर, तमिलनाडु की पुलीकट, महाराष्ट्र की लूनर और राजस्थान की सांभर झील उल्लेखनीय हैं।

झीलों का निर्माण सामान्यतः निचली भूमि या नदी पथ में रुकावट पैदा होने के कारण भी होता है । कभी-कभी, झीलों का निर्माण, समुद्र तट के निकट समुद्रीय लहरों की गतिविधियों के कारण भी हुआ है। उल्कापात के कारण भी धरती पर झीलों का निर्माण सम्भव है। पूरी दुनिया में इसके उदाहरण मौजूद हैं।

आर्द्र/नम भूमि (वेटलैंड) के अन्तर्गत हिमाचल प्रदेश का रेणुका, केरल का अष्टमुड़ी और त्रिसूर कोले और वेहमबेंड-कोल वेटलैंड, मध्य प्रदेश का भोज वेटलैंड, पश्चिम बंगाल का पूर्वी कलकत्ता वेटलैंड, पंजाब का हरिका और कंजी वेटलैंड, जम्मू-कश्मीर का होकेसर वेटलैंड मुख्य वेटलैंड हैं। इसी क्रम में ओडिशा का भितरकनिका मैंग्रोव उल्लेखनीय है।

वेटलैंड तथा प्राकृतिक झीलों में मुख्य रूप से बरसाती पानी अर्थात बाढ़ का पानी आकर जमा होता है। पानी के जमा होने के कारण, निचले इलाकों पर बाढ़ की विभीषिका कम होती है। इसके अलावा वे, मुख्य रूप से स्थानीय जलवायु को सन्तुलित करते हैं। यह उनका प्राकृतिक दायित्त्व है।

गौरतलब है कि झीलों के कैचमेंट में भूमि उपयोग बदलने के कारण उनकी जलप्रदाय क्षमता घट गई है। वे अधिक मात्रा में गाद पैदा कर रहे हैं। गाद की निकासी घटने के कारण वे उथली हो रही हैं। उनमें कम पानी जमा हो रहा है।

उनके नष्ट होने का खतरा बढ़ रहा है। वर्तमान में सभी वेटलैंड तथा झीलें अतिक्रमण, प्रदूषण तथा गाद भराव की समस्या से जूझ रही हैं। उनकी प्राकृतिक दायित्त्व बहाली भूमिका हाशिए पर है।

वर्तमान में वेटलैंडों पर प्रदूषण, तथा खेती, औद्योगीकीकरण, नगरीय विकास और बढ़ती आबादी की आवश्यकताओं को पूरा करने का दबाव है।

क़ानूनों की अनदेखी और विकास गतिविधियों तथा आबादी के बढ़ते दबाव के कारण वेटलैंड की ज़मीन पर कब्ज़ा हो रहा है। उनके कैचमेंट की राजस्व भूमि का भूमि उपयोग बदला जा रहा है।

कैचमेंट से आ रही गाद, उनकी गहराई घटा रही है। उनमें नगरीय कचरा, गन्दा पानी और घातक रसायन उड़ेले जा रहे हैं। उनके प्राकृतिक संसाधनों का अतिदोहन हो रहा है।

इन सबके मिले-जुले असर से उनका रकबा कम हो रहा है। उनके पानी की गुणवत्ता खराब हो रही है। प्रदूषण बढ़ रहा है। पानी की गुणवत्ता खराब होने के कारण उन पर निर्भर समाज, प्रवासी पक्षियों और जीव-जन्तुओं के जीवन पर खतरा बढ़ रहा है।

कुछ झीलें जिनके कैचमेंट में जंगल कट गए हैं और भूजल आधारित खेती होने लगी है, उनमें बदलाव देखा जा रहा है। वे पूर्व की तुलना में कम भर रही हैं।

इस कमी का कारण कैचमेंट से पानी की आवक घटना है। यह कमी कैचमेंट में स्थित खेतों में बढ़ते भूजल रीचार्ज के कारण है। इस वृद्धि की पुष्टि प्राकृतिक भूजल रीचार्ज की मात्रा के तुलनात्मक आँकड़ों से होती है।

कैचमेंट में जंगल घटने, जमीन नंगी होने और खेती का रकबा बढ़ने के कारण, भूमि कटाव बढ़ रहा है। भूमि कटाव गाद पैदा कर रहा है। इन सब के कारण झीलों में गाद जमाव बढ़ रहा है।

रासायनिक खेती के कारण प्रदूषण की समस्या गम्भीर हो रही है। इन सब के सम्मिलित असर से उनकी प्राकृतिक भूमिका अप्रभावी हो रही है।

भारत में 19 प्रकार की दलदली या आर्द्रभूमि/नम भूमि पाई जाती है। इसमें तटीय इलाकों में पाये जाने वाले मैंग्रोव, उच्च भूमि पर स्थित झीलें, दलदली जमीन, जलमार्ग (नदी) और तालाब सम्मिलित हैं। महत्त्वपूर्ण झीलों में हिमाचल प्रदेश का चन्द्रा ताल और पोंग डेम झील, ओडिसा की चिल्का, आन्ध्र प्रदेश की कोलेरु, मणिपुर की लोकटक, त्रिपुरा की रुद्रसागर, जम्मू-कश्मीर की वूलर और सुरिनसर-मंसर, तमिलनाडु की पुलीकट, महाराष्ट्र की लूनर और राजस्थान की सांभर झील उल्लेखनीय हैं। शहरीकरण तथा गाद जमाव के कारण कश्मीर की डल झील का क्षेत्रफल छह गुना घट गया है। उसकी गहराई में लगभग 12 मीटर की कमी आई है। उसकी क्षमता के कम होने के कारण सितम्बर 2014 में आई बाढ़ ने कश्मीर घाटी में जलप्रलय ला दिया था।

यही स्थिति पूरे देश की झीलों की है। उनके पुनर्वास तथा प्राकृतिक दायित्त्व बहाली का मुद्दा हाशिए पर है। उनके पुनरोद्धार का अर्थ है उनकी प्राकृतिक तथा सामाजिक दायित्त्व निर्वाह की क्षमता की बहाली।

जलवायु बदलाव के खतरे के परिप्रेक्ष्य में प्राकृतिक व्यवस्था को और अधिक कारगर बनाने की आवश्यकता है। क्षतिपूर्ति वनों की तर्ज पर बरसात में उफनने वाली झीलों की क्षमता की क्षतिपूर्ति के लिये, उसी उप-घाटी में परस्पर सम्बद्ध अतिरिक्त झीलों का निर्माण करना चाहिए।

गाद हटाने के लिये प्राकृतिक तरीकों को मुख्य धारा में लाना होगा और बाढ़ों के प्राकृतिक प्रबन्ध के लिये वेटलैंड तथा प्राकृतिक झीलों की मूल भूमिका को बहाल करना होगा।

गंगा, बृह्मपुत्र, महानदी, गोदावरी, कावेरी, कृष्णा नदियों के डेल्टा क्षेत्र और समुद्र तटीय इलाकों में प्राकृतिक रूप से वनस्पतियाँ उत्पन्न होती हैं। पूरी दुनिया में इन वनस्पतियों की लगभग 110 प्रजातियाँ पाई जाती हैं। इन्हें सम्मिलित रूप से मैंग्रोव कहा जाता है।

ये वनस्पतियाँ समुद्र तट के पास, चौड़ी पट्टी के रूप में ज्वार-भाटे से प्रभावित क्षेत्र के खारे पर्यावरण में तापमान, खारापन और नमी के घटते-बढ़ते माहौल में अच्छी तरह फलती फूलती हैं। दूर से वे जंगल की तरह दिखाई देती हैं। वे तटीय प्रदेशों को ज्वार, समुद्री तूफान (हरीकेन) तथा सुनामी की ऊर्जा को कमजोर कर, होने वाली सम्भावित हानि से बचाती हैं।

वे, समुद्र तट की मिट्टी के कटाव को भी रोकती हैं। वैज्ञानिकों का मानना है कि जलवायु परिवर्तन के कुप्रभावों की रोकथाम में भी उनकी भूमिका प्रभावी रहेगी। मैंग्रोव पट्टी, समुद्री लहरों द्वारा किये जा रहे नुकसानों का नियमन करने वाली प्राकृतिक व्यवस्था है।

पिछले कुछ सालों से भारत के मैंग्रोव जंगल काटे जा रहे हैं। मैंग्रोव जंगलों के घटने/समाप्त होने के कारण समुद्र तटीय इलाकों का सुरक्षा कवच समाप्त हो रहा है। उनके कट जाने के कारण समुद्र की लहरें, तूफान तथा सुनामी बिना रुकावट के, अबाध गति से तटीय इलाकों में प्रवेश कर अन्दरुनी इलाकों में तबाही मचाती है।

उनके समाप्त होने के कारण आन्ध्र प्रदेश और ओड़िशा के तटीय इलाकों में तूफानों इत्यादि से होने वाली हानि कई गुना बढ़ गई है। लोगों का मानना है कि उनका समुचित पुनर्वास, जो उनकी प्राकृतिक भूमिका को बहाल कर सके, किया जाना चाहिए।

वेटलैंड और प्राकृतिक झीलें बाढ़ के पानी का नियोजन तथा मैंग्रोव समुद्री तूफान के असर को कम करने वाली प्राकृतिक व्यवस्थाएँ हैं। उनकी निर्माण लागत तथा रख-रखाव खर्च लगभग शून्य है।

जलवायु परिवर्तन की पृष्ठभूमि में उनको संरक्षित करना और अतिक्रमण तथा प्रदूषण से बचाना आवश्यक है। उनके पुनर्वास और योगदान को सहयोग देती संरचनाओं के निर्माण के लिये लगातार प्रयास करने की आवश्यकता है।

इन प्रयासों से जन-धन की हानि को कम किया जा सकता है। यही उनका सामाजिक सरोकार है। यही उनकी भूमिका और सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण उपयोग है।

पर्यावरणविदों का कहना है कि देश के सभी वेटलैंडों की रक्षा तथा संरक्षण आवश्यक है क्योंकि वे समाज के साथ-साथ जीव-जन्तुओं की बहुत बड़ी आबादी की पानी की आवश्यकता तथा विविध उत्पादनों के विश्वसनीय स्रोत हैं। उनकी प्राकृतिक भूमिका का, धरती पर, निरापद जीवन की निरन्तरता में बेहद महत्त्वपूर्ण योगदान है।


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