सफलता की नई कहानियाँ गढ़ती कृषक महिलाएँ


कृषक महिलाओं के सशक्तिकरण को वर्तमान सरकार ने गम्भीरता से लिया है और माना है कि कृषि विकास की हर योजना में महिलाओं की भागीदारी अनिवार्य रूप से होनी चाहिए। इसके लिये योजनाओं में आवश्यक प्रावधान भी किये गए हैं। भारत सरकार के महत्त्वाकांक्षी राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन में आवंटित बजट की 30 प्रतिशत राशि कृषक महिलाओं के लिये निर्धारित की गई है। इसका लाभ कृषक महिलाओं को उन्नत कृषि प्रणालियों का प्रशिक्षण देने में भी मिल रहा है।

मानव सभ्यता के विकास के दौरान जब पुरुष शिकार करने बाहर जाते थे तो महिलाओं ने बस्ती के आस-पास फसलों के बीज बोकर कृषि की कला और विज्ञान का विकास किया। वह दिन है और आज का दिन, महिलाएँ लगातार अपने हुनर के साथ कृषि और सम्बन्धित उद्यमों की धुरी बनी हुईं हैं। पशुपालन, मछली पालन और मुर्गी पालन जैसे सहायक उद्यमों के साथ महिलाओं ने बागवानी, सब्जी उत्पादन, उपज की बिक्री और प्रसंस्करण जैसे कामों को भी बखूबी सम्भाला हुआ है।

गाँवों में महिलाएँ किसान भी हैं और खेतिहर मजदूर भी और साथ में घर-परिवार सम्भालने वाली कुशल गृहिणी भी। लेकिन सामाजिक-आर्थिक रूप से और सरकारी आँकड़ों में भी महिलाओं की बहुमुखी भूमिका को यथोचित मान-सम्मान तथा मान्यता नहीं मिल पाई है। इसलिये इन्हें कई बार ‘अदृश्य कार्यबल’ की संज्ञा भी दी जाती है।

अपने ही खेत-खलिहानों में काम करने वाली महिलाओं की कहीं गिनती नहीं की जाती। फिर भी सन 2011 की जनगणना के अनुसार जो आँकड़े उपलब्ध हैं, वो बताते हैं कि भारत में कुल महिला कामगारों में से लगभग 65 प्रतिशत कृषि के क्षेत्र में कार्य करती हैं। देश के कुल किसानों (118.7 करोड़) में 30.3 प्रतिशत महिलाएँ हैं। महिला कृषि श्रमिकों की भागीदारी 55.21 प्रतिशत आँकी गई है, जबकि देश की व्यापक कृषि अनुसन्धान प्रणाली में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 17.40 प्रतिशत दर्ज किया गया है।

सन 2011 में हुए एक व्यापक अध्ययन में कृषि के विभिन्न उपक्षेत्रों में महिलाओं की भागीदारी कुछ इस तरह देखी गई - खेत की निराई-गुड़ाई में 48 प्रतिशत, फसलों की कटाई में 45.33 प्रतिशत, कृषि उपज के भण्डारण में 42.67 प्रतिशत, कृषि उपज की बिक्री में 42.00 प्रतिशत, पशुपालन और डेरी में 38.67 प्रतिशत और वित्तीय प्रबन्ध में 36 प्रतिशत। एक अनुसन्धान रिपोर्ट (2014) यह भी बताती है कि डेयरी के क्षेत्र में 7.5 करोड़ महिलाएँ योगदान कर रहीं हैं, जबकि पुरुषों की संख्या 1.5 करोड़ है, इसी तरह पशुपालन में 15 करोड़ पुरुषों के मुकाबले 2 करोड़ महिलाएँ संलग्न हैं।

ऐसा नहीं कि महिलाएँ केवल मजदूरी करती हैं, उन्हें कृषि और पशुपालन की बारीकियों का ज्ञान भी होता है और वे इसका बखूबी इस्तेमाल भी करती हैं। साथ ही पीढ़ी-दर-पीढ़ी इस ज्ञान को आगे बढ़ाने का काम भी करती हैं। यह भी देखा गया है कि महिलाओं को मछली पालन और मछलियों के जाल के बारे में भी बारीक जानकारी होती है। खेतिहर मजदूर के तौर पर महिलाओं को अक्सर अधिक मेहनत वाले काम सौंपे जाते हैं, जैसे खरपतवार निकालना, घास काटना, कपास चुनना और बिनौले से रुई निकालना आदि।

गाँव की महिलाओं को कई बार इसके साथ ईंधन के लिये लकड़ी इकट्ठा करने और पीने के लिये पानी लाने का काम भी करना पड़ता है। पशुपालन में पशुओं को दूध दुहने और दूध से घी वगैरह बनाने का काम आमतौर पर महिलाएँ ही करती हैं। यह भी अनुभव किया गया है कि जिन परिवारों में महिलाएँ पशुपालन का काम करती हैं, वहाँ अधिक उत्पादन और आमदनी हासिल होती है।

अन्तरराष्ट्रीय परिदृश्य पर अनुसन्धान व अध्ययन के बाद संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) के महिला एवं जनसंख्या विभाग ने बताया कि भारत जैसे विकासशील देशों में महिलाएँ लगभग 70 प्रतिशत कृषि श्रम प्रदान करती हैं, जबकि घरेलू खाद्य उत्पादन में 60 से 80 प्रतिशत, खाद्य भण्डारण में 80 प्रतिशत और खाद्य वस्तुओं के प्रसंस्करण में महिला श्रम की हिस्सेदारी पूरे 100 प्रतिशत है।

अधिकांश विकासशील देशों में महिलाएँ 60 से 80 प्रतिशत खाद्य उत्पादन की जिम्मेदारी निभा रही हैं और सम्पूर्ण विश्व का लगभग आधा खाद्य उत्पादन इन्हीं के मजबूत हाथों से हो रहा है। इस तरह महिलाएँ दुनिया के लगभग हर क्षेत्र में करोड़ों लोगों की खाद्य सुरक्षा को सतत आधार दे रही हैं। यह मजबूत दशा तब है, जबकि महिलाएँ आमतौर पर भूमि के अधिकार और निर्णय लेने के अधिकार से वंचित हैं और अनेक सामाजिक-आर्थिक विषमताओं को भी झेल रही हैं।

बढ़ते कदम


ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं की सामाजिक-आर्थिक दशा सुधारने और उन्हें तकनीकी रूप से अधिक सक्षम तथा कुशल बनाने के लिये भारत सरकार के दो मंत्रालय विशिष्ट रूप से कार्य कर रहे हैं- कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय और ग्रामीण विकास मंत्रालय। ग्रामीण विकास मंत्रालय में ग्रामीण महिलाओं की आर्थिक दशा सुधारने के लिये अनेक कार्यक्रम और योजनाएँ चलाई जा रही हैं, परन्तु कृषक महिलाओं के लिये ‘महिला किसान सशक्तिकरण परियोजना’ नाम से एक विशिष्ट योजना जारी है, जिसका उद्देश्य किसान महिलाओं के तकनीकी सशक्तिकरण द्वारा उन्हें आर्थिक रूप से मजबूत बनाना है।

पहले इस योजना को राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन के अन्तर्गत लागू किया जा रहा था, परन्तु अब यह दीनदयाल अन्त्योदय योजना का हिस्सा है। इसका उद्देश्य किसान महिलाओं को सतत आजीविका उपलब्ध कराना और उन्हें सामाजिक विकास का एक सक्रिय भागीदार बनाना है। इसमें विशेष रूप से आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग की महिलाओं को लक्ष्य बनाया गया है ताकि उनका और उनके परिवार का आर्थिक उद्धार हो सके।

योजना के अन्तर्गत उन्हें कृषि सम्बन्धी तकनीकों का प्रशिक्षण देकर तकनीकी रूप से सक्षम बनाया जा रहा है और सरकार की वित्तीय तथा बैंकिंग प्रणाली से भी जोड़ा जा रहा है। इसके सकारात्मक नतीजे पूरे देश में देखने को मिल रहे हैं। कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय अपेक्षाकृत अधिक व्यापक और समग्र रूप से कृषक महिलाओं के कल्याण, विकास, सामाजिक-आर्थिक उद्धार और तकनीकी शक्तिकरण के लिये तत्परता से कार्य कर रहा है।

इस सम्बन्ध में देश भर में जागरुकता जगाने और कृषक महिलाओं के योगदान को यथोचित मान-सम्मान देने के लिये मंत्रालय ने ‘4 दिसम्बर’ के दिन को ‘कृषि में महिला दिवस’ के रूप में मनाने की पहल की है। साथ ही संयुक्त राष्ट्र द्वारा घोषित ‘अन्तरराष्ट्रीय ग्रामीण महिला दिवस’ (15 अक्टूबर) को भी भारत में ‘कृषक महिला दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। इन विशेष दिवसों पर भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद के अन्तर्गत कार्य कर रहे अनुसन्धान संस्थान और कृषि विज्ञान केन्द्र कृषक महिलाओं की भागीदारी के साथ कार्यक्रम आयोजित करते हैं और इनके सशक्तिकरण को बढ़ावा देते हैं।

इस सन्दर्भ में सबसे उल्लेखनीय योगदान और पहल है भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद द्वारा भुवनेश्वर में स्थापित ‘केन्द्रीय कृषक महिला संस्थान’, जिसे पहले राष्ट्रीय केन्द्र के रूप में गठित किया गया था, लेकिन हाल में इस विषय के महत्त्व को देखते हुए इसे संस्थान का दर्जा दिया गया है। मुख्य रूप से अनुसन्धान और कृषि प्रसार पर आधारित इस संस्थान ने केवल ओड़िशा में ही नहीं, बल्कि देश भर में कृषक महिलाओं के सशक्तिकरण के लिये बेहद खास काम किया है और सफलता की अनेक कहानियाँ लिखी हैं।

सामाजिक-आर्थिक विकास में सूचना प्रौद्योगिकी की बढ़ती उपयोगिता को देखते हुए इस संस्थान ने ‘जेंडर नॉलेज सिस्टम पोर्टल’ का विकास किया है, जो कृषक महिलाओं से सम्बन्धित उपयोगी सूचनाओं की एकल खिड़की की तरह काम करता है। यहाँ महिलाओं के लिये उपयुक्त प्रौद्योगिकियों, सूचनाओं, प्रकाशनों और योजनाओं की जानकारी दी गई है, जो कृषक महिलाओं के साथ नीति-निर्माताओं, वैज्ञानिकों और प्रसार कार्यकर्ताओं के लिये भी उपयोगी हैं।

संस्थान द्वारा कृषक महिलाओं को तकनीकी रूप से अधिक सक्षम और कुशल बनाने के लिये नियमित रूप से प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं, जिनमें बीज-उपचार, समेकित कीट प्रबन्ध, बीज उत्पादन, मुर्गी पालन जैसे विषयों पर व्यावहारिक ज्ञान दिया जाता है। महिला मछुआरों के लिये सूखी मछलियों के उत्पादन और स्वच्छ सार-सम्भाल पर चार क्षेत्रीय भाषाओं में मैनुअल तैयार किया गया है, क्योंकि तटीय क्षेत्रों में यह काम ज्यादातर महिलाओं द्वारा किया जाता है।

कृषक महिलाओं की पोषण और आजीविका सुरक्षा को बेहतर बनाने के लिये महिलाओं को केन्द्र में रखकर समेकित कृषि के मॉडल तैयार किये गए हैं, जिन्हें खेतों में आमदनी बढ़ाने वाला और उपयोगी पाया गया है। इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय है कि इस संस्थान ने कृषक महिलाओं के 20 स्वयं सहायता समूह गठित किये हैं, जिनकी सदस्य मुर्गी-पालन आधारित कृषि प्रणाली को अपनाकर अपनी पारिवारिक आमदनी बढ़ाने में कामयाब हुईं हैं।

कृषक महिला स्वयं सहायता समूहों द्वारा मोटे अनाजों से उत्पाद तैयार करने के लिये प्रसंस्करण इकाइयाँ लगाई गई हैं। इस सम्बन्ध में यह जानना भी आवश्यक है कि भारत सरकार के अनेक मंत्रालयों द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं के लिये विशिष्ट स्वयं सहायता समूह गठित किये जाते हैं, जिनमें कौशल विकास, दस्तकारी, हथकरघा उद्योग जैसे अनेक आमदनी बढ़ाने वाले व्यवसायों के लिये सहायता दी जाती है। इन समूहों में कृषक महिलाएँ भी बड़ी संख्या में शामिल होकर आर्थिक प्रगति की राह पर आगे बढ़ रही हैं।

खेत-खलिहानों में महिलाओं की मशक्कत कम करने के लिये अनेक कृषि उपकरणों का विकास किया गया है, जिनसे उनकी कार्य कुशलता भी बढ़ी है। बीजों की बुआई के लिये आसान ‘सीड ड्रिल’, उर्वरक देने के लिये अधिक कुशल ‘फर्टिलाइजर ब्रॉडकास्टर’, आराम से बैठकर मूँगफली छीलने वाला यंत्र, भुट्टे से तेजी से दाने निकालने वाला यंत्र, धान की सीधी बुवाई का यंत्र, खरपतवार निकालने वाला यंत्र और सुधरा हंसिया विशेष रूप से महिलाओं के लिये ही तैयार किये गए हैं।

इस सन्दर्भ में सम्भवतः सबसे उल्लेखनीय योगदान है ‘हेड लोड मैनेजर’ नामक एक विशेष उपकरण का जो महिलाओं को अधिक कुशलता और कम मेहनत से बोझा ढोने की सुविधा देता है। दरअसल कृषक महिलाओं को खेती के काम के दौरान चारा, ईंधन, खाद, बीज, फसल, सब्जियाँ जैसे अनेक सामानों या बोझ को इधर-उधर ले जाना पड़ता है। महिलाएँ इसे सिर पर रखकर ढोती हैं, जिससे उन्हें अक्सर सेहत सम्बन्धी कई मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। इसलिये वैज्ञानिकों ने एक विशेष युक्ति का विकास किया, जिसे कंधों के सहारे सिर पर पहना जाता है। इससे सारा बोझ केवल सिर पर नहीं पड़ता, बल्कि कंधों पर भी बँट जाता है। उपयोग में आसानी और हल्का होने के कारण इसकी लोकप्रियता तेजी से बढ़ रही है।

इसी तरह यह भी देखा गया कि धान की बुआई, फसलों की गहाई, फलों और सब्जियों की तुड़ाई या चुनाई के दौरान महिलाओं को संक्रमण, चोट, खुजली आदि का खतरा होता है, क्योंकि वे सुरक्षात्मक कपड़े नहीं पहनतीं। इस जरूरत को देखते हुए वैज्ञानिकों ने महिलाओं के लिये विशेष कपड़े तैयार किये हैं, जो उनकी सुरक्षा करते हैं। इससे खेतिहर श्रमिक महिलाओं को विशेष रूप से राहत मिली है। डेयरी में काम करने वाली महिलाओं के लिये आरामदेह और सुविधाजनक टूल तैयार किये गए हैं, जिनके इस्तेमाल से महिलाओं को दूध दुहने में सहूलियत मिली है।

आलू की खुदाई के लिये तैयार किये उपकरण ने महिलाओं की मशक्कत कम करने के साथ उनकी कार्यकुशलता और क्षमता को भी बढ़ा दिया है। डेयरी में काम करने वाली महिलाओं को पशुओं के स्वास्थ्य की देखभाल और कृत्रिम गर्भाधान की तकनीक का प्रशिक्षण देने से डेयरी की उत्पादकता में सार्थक बढ़ोत्तरी देखी गई।

महिलाओं ने पशुओं के चारे और पोषण का अच्छी तरह से प्रबन्ध किया और दूर-दराज के गाँवों में भी पशुओं के स्वास्थ्य की अच्छी देखभाल भी की। इसी क्रम में बकरी पालन और मुर्गी पालन के क्षेत्र में भी महिलाओं ने खासी कामयाबी हासिल की है। महिला उपयोगी उपकरणों/यंत्रों/तकनीकों को लोकप्रिय बनाने के लिये देश भर में फैले कृषि विज्ञान केन्द्रों के माध्यम से कृषक महिलाओं को प्रशिक्षित तथा जागरूक बनाया जा रहा है। महिला प्रसार कार्यकर्ता इसमें अहम भूमिका निभा रही हैं।

हर कदम, कृषक महिलाओं के संग


कृषक महिलाओं के सशक्तिकरण को वर्तमान सरकार ने गम्भीरता से लिया है और माना है कि कृषि विकास की हर योजना में महिलाओं की भागीदारी अनिवार्य रूप से होनी चाहिए। इसके लिये योजनाओं में आवश्यक प्रावधान भी किये गए हैं। भारत सरकार के महत्त्वाकांक्षी राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन में आवंटित बजट की 30 प्रतिशत राशि कृषक महिलाओं के लिये निर्धारित की गई है। इसका लाभ कृषक महिलाओं को उन्नत कृषि प्रणालियों का प्रशिक्षण देने में भी मिल रहा है।

देश के 28 राज्यों में इस मिशन को राज्य सरकारों के सहयोग से भारत सरकार के दिशा-निर्देशों के अनुसार लागू किया जा रहा है। इस क्रम में राष्ट्रीय तिलहन और तेल ताड़ मिशन में भी आवंटित बजट की 30 प्रतिशत राशि को महिला लाभार्थियों तथा कृषक महिलाओं के लिये निर्धारित किया गया है। राष्ट्रीय बागवानी मिशन के अन्तर्गत महिलाओं को स्वयं-सहायता समूहों के रूप में संगठित करके उन्हें कृषि के लिये आवश्यक सामान, तकनीकी और प्रसार सहायता उपलब्ध कराई जा रही है। इससे महिलाएँ तेजी से आत्मनिर्भरता की ओर कदम बढ़ा रही हैं।

कृषि यंत्रीकरण के उप मिशन के अन्तर्गत भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद द्वारा कृषक महिलाओं के लिये विकसित मशक्कत कम करने वाली मशीनों के प्रसार का कार्य तेजी से किया जा रहा है। इसके अन्तर्गत कृषक महिलाओं को प्रशिक्षण, प्रदर्शन और वित्तीय सहायता प्रदान की जाती है। इसके अलावा कृषक महिलाओं को विभिन्न कृषि मशीनें और उपकरण खरीदने के लिये 10 प्रतिशत की अतिरिक्त वित्तीय सहायता भी दी जाती है। फार्म मशीनरी प्रशिक्षण एवं परीक्षण संस्थानों द्वारा कृषक महिलाओं के तकनीकी सशक्तिकरण के लिये विशेष कार्यक्रम नियमित रूप से आयोजित किये जाते हैं।

बीज और रोपण सामग्री उप-मिशन के अन्तर्गत कृषक महिलाओं को बीज-गाँव कार्यक्रम और गुणवत्ता नियंत्रण कार्यक्रम में भागीदारी का समान रूप से अवसर दिया जा रहा है। राज्य सरकारों को निर्देश दिया गया है कि वे इसमें कृषक महिलाओं की हिस्सेदारी को सुनिश्चित करें और इसके लिये पर्याप्त धन भी उपलब्ध कराएँ। इसी तरह राज्य सरकारों को कृषि प्रसार कार्यक्रमों में कृषक महिलाओं और कृषि प्रसार महिला कर्मियों को शामिल करने के लिये आवश्यक निर्देश दिये गए हैं। इसके तहत कम-से-कम 30 प्रतिशत साधनों को महिलाओं के सशक्तिकरण पर खर्च करने का निर्देश दिया गया है।

कृषि सम्बन्धी योजना बनाने और निर्णय लेने की प्रक्रिया में कृषक महिलाओं की भागीदारी ब्लॉक, जिला और राज्य-स्तर पर सुनिश्चित की गई है। अब कृषक महिलाओं को कृषक सलाहकार समिति में अनिवार्य रूप से प्रतिनिधित्व दिया जा रहा है। विशिष्ट रूप से कृषक महिलाओं के लिये विकसित तकनीकों को खेत में ले जाने से पहले कृषक महिलाओं द्वारा जाँचने-परखने का प्रावधान भी किया गया है।

देश भर में सशक्तिकरण की लहर


भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद के अन्तर्गत एक देशव्यापी अखिल भारतीय समन्वित अनुसन्धान परियोजना सीधे कृषक महिलाओं, खेतिहर महिला श्रमिकों और ग्रामीण महिलाओं को लक्ष्य करके चलाई जा रही है। इसे ‘एआईसीआरपी-गृह विज्ञान’ का नाम दिया गया है। देश के कृषि विश्वविद्यालयों के माध्यम से संचालित की जा रही इस परियोजना में कृषि सम्बन्धी विज्ञान के साथ खाद्य और पोषण सुरक्षा तथा आजीविका सुरक्षा जैसे मुद्दों को भी शामिल किया गया है, ताकि ग्रामीण परिवारों के समग्र आर्थिक विकास को मजबूत किया जा सके।

एक विशेष और अभिनव सोच के अन्तर्गत गाँव की किशोरियों का कौशल द्वारा सशक्तिकरण करने की पहल की गई, ताकि वे अपने पैरों पर खड़ी होकर सामाजिक रूप से मजबूत बन सकें। इनमें उन किशोरियों को विशेष रूप से शामिल किया गया, जो स्कूल की पढ़ाई छोड़कर घरेलू या कृषि सम्बन्धी कार्यों में हाथ बँटा रही थीं। कृषि तकनीकों में प्रशिक्षण प्राप्त करने से इनकी आजीविका सुरक्षित हुई और कृषि विकास को भी बल मिला। परियोजना के अन्तर्गत कृषक महिलाओं को घरेलू-स्तर पर ‘पोषण बाग’ लगाने की जानकारी और प्रशिक्षण दिया गया, जिससे परिवार के पोषण स्तर में सुधार देखा गया।

महिलाओं और किशोरियों में सूक्ष्म पोषण तत्वों की व्यापक कमी को देखते हुए स्थानीय खाद्य स्रोतों से पौष्टिक आहार बनाने की कला सिखाई गई। इसी तरह ग्रामीण महिलाओं में खून की कमी को देखते हुए स्थानीय हरी सब्जियों से पौष्टिक व्यंजन बनाने की विधियाँ विकसित करके महिलाओं की रसोई तक पहुँचाई गईं। परियोजना के अन्तर्गत चुने हुए गाँवों में - ‘खेत संसाधन केन्द्र’ खोलने की पहल की गई, जहाँ कृषक महिलाओं को उपयोगी साधन मुहैया कराकर उनका तकनीकी और सामाजिक सशक्तिकरण किया गया।

अभी तक कम उपयोग में लाये गए रेशों में हस्तशिल्प बनाने का हुनर सिखाकर महिलाओं की आमदनी बढ़ाने का एक नया रास्ता खोला गया। कपास, ऊन और रेशम को नए-नवेले रंग देने के लिये स्थानीय वनस्पतियों से नए रंग तैयार करने की कला महिलाओं को सिखाई गई। इसी क्रम में महिलाओं ने वनस्पतियों से होली का गुलाल बनाने की कला भी सीखी और इसके व्यवसाय में कामयाबी भी पाई। महिलाओं को बच्चों की देखभाल, उनके पोषण और पारिवारिक आमदनी बढ़ाने के बारे में सलाह देने का काम भी सिलसिलेवार ढंग से किया गया।

एक विशेष पहल के अन्तर्गत कृषक महिलाओं को तकनीकी रूप से प्रशिक्षित करने और वित्तीय साधनों के बारे में सही मार्गदर्शन करके उन्हें अपने उद्यम या व्यवसाय स्थापित करने के लिये प्रेरित किया गया। इस तरह कृषक महिलाओं ने स्वयं आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होने के साथ अन्य महिलाओं के लिये रोजगार अवसर भी पैदा किये। परियोजना के अन्तर्गत आँगनबाड़ी केन्द्रों में काम करने वाली कृषक महिलाओं को भी बच्चों की सही देखभाल के बारे में प्रशिक्षित किया गया। इस तरह इस परियोजना ने देश भर में कृषक महिलाओं के सशक्तिकरण की एक लहर चला दी है, लेकिन फिर भी, अभी बहुत कुछ करना बाकी है।

मनरेगा ने दी कृषक महिलाओं को आर्थिक आजादी


सन 2006 में लागू ‘महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम’ (‘मनरेगा’ नाम से लोकप्रिय) प्रत्येक ग्रामीण परिवार को वर्ष में कम-से-कम 100 दिनों के रोजगार की गारंटी देता है। इसमें यह भी प्रावधान किया गया है कि प्रत्येक तीन कामगारों में से एक महिला कामगार होगी। परन्तु शुरुआती दौर में कई वर्षों तक खेतिहर महिलाओं को उनका यह अधिकार मिलने में मुश्किलें पेश आती रहीं। लेकिन नई सरकार द्वारा दिये गए विशेष प्रोत्साहन के कारण अब महिलाओं की हिस्सेदारी या तो पुरुषों के बराबर है या उससे आगे निकल गई हैं।

ग्रामीण विकास मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2016-17 में 5.04 करोड़ ग्रामीण परिवारों को 138.64 लाख कार्य परियोजनाओं में काम दिया गया, जिसमें 56 प्रतिशत महिलाएँ थीं। यह ‘मनरेगा’ में महिलाओं की हिस्सेदारी का कीर्तिमान है। इससे पूर्व वर्ष 2015-16 में महिलाओं की भागीदारी लगभग 51 प्रतिशत और वर्ष 2014-15 में लगभग 50 प्रतिशत दर्ज की गई थी। यह सुखद आँकड़ा तब है, जबकि ‘मनरेगा’ पर अक्सर महिलाओं को उनके कार्यस्थल पर बुनियादी सुविधाएँ मुहैया ना कराने का आरोप लगता रहता है।

दूसरी ओर कृषक महिलाओं को निर्णय लेने की प्रक्रिया में भागीदार ना बनाने की शिकायत भी है। परन्तु सच्चाई यह भी है कि ‘मनरेगा’ ने खेतिहर महिलाओं के आत्मविश्वास को बढ़ाया है और उन्हें आर्थिक आजादी की ओर अग्रसर किया है। ‘मनरेगा’ से नकद आमदनी प्राप्त करने वाली बहुत-सी महिलाएँ बताती हैं कि जीवन में पहली बार उनके हाथ में उनकी कमाई के पैसे आ रहे हैं, जिससे उनका मनोबल बढ़ा है। अनेक गाँवों में सम्भवतः यह पहली बार है, जब महिलाओं को साहूकारों और जमींदारों की जगह सीधे ‘सरकार’ से काम मिल रहा है और मजदूरी भी पुरुषों के बराबर मिल रही है।

महिलाओं को प्रोत्साहन देने के लिये यह व्यवस्था भी की गई है कि उन्हें घर के आस-पास ही काम दिया जाये, ज्यादा-से-ज्यादा पाँच किलोमीटर के दायरे में। साथ ही यह व्यवस्था भी है कि उन्हें अपेक्षाकृत कम मशक्कत वाला काम सौंपा जाये। ‘मनरेगा’ के अन्तर्गत सड़क बनाने और कुआँ खोदने जैसे कड़े कामों के साथ पौध लगाने, तालाब बनाने और उनकी मरम्मत जैसे कृषि सम्बन्धी कार्य भी शामिल किये गए हैं, जिनसे महिलाओं को बढ़ावा मिला है।

महिलाओं की आर्थिक आजादी ने उन्हें परिवार और समाज में मान-सम्मान दिलाया है और अब वे सरकार की वित्तीय तथा बैंकिंग प्रणाली की अहम हिस्सेदारी भी बन गईं हैं। कृषक महिलाओं के लिये ‘मनरेगा’ केवल रोजगार का अवसर नहीं है, इससे उनकी सामााजिक-आर्थिक दशा को एक सुखद और स्वाभिमानी मोड़ दिया है। झारखण्ड के खूँटी जिला के पकड़टोली गाँव की रोशनी गुकिया इस बदलाव का जीती-जागती उदाहरण हैं।

पहले वह अपने पति और बच्चों के साथ मुम्बई में रोजी-रोटी के लिये कड़ा संघर्ष कर रहीं थीं। लेकिन सन 2014 में जब ‘मनरेगा’ में काम करने की सहूलियत हो गई तो यह पूरा परिवार गाँव लौट आया। रोशनी को गाँव में तालाब बनाने, खेत को समतल करने और पानी का संचय करने के लिये खेत-बाँध बनाने जैसे काम मिल गए। यह काम भी पसन्द का था और भुगतान भी समय पर मिलता था। निश्चित आमदनी के कारण उन्होंने अपने बच्चों को स्कूल भेजना शुरू कर दिया और उनके भोजन का स्तर भी सुधरा। अब परिवार में सुख, शान्ति और खुशहाली है। शुक्रिया मनरेगा।

कृषक महिलाएँ बनी मिसाल


कृषक महिला सशक्तिकरण की योजनाओं और कार्यक्रमों ने देश भर में महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाया है और उन्हें स्वाभिमान से जीने की राह दिखाई है। अनेक महिलाएँ अपने गाँव-कस्बे में कामयाबी की मिसाल बन गई हैं। ऐसी ही एक महिला हैं ओड़िशा के खोदड़ा जिले के हरिदामादा गाँव की श्रीमती पुष्पालता पतालासिंह। क्षमता विकास कार्यक्रम के अन्तर्गत उन्हें मुर्गीपालन के लिये प्रशिक्षित किया गया। शुरुआत में उन्हें एक दिन के चूजे दिये गए, जिन्हें उन्होंने वैज्ञानिक तरीके से पाल-पोस कर एक महीने बाद अन्य महिलाओं को बेच दिया ताकि वे स्वस्थ चूजों से मुर्गीपालन व्यवसाय की शुरुआत कर सकें। इससे इन्हें अच्छी आमदनी मिली।

प्रोत्साहित होकर उन्होंने 6000 रुपए का निवेश करके 200 चूजे खरीदे और पाल-पोसकर अलग-अलग आयु में महिलाओं को बेचा। इससे इन्हें लगभग 41,000 रुपए का मुनाफा हुआ और अनुसूचित वर्ग की 25 कृषक महिलाएँ मुर्गीपालन के व्यवसाय से जुड़ गईं। इस तरह अब गाँव में महिलाओं के एक पूरे समूह ने मुर्गीपालन द्वारा आर्थिक प्रगति हासिल की है। तेलंगाना के संगारेड्डी जिले के ईडुलापल्ली रजिया बी आज अपने खेत की मालकिन हैं और कृषि तथा पशुपालन से परिवार का सम्मानजनक भरण-पोषण कर रही हैं।

कुछ वर्ष पहले तक वह मिट्टी के बर्तन बनाकर बेचती थी, जिससे होने वाली बेहद कम आमदनी ने उनके परिवार के जीवनयापन को बेहद कठिन और संघर्षमय बना दिया था। इस बीच उन्हें ग्रामीण महिलाओं के एक स्वयं सहायता समूह से जुड़ने का अवसर मिला, जहाँ उन्होंने कृषि कार्यों को सीखा। समूह और एनजीओ की मदद से रजिया बी ने तीन एकड़ जमीन खरीदकर खेती करना शुरू कर दिया। वह मुख्य रूप से ज्वार, बाजरा, तूअर की दाल और सब्जियों की वैज्ञानिक ढंग से खेती करतीं हैं और खेत का प्रबन्ध भी नई सोच, नये तौर-तरीकों से करती हैं। लम्बे संघर्ष के बाद अब उनका जीवन खुशहाल है।

तेलंगाना के बिदक्कने गाँव की बोभिनी लहम्मा के जीवन में भूचाल आ गया, जब लगभग 15 साल पहले उनके पति की अचानक मृत्यु हो गई। उनके पास दो एकड़ जमीन थी, लेकिन वो बंजर पड़ी थी, उस पर अनेक वर्षों से खेती नहीं हो रही थी। इस मोड़ पर उन्हें कृषक महिलाओं के तकनीकी सशक्तिकरण के एक कार्यक्रम का सहारा मिला। उन्होंने खेती के बारे में काफी कुछ सीखा, जाना और व्यावहारिक प्रशिक्षण भी हासिल किया।

आज वह अपने छोटे से खेत पर आँवला, आम, नींबू, चीकू जैसे अनेक फलों को वैज्ञानिक तौर-तरीकों से उगाकर अपने परिवार का पालन-पोषण सिर उठाकर कर रही हैं। उन्होंने अपनी सूझ-बूझ, लगन और मेहनत से एक बंजर खेत को हरा-भरा और उपजाऊ बना दिया है। लक्ष्मीबाई शेल्के की सफलता की कहानी बताती है कि कृषक महिलाएँ खेती की नई तकनीकों को अपनाने में भी पीछे नहीं हैं।

महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले के भिदनौरा गाँव में वह 10 एकड़ पर गन्ने की खेती पारम्परिक तौर-तरीकों से करती थीं, लेकिन उपज में लगातार गिरावट चिन्ता का गहरा सबब बन गईं थीं। थोड़ी-सी कोशिश की तो उन्हें गन्ने की नई खेती का पता चला और उन्होंने बुवाई, सिंचाई के नए तौर-तरीकों को अपना लिया। इससे गन्ने की उपज 35-40 टन प्रति हेक्टेयर से बढ़कर 60 टन प्रति हेक्टेयर पर पहुँच गई और पानी का खर्च भी घटकर आधा रह गया। जल्दी ही गाँव में लक्ष्मीबाई गन्ने की खेती करने वाली अग्रणी किसान और एक मिसाल बन गईं। आज बड़ी संख्या में कृषक महिलाएँ उन्हें अपना आदर्श मानती हैं।

लेखक परिचय


डॉ. जगदीप सक्सेना
लेखक भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद में प्रधान सम्पादक (हिन्दी प्रकाशन) रह चुके हैं।
ईमेल : jgdsaxena@gmail.com

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